भग्न वीणा : रामधारी सिंह 'दिनकर'

Bhagna Veena : Ramdhari Singh Dinkar

निवेदन

कई मित्रों ने पूछा है और मैं भी अपने-आपसे पूछता हूँ ऐसी कविताएँ मैं क्यों लिखने लगा हूँ। जवाब मुश्किल से बनेगा। कविता मेरे बस में नहीं है, मैं ही उसके अधीन हूँ। पहले उस तरह की कविता आती थी, तब वैसी लिखता था, अब इस तरह की आ रही है, इसलिए ऐसी लिखता हूँ।

‘परशुराम की प्रतीक्षा’ सन् 1963 ई. में निकली थी। ‘कोयला और कवित्य’ का प्रकाशन सन् 1964 ई. हुआ। उसी साल लारेन्स का आश्रय लेकर मैंने कुछ नए ढंग की कविताएँ लिखी, जो ‘आत्मा की आँखें’ नाम से निकलीं। उसके बाद मैं लगभग मौन हो गया। महसूस होता था कि कवित्व मुझे छोड़कर चला गया, मेरे भीतर अब कोई कविता नहीं है, जो बाहर आयेगी।

तब कई वर्षों के बाद वे छोटी-छोटी कविताएँ आने लगीं, जिनका संकलन वर्तमान संग्रह में हुआ है। लगता है, ‘आत्मा की आँखें’ लिखते समय मैंने जिस शैली का प्रयोग किया था, वही शैली इन कविताओं का आधार बन गयी है। केवल कवि कविता नहीं रचता, कविता भी बदले में कवि की रचना करती है।
कुछ मित्र ‘हारे को हरि नाम’, इस नाम से भी चौंके हैं। किंतु पराजित मनुष्य और किसका नाम ले ? जिन्हें मेरे पराजित रूप से निराशा हुई है, उन मित्रों से मैं क्षमा माँगता हूँ।

मैंने अपने आपको
क्षमा कर दिया है।
बन्धु, तुम भी मुझे क्षमा करो।
मुमकिन है, वह ताजगी हो,
जिसे तुम थकान मानते हो।
ईश्वर की इच्छा को
न मैं जानता हूँ,
न तुम जानते हो।
-दिनकर


1. राम, तुम्हारा नाम

राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे, हृदय, जो कुछ भेजो, वह सहे, दुख से त्राण नहीं माँगूँ। माँगू केवल शक्ति दुख सहने की, दुर्दिन को भी मान तुम्हारी दया अकातर ध्यानमग्न रहने की। देख तुम्हारे मृत्यु दूत को डरूँ नहीं, न्योछावर होने में दुविधा करूँ नहीं। तुम चाहो, दूँ वही, कृपण हौ प्राण नहीं माँगूँ।

2. संपाती

तुम्हें मैं दोष नहीं देता हूँ। सारा कसूर अपने सिर पर लेता हूँ। यह मेरा ही कसूर था कि सूर्य के घोड़ों से होड़ लेने को मैं आकाश में उड़ा। जटायु मुझ से ज्यादा होशियार निकला वह आधे रास्तें में ही लौट आया। लेकिन मैं अपने अहंकार में उड़ता ही गया और जैसे ही सूर्य के पास पहुँचा, मेरे पंख जल गये। मैंने पानी माँगा। पर दूर आकाश में पानी कौन देता है ? सूर्य के मारे हुए को अपनी शरण में कौन लेता है ? अब तो सब छोड़कर तुम्हारे चरणों पर पड़ा हूँ। मन्दिर के बाहर पड़े पौधर के समान तुम्हारे आँगन में धरा हूँ। तुम्हें मैं कोई दोष नहीं देता स्वामी ! ‘‘आमि आपन दोषे दुख पाइ वासना-अनुगामी।’’

3. चिट्ठियां

चिट्ठियां तो बहुत सारी आयी थीं । मगर, खबरें जुगायीं नहीं । क्या पता था कि दुनिया एक दिन यह हाल भी पूछेगी, जिनका कोई जवाब नहीं, ऐसे सवाल भी पूछेगी? सवाल उनका, जो सब कुछ लूट कर चले गये । यानी यह बात कि यार, तुम कैसे छले गये ? चाँद के बुलावे पर प्रकाश में घूमने की बात ! सितारों की महफिल में बैठ कर झूमने की बात ! बात वह जिसके किनारे तेज धार होती है । जरा-सा चूके नहीं कि कलेजे के आर-पार होती है । अपनी चिता आप बना कर उस पर सोने की बात, जिस दर्द को कोई न समझे, उससे कराहने और रोने की बात । तारों से जो धूल झरती है, उसे, दोने में सजाता हूँ। इतिहास में लीक नहीं, छाँह छोड़े जाता हूँ।

4. निस्तैल पात्र

एक वक्त ऐसा आता है, जब सब कुछ झूठ हो जाता है, सब असत्य, सब पुलपुला, सब कुछ सुनसान । मानो, जो कुछ देखा या, इन्द्रजाल था । मानो, जो कुछ सुना था, सपने की कहानी थी। जिन्दगी को जितना ही गहरा खोदता हूँ उतनी ही दुर्गन्ध आती है । मानो, मैं कोई और हूँ और यह जिन्दगी किसी और ने जी हो। मगर, अब तो खुशबू बसाने का समय नहीं है । सूरज पश्चिम की ओर ढल रहा है। गरचे चिता अभी जली नहीं है, मगर जिन्दगी से धुआँ निकल रहा है । करम खुदा का! बन्दे, तुझे वया ग़म है? तेल की हाँडी निस्तैल हो कर फूटे, यह क्या कम है?

