बदन सराय : मुनव्वर राना

Badan Sarai : Munnawar Rana

तुम्हारे पास ही रहते न छोड़ कर जाते

तुम्हारे पास ही रहते न छोड़ कर जाते
तुम्हीं नवाज़ते तो क्यों इधर-उधर जाते

किसी के नाम से मंसूब ये इमारत थी
बदन सराय नहीं था कि सब ठहर जाते

सरक़े का कोई शेर ग़ज़ल में नहीं रक्खा

सरक़े का कोई शेर ग़ज़ल में नहीं रक्खा
हमने किसी लौंडी को महल में नहीं रक्खा

मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
मिट्टी को किसी ताजमहल में नहीं रक्खा

कभी थकन के असर का पता नहीं चलता

कभी थकन के असर का पता नहीं चलता
वो साथ हो तो सफ़र का पता नहीं चलता

वही हुआ कि मैं आँखों में उसकी डूब गया
वो कह रहा था भँवर का पता नहीं चलता

उलझ के रह गया सैलाब कुर्रए-दिल से
नहीं तो दीदा-ए-तर का पता नहीं चलता

उसे भी खिड़कियाँ खोले ज़माना बीत गया
मुझे भी शामो-सहर का पता नहीं चलता

ये मन्सबो का इलाक़ा है इसलिए शायद
किसी के नाम से घर का पता नहीं चलता

जुर्रत से हर नतीजे की परवा किये बग़ैर

जुर्रत से हर नतीजे की परवा किये बग़ैर
दरबार छोड़ आया हूँ सजदा किये बग़ैर

ये शहरे एहतिजाज है ख़ामोश मत रहो
हक़ भी नहीं मिलेगा तकाज़ा किये बग़ैर

फिर एक इम्तिहाँ से गुज़रना है इश्क़ को
रोता है वो भी आँख को मैला किये बग़ैर

पत्ते हवा का जिस्म छुपाते रहे मगर
मानी नहीं हवा भी बरहना किये बग़ैर

अब तक तो शहरे-दिल को बचाए हैं हम मगर
दीवानगी न मानेगी सहरा किये बग़ैर

उससे कहो कि झूठ ही बोले तो ठीक है
जो सच बोलता न हो नश्शा किये बग़ैर

बंद कर खेल-तमाशा हमें नींद आती है

बंद कर खेल-तमाशा हमें नींद आती है
अब तो सो जाने दे दुनिया हमें नींद आती है

डूबते चाँद-सितारों ने कहा है हमसे
तुम ज़रा जागते रहना हमें नींद आती है

दिल की ख़्वाहिश कि तेरा रास्ता देखा जाए
और आँखों का ये कहना हमें नींद आती है

अपनी यादों से हमें अब तो रिहाई दे दे
अब तो ज़ंज़ीर न पहना हमें नींद आती है

छाँव पाता है मुसाफ़िर तो ठहर जाता है
ज़ुल्फ़ को ऐसे न बिखरा हमें नींद आती है

उनसे मिलिए जो यहाँ फेर-बदल वाले हैं

उनसे मिलिए जो यहाँ फेर-बदल वाले हैं
हमसे मत बोलिए हम लोग ग़ज़ल वाले हैं

कैसे शफ़्फ़ाफ़ लिबासों में नज़र आते हैं
कौन मानेगा कि ये सब वही कल वाले हैं

लूटने वाले उसे क़त्ल न करते लेकिन
उसने पहचान लिया था कि बग़ल वाले हैं

अब तो मिल-जुल के परिंदों को रहना होगा,
जितने तालाब हैं सब नील-कमल वाले हैं

यूँ भी इक फूस के छप्पर की हक़ीक़त क्या थी
अब उन्हें ख़तरा है जो लोग महल वाले हैं

बेकफ़न लाशों के अम्बार लगे हैं लेकिन
फ़ख्र से कहते हैं हम ताजमहल वाले हैं

रोने में इक ख़तरा है, तालाब, नदी हो जाते हैं

रोने में इक ख़तरा है, तालाब, नदी हो जाते हैं
हँसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं

