ग़ज़लें-3 : नज़ीर अकबराबादी

Ghazals in Hindi-3 : Nazeer Akbarabadi

1. न उस के नाम से वाक़िफ़ न उस की जा मालूम

न उस के नाम से वाक़िफ़ न उस की जा मालूम
मिलेगा देखिए क्यूँकर वो बुत ख़ुदा मालूम

जवाब देखिए दिल ले के ये कहा चुपके
न हो ये और किसी को तिरे सिवा मालूम

लगा के ज़ख़्म-ए-जिगर पर जो फिर नमक छिड़का
तो इस में हम को हुआ और ही मज़ा मालूम

बदन परी का तिरे तन से गो कि गोरा है
वले वो चाहे कि ऐसा हो गुदगुदा मालूम

हम उस पे मरते हैं मुद्दत से और वो कहता है
क़सम ख़ुदा की हमें तो ये अब हुआ मालूम

किया था अहद न वअदा न क़ौल ने इक़रार
जो आ गया वो मिरे पास शब को ना-मालूम

जो मुझ से हँस के कहा जिस लिए हम आए हैं
'नज़ीर' तुम ने भी सच कहियो क्या किया मालूम

कहा ये मैं ने मुझे क्या ख़बर तुम्हीं जानो
किसी के दिल की भला जी किसी को क्या मालूम

2. नज़र पड़ा इक बुत-ए-परी-वश निराली सज-धज नई अदा का

नज़र पड़ा इक बुत-ए-परी-वश निराली सज-धज नई अदा का
जो उम्र देखो तो दस बरस की पे क़हर ओ आफ़त ग़ज़ब ख़ुदा का

जो घर से निकले तो ये क़यामत कि चलते चलते क़दम क़दम पर
किसी को ठोकर किसी को छक्कड़ किसी को गाली निपट लड़ाका

गले लिपटने में यूँ शिताबी कि मिस्ल बिजली के इज़्तिराबी
कहीं जो चमका चमक चमक कर कहीं जो लपका तो फिर झपाका

ये चंचलाहट ये चुलबुलाहट ख़बर न सर की न तन की सुध-बुध
जो चीरा बिखरा बला से बिखरा न बंद बाँधा कभू क़बा का

लड़ा दे आँखें वो बे-हिजाबी कि फिर पलक से पलक न मारे
नज़र जो नीची करे तो गोया खिला सरापा चमन हया का

ये राह चलने में चंचलाहट कि दिल कहीं है नज़र कहीं है
कहाँ का ऊँचा कहाँ का नीचा ख़याल किस को क़दम की जा का

ये रम ये नफ़रत ये दूर खिंचना ये नंग आशिक़ के देखने से
जो पत्ता खटके हवा से लग कर तो समझे खटका निगह के पा का

जतावे उल्फ़त चढ़ावे अबरू इधर लगावट उधर तग़ाफ़ुल
करे तबस्सुम झिड़क दे हर दम रविश हटीली चलन दग़ा का

न वो सँभाले किसी के सँभले न वो मनाए मने किसी से
जो क़त्ल-ए-आशिक़ पे आ के मचले तो ग़ैर का फिर न आश्ना का

जो शक्ल देखो तो भोली भोली जो बातें सुनिए तो मीठी मीठी
दिल ऐसा पत्थर कि सर अड़ा दे जो नाम लीजे किसी वफ़ा का

'नज़ीर' हट जा परे सरक जा बदल ले सूरत छुपा ले मुँह को
जो देख लेवेगा वो सितमगर तो यार होगा अभी झड़ाका

3. न टोको दोस्तो उस की बहार नाम-ए-ख़ुदा

न टोको दोस्तो उस की बहार नाम-ए-ख़ुदा
यही अब एक है याँ गुल-एज़ार नाम-ए-ख़ुदा

ये वो सनम है परी-रू कि जिस पे होती थीं
हज़ार जान से परियाँ निसार नाम-ए-ख़ुदा

उसी सनम की निगाहों की बर्छियाँ यारो
हुई हैं मेरे कलेजे के पार नाम-ए-ख़ुदा

उसी के नश्तर-ए-मिज़्गाँ में अब वो तेज़ी है
कि जिस से होते हैं हम दिल-फ़िगार नाम-ए-ख़ुदा

