ग़ज़लें शेख़ इब्राहिम ज़ौक
Ghazals Sheikh Ibrahim Zauq

अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो

अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो
ये उम्र-ए-रफ़्ता की अपनी सदा-ए-पा समझो

बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा-ए-ख़ुदा समझो

न समझो दश्त शिफ़ा-ख़ाना-ए-जुनूँ है ये
जो ख़ाक सी भी पड़े फाँकनी दवा समझो

समझ तू कोर-सवादों को हो जो इल्म न हो
अगर समझ भी न हो कोर-ए-बे-असा समझो

पड़े किताब के क़िस्सों में क्या करो दिल साफ़
सफ़ा हो दिल तो ब-अज़ रौज़तुस-सफ़ा समझो

हँसे जो वो मिरे रोने पे तो सफ़-ए-मिज़्गाँ
न समझो तुम उसे दीवार-ए-क़हक़हा समझो

नफ़स की आमद-ओ-शुद है नमाज़-ए-अहल-ए-हयात
जो ये क़ज़ा हो तो ऐ ग़ाफ़िलो क़ज़ा समझो

तुम्हारी राह में मिलते हैं ख़ाक में लाखों
इस आरज़ू में कि तुम अपना ख़ाक-ए-पा समझो

दुआएँ देते हैं हम दिल से तेग़-ए-क़ातिल को
लब-ए-जराहत-ए-दिल को लब-ए-दुआ समझो

बहा दिया मिरा ख़ूँ उस ने अपने कूचे में
उसी को यारो दियत समझो ख़ूँ-बहा समझो

समझ है और तुम्हारी कहूँ मैं तुम से क्या
तुम अपने दिल में ख़ुदा जाने सुन के क्या समझो

तुम्हें है नाम से क्या काम मिस्ल-ए-आईना
जो रू-ब-रू हो उसे सूरत-आश्ना समझो

ज़हे नसीब कि हंगाम-ए-मश्क़ तीर-ए-सितम
हमारे ढेर को तुम तो वो ख़ाक का समझो

नहीं है कम ज़र-ए-ख़ालिस से ज़र्दी-ए-रुख़्सार
तुम अपने इश्क़ को ऐ 'ज़ौक़' कीमिया समझो

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे

तुम ने ठहराई अगर ग़ैर के घर जाने की
तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जाएँगे

ख़ाली ऐ चारागरो होंगे बहुत मरहम-दाँ
पर मिरे ज़ख़्म नहीं ऐसे कि भर जाएँगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक क्यूँ कर हम
पहले जब तक न दो आलम से गुज़र जाएँगे

शोला-ए-आह को बिजली की तरह चमकाऊँ
पर मुझे डर है कि वो देख के डर जाएँगे

हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएँगे

आग दोज़ख़ की भी हो जाएगी पानी पानी
जब ये आसी अरक़-ए-शर्म से तर जाएँगे

नहीं पाएगा निशाँ कोई हमारा हरगिज़
हम जहाँ से रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

सामने चश्म-ए-गुहर-बार के कह दो दरिया
चढ़ के गर आए तो नज़रों से उतर जाएँगे

लाए जो मस्त हैं तुर्बत पे गुलाबी आँखें
और अगर कुछ नहीं दो फूल तो धर जाएँगे

रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-माह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे

हम भी देखेंगे कोई अहल-ए-नज़र है कि नहीं
याँ से जब हम रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे

(चश्म-ए-गुहर-बार=मोती के समान आँसू बहाने
वाली आँखें, चारागरो=चिकित्सको, दो-आलम=
लोक-परलोक, आसी=पाप करने वाला,
अरक़-ए-शर्म=शर्म का पसीना, मेहर-ओ-माह=
सूरज और चन्द्रमा)

आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है

आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है

देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं

दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है

देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल हमारे नारसा कहने को है

बेसबब सूफ़ार उनके मुँह नहीं खोंलें है 'ज़ौक़'
आये पैके-मर्ग पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है