स्टेशन से वापस आकर बूढ़ी आँखे सोचती हैं
पत्ते देहाती होते हैं, फल शहरी हो जाते हैं

गाँव के भोले-भाले वासी, आज तलक ये कहते हैं
हम तो न लेंगे जान किसी की, राम दुखी हो जाते हैं

सब से हंस कर मिलिए-जुलिए, लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंस कर मिलने वाले रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़मा-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शायर दरबारी हो जाते हैं

ख़ून रुलावाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन

ख़ून रुलावाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन
सब चले जायेंगे ख़ाली करके बस्ती एक दिन

चूसता रहता है रस भौंरा अभी तक देख लो
फूल ने भूले से की थी सरपरस्ती एक दिन

देने वाले ने तबीयत क्या अज़ब दी है उसे
एक दिन ख़ानाबदोशी घर गिरस्ती एक दिन

कैसे-कैसे लोग दस्तारों के मालिक हो गए
बिक रही थी शहर में थोड़ी सी सस्ती एक दिन

तुमको ऐ वीरानियो शायद नहीं मालूम है
हम बनाएँगे इसी सहरा को बस्ती एक दिन

रोज़ो-शब हमको भी समझाती है मिट्टी क़ब्र की
ख़ाक में मिल जायेगी तेरी भी हस्ती एक दिन

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है

मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफ़ी पुरानी और है

ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है

फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है

बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है

इन्सान थे कभी मगर अब ख़ाक हो गये

इन्सान थे कभी मगर अब ख़ाक हो गये
ले ऐ ज़मीन हम तेरी ख़ूराक हो गये

रखते हैं हमको चाहने वाले संभाल के
हम नन्हे रोज़ादार की मिस्वाक हो गये

आँसू नमक मिला हुआ पानी ही थे मगर
आँखों में रहते-रहते ख़तरनाक हो गये

मसरूफ़ पर्दापोशी में रहते हैं हर घड़ी
आँसू हमारी आँखों की पोशाक हो गये

दुनिया जो चाहती थी मुनव्वर वो हो गया
हम भी शिकारे-ग़र्दिशे-अफ़लाक हो गये

मैं जिसके वास्ते जलता रहा दिये की तरह

मैं जिसके वास्ते जलता रहा दिये की तरह
उसी ने छोड़ दिया मुझको हाशिये की तरह

सजा के पलकों पर अपने नुमाइशी आँसू
उठाये फिरता है वो मुझको ताज़िये की तरह

हमारा उससे तआल्लुक़ बहुत क़रीबी है
हम उसके जिस्म से वाक़िफ़ हैं तौलिये की तरह

अदब के शहर में क़ालीन का ज़माना है
पड़ा हुआ हूँ मैं ग़ालिब के बोरिये की तरह

मैं तुझको शेर सुनाना चाहता हूँ मगर
तमाम शेर ग़ज़ल के हैं मरसिये की तरह

हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं

हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं

मुस्तक़िल जूझना यादों से बहुत मुश्किल है
रफ़्ता-रफ़्ता सभी घर-बार में खो जाते हैं

इतना साँसों की रफ़ाक़त पे भरोसा न करो
सब के सब मिट्टी के अम्बार में खो जाते हैं

मेरी ख़ुद्दारी ने एहसान किया है मुझ पर
वर्ना जो जाते हैं दरबार में खो जाते हैं

ढूँढने रोज़ निकलते हैं मसाइल हम को
रोज़ हम सुर्ख़ी-ए-अख़बार में खो जाते हैं

क्या क़यामत है कि सहराओं के रहने वाले
अपने घर के दर-ओ-दीवार में खो जाते हैं

कौन फिर ऐसे में तनक़ीद करेगा तुझ पर
सब तिरे जुब्बा-ओ-दस्तार में खो जाते हैं

हर एक लम्हा हमारी फ़िक्र पैग़म्बर को रहती है

हर एक लम्हा हमारी फ़िक्र पैग़म्बर को रहती है
मुहब्बत किस क़दर मिट्टी से कूज़ागर को रहती है