उसी सनम के रुख़ ओ ज़ुल्फ़ के तसव्वुर में
हमारी गुज़रे है लैल-ओ-नहार नाम-ए-ख़ुदा

गली में कूचा ओ बाज़ार में हम अब दिन रात
उसी के वास्ते फिरते हैं ख़्वार नाम-ए-ख़ुदा

उसी के सर की क़सम है कि हम तो मर जाते
अगर न होता ये गुल-रू निगार नाम-ए-ख़ुदा

बने हैं याँ जो कई दैर और सनम-ख़ाने
उधर जो जो होता है उस का गुज़ार नाम-ए-ख़ुदा

उठा के सीना झटक बाज़ू और बना कर धज
चले है जिस घड़ी ठोकर को मार नाम-ए-ख़ुदा

क़दम क़दम पे बरहमन कहें हैं बिस्मिल्लाह
सनम भी कहते हैं सब बार बार नाम-ए-ख़ुदा

ग़रज़ जिधर को निकलता है ये तो हर इक के
ज़बाँ से निकले है बे-इख़्तियार नाम-ए-ख़ुदा

'नज़ीर' एक ग़ज़ल और कह कि तेरे सुख़न
हैं अब तो सब गुहर-ए-आब-दार नाम-ए-ख़ुदा

4. न दिल में सब्र न अब दीदा-ए-पुर-आब में ख़्वाब

न दिल में सब्र न अब दीदा-ए-पुर-आब में ख़्वाब
शिताब आ कि हमें आवे इस अज़ाब में ख़्वाब

जहाँ भी ख़्वाब है और हम भी ख़्वाब हैं ऐ दिल
अजब बहार का देखा ये हम ने ख़्वाब में ख़्वाब

हमारी चश्म का ऐ शहसवार तौसन-ए-नाज़
जो ग़ौर की तो किया है तिरी रिकाब में ख़्वाब

हर इक मकाँ में गुज़रगाह-ए-ख़्वाब है लेकिन
अगर नहीं तो नहीं इश्क़ के जनाब में ख़्वाब

हुजूम-ए-अश्क में लगती है चश्म-ए-तर इस तौर
कि जैसे माही को आता है अपने आब में ख़्वाब

रवा-रवी में लगे आँख किस तरह से 'नज़ीर'
मुसाफ़िरों को कहाँ ऐसे इज़्तिराब में ख़्वाब

5. न मैं दिल को अब हर मकाँ बेचता हूँ

न मैं दिल को अब हर मकाँ बेचता हूँ
कोई ख़ूब-रू ले तो हां बेचता हूँ

वो मय जिस को सब बेचते हैं छुपा कर
मैं उस मय को यारो अयां बेचता हूँ

ये दिल जिसको कहते हैं अर्श-ए-इलाही
सो उस दिल को यारो मैं यां बेचता हूँ

ज़रा मेरी हिम्मत तो देखो अज़ीज़ो
कहां की है जिंस और कहां बेचता हूँ

लिए हाथ पर दल को फिरता हूँ यारो
कोई मोल लेवे तो हाँ बेचता हूँ

वो कहता है जी कोई बेचे तो हम लें
तो कहता हूँ लो हाँ मियाँ बेचता हूँ

मैं एक अपने यूसुफ़ की ख़ातिर अज़ीज़ो
ये हस्ती का सब कारवाँ बेचता हूँ

जो पूरा ख़रीदार पाऊँ तो यारो
मैं ये सब ज़मीन-ओ-ज़माँ बेचता हूँ

ज़मीं आसमां अर्श-ओ-क्रुर्सी भी क्या है
कोई ले तो मैं ला-मकां बेचता हूँ

जिसे मोल लेना हो ले ले ख़ुशी से
मैं इस वक़्त दोनों जहां बेचता हूँ

बिकी जिंस ख़ाली दुकाँ रह गई है
सो अब इस दुकाँ को भी हाँ बेचता हूँ

मोहब्बत के बाज़ार में ऐ 'नज़ीर' अब
मैं आज़िज़ ग़रीब अपनी जां बेचता हूँ

6. न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में

न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में
जो कुछ मज़ा है तिरे साथ मिल के सोने में