5. रहस्य और विज्ञान

इतना जिया कि जीते-जीते सारी बात भूल गया। शब्दों के कुछ निश्चित अर्थ मैंने भी सीखे थे । और उन अर्थों पर मुझे भी नाज था । और नहीं, तो उतने ज़ोर से बोलने का क्या राज़ था? स्त्रियों के बाल मुझे भी रेशम-से दिखायी देते थे । और चाँद की ओर आँखें किये मैं सारी रात जगता था। सच तो यह है कि सितारों से चाँदी के घुंघुरुंओं की आवाज़ आती थी। और चाँद मुझे औरत के मुंह-जैसा लगता था । सोचता था, प्रकृति के पीछे कोई विद्यमान है, जो मेरा प्रेमी और सखा है । (देखा-देखी रहस्यवाद का मज़ा थोड़ा-बहुत मैंने भी चखा है ।) मगर विज्ञान ने सारी बातें तितर-बितर कर दीं । और विज्ञान से मेरा कुछ मतभेद है । गरचे मुझे खेद है कि न तो मैं विज्ञान को समझता हूँ न विज्ञान मुझे समझ पाता है । ऐसे में गुरो! केवल आपका नाम याद आता है।

6. कविता और विज्ञान

हम रोमांटिक थे; हवा में महल बनाया करते थे । चाँद के पास हमने एक नीड़ बसाया था, मन बहलाने को हम उसमें आया-जाया करते थे । लेकिन तुम हमसे ज्यादा होशियार होना, कविता पढ़ने में समय मत खोना । पढ़ना ही हो, तो बजट के आंकड़े पढ़ो। वे ज्यादा सच्चे और ठोस होते हैं । अगर तुम यह समझते हो कि तुम केवल शरीर नहीं, आत्मा भी हो, तो यह अनुभूति तुम्हें, तकलीफ में डालेगी । जो सभ्यता अदृश्य को नहीं मानती, वह आत्मा को कैसे पालेगी? विज्ञान की छड़ी जहाँ तक पहुंची है, बुद्धि सत्य को वहीं तक मानती है। मशीनों को लाख समझाओ, वे आत्मा को नहीं पहचानती हैं । सांख्यिकी बढ़ती पर है, दर्शन की शिखा मन्द हुई जाती है । हवा में बीज बोने वाले हंसी के पात्र हैं, कवि और रहस्यवादी होने की राह बन्द हुई जाती है।

7. नेमत

कविता भक्ति की लिखूँ या श्रृंगार की, सविता एक ही है, जो शब्दों में जलता है । अक्षर चाहे जो भी उगें, कलम के भीतर भगवान मौजूद रहते हैं । दूसरों से मुझे जो कुछ कहना है, वह बात प्रभु पहले मुझसे कहते हैं। करुण काव्य लिखते समय कवि पीछे रोता है, भगवान पहले रोते हैं । क्रोध की कविता भगवान का भौं चढ़ाना है। और प्रशंसा नर की करो या नारी की, भगवान नाराज नहीं, खुश होते हैं । होता सबसे बड़ा तो नहीं, फिर भी अच्छा वरदान है । मगर मालिक की अजब शान है। जिसे भी यह वरदान मिलता है, उसे जीवन भर पहाड़ ढोना पड़ता है। एक नेमत के बदले अनेक नेमतों से हाथ शोना पड़ता है ।

8. रक्षा करो देवता

रक्षा करो ! रक्षा करो ! देवता! हमारा क्या गुनाह है? तीन ककारों में पड़ी दुनिया तबाह है । संसार तुमने बहुत सोच-समझ कर रचा है । मगर, एक-एक से पूछ कर देख लो, कामिनी, कंचन और कीर्ति से कौन बचा है ! मुनियों ने मेनका को गोद में बिठाया । राजाओं ने कंगालों का कोष चुराया । और कीर्ति? यह चश्मा तो सर्वत्र उबलता है । शहीद शहीद की जड़ खोदते हैं और एक साधु दूसरे साधु से जलता है । सच है कि कामिनी काल पा कर छूट जाती है । लेकिन कंचन और कीर्ति ? रक्षा को, रक्षा करो देवता । जब तक जीवित हैं, कुछ न कुछ खाना ही पड़ेगा । जितने अच्छे हैं, उससे ज्यादा बताना ही पड़ेगा ।

9. बच्चे

जी चाहता है, सितारों के साथ कोई सरोकार कर लूँ। जिनकी रोशनी तक हाथ नहीं पहुंचते, उन्हें दूर से प्यार का लूँ। जी चाहता है, फूलों से कहुँ यार ! बात करो । रात के अँधेरे में यहाँ कौन देखता है, जो अफवाह फैलायेगा कि फूल भी बोलते हैं, अगर कोई दर्द का मारा मिल जाये, तो उससे अपना भेद खोलते हैं? आदमी का मारा आदमी कुत्ते पालता है । मगर, मैं घबरा कर बच्चों के पास जाना चाहता हूँ जहाँ निर्द्वन्द्व हो कर बोलूँ गाऊँ, चुहलें मचाऊँ और डोलूँ। बूढ़ों का हलकापन बूढ़ों को पसन्द नहीं आता है । मगर, बच्चे उसे प्यार करते हैं । भगवान की कृपा है कि वे अभी गंभीरता से डरते हैं ।

10. सूर्य

सूर्य, तुम्हें देखते-देखते मैं वृद्ध हो गया । लोग कहते हैं, मैंने तुम्हारी किरणें पी हैं, तुम्हारी आग को पास बैठ का तापा है । और अफवाह यह भी है कि मैं बाहर से बली और भीतर से समृद्ध हो गया । मगर राज़ की बात कहुँ, तो तुम्हें कलंक लगेगा। ताकत मुझे अब तुमसे नहीं, अंधकार से मिलती है। जहाँ तक तुम्हारी किरणें नहीं पहुंचतीं, उस गुफा के हाहाकार से मिलती है।

11. वैराग्य

कमरा सदियों से बन्द है, उसकी ताली मुझे मिल गई है। मगर मैं कमरा खोलता नहीं, ताली को जतन से जुगाये चलता हूँ। शीतलता प्राप्त हो सकती है। मगर जलन की आदत पड़ गई है, इसलिए शौक से जलता हूँ। जलने से घबराकर मुक्ति नहीं खोजूँगा । वैराग्य जीवन से भागने का नाम नहीं है। पुरुषार्थ सही है। किन्तु भाग्य का चक्र आयास से नहीं फिरता है। पत्ता जब पक जाता है, वृक्ष से वह अनायास गिरता है।

12. कविता और आत्मज्ञान

कविता क्या है ? महर्षि रमण ने कहा । मानसिक शक्तियों का मन्थन कर कीर्ति उत्पन्न करना, मन में जो आकृतियां घूम रही हैं, उन्हें निकाल कर बाहर के अवकाश को भरना। किन्तु, आत्मज्ञान की राह में इस शक्ति को भी सोना पड़ेगा । यानी कवि को भी अकवि होना पड़ेगा ।

13. जूठा पत्ता

रामकृष्ण और रमण, रोग की यातना दोनों ने सही थी। मगर अपने अन्तिम दिनों में महर्षि ने एक बात कही थी। जीवन भोज है, शरीर केले का पत्ता है। इस पत्ते पर आदमी भोजन तो बड़े प्रेम से करता है। लेकिन खाना खत्म होते ही वह उसे फेंक देता है। जूठा पत्ता भी कभी कोई सँभाल कर धरता है?