(नालाहाए-दिल=दिल का रोना, नारसा=लक्ष्य तक
न पहुँचने वाले, सूफ़ार=तीर का मुँह, पैके-मर्ग=
मृत्यु का दूत)

आते ही तू ने घर के फिर जाने की सुनाई

आते ही तू ने घर के फिर जाने की सुनाई
रह जाऊँ सुन न क्यूँकर ये तो बुरी सुनाई

मजनूँ ओ कोहकन के सुनते थे यार क़िस्से
जब तक कहानी हम ने अपनी न थी सुनाई

शिकवा किया जो हम ने गाली का आज उस से
शिकवे के साथ उस ने इक और भी सुनाई

कुछ कह रहा है नासेह क्या जाने क्या कहेगा
देता नहीं मुझे तो ऐ बे-ख़ुदी सुनाई

कहने न पाए उस से सारी हक़ीक़त इक दिन
आधी कभी सुनाई आधी कभी सुनाई

सूरत दिखाए अपनी देखें वो किस तरह से
आवाज़ भी न हम को जिस ने कभी सुनाई

क़ीमत में जिंस-ए-दिल की माँगा जो 'ज़ौक़' बोसा
क्या क्या न उस ने हम को खोटी-खरी सुनाई

आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है

आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है
जान कुश्ती क़ज़ा से लड़ती है

शोला भड़के न क्यूँ कि महफ़िल में
शम्अ तुझ बिन हवा से लड़ती है

क़िस्मत उस बुत से जा लड़ी अपनी
देखो अहमक़ ख़ुदा से लड़ती है

शोर-ए-क़ुलक़ुल ये क्यूँ है दुख़्तर-ए-रज़
क्या किसी पारसा से लड़ती है

नहीं मिज़्गाँ की दो सफ़ें गोया
इक बला इक बला से लड़ती है

निगह-ए-नाज़ उस की आशिक़ से
छूट किस किस अदा से लड़ती है

तेरे बीमार के सर-ए-बालीं
मौत क्या क्या शिफ़ा से लड़ती है

ज़ाल-ए-दुनिया ने सुल्ह की किस दिन
ये लड़ाका सदा से लड़ती है

वाह क्या क्या तबीअत अपनी भी
इश्क़ में इब्तिदा से लड़ती है

देख उस चश्म-ए-मस्त की शोख़ी
जब किसी पारसा से लड़ती है

तेरी शमशीर-ए-ख़ूँ के छींटों से
छींटे आब-ए-बक़ा से लड़ती है

सच है अल-हर्ब ख़ुदअतुन ऐ 'ज़ौक़'
निगह उस की दग़ा से लड़ती है

आँखें मिरी तलवों से वो मिल जाए तो अच्छा

आँखें मिरी तलवों से वो मिल जाए तो अच्छा
है हसरत-ए-पा-बोस निकल जाए तो अच्छा

जो चश्म कि बे-नम हो वो हो कोर तो बेहतर
जो दिल कि हो बे-दाग़ वो जल जाए तो अच्छा

बीमार-ए-मोहब्बत ने लिया तेरे सँभाला
लेकिन वो सँभाले से सँभल जाए तो अच्छा

हो तुझ से अयादत जो न बीमार की अपने
लेने को ख़बर उस की अजल जाए तो अच्छा

खींचे दिल-ए-इंसाँ को न वो ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम
अज़दर कोई गर उस को निगल जाए तो अच्छा