पलंग पे सेज बिछाता हूँ मुद्दतों से जान
कभी तू आन के सो जा मिरे बिछौने में

मसक गई है वो अंगिया जो तंग बँधने से
तो क्या बहार है काफ़िर के चाक होने में

कहा मैं उस से कि इक बात मुझ को कहनी है
कहूँ मैं जब कि चलो मेरे साथ कोने में

ये बात सुनते ही जी में समझ गई काफ़िर
कि तेरा दिल है कुछ अब और बात होने में

ये सुन के बोली कि है है ये क्या कहा तू ने
पड़ा है क्यूँ मुझे दुनिया से अब तू खोने में

तो बूढ़ा मर्दुआ और बारहवाँ बरस मुझ को
मैं किस तरह से चलूँ तेरे साथ कोने में

'नज़ीर' एक वो अय्यार सुरती है काफ़िर
कभी न आवेगी वो तेरे जादू-टोने में

7. न सुर्खी गुंचा-ए-गुल में तेरे दहन की सी

न सुर्खी गुंचा-ए-गुल में तिरे दहन की सी।
न यासमन में सफाई तिरे बदन की सी।

गुलों के रंग को क्या देखते हो, ऐ ख़ूबां,
ये रंगतें हैं तुम्हारे ही पैरहन की सी।

ये बर्क अब्र में देखे से याद आती है,
झलक किसी के दुपट्टे में नौ-रतन की सी।

हज़ार तन के चलें बाँके खूब-रू, लेकिन
किसी में आन नहीं तेरे बांकपन की सी।

मैं क्यूँ न फूलूँ कि उस गुल-बदन के आने से,
बहार आज मिरे घर में है चमन की सी।

जो दिल था वस्ल मेँ आबाद तेरे हिज्र में आह,
बनी है शक्ल अब उस की उजाड़ बन की सी।

कहाँ तू और कहाँ उस परी का वस्ल 'नज़ीर'
मियाँ तू छोड़ ये बातें दिवानेपन की सी।

'नज़ीर' एक ग़ज़ल इस ज़मी में और भी लिख,
कि अब तो कम है रवानी तिरे सुख़न की सी।

8. नहीं हवा में ये बू नाफ़ा-ए-ख़ुतन की सी

नहीं हवा में ये बू नाफ़ा-ए-ख़ुतन की सी ।
लपट है ये तो किसी जुल्फ़-ए-पुर-शिकन की सी ।

मैं हँस के इस लिए मुँह चूमता हूँ ग़ुन्चे का,
कि कुछ निशानी है उस में तिरे दहन की सी ।

ख़ुदा के वास्ते गुल को न मेरे हाथ से लो
मुझे बू आती है इस में किसी बदन की सी ।

हज़ार तन के चलें बाँके ऱवूब-रू लेकिन,
किसी में आन नहीं तेरे बाँकपन की सी ।

मुझे तो उस पे निहायत ही रश्क आता है
कि जिस के हाथ ने पोशाक तेरे तन की सी ।

कहा जो तुम ने कि मनका ढला तो आऊँगा
है बात कुछ न कुछ उस में भी मक्र-ओ-फ़न की सी ।

वगर्ना सच है तो ऐ जान इतनी मुद्दत में
यही बस एक कही तुम ने मेरे मन की सी ।

वो देख शेख़ को ला-हौल पढ़ के कहता है,
"ये आए देखिए दाढ़ी लगाए रसन की सी ।"

कहाँ तू और कहाँ उस परी का वस्ल 'नज़ीर',
मियाँ तू छोड़ ये बातें दिवाने-पन की सी ।

9. नामा-ए-यार जो सहर पहुँचा

नामा-ए-यार जो सहर पहुँचा
ख़ुश-रक़म ख़ूब वक़्त पर पहुँचा

था लिखा यूँ कि ऐ 'नज़ीर' अब तक
किस सबब तू नहीं इधर पहुँचा

मैं ने उस को कहा कि ऐ महबूब
इस लिए मैं नहीं उधर पहुँचा

यूँ सुना था तुम आपी आते हो
इस में नामा ये पुर-गुहर पहुँचा

मुझ को पहुँचा ही जानो अपने पास
आज-कल शाम या सहर पहुँचा

10. निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द-पोश हो

निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द-पोश हो
जिस की नवेद पहुँची है रंग-ए-बसंत को

दी बर में अब लिबास-ए-बसंती को जैसे जा
ऐसे ही तुम हमारे भी सीना से आ लगो

गर हम नशे में बोसा कहें दो तो लुत्फ़ से
तुम पास मुँह को ला के ये हँस कर कहो कि लो