14. ज्ञान का रास्ता

किताबें पढ़ीं मन का मन्थन किया, खूब सोचा-समझा और जाँचा । लेकिन ज्ञान का रास्ता मुझे रास नहीं आता है। बिलकुल शुद्ध हिन्दी में पुकारता हूँ, तब भी आराध्य पास नहीं आता है। चारों ओर से हारा हुआ मैं पराजय का गीत गाता हूँ। अपना टूटा हुआ अहंकार तुम्हारे चरणों पर चढ़ाता हूँ। अपना यह ज्ञान वापस लो और देवता, मुझे भक्ति दो। जानता हूँ कि जो वसन्त चला गया, वह अब और नहीं लौटेगा। लेकिन चिरन्तन निदाघ भेजा है, तो उसे सहने की शक्ति दो।

15. रे मन

कहता हूँ, रे मन, अब नीरव हो जा। ससर सर्प के सदृश, जहाँ है उत्स, वहाँ पर सो जा । साखी बनकर देख, देह का धर्म सहज चलने दे । जो तेरा गन्तव्य, वहाँ तक चलकर कौन गया है? गल जाने दे स्वर्ण, रूप में उसे स्वयं ढलने दे।

16. आराधना

प्रभो, तुम्हारा नाम बाती है, शरीर दीया है, वेदना तेल है। तीनों का कितना अच्छा मेल है! शीतलता बढ़ती है, आँखें जब नम होती हैं। नाम जितना ही उजलता है, वेदना उतनी ही कम होती है।

17. नीरवता

रात ने चुप्पी साध ली है। सपने शान्ति में समा गये हैं। अन्तः कपाट आप- से- आप खुलने लगा है। देवता शायद दरवाजे पर आ गये हैं।

18. असम्भव

टहलना छोड़ दूँ, यह हो सकता है। लेकिन टहलूँ और जमीन से पाँव न लगे, यह अनहोनी बात है। पानी से दूर रहूँ, यह सम्भव है। लेकिन पानी में तैरे और वस्त्र न भीगे, यह करिश्मा कौन कर सकता है? अगर यह कमजोरी है, तो इसका राज़ क्या है? अगर यह बीमारी है, तो इसका इलाज क्या है? तब भी तेरी महिमा अपार है। तू चाहे, तो यह असमर्थता भी हर सकता है। इसीलिए तो ऐसे लोग हैं, जो पाँव छुलाये बिना जमीन पर चलते हैं। और आग में खड़े होकर भी नहीं जलते हैं।

19. शान्ति की कामना

पानी का अचल होना मन की शान्ति और आभा का प्रतीक है। पांनी जब अचल होता है, उसमें आदमी का मुख दिखलायी पड़ता है। हिलते पानी का बिम्ब भी हिलता है। मन जब अचल पानी के समान शान्त होता है, उसमें रहस्यों का रहस्य मिलता है। मन रे, अचल सरोवर के समान शान्त हो जा। जग कर तूने जो भी खेल खेले, सब गलत हो गया। अब सब कुछ भूल कर नींद में सो जा ।

20. बुढ़ापा

बुढ़ापा, तुम से मेरी दोस्ती नहीं, लड़ाई है। तुम्हारा आना दोस्त का आना नहीं, दुश्मन की चढ़ाई है। तुम अकेले नहीं आये, विपत्तियों की फौज सजा कर लाये हो । लेकिन, मैं आत्मसमर्पण नहीं करूँगा। जवानी की आखिरी दीवार से पीठ लगा कर मै तुमसे अन्त तक लडूंगा।

21. आन्तरिक ऋतु

बाहर तो वसन्त अब और आयेगा नहीं । मन रे, भीतर कोई वसन्त पैदा कर । वसन्त यानी मौसम और मिजाज के बीच समरसता । निदाघ हो, तब भी फूलों के लिए रोना नहीं । पक्षी सारे उड़ गये, अब डालियाँ सूनी हैं, यह सोच कर ग्लानि में खोना नहीं । हम मौसम में नीरव और निश्चिंत रहना । वसन्त की नदी की भाँति मन्द मन्द बहना ।

22. बेफिक्र

आनन्द है पेड़ से लग कर गाने में, खुली किताब हाथ में धरे-धरे पलंग से उठंग कर सो जाने में। चिन्ता की शक्ति जीवन का ज्वर है। सोचना सभी दुखों का घर है। बाँस के कुंज में बैठो और चाय पियो । जैसे चीन के पुराने सन्त जीते थे, वैसे निश्चिन्त जियो |

23. कमरा खाली है

कमरा खाली है और बत्ती जल रही है। कीड़े-मकोड़े कहीं नहीं दीखते । फिर भी दीवार पर एक छिपकली चल रही है। मेज पर फूलों का गुलदस्ता ताजा और रंगीन । वह कुछ बोलना चाहता है। फुलवारी में सारे राज आशकार नहीं हुए। वह कमरे में भी कोई भेद खोलना चाहता है? लेकिन वह मौन है। उसकी बात सुनने वाला कौन है ! कमरा खाली है। और बत्ती जल रही है।

24. आना और जाना

जीवन से चिपकना और मृत्यु से घृणा करना, पूराने मर्द ये बातें नहीं जानते थे । अस्ताचल पर न तो वे रोते थे, न उदयाचल पर खुशी मानते थे । जीवन के बारे में उन्हें न तो आसक्ति थी, न दुनिया के बारे में कोई भ्रम था । आने की उन्हें न तो खुशी थी, न जाने का गम था। बीज पहले पौधा बनता है और फिर वृक्ष । और फिर टूट कर वह धरती पर सो जाता है। प्रकृति का नियम कितना सरल है ! आदमी भी मरता नहीं, लौट कर अपने घर जाता है। कौन कहता है कि वह अनस्तित्व में खो जाता है?

