जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey

छठी चिनगारी : स्वप्न

आन पर जो मौत से मैदान लें,
गोलियों के लक्ष्य पर उर तान लें।
वीरसू चित्तौड़ गढ़ के वक्ष पर
जुट गए वे शत्रु के जो प्राण लें॥

म्यान में तलवार, मूँछें थी खड़ी,
दाढ़ियों के भाग दो ऐंठे हुए।
ज्योति आँखों में कटारी कमर में,
इस तरह सब वीर थे बैठे हुए॥

फूल जिनके महकते महमह मधुर
सुघर गुलदस्ते रखे थे लाल के।
मणीरतन की ज्योति भी क्या ज्योति थी
विहस मिल मिल रंग में करवाल के॥

चित्र वीरों के लटकते थे कहीं,
वीर प्रतिबिंबित कहीं तलवार में।
युद्ध की चित्रावली दीवाल पर,
वीरता थी खेलती दरबार में॥

बरछियों की तीव्र नोकों पर कहीं
शत्रुओं के शीश लटकाए गए।
बैरियों के हृदय में भाले घुसा
सामने महिपाल के लाए गए॥

कलित कोनों में रखी थीं मूर्त्तियाँ,
जो बनी थीं लाल मूँगों की अमर।
रौद्र उनके वदन पर था राजता,
हाथ में तलवार चाँदी की प्रखर॥

खिल रहे थे नील परदे द्वार पर,
मोतियों की झालरों से बन सुघर।
डाल पर गुलचाँदनी के फूल हों,
या अमित तारों भरे निशि के प्रहर॥

कमर में तलवार कर में दंड ले
संतरी प्रतिद्वार पर दो दो खड़े।
देख उनको भीति भी थी काँपती,
वस्त्र उनके थे विमल हीरों जड़े॥

संगमरमर के मनोहर मंच पर
कनक – निर्मित एक सिंहासन रहा।
दमकते पुखराज नग जो थे जड़े,
निज प्रभा से था प्रभाकर बन रहा॥

मृदुल उस पर एक आसन था बिछा,
मणिरतन के चमचमाते तार थे।
वीर राणा थे खड़े उस पर अभय,
लोचनों से चू रहे अंगार थे॥

स्वप्न राणा कह रहे थे रात का,
लोग सुनते जा रहे थे ध्यान से।
एक नीरवता वहाँ थी छा रही,
मलिन थे सब राज – सुत – बलिदान से॥

सुन रहे थे स्वप्न की बातें सजल,
आग आँखों में कभी पानी कभी।
शांत सब बैठे हुए थे, मौन थे,
क्रांति मन में और कुर्बानी कभी॥

क्या कहूँ मैं नींद में था या जगा,
निविड़ तम था रात आधी थी गई।
एक विस्मय वेदना के साथ है,
नियति से गढ़ की परीक्षा ली गई॥

राजपूतो, इष्टदेवी दुर्ग की
भूख की ज्वाला लिए आई रही।
मलिन थी, मुख मलिन था, पट मलिन थे,
मलिनता ही एक क्षण छाई रही॥

देख पहले तो मुझे कुछ भय हुआ,
प्रश्न फिर मैंने किया तुम कौन हो,
क्यों मलिन हो, क्या तुम्हें दुख है कहो,
खोलकर मुख बोल दो, क्यों मौन हो॥

शीश के बिखरे हुए हैं केश क्यों,
क्यों न मुख पर खेलता मृदु हास है।
निकलती है ज्योति आँखों से न क्यों।
क्यों न तन पर विहसता मधुमास है॥

यह उदासी, वेदना यह किस लिए,
आँसुओं से किस लिए आँखें भरीं।
इस जवानी में बुढ़ौती किस लिए,
किस लिए तुम स्वामिनी से किंकरीं॥

कौन है जिसने सताया है तुम्हें,
किस भवन से तुम निकाली हो गई।
प्राण से भी प्रिय हृदय से भी विमल,
वस्तु कोई क्या कहीं पर खो गई॥

रतन के रहते सतावे दीन को
कौन ऐसा मेदिनी में मर्द है।
नाम उसका दो बता निर्भय रहो,
और कह दो कौन-सा दुख दर्द है॥

तुम रमा हो, हरि - विरह से पीड़िता,
या शिवा हो, शंभु ने है की हँसी।
विधि – तिरस्कृत शारदा हो या शची,
शयनगृह में तुम अचानक आ फँसी॥

प्रश्न पूरे भी न मेरे थे हुए,
पेट दिखला फूटकर रोने लगी।
आँसुओं में बाढ़ आई वेग से,
वेदना से वह विकल होने लगी॥

बार बार विसूरती थी विलपती,
कह रही थी व्यग्र हूँ मैं हूँ विकल।
हूँ अधिष्ठात्री तुम्हारे दुर्ग की,
चैन से अब रह न जाता एक पल॥

क्या कहूँ मैं भूख से बेचैन हूँ,
मर मिटूँ क्या प्यास से मेवाड़ में।
क्या यही है अर्थ पृथ्वीपाल का,
अब न बल है शक्ति है कुछ प्राण में॥

हूँ क्षुधा से व्यग्र अन्न न चाहिए,
हूँ तृषाकुल पर न पानी चाहिए।
भूख नर-तन की रुधिर की प्यास है,
भूप! मुझको नव जवानी चाहिए॥