बैठो चमन में नर्गिस ओ सद-बर्ग की तरफ़
नज़्ज़ारा कर के ऐश-ओ-मसर्रत की दाद दो

सुन कर बसंत मुतरिब-ए-ज़र्रीं-लिबास से
भर भर के जाम फिर मय-ए-गुल-रंग के पियो

कुछ क़ुमरियों के नग़्मा को दो सामेआ में राह
कुछ बुलबुलों का ज़मज़मा-ए-दिल-कुशा सुनो

मतलब है ये 'नज़ीर' का यूँ देख कर बसंत
हो तुम भी शाद दिल को हमारे भी ख़ुश करो

11. निगह के सामने उस का जूँही जमाल हुआ

निगह के सामने उस का जूँही जमाल हुआ
वो दिल ही जाने है उस दम जो दिल का हाल हुआ

अगर कहूँ मैं कि चमका वो बर्क़ की मानिंद
तो कब मसल है ये उस की जो बे-मिसाल हुआ

क़रार ओ होश का जाना तो किस शुमार में है
ग़रज़ फिर आप में आना मुझे मुहाल हुआ

इधर से भर दिया मय ने निगाह का साग़र
उधर से ज़ुल्फ़ का हल्क़ा गले का जाल हुआ

बहार-ए-हुस्न वो आए नज़र जो उस की 'नज़ीर'
तो दिल वहीं चमन-ए-इश्क़ में निहाल हुआ

12. नीची निगह की हम ने तो उस ने मुँह को छुपाना छोड़ दिया

नीची निगह की हम ने तो उस ने मुँह को छुपाना छोड़ दिया
कुछ जो हुई फिर ऊँची तो रुख़ से पर्दा उठाना छोड़ दिया

ज़ुल्फ़ से जकड़ा पहले तो दिल फिर उस का तमाशा देखने को
नज़रों का उस पर सेहर किया और कर के दिवाना छोड़ दिया

उस ने उठाया हम पे तमाँचा हम ने हटाया मुँह को जो आह
शोख़ ने हम को उस दिन से फिर नाज़ दिखाना छोड़ दिया

बैठ के नज़दीक उस के जो इक दिन पाँव को हम ने चूम लिया
उस ने हमें बेबाक समझ कर लुत्फ़ जताना छोड़ दिया

फिर जो गए हम मिलने को उस को देख के उस ने हम को नज़ीर
यूँ तो कहा हाँ आओ जी लेकिन पास बिठाना छोड़ दिया

13. पाया मज़ा ये हम ने अपनी निगह लड़ी का

पाया मज़ा ये हम ने अपनी निगह लड़ी का
जो देखना पड़ा है ग़ुस्सा घड़ी घड़ी का

उक़्दा तो नाज़नीं के अबरू का हम ने खोला
अब खोलना है उस की ख़ातिर की गुल-झड़ी का

इस रश्क-ए-मह के आगे क्या क़द्र है परी की
कब पहुँचे हुस्न उस को ऐसी गिरी-पड़ी का

इस गुल-बदन ने हँस कर इक ले के शाख़-ए-नसरीं
हम से कहा कि कीजे कुछ सफ़ इस छड़ी का

जब हम नज़ीर बोले ऐ जाँ ये वो छड़ी है
दिल टूटता है जिस पर जूँ फूल पंखुड़ी का

14. बगूले उठ चले थे और न थी कुछ देर आँधी में

बगूले उठ चले थे और न थी कुछ देर आँधी में
कि हम से यार से हो गई मुड़भेड़ आँधी में

जता कर ख़ाक का उड़ना दिखा कर गर्द का चक्कर
वहीं हम ले चले उस गुल-बदन को घेर आँधी में

रक़ीबों ने जो देखा ये उड़ा कर ले चला उस को
पुकारे हाए ये कैसा हुआ अंधेर आँधी में

रक़ीबों की मैं अब ख़्वारी ख़राबी क्या लिखूँ बारे
भरी नयनों में उन के ख़ाक दस दस सेर आँधी में

वो दौडे तो बहुत लेकिन उन्हें आँधी में क्या सूझे
ज़ि-बस हम उस परी को लाए घर में घेर आँधी में