25. घर की राह

कहते हैं, मृत्यु से सभी डरते हैं । तो हम, सब-के-सब, उस बच्चे के समान हैं, जो कई दिन पहले घर से निकल कर मेले में आया था। मेला टूट गया और बच्चा अब घर लौटना चाहता है। लेकिन घर की राह वह जानता ही नहीं है। और घर लौटने की जो राह आप-से-आप आन मिली है, उसे वह पहचानता ही नहीं है।

26. देवता और प्रेत

कवि के मन में देवता और प्रेत, दोनों बसते हैं। प्रेत जब कलम में घुस कर कविता लिखता है, देवता हँसते हैं। देवता की राह हिंसा नहीं, अहिंसा की राह है। वे इन्द्रियों से लड़ते नहीं, पुचकार कर उन्हें पास बुलाते हैं। देवता के पास पीपल की छाया होती है। वे छाँह में इन्द्रियों को प्रेम से सुलाते हैं। लेकिन प्रेत कहता है, जीवन से युद्ध करो, मारो, मारो, इन्द्रियों को मारो और अपने को शुद्ध करो । आँख, कान, नासिका और त्वचा क्या हमने इसीलिए पायी थीं? इन्द्रियाँ क्या केवल मार खाने को आयी थीं? देवता अच्छे हैं कि कीचड़ में ईंट नहीं फेंकते हैं; न पंचधूनी जला कर अपनी इन्द्रियों को सेंकते हैं।

27. प्रेम

तुम बहुत ऊँचाई पर हो । चाहता हूँ कि सीढ़ी लाऊँ और चढ़ कर देखूँ कि तुम्हारी आँखों में मेरा कौन बिम्ब बसता है। शायद मैं भी कभी ऊँचाई पर था। इसीलिए मुझे राह मिली थी तुम्हारी आँखों में जाने की, जो मेरे क्षितिज से दूर था, उसे अपनी बाँहों में पाने की।

28. वियोग

तुम जा रही हो, तो जाओ । बड़े भाग्य से नारी नर को और नर नारी को पाता है। मगर यह सब तभी तक है, जब तक हम जीवित हैं। मुर्दा न तो वियोग से डरता है, न चुम्बन के लिए ललचाता है।

29. सिन्दूरघोरे का कैदी

प्रेम करूँगा, मगर तुम्हें अपना मालिक नहीं मानूँगा। प्रेम पुष्प है, तलवार नहीं है । जिससे हम प्रेम करते हैं, वह साथी और बगलगीर होता है। आलिंगन में बँधने वाला जंग का सिपहसालार नहीं है। मगर तुम तो चाहती हो कि मैं कहीं से भी आजाद न रहूँ, तुम्हें छोड़कर और किसी को याद न रहूँ, मर्द को सिन्दूरघोरे में बन्द करना क्या कोई अच्छा नेम है? या उसे अंचल की गिरह में बाँध कर पीठ पर फेंक देना क्या प्रेम है?

30. मुक्त

मैंने अपनी बिखरी शक्तियाँ समेट ली हैं। तुम्हारा जादू मैंने आजमा लिया है। अब रेशम का जाल फेंकना बेकार है। मोहिनी, मैंने फिर से अपने आप को पा लिया है। तुमने मेरे पैरों में जो सोने की साँकलें डाली थीं, वे टूट गयीं। वह प्याला मैंने फेंक दिया जिससे तुम मुझे आसव पिलाती थीं । उन गीतों का असली अर्थ मुझ पर अब खुला है, जिन्हें तुम मुझे गोद में लिटा कर बड़े प्रेम से गाती थीं । सुस्ताने के बहाने मैं कुछ ज्यादा ही सो गया। लेकिन आदमी जब जगे, तभी उसका प्रभात है। मोहिनी, भगवान तुम्हारी रक्षा करें। तुम भूलो या याद रखो, मेरे लिए एक ही बात है ।

31. कृतज्ञता ज्ञापन

वासना को विज्ञान बनाने वाली, सुनो। देह की वाटिका में स्वर्ग की झलक दिखाने वाली, सुनो। शिराओं में कवित्व सरसाने वाली, सुनो। सपने में आने-जाने वाली, सुनो। सुनो, जो मुझ पर आशीर्वाद बन कर छायी थी। सुनो, जो मन से निकल कर मेरी हथेली पर आयी थी । मेरी पूजा में पगी रहने वाली, सुनो। शाम से सुबह तक जगी रहने वाली, सुनो। सुनो जिसे देख कर मैं दुर्दिन में जिया था, सुनो, जिसके साथ वस्त्र भिगोये बिना मैंने सागर पार किया था। केवल दृष्टि से आयु प्रदान करने वाली, सुनो। मुझे कल्पना और उमंग से भरने वाली, सुनो। सुनो, जिसका सौरभ मेरे प्राण में व्यापा है। सुनो, जिसने मुझे काँगड़ी बनाकर तापा है। मेरे पौरुष का उत्पीड़न सहने वाली, सुनो। बिना कुछ बोले सब कुछ कहने वाली, सुनो। सुनो, जो आँखों के आगे केवल आयी गयी हो; फिर भी मेरे दर्पण में जिसका बिम्ब पड़ा है; सुनो, जो मेरी कविता में जहाँ-तहाँ पायी गयी हो । तुम जो मेरी कल्पना में पली हो । तुम जो जीवन के झरोखे पर चिराग बन कर जली हो । तुम, जो मेरे लिए उजले और लाल, दोनों रंग के फूल लायी थीं। तुम जो माता, बहन और सखी का रूप धर कर आयी थीं । तुम सब का जो ऋण है, उसे गीत में चुकाता हूँ। कृतज्ञता में तुम्हारे सामने मस्तक झुकाता हूँ।