एक सुत को जितने पुत्र हैं,
मैं उन्हीं का रुधिर पीना चाहती।
आज कंठों का उन्हीं के हार ले
दुर्ग में सानंद जीना चाहती॥

यदि न ऐसा हो सका तो राज यह
वैरियों के हाथ में ही जान लो।
बंद आँखें खोलकर देखो मुझे,
दुर्गदेवी को तनिक पहचान लो॥

शयन – गृह में एक ज्योति चमक उठी,
नयन मेरे चौंधियाकर मुँद गए।
छिप गई वह, पर हृदय पाषाण पर
देविका के अमिट अक्षर खुद गए॥

मौन रहकर दी वहाँ स्वीकृति सहम,
बँध गई हिचकी, उठा रोने लगा।
घन – घटाएँ बन गईं आँखें सजल,
आँसुओं में चेतना खोने लगा॥

बिपति एकाकी न आती है कभी,
साथ लाती है दुखों का एक दल।
एक कटु संदेश अरि का आ गया,
छिड़कता व्रण पर नमक वैरी सबल॥

रतन कल आखेट को जो थे गए,
महल में अब तक न आए लौटकर।
कौन जाने किस बिपति में हैं फँसे,
दे रहा खिलजी दुखद संदेश पर॥

क्रूर खिलजी ने बड़े अभिमान से
सूचना दी, ‘रतन कारागार में’।
लिख रहा, ‘पूरी न होगी चाह तो
रह न सकता रतन - तन संसार में॥

पद्मिनी का ब्याह मुझसे दो करा,
हीरकों से कोष लो मुझसे भरा।
है यही इच्छा इसे पूरी करो,
कनक लो, मणिरतन लो, धन लो, धरा॥

पद्मिनी के साथ हूँगा मैं जभी,
मुक्त होगा रतन कारा से तभी।
यदि मिलेगी पद्मिनी रानी न तो,
फूँक दूँगा, नाश कर दूँगा सभी॥

यदि न मेरी बात मानी जायगी,
यदि न मेरे साथ रानी जायगी।
राजपूतो, तो समझ लो जान लो,
धूल में मिल राजधानी जाएगी॥

कसम खाता हूँ खुदा की मान लो,
तेज तलवारें तड़पतीं म्यान में।
लाल कर देंगी महीतल रक्त से,
हो न सकती देर जन – बलिदान में’॥

स्वप्न राणा के सुने, फिर शत्रु की
सूचना सुनकर सभी चुप हो गए।
दुख – घृणा से भर गए उनके हृदय,
अर्ध – मूर्छित से अचानक हो गए॥

मूर्छना थी एक क्षण, फिर क्रोध से
नयन से निकलीं प्रखर चिंगारियाँ।
एक स्वर में कह उठे सरदार सब,
हो गईं क्या व्यर्थ वीर कटारियाँ॥

नीच उर में नीचता का वास है,
कह रहा उसको करेगा, जान लो।
उचित अनुचित का न उसको ज्ञान है,
सूचना से शत्रु को पहचान लो॥

इसलिए गढ़ को अभी कटिबद्ध हो,
रण – तयारी तुरत करनी चाहिए।
वीर तलवारें उठें मैदान में,
अरि – रुधिर से भूमि भरनी चाहिए॥

रण विचार न व्यर्थ करना चाहिए,
हाथ में हथियार धरना चाहिए।
सिंह–सम रण में उतरना चाहिए,
मारना या स्वयं मरना चाहिए॥

सिंह की संतान का यह अर्थ है,
देश – गौरव – मान के हित प्राण दें।
मर मिटें, जब प्राण सब के उड़ चलें,
तब कहीं निर्जीव यह मेवाड़ दें॥

एक योधा ने कहा, ‘सब सत्य है,
किंतु क्षण भर सोच लेना चाहिए।
फिर नियत कर तिथि भयंकर युद्ध की,
बाल अरि के नोच लेना चाहिए॥

काम इतना बढ़ गया उस श्वान का,
सिंहनी से ब्याह करना चाहता।
राजपूतों के लिए यह मौत है,
वंश का मुँह स्याह करना चाहता’॥

बात कुछ ने मान ली, कुछ मौन थे,
फिर लगी होने बहस दरबार में।
एक राय न हो रहे थे वीर सब,
इस लिए थी देर रण - हुंकार में॥

बोला वह पथिक यती से,
कुछ देर हो गई होगी।
रानी की रतन – विरह से
सुध सकल खो गई होगी॥

यदि मुक्त हुआ रावल तो,
आख्यान बताना होगा।
माला जप जप देरी कर
मुझको न सताना होगा॥

बोला वह, देर न होगी,
जप से क्यों घबड़ाते हो।
आस्तिक हो, नास्तिक से क्यों,
माला से दुख पाते हो॥

यदि ऐसी बात करोगे
तो कथा न कह सकता हूँ।
क्षण भर भी इस आसन पर,
जप – हीन न रह सकता हूँ॥

यह कह उठ गया पुजारी,
जलपूत कमंडलु लेकर।
भयभीत पथिक ने रोका,
शिर चलित पदों पर देकर॥

की क्षमा – याचना उसने,
गिर – गिर रो रो चरणों पर।
चल पड़ी कथा बलिहारी,
दोनों के अश्रु - कणों पर॥

माधव – विद्यालय, काशी
कार्त्तिकी, संवत १९९७

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