'नज़ीर' आँधी में कहते हैं कि अक्सर देव होते हैं
मियाँ हम को तो ले जाती है परियाँ घेर आँधी में

15. ब-हसबे-अकल तो कोई नहीं सामान मिलने का

ब-हसबे-अकल तो कोई नहीं सामान मिलने का
मगर दुनिया से ले जावेंगे हम अरमान मिलने का

अजब मुश्किल है, क्या कहिए बग़ैर अज़ जान देने के
कोई नक्शा नज़र आता नहीं आसान मिलने का

हमेँ तो ख़ाक में जा कर भी क्या क्या बे-कली होगी
जब आ जावेगा उस ग़ुंचा-दहन से ध्यान मिलने का

किसी से मिलने आए थे सो याँ भी हो चले इक दम
कहे देता हूँ ये मुझ पर नहीं एहसान मिलने का

'नज़ीर' इक उम्र उस दिलरुबा के वसल की ख़ातिर
बहुत रोये, बहुत चीख़े, पे क्या इमकान मिलने का ?

हमारी बेकरारी इज़्तराबी कुछ न काम आई
वो खुद ही आ मिला जब वक़्त आया आन मिलने का

(इमकान=संभावना, इज़्तराबी=बेचैनी)

16. भरे हैं उस परी में अब तो यारो सर-ब-सर मोती

भरे हैं उस परी में अब तो यारो सर-ब-सर मोती
गले में कान में नथ मेँ जिधर देखो उधर मोती

कोई बुंदो से मिल कर कान के नर्मों में हिलता है
ये कुछ लज्ज़त है जब अपना छिदाते है जिगर मोती

बो हँसते है तो खुलता है जवाहिर-ख़ाना-ए-क़ुदरत
इधर लाल और उधर नीलम इधर मर्जां उधर मोती

फ़ल्क पर देख कर तारे भी अपना होश खोते हैं
पहन कर जिस घड़ी बैठे है वो रश्क-ए-क़मर मोती

जो कहता हो अरे ज़ालिम टुक अपना नाम तो बतला
तो हँस कर मुझ से ये कहती है वो जादू नज़र मोती

वो दरिया मोतियों का हम से रूठा हो तो फिर यारो
भला क्यूँकर न बरसा दे हमारी चश्म-ए-तर मोती

'नज़ीर' इस रेख़्ते को सुन वो हँस कर यूँ लगी कहने
अगर होते तो मैं देती तुझे इक थाल भर मोती

17. मानी ने जो देखा तिरी तस्वीर का नक़्शा

मानी ने जो देखा तिरी तस्वीर का नक़्शा
सब भूल गया अपनी वो तहरीर का नक़्शा

उस अबरू-ए-ख़मदार की सूरत से अयाँ है
ख़ंजर की शबाहत दम-ए-शमशीर का नक़्शा

क्या गर्दिश-ए-अय्याम है ऐ आह-ए-जिगर-सोज़
उल्टा नज़र आया तिरी तासीर का नक़्शा

दिन रात तिरे कूचे में रोवे है हमेशा
आशिक़ के ये है मंसब ओ जागीर का नक़्शा

तदबीर तो कुछ बन नहीं आती है 'नज़ीर' आह
अब देखिए क्या होता है तक़दीर का नक़्शा

18. मियाँ दिल तुझे ले चले हुस्न वाले

मियाँ दिल तुझे ले चले हुस्न वाले
कहो और किया जा ख़ुदा के हवाले

ख़बरदार उन के सिवा ज़ुल्फ़ ओ रुख़ के
कहीं मत निकलना अंधेरे उजाले

तिरी कुछ सिफ़ारिश मैं उन से भी कर दूँ
करेगा तू क्या याद मुझ को भुला ले

सुनो दिलबरो गुल-रुख़ो मह-जबीनो
मैं तुम पास आया हूँ इक इल्तिजा ले

तुम अपने ही क़दमों तले उस को रखियो
तसल्ली दिलासे में हर दम सँभाले

तुम्हारे ये सब नाज़ उठावेगा लेकिन
वही बोझ रखियो जिसे ये उठा ले

'नज़ीर' आह दिल की जुदाई बुरी है
बहें क्यूँ न आँखों से आँसू के नाले

अगर दस्तरस हो तो कीजे मुनादी
कि फिर कोई सीने में दिल को न पाले

19. मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना

मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना
शाम हुई अब चलो सुब्ह फिर आ बैठना