ज़रूरत ने अभी तक हाथ फैलाना नहीं सीखा
तवायफ़ है मगर ढाँपे हुए ये सर को रहती है

सिपहसालार कोई फ़ैसला तनहा नहीं करता
महाज़े-जंग की इक-इक ख़बर लश्कर को रहती है

अब मदरसे भी हैं तेरे शर से डरे हुए

अब मदरसे भी हैं तेरे शर से डरे हुए
जायें कहाँ परिन्दे शजर से डरे हुए

शायद बरसते देख लिया है इन्हें कभी
बादल बहुत हैं दीदा-ए-तर से डरे हुए

मक़तल से ख़ाली हाथ पलटना पड़ा मुझे
सारे सख़ी थे कासा-ए-सर से डरे हुए

हम दिलजलों की रास न आयेंगी चाहतें
छूते नहीं नमक भी शकर से डरे हुए

शायद जली हैं फिर कहीं नज़दीक बस्तियाँ
गुज़रे हैं कुछ परिन्दे इधर से डरे हुए

नदी का शोर नहीं ये आबशार का है

नदी का शोर नहीं ये आबशार का है
यहाँ से जो भी सफ़र है अब उतार का है

तमाम जिस्म को आँखें बना कर राह तको
तमाम खेल मोहब्बत में इंतज़ार का है

अभी शराब न देना मज़ा न आयेगा
अभी तो आँखों में नश्शा किसी के प्यार का है

रगों में ख़ून से ले कर एक एक आँसू तक
हमारे पास है जो कुछ भी दोस्त-यार का है

न जिसमें आये तेरा तज़किरा सलीक़े से
वो मेरा शेर नहीं है किसी गंवार का है

तेरे लिए मैं शहर में रुस्वा बहुत हुआ

तेरे लिए मैं शहर में रुस्वा बहुत हुआ
इस कारोबार में ख़सारा बहुत हुआ

ख़ुशबू पे चाँदनी पे ग़ज़ल पर शबाब पर
सच कह रहा हूँ आपका धोका बहुत हुआ

छुपता नहीं है चाँद भी बादल में रात भर
दीदार से नवाज़िये परदा बहुत हुआ

नाकाम हो गयी है मुहब्बत तो ग़म नहीं
हर सिम्त अपने इश्क़ का चर्चा बहुत हुआ

हर एक पल तेरी चाहत का एतबार रहे

हर एक पल तेरी चाहत का एतबार रहे
बिछड़ कुछ ऐसे कि ताउम्र इन्तज़ार रहे

हम उन फलों का मुक़द्दर लिखा के लाये हैं
जो कमसिनी ही से शाख़ों पे अपनी बार रहे

गये वो दिन कि हवाओं से ख़ौफ़ ख़ाते थे
हवा से कहना चराग़ों से होशियार रहे

न पूछ कैसे गुज़ारा है हिज़्र का मौसम
हमीं नहीं दरो-दीवार बेक़रार रहे

किवाड़ दिल के किसी दिन मेरे लिए भी खोल
मैं चाहता हूँ कि कुछ दिन ये ख़ाकसार रहे

ये कह के छोड़ गयीं दिल को ख़्वाहिशें राना
कि आके कौन तेरे घर में बार-बार रहे

दिल पहले कहाँ इस तरह ग़मगीन रहा है

दिल पहले कहाँ इस तरह ग़मगीन रहा है
लगता है कोई मुझसे तुझे छीन रहा है

ऐ ख़ाके-वतन तेरी मुहब्बत के नशे में
मुझ जैसा मुसलमान भी बेदीन रहा है

हर शाख़े-समरदार पे फेंका करो पत्थर
दुनिया का हमेशा यही आईन रहा है

कुछ मोड़ भी आते हैं मुहब्बत में ख़तरनाक
कुछ इश्क भी ख़तरात का शौक़ीन रहा है

मुट्ठी भर ये ख़ाक बहुत है

मुट्ठी भर ये ख़ाक बहुत है
कूज़ागर को चाक बहुत है

वज़ू करो या पी लो आँसू
बहता पानी पाक बहुत है

ओस धुलाये मुँह फूलों का
ख़ुशबू तेरी धाक बहुत है

इश्क़ का जज़्बा सर्द कहाँ है
चिनगारी पर राख बहुत है

ये देख कर पतंगें भी हैरान हो गयीं

ये देख कर पतंगें भी हैरान हो गयीं
अब तो छतें भी हिन्दू-मुसलमान हो गयीं

क्या शहर-ए-दिल में जश्न-सा रहता था रात-दिन
क्या बस्तियाँ थीं, कैसी बियाबान हो गयीं