32. कविता और काम

कवि, तुम्हारे हृदय को पवित्र जान कर देवताओं ने तुममें आश्रय लिया था । और भगवान ने तुम्हें यह वरदान दिया था कि सौन्दर्य जहाँ भी रहेगा, तुम पहचान लोगे । जिस कन्दरा में सूर्य की किरणें नहीं पहुँचतीं, वहाँ का भी रहस्य तुम जान लोगे । साधुनी जब कुछ नहीं देखने का बहाना करेगी, तुम देखोगे कि वह किसी ध्यान में है। और मर्द जब भभूत रमा कर समाधि में बैठेगा, तुम समझ जाओगे कि भीतर से वह तड़प रहा है, क्योंकि मूर्ति मन्दिर में रह गयी है । असल में कोई नारी उसके प्राण में है । ईश्वर ने आशा की थी कि तुम सब को देखोगे, सब को क्षमा करोगे, सब से बोलोगे-हँसोगे, मगर इस गर्त में तुम खुद नहीं फँसोगे । मगर तुम्हारे पंख मधु में फँस गये, तुमने उड़ना छोड़ दिया। जाना था तुम्हें ऊपर की ओर, लेकिन अपना जहाज तुमने नीचे की ओर मोड़ दिया। भगवान को अचरज है कि यह क्या हो गया । तुम्हारे भीतर का देवता पछताता है, हाय, मैं कहाँ आकर खो गया ?

33. परंपरा

पंरपरा को अन्धी लाठी से मत पीटो। उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है, जीवन-दायक है, जैसे भी हो, ध्वंस से बचा रखने के लायक है। पानी का छिछला हो कर समतल में दौड़ना, यह क्रान्ति का नाम है। लेकिन घाट बाँध कर पानी को गहरा बनाना, यह परंपरा का काम है। परंपरा और क्रान्ति में संघर्ष चलने दो। आग लगी है, तो सूखी टहनियों को जलने दो । मगर जो टहनियाँ आज भी कच्ची और हरी हैं, उन पर तो तरस खाओ। मेरी एक बात तुम मान जाओ । परंपरा जब लुप्त होती है, लोगों की आस्था के आधार टूट जाते हैं। उखड़े हुए पेड़ों के समान वे अपनी जड़ों से छूट जाते हैं । परंपरा जब लुप्त होती है, लोगों को नींद नहीं आती, न नशा किये बिना चैन या कल पड़ती है। परंपरा जब लुप्त होती है, सभ्यता अकेलेपन के दर्द से मरती है। कलमें लगाना जानते हो तो जरूर लगाओ, मगर ऐसे कि फलों में अपनी मिट्टी का स्वाद रहे। और यह बात याद रहे कि परंपरा चीनी नहीं, मधु है । वह न तो हिन्दू है, न मुस्लिम है, न द्रविड़ है, न आर्य है, न परंपरा का हर प्रहरी पुरी का शंकराचार्य है।

34. उपदेशक

मुजरिम हो कर मुजरिमों को सुधारने का काम, यह भी एक स्वांग है और यह स्वांग हम सभी लोग भरते हैं। जिन मजों से हम दूसरों को रोकना चाहते हैं, उनसे खुद परहेज नहीं करते हैं । वैतरणी के छींटे किस पर नहीं पड़े हैं? किसके दामन पर फूलों के रस का दाग नहीं है? सपने की देह को नंगी उँगली से छूने का लोभ किसमें नहीं जगा है ? कौन इतना जर्जर है कि उसमें जवानी की आग नहीं है? तो उपदेशकों आओ, हम ईमानदार बनें और मानवता को डरायें नहीं, बल्कि यह कहें- कि जिस सरोवर का जल पीकर पछताते हो, उस तालाब का पानी हमने भी पिया है । और जैसे तुम हँस-हँस कर रोते और रो-रो कर हँसते हो, इसी तरह हँसी और रुदन से भरा जीवन हमने भी जिया है। गनीमत है कि हर पापी का भविष्य है, जैसे हर सन्त का अतीत होता है। आदमी घबरा कर व्यर्थ रोता है। यह बात दूसरी है कि कोई समृद्धि में है, कोई अभाव में है। मगर जहाँ तक मन का सवाल है, हम सब एक ही नाव में हैं। सदियों से हमने तुम्हें धोखा दिया है। मगर अब हम तुम्हें और नहीं भरमायेंगे । जहाँ तक पहुँच कर हम रुक गये हैं, उससे आगे का रास्ता तुम्हें नहीं बतायेंगे ।

35. एकोऽहम्

मैं दानव से छोटा नहीं, न वामन से बड़ा हूँ । सभी मनुष्य एक ही मनुष्य हैं। सब के साथ मैं आलिंगन में खड़ा हूँ। वह जो हार कर बैठ गया, उसके भीतर मेरी ही हार है। वह जो जीत कर आ रहा है, उसकी जय में मेरी ही जयजयकार है। मैं ही दाना डालनेवाला बुड्ढा रईस हूँ; मैं ही वह पक्षी हूँ, जो दाना चुगता है। बैल की पीठ पर बेरहमी से बेंत मत मारो। मेरी पीठ पर उसका निशान उगता है। पत्ते का पीला होना पूरे वृक्ष का रोग है । यह मात्र संयोग है कि एक पत्ता पीला है, बाकी हरे हैं। एक व्यक्ति पातक इसलिए करता है। कि सबके भीतर पाप के भाव भरे हैं। जहाँ भी पुण्य की वेदी है, मैं अगुरु का धुआँ हूँ, मंडप से झूलता फूलों का वन्दनवार हूँ। और जो भी पाप करके लौटा है, उसके पातक में मैं बराबर का हिस्सेदार हूँ । एक उपकारी सबके गले का हार है। और जिसने मारा या जो मारा गया है। उनमें से हर एक हत्यारा है, हर एक हत्या का शिकार है।

36. भगवान के डाकिए

पक्षी और बादल, ये भगवान के डाकिये हैं, जो एक महादेश से दूसरे महादेश को जाते हैं । हम तो समझ नहीं पाते हैं, मगर उनकी लायी चिट्ठियाँ पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बाँचते हैं। हम तो केवल यह आँकते हैं, कि एक देश की धरती दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है । और वह सौरभ हवा में तैरते हुए पक्षियों की पाँखों पर तिरता है। और एक देश का भाप दूसरे देश में पानी बन कर गिरता है।