होश रहा न क़रार दीन रहा और न दिल रहा
पास बुतों के हमें ख़ूब न था बैठना

लुत्फ़ से ऐ दिल तुझे उस के जो अबरू बिठाए
बैठियो लेकिन बहुत पास न जा बैठना

दिल की हमारी ग़रज़ बांधे है क्या बंद बंद
शोख का वो खोल कर बंद-ए-क़बा बैठना

कूचे में उस शोख़ के जाते तो हो ऐ 'नज़ीर'
जुल में कहीं अपनी चाह तुम न जता बैठना

20. क़िता-ये कहते हैं कि आशिक छूट जाता है अज़ीयत से

ये कहते हैं कि आशिक छूट जाता है अज़ीयत से
जब उसकी उम्र को लश्कर अजल का आनकर लूटे

हमारी रूह तो फिरती माशूक़ों की गलियों में
''नज़ीर'' अब हम तो मर कर भी न इस जंजाल से छूटे

(अज़ीयत=कष्ट, अजल=मौत)

21. ये छपके का जो बाला कान में अब तुम ने डाला है

ये छपके का जो बाला कान में अब तुम ने डाला है
इसी बाले की दौलत से तुम्हारा बोल-बाला है

नज़ाकत सर से पाँव तक पड़ी कुर्बान होती है
इलाही इस बदन को तू ने किस साँचे में ढाला है

ये दिल क्यूँकर निगह से उस की छिदत्ते हैं मैं हैराँ हूँ
न ख़ंजर है न नश्तर है न जमधर है न भाला है

बलाएँ नाग काले नागिनें और साँप के बच्चे
ख़ुदा जाने कि उस जूड़े में क्या क्या बाँध डाला है

'नज़ीर' इक और लिख ऐसी ग़ज़ल जो सुन के जी ख़ुश हो
अरी इस ढब की बातों ने तो दिल में शोर डाला है

22. ये हुस्न है आह या क़यामत कि इक भभूका भभक रहा है

ये हुस्न है आह या क़यामत कि इक भभूका भभक रहा है
फ़ल्क पे सूरज भी थरथरा कर मुँह उस का हैरत से तक रहा है

वो माथा ऐसा कि चाँद निखरे फिर उस के ऊपर वो बाल बिखरे
दिल उस के देखे से क्यूँ न बिखरे कि मिस्ल-ए-सूरज चमक रहा है

वो चीन ख़ुद-रौ कटीले अबरू वो चश्म जादू निगाहें आहू
वो पलकें कज-ख़ू कि जिन का हर मू जिगर के अंदर खटक रहा है

ग़ज़ब वो चंचल की शोख-बीनी फिर उस पे नथुनों की नुक्ता-चीनी
फिर उस पे नथ की वो हम-नशीनी फिर उस पे मोती फड़क रहा है

लब ओ दहाँ भी वो नर्म-ओ-नाज़ुक मिसी ओ पाँ भी वो क़हर-ओ-आफ़त
सुख़न भी करने की वो लताफ़त कि गोया मोती टपक रहा है

23. रुख़ परी चश्म परी ज़ुल्फ़ परी आन परी

रुख़ परी, चश्म परी, ज़ुल्फ़ परी, आन परी
कयों न अब नामे-ख़ुदा हो तेरे कुरबान परी

झुमके झुमके वो सुरैया के करनफूल, वो फूल
बुन्दे बाले परी, मोती परी और कान परी

हुस्न गुलज़ार कमर शक्ल सुराही गर्दन
मह-जबीं सेब-ए-ज़कन चाह-ए-ज़नख़दान परी

मुस्कुराने की अदा जैसे चमक बिजली की
आन हंसने की क्यामत, लब-ओ-दन्दान परी

आंख मस्ती की भरी, शोख़ निगाहें चंचल
कहर काजल की खिंचावट, मिसी-ओ-पान-परी

चाक सीने का ग़ज़ब साफ़ बदन मोती सा
एक तस्वीर सी कुर्ती का गरेबान परी

क्या कहूं उसके सरापा की मैं तारीफ़ 'नज़ीर'
क़द परी, धज परी, आलम परी और शान परी

(रुख़=चेहरा, चश्म=आँख, सुरैया=एक तारा-समूह
लब-ओ-दन्दान= होंठ और दाँत)

24. वो मुझको देख कुछ इस ढब से शर्मसार हुआ

वो मुझको देख कुछ इस ढब से शर्मसार हुआ
कि मैं हया हो पे उसकी फ़क़त निसार हुआ

सभी को बोसे दिये हंस के और हमें गाली
हज़ार शुक्र भला इस कदर तो प्यार हुआ

हमारे मरने को हां तुम तो झूठ समझे थे
कहा रकीब ने, लो अब तो एतबार हुआ ?