आ जा कि चन्द साँसें बची हैं हिसाब से
आँखें तो इन्तज़ार में लोबान हो गयीं

उसने बिछड़ते वक़्त कहा था कि हँस के देख
आँखें तमाम उम्र को वीरान हो गयीं

वो नम आँखें लबों से यूँ कहानी छीन लेती हैं

वो नम आँखें लबों से यूँ कहानी छीन लेती हैं
हवायें जिस तरह बादल से पानी छीन लेती हैं,

वज़ारत की हवस, दौलत की चाहत,गेसु-ए-जानाँ
मियाँ ये ख़्वाहिशें शोलाबयानी छीन लेती हैं,

मसायल ने हमें बूढ़ा किया है वक़्त से पहले
घरेलू उलझनें अक्सर जवानी छीन लेती हैं,

कहाँ की दोस्ती,कैसी मुरव्वत, क्या रवा-दारी
नई क़दरें,सभी चीज़ें पुरानी छीन लेती हैं..!!

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती

मैं इक दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़ुवाहट नहीं जाती

जहाँ मैं हूँ वहीं आवाज़ देना जुर्म ठहरा है
जहाँ वो है वहाँ तक पाँव की आहट नहीं जाती

मोहब्बत का ये जज़बा जब ख़ुदा क्जी देन है भाई
तो मेरे रास्ते से क्यों ये दुनिया हट नहीं जाती

वो मुझसे बेतकल्लुफ़ हो के मिलता है मगर ‘राना’
न जाने क्यों मेरे चेहरे से घबराहट नहीं जाती

जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है

जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है
हर एक पत्थर से मेरे सर का कुछ रिश्ता निकलता है

डरा -धमका के तुम हमसे वफ़ा करने को कहते हो
कहीं तलवार से भी पाँव का काँटा निकलता है?

ज़रा-सा झुटपुटा होते ही छुप जाता है सूरज भी
मगर इक चाँद है जो शब में भी तन्हा निकलता है

किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं
किसी की एड़ियों से रेत में चश्मा निकलता है

फ़ज़ा में घोल दीं हैं नफ़रतें अहले-सियासत ने
मगर पानी कुएँ से आज तक मीठा निकलता है

जिसे भी जुर्मे-ग़द्दारी में तुम सब क़त्ल करते हो
उसी की जेब से क्यों मुल्क का झंडा निकलता है

दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों-मील आती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है

अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं

अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं

इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं

समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं

ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर
क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं

बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है
सँभलना आईनाख़ानो, कि हम पत्थर उठाते हैं

हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है

हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है
हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है

किसी का पूछना कब तक हमारे राह देखोगे
हमारा फ़ैसला जब तक कि ये बीनाई रहती है

मेरी सोहबत में भेजो ताकि इसका डर निकल जाए
बहुत सहमी हुए दरबार में सच्चाई रहती है

गिले-शिकवे ज़रूरी हैं अगर सच्ची महब्बत है
जहाँ पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है

बस इक दिन फूट कर रोया था मैं तेरी महब्बत में
मगर आवाज़ मेरी आजतक भर्राई रहती है

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे मुल्क को गन्दी सियासत से
शराबी देवरों के बीच में भौजाई रहती है

मोहब्बत करने वाला ज़िन्दगी भर कुछ नहीं कहता

मोहब्बत करने वाला ज़िन्दगी भर कुछ नहीं कहता,
दरिया शोर करता है समंदर कुछ नहीं कहता,

क्या खामोशियां भी मजबूरियां समझती है,
गले से जब उतरता है ज़हर तो कुछ नहीं कहता

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