37. ईश्वर

जिन्दगी न जन्म के साथ पैदा होती है, न मृत्यु के साथ मरती है। जन्म ले कर वह जिसे खोजती है, मर कर भी उसी की तलाश करती है। और ईश्वर आसानी से हमारी पकड़ में नहीं आता। उसकी कृपा यह है कि वह हमें जन्म देता और फिर मारता है। जन्म और मरण, दोनों खराद के चक्के हैं। ईश्वर हमें तराश-तराश कर सँवारता है। और जब हम पूरी तरह सँवर जाते हैं, ईश्वर अपने आपको हमें सौंप देता है। सँवरी मूर्तियाँ केन्द्र से अलग नहीं रहतीं। ईश्वर या तो उनमें विलय होता है या उन्हें अपने में लीन कर लेता है।

38. लेन-देन

लेन-देन का हिसाब लम्बा और पुराना है। जिनका कर्ज हमने खाया था, उनका बाकी हम चुकाने आये हैं । और जिन्होंने हमारा कर्ज खाया था, उनसे हम अपना हक पाने आये हैं। लेन-देन का व्यापार अभी लम्बा चलेगा। जीवन अभी कई बार पैदा होगा और कई बार जलेगा। और लेन-देन का सारा व्यापार जब चुक जायेगा, ईश्वर हमसे खुद कहेगा- तुम्हारा एक पावना मुझ पर भी है, आओ, उसे ग्रहण करो। अपना रूप छोड़ो, मेरा स्वरूप वरण करो ।

39. करघा

हर जिन्दगी कहीं न कहीं दूसरी जिन्दगी से टकराती है। हर जिन्दगी किसी न किसी जिन्दगी से मिल कर एक हो जाती है। जिन्दगी जिन्दगी से इतनी जगहों पर मिलती है कि हम कुछ समझ नहीं पाते और कह बैठते हैं, यह भारी झमेला है। संसार संसार नहीं, बेवकूफियों का मेला है। हर जिन्दगी एक सूत है । और दुनिया उलझे हुए सूतों का जाल है । इस उलझन का सुलझाना हमारे लिए मुहाल है। मगर जो बुनकर करघे पर बैठा है, वह हर सूत की किस्मत को पहचानता है। सूत के टेढ़े या सीधे चलने का क्या रहस्य है, बुनकर इसे खूब जानता है।

40. तुलसीदास

ईश्वर के आसन के नीचे जो खजाना गड़ा था, आपने उसे उखाड़ लिया। और कवि कविता करते रहे, आपने कविता के माध्यम से अपने आपको उबार लिया। तुलसीदास जी, आप पर मेरी श्रद्धा अटूट है लेकिन मैं आपकी नकल नहीं करूँगा । परम्परा की पूजा नहीं करना पानी के बिना प्यास से मरना है। और परम्परा की नकल करना अपने गले पर शाणित कृपाण धरना है।

41. अनास्था

कविता लिखते हुए मुझे भय लगता था। कविता लिखते हुए मैं अब भी थरथराता हूँ, मानो मैं कुंवारी नारी होऊँ और यह पहली ही बार हो! पहले कविता में लोग रस और आनन्द खोजते थे। कविता पढ़ने या सुनने इसलिए आते थे कि क्षण भर को वे होश- हवास खो सकें, संसार के बन्धनों से छूटकर हवा के साथ एक हो सकें। अब कविता कहती है, मैं आकाश में नहीं, धरती पर चलूँगी। जो कुछ धरती पर नहीं है, छूछा और झूठ है। इन खोखले आदर्शों के खिलाफ मैं क्रोध से जलूँगी। क्रोधवती कविता से मेरा निकट का परिचय है। उसके सारे नखरे मैं शौक से सहूँगा। लेकिन अगर कोई यह पूछ बैठे कि तेरी कविता में अनास्था कहाँ है? तो समझ में नहीं आता कि मैं क्या कहूँगा !

42. भूमिका

भूमिका तो मैंने बहुत लम्बी लिखी, मगर असली किताब खाली की खाली है। अँधेरे में मैंने जो अक्षर लिखे थे, देखता हूँ, वे उगे ही नहीं। आत्मज्ञान से भी शान्ति नहीं, अशान्ति ही बढ़ती है। है कहीं वह आँख जो अन-उगे अक्षरों को पढ़ती है? शब्दों से मैंने एक पुल बनाया था। आशा थी, लोग उस पर चढ़ कर आयेंगे - जायेंगे। मैं उन्हें पुल पर आते-जाते देखूँगा, वे भी मुझे एक ओर खड़ा पायेंगे। मैं तो पुल के सिरे पर आज भी बसता हूँ। लेकिन कोई आदमी इस पुल को पार नहीं करता। अपनी बेवकूफी पर मैं मन-ही-मन हँसता हूँ।

43. कुंजी

घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन, जब मैं बालक अबोध अनजान था। यह पवन तुम्हारी साँस का सौरभ लाता था। उसके कंधों पर चढ़ा मैं जाने कहाँ-कहाँ आकाश में घूम आता था। सृष्टि शायद तब भी रहस्य थी। मगर कोई परी मेरे साथ में थी; मुझे मालूम तो न था, मगर ताले की कुंजी मेरे हाथ में थी। जवान होकर मैं आदमी न रहा, खेत की घास हो गया। तुम्हारा पवन आज भी आता है और घास के साथ अठखेलियाँ करता है, उसके कानों में चुपके-चुपके कोई संदेश भरता है। घास उड़ना चाहती है और अकुलाती है, मगर उसकी जड़ें धरती में गड़ी हुई हैं। इसलिए हवा के साथ वह उड़ नहीं पाती है। शक्ति जो चेतन थी, अब जड़ हो गई है। बचपन में जो कुंजी मेरे पास थी, उम्र बढ़ते-बढ़ते वह कहीं खो गई है।