करार करके न आया वो संग-दिल काफ़िर
पड़ें करार पे पत्थर, ये कुछ करार हुआ ?

गले का हार जो उस गुलबदन का टूट पड़ा
तो डर नज़र का वहीं उसको एक बार हुआ

किसी से और तो कुछ बस चला न उसका ''नज़ीर''
निदान मेरे ही आकर गले का हार हुआ

25. वो रश्के-चमन कल जो ज़ेबे-चमन था

वो रश्के-चमन कल जो ज़ेबे-चमन था
चमन जुम्बिशे-शाख से सीना-ज़न था

गया मैं जो उस बिन चमन में तो हर गुल
मुझे उस घड़ी अख़गरे-पैरहन था

ये गुंचा जो बेदर्द गुलचीं ने तोड़ा
ख़ुदा जाने किसका ये नक्शे-दहन था

(रश्के-चमन=बाग़ को शरमिन्दा करने वाला,
सब से प्यारा, ज़ेबे-चमन=बाग़ की शोभा,
जुम्बिशे-शाख=शाखाओं का हिलना, सीना-ज़न=
सीना पीटना, अख़गरे-पैरहन= कपड़े को लगी
चिंगारी, गुंचा=कली, गुलचीं=फुलेरा,फूल विक्रेता,
नक्शे-दहन=मुंह की तस्वीर)

26. शब-ए-मह में देख उस का वो झमक झमक के चलना

शब-ए-मह में देख उस का वो झमक झमक के चलना
किया इंतिख़ाब मह ने ये चमक चमक के चलना

रविश-ए-सितम में आना तो क़दम उठाना जल्दी
जो रह-ए-कम में आना तो ठिठक ठिठक के चलना

न धड़क हो जो निकलना तो सर-ए-ख़तर पे ठोकर
जो नज़र गुज़र से डरना तो झिजक झिजक के चलना

जो नवाज़िशों पे आना तो रगड़ के दोश जाना
जो सर-ए-इताब होना तो फटक फटक के चलना

है खुबा 'नज़ीर' अब तो मिरे जी में उस सनम का
वो अकड़ के धज दिखाना वो हुमक हुमक के चलना

27. हंसे, रोये, फिरे रुसवा हुए, जाके बंधे, छूटे

हंसे, रोये, फिरे रुसवा हुए, जाके बंधे, छूटे
ग़रज़ हमने भी क्या-क्या कुछ मुहब्बत के मज़े लूटे

कलेजे में फफोले, दिल में दाग़ और गुल हैं हाथों पर
खिले है देखिए हममें भी यह उलफ़त के गुल-बूटे

28. हो क्यूँ न तिरे काम में हैरान तमाशा

हो क्यूँ न तिरे काम में हैरान तमाशा
या रब तिरी क़ुदरत में है हर आन तमाशा

ले अर्श से ता फ़र्श नए रंग नए ढंग
हर शक्ल अजाइब है हर इक शान तमाशा

अफ़्लाक पे तारों की झलकती है तिलिस्मात
और रू-ए-ज़मी पर गुल ओ रैहान तमाशा

जिन्नात परी देव मलक हूर भी नादिर
इंसान अजूबा है तो हैवान तमाशा

चोली की गुंधावट कहीं दिखलाती है लहरें
रखती है कहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशान तमाशा

गर इश्क़ के कूचे मॅ गुज़र कीजे तो वाँ भी
हर वक़्त नई सैर है हर आन तमाशा

मुँह ज़र्द बदन ख़ुश्क जिगर चाक अलमनाक
ग़ुल शोर तपिश नाला ओ अफ़ग़ान तमाशा

हम पस्त निगाहों की नज़र में तो 'नज़ीर' आह
सब अर्ज़-ओ-समा की है गुलिस्तान तमाशा

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