44. दर्द

जीवन दर्द का झरना है। जो भी जीते हैं, दर्द भोगते हैं। और दर्द भोगते-भोगते ही हमें मरना है। दर्द नियति की दुकान की निहाई है। दर्द भगवान के हाथ का हथौड़ा है। देवता हम पर चोटें देकर हमें सँवारता और गढ़ता है। शायद यह बात सच है कि आदमी दर्द में विकसित होता, खूबसूरत बनता और बढ़ता है।

45. हार

हार कर मेरा मन पछताता है। क्योंकि हारा हुआ आदमी तुम्हें पसन्द नहीं आता है। लेकिन लड़ाई में मैंने कोताही कब की ? कोई दिन याद है, जब मैं गफलत में खोया हूँ? यानी तीर-धनुष सिरहाने रखकर छाँह में सोया हूँ? हर आदमी की किस्मत में लिखी है। जीत केवल संयोग की बात है। किरणें कभी-कभी कौंध कर चली जाती हैं, नहीं तो पूरी जिन्दगी अँधेरी रात है।

46. अहंकार विसर्जन

घड़ी थी, जब मैं माथे को उतान किये चलता था। जैसे आकाश में सूर्य जलता है, वैसे ही धरती पर जलता था। लेकिन जिन्दगी ने इतनी ठोकरें मारीं कि माथा आपसे आप झुक गया। सूर्य से होड़ लेने की उमंग अब भी उठती है, लेकिन लोहू में जो ताप था, लगता है, चुक गया। देवता, तुमने देह धर कर मुझे लूटा है। फिर भी संतोष है कि मेरा अहंकार तुम्हारे चरणों पर टूटा है।

47. कीर्ति

रवीन्द्रनाथ ने कहा था, आमार कीर्ति रे, आमि कोरि ना विश्वास । तो फिर मैं ही अपनी कीर्ति का भरोसा क्यों करूँ ? मैं जिस डाल पर खड़ा हूँ, वह टूटने वाली है। जिस मटकी में मैंने कीर्ति का दही सँजोया है, वह फूटने वाली है। कीर्ति कमाने वाले कितने ज्यादा लोग हैं! काल अमिट संगमर्मर के सिंहासन कितनों के लिए बिछायेगा ? समय का पट बड़ा है, फिर भी वह बहुत बड़ा नहीं है। अगर काल चाहे भी तो सबकी लिखावटें अपनी छाती पर आँक नहीं सकता। आकाश में जहाँ अगणित नक्षत्र जगमगाते हैं, रुपहलें तारों से वहाँ सभी के नाम टाँक नहीं सकता। क्या पता, मेरा सोना मिट जाय और लोहा बचेय सभी कृतियों के बीच समर्पण का कोई एक पद, आज उपेक्षित है, शायद वही पंक्ति अथवा कोई छप्पय या दोहा बचे।

48. मशाल

लोग कहते हैं, तुम्हारी मशाल दूर-दूर तक जल रही है। जनता तुम्हारी रोशनी में चल रही है। इस बात पर यकीन तो नहीं होता, मगर हृदय गुदगुदाता और काँपता है। और तब कोई मेरी ऊँचाई नापता है। लोग मुझे नहीं जानते, मगर मैं अपने-आपको जानता हूँ। जिसका ढोल चारों ओर पिट रहा है, उसे मैं खूब पहचानता हूँ। इसीलिए मैं अपनी कीर्ति से डरता हूँ। और बार-बार यह प्रार्थना करता हूँ। कि हे प्रभो, कठिन घड़ी में काम आओ। लोग मुझे जैसा समझते हैं, तुम मुझे वैसा ही बनाओ। साफ सुथरा, पारदर्शी और ईमानदार, ईश्वर से डरने वाला, परम्परा का आदर करने वाला। अभागों के लिए रोने की बान छूटे नहीं । मटमैली धरती से सरोकार टूटे नहीं । बुढ़ापे की शिराओं में जवानी का रस मौजूद रहे। अन्याय के विरोध का साहस मौजूद रहे।

49. कनफ्यूशियस

मेरी चुप्पी की दोस्तों में चर्चा होती है। वे सोचते हैं, कवि कवि-सा तो अभी भी दिखता है, लेकिन कविता छोड़कर वह गद्य क्यों लिखता है? राज न तो बहुत मोटा है, न ज्यादा महीन है। ग़म के मौसम से नजात मुश्किल है। अरसे से कवि चिन्ता में तन्मय और दर्द से ग़मगीन है। कनफ्यूशियस अक्ल की बातें तो रोज बताता था, मगर जिस दिन वह रोता था, उस दिन गीत नहीं गाता था ।

50. खोज

खोजियो, तुम नहीं मानोगे, लेकिन संतों का कहना सही है । जिस घर में हम घूम रहे हैं, उससे निकलने का रास्ता नहीं है । शून्य औए दीवार, दोनों एक हैं । आकार और निराकार, दोनों एक हैं । जिस दिन खोज शांत होगी, तुम आप-से-आप यह जानोगे कि खोज पाने की नहीं, खोने की थी । यानी तुम सचमुच में जो हो, वही होने की थी ।

51. माध्यम

मैं माध्यम हूँ, मौलिक विचार नहीं, कनफ़्युशियस ने कहा । तो मौलिक विचार कहाँ मिलते हैं, खिले हुए फूल ही नए वृन्तों पर दुबारा खिलते हैं । आकाश पूरी तरह छाना जा चुका है, जो कुछ जानने योग्य था, पहले ही जाना जा चुका है । जिन प्रश्नों के उत्तर पहले नहीं मिले, उनका मिलना आज भी मुहाल है । चिंतकों का यह हाल है कि वे पुराने प्रश्नों को नए ढंग से सजाते हैं और उन्हें ही उत्तर समझकर भीतर से फूल जाते हैं । मगर यह उत्तर नहीं, प्रश्नों का हाहाकार है । जो सत्य पहले अगोचर था, वह आज भी तर्कों के पार है ।

52. पर्वतारोही

मैं पर्वतारोही हूँ। शिखर अभी दूर है। और मेरी साँस फूलनें लगी है। मुड़ कर देखता हूँ कि मैनें जो निशान बनाये थे, वे हैं या नहीं। मैंने जो बीज गिराये थे, उनका क्या हुआ? किसान बीजों को मिट्टी में गाड़ कर घर जा कर सुख से सोता है, इस आशा में कि वे उगेंगे और पौधे लहरायेंगे । उनमें जब दानें भरेंगे, पक्षी उत्सव मनानें को आयेंगे। लेकिन कवि की किस्मत इतनी अच्छी नहीं होती। वह अपनें भविष्य को आप नहीं पहचानता। हृदय के दानें तो उसनें बिखेर दिये हैं, मगर फसल उगेगी या नहीं यह रहस्य वह नहीं जानता ।

53. स्वर्ग

स्वर्ग की जो कल्पना है, व्यर्थ क्यों कहते उसे तुम? धर्म बतलाता नहीं संधान यदि इसका? स्वर्ग का तुम आप आविष्कार कर लेते।

54. गाँधी

देश में जिधर भी जाता हूँ, उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ "जड़ता को तोड़ने के लिए भूकम्प लाओ । घुप्प अँधेरे में फिर अपनी मशाल जलाओ । पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर पवनकुमार के समान तरजो । कोई तूफ़ान उठाने को कवि, गरजो, गरजो, गरजो !" सोचता हूँ, मैं कब गरजा था ? जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं, वह असल में गाँधी का था, उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था । तब भी हम ने गाँधी के तूफ़ान को ही देखा, गाँधी को नहीं । वे तूफ़ान और गर्जन के पीछे बसते थे । सच तो यह है कि अपनी लीला में तूफ़ान और गर्जन को शामिल होते देख वे हँसते थे । तूफ़ान मोटी नहीं, महीन आवाज़ से उठता है । वह आवाज़ जो मोम के दीप के समान एकान्त में जलती है, और बाज नहीं, कबूतर के चाल से चलती है । गाँधी तूफ़ान के पिता और बाजों के भी बाज थे । क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।

55. अवकाशवाली सभ्यता

मैं रात के अँधेरे में सिताओं की ओर देखता हूँ जिन की रोशनी भविष्य की ओर जाती है अनागत से मुझे यह खबर आती है की चाहे लाख बदल जाये मगर भारत भारत रहेगा जो ज्योति दुनिया में बुझी जा रही है वह भारत के दाहिने करतल पर जलेगी यंत्रों से थकी हुयी धरती उस रोशनी में चलेगी साबरमती, पांडिचेरी, तिरुवन्न मलई ओर दक्षिणेश्वर, ये मानवता के आगामी मूल्य पीठ होंगे जब दुनिया झुलसने लगेगी, शीतलता की धारा यहीं से जाएगी रेगिस्तान में दौड़ती हुयी सन्ततियाँ थकने वाली हैं वे फिर पीपल की छाया में लौट आएँगी आदमी अत्यधिक सुखों के लोभ से ग्रस्त है यही लोभ उसे मारेगा मनुष्य और किसी से नहीं, अपने आविष्कार से हारेगा गाँधी कहते थे, अवकाश बुरा है आदमी को हर समय किसी काम में लगाये रहो जब अवकाश बढ़ता है , आदमी की आत्मा ऊंघने लगती है उचित है कि ज्यादा समय उसे करघे पर जगाये रहो अवकाशवाली सभ्यता अब आने ही वाली है आदमी खायेगा , पियेगा और मस्त रहेगा अभाव उसे और किसी चीज़ का नहीं , केवल काम का होगा वह सुख तो भोगेगा , मगर अवकाश से त्रस्त रहेगा दुनिया घूमकर इस निश्चय पर पहुंचेगी कि सारा भार विज्ञान पर डालना बुरा है आदमी को चाहिए कि वह ख़ुद भी कुछ काम करे हाँ, ये अच्छा है कि काम से थका हुआ आदमी आराम करे

56. शोक की संतान

हृदय छोटा हो, तो शोक वहां नहीं समाएगा। और दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा। टीस उसे उठती है, जिसका भाग्य खुलता है। वेदना गोद में उठाकर सबको निहाल नहीं करती, जिसका पुण्य प्रबल होता है, वह अपने आसुओं से धुलता है। तुम तो नदी की धारा के साथ दौड़ रहे हो। उस सुख को कैसे समझोगे, जो हमें नदी को देखकर मिलता है। और वह फूल तुम्हें कैसे दिखाई देगा, जो हमारी झिलमिल अंधियाली में खिलता है? हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं तुम हमारी कुटिया को देखकर जलते हो। युगों से हमारा तुम्हारा यही संबंध रहा है। हम रास्ते में फूल बिछाते हैं तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो। दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए, तुम पानी की बाढ़ में से सुखों को छान लोगे। चाहे हिटलर ही आसन पर क्यों न बैठ जाए, तुम उसे अपना आराध्य मान लोगे। मगर हम? तुम जी रहे हो, हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं। आयु तेजी से भागी जाती है और हम अंधेरे में जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं। असल में हम कवि नहीं, शोक की संतान हैं। हम गीत नहीं बनाते, पंक्तियों में वेदना के शिशुओं को जनते हैं। झरने का कलकल, पत्तों का मर्मर और फूलों की गुपचुप आवाज़, ये गरीब की आह से बनते हैं।

57. हारे को हरिनाम

सब शोकों का एक नाम है क्षमा ह्रदय, आकुल मत होना। [१] दहक उठे जो अंगारे बन नए कुसुम-कोमल सपने थे अंतर में जो गाँस मार गए अधिक सबसे अपने थे अब चल, उसके द्वार सहज जिसकी करुणा है और कहाँ, किसका आंसू कब थमा? ह्रदय, आकुल मत होना [२] आघातों से विषण्ण म्रियमाण गान मत छोड़ अभय का और न कर अब अधिक मार्ग-संधान सिद्धि का, दैहिक जय का सुख निद्रा की निशा, विपद जागरण प्रात का किरणों पर चढ़ पकड़ प्रकृति उत्तमा ह्रदय, आकुल मत होना [३] उषः लोक का पुलकाकुल कल रोर मधुर जिसका प्रसाद है दुर्दिन की झंझा में वज्र-कठोर उसी का शंखनाद है जिसका दिवस ललाट, उसी का निशा चिकुर है रम उसमें, जो है दिगंत में रमा ह्रदय, आकुल मत होना