तासीर-ए-मोहब्बत अजब इक हब का अमल है
लेकिन ये अमल यार पे चल जाए तो अच्छा

दिल गिर के नज़र से तिरी उठने का नहीं फिर
ये गिरने से पहले ही सँभल जाए तो अच्छा

फ़ुर्क़त में तिरी तार-ए-नफ़स सीने में मेरे
काँटा सा खटकता है निकल जाए तो अच्छा

ऐ गिर्या न रख मेरे तन-ए-ख़ुश्क को ग़र्क़ाब
लकड़ी की तरह पानी में गल जाए तो अच्छा

हाँ कुछ तो हो हासिल समर-ए-नख़्ल-ए-मोहब्बत
ये सीना फफूलों से जो फल जाए तो अच्छा

वो सुब्ह को आए तो करूँ बातों में दोपहर
और चाहूँ कि दिन थोड़ा सा ढल जाए तो अच्छा

ढल जाए जो दिन भी तो उसी तरह करूँ शाम
और चाहूँ कि गर आज से कल जाए तो अच्छा

जब कल हो तो फिर वो ही कहूँ कल की तरह से
गर आज का दिन भी यूँ ही टल जाए तो अच्छा

अल-क़िस्सा नहीं चाहता मैं जाए वो याँ से
दिल उस का यहीं गरचे बहल जाए तो अच्छा

है क़त्अ रह-ए-इश्क़ में ऐ 'ज़ौक़' अदब शर्त
जूँ शम्अ तू अब सर ही के बल जाए तो अच्छा

इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है

इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है
लेकिन बला से यार के ज़ानू पे सर तो है

आना है उन का आना क़यामत का देखिए
कब आएँ लेकिन आने की उन के ख़बर तो है

है सर शहीद-ए-इश्क़ का ज़ेब-ए-सिनान-ए-यार
सद शुक्र बारे नख़्ल-ए-वफ़ा बारवर तो है

मानिंद-ए-शम्अ गिर्या है क्या शुग़्ल-ए-तुरफ़ा-तर
हो जाती रात उस में बला से बसर तो है

है दर्द दिल में गर नहीं हमदर्द मेरे पास
दिल-सोज़ कोई गर नहीं सोज़-ए-जिगर तो है

ऐ दिल हुजूम-ए-दर्द-ओ-अलम से न तंग हो
ख़ाना-ख़राब ख़ुश हो कि आबाद घर तो है

तुर्बत पे दिल-जलों की नहीं गर चराग़ ओ गुल
सीने में सोज़िश-ए-दिल ओ दाग़-ए-जिगर तो है

ग़ाएब में जो कहा सो कहा फिर भी है ये शुक्र
ख़ामोश हो गया वो मुझे देख कर तो है

कश्ती-ए-बहर-ए-ग़म है मिरे हक़ में तेग़-ए-यार
कर देती एक दम में इधर से उधर तो है

वो दिल कि जिस में सोज़-ए-मोहब्बत न होवे 'ज़ौक़'
बेहतर है संग उस से कि उस में शरर तो है

इस तपिश का है मज़ा दिल ही को हासिल होता

इस तपिश का है मज़ा दिल ही को हासिल होता
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम दिल होता

करता बीमारे-मुहब्बत का मसीहा जो इलाज
इतना दिक़ होता कि जीना उसे मुश्किल होता

आप आईना-ए-हस्ती में है तू अपना हरीफ़
वर्ना यहाँ कौन था जो तेरे मुक़ाबिल होता

होती अगर उक़्दा-कुशाई न यद-अल्लाह के साथ
'ज़ौक़' हाल क्योंकि मेरा उक़्दए-मुश्किल होता

(सर-ता-ब-क़दम=सर से लेकर पैरों तक,
दिक़=कठिन, आईना-ए-हस्ती=अस्तित्व-रूपी
दर्पण, हरीफ़=शत्रु, मुक़ाबिल=शत्रु जो
ललकार दे, यद-अल्लाह=हज़रत अली,
उक़्दए-मुश्किल=कठिन काम)

उस संग-ए-आस्ताँ पे जबीन-ए-नियाज़ है

उस संग-ए-आस्ताँ पे जबीन-ए-नियाज़ है
वो अपनी जा-नमाज़ है और ये नमाज़ है

ना-साज़ है जो हम से उसी से ये साज़ है
क्या ख़ूब दिल है वाह हमें जिस पे नाज़ है

पहुँचा है शब कमंद लगा कर वहाँ रक़ीब
सच है हराम-ज़ादे की रस्सी दराज़ है

उस बुत पे गर ख़ुदा भी हो आशिक़ तो आए रश्क
हर-चंद जानता हूँ के वो पाक-बाज़ है

मद्दाह-ए-ख़ाल-ए-रू-ए-बुताँ हूँ मुझे ख़ुदा
बख़्शे तो क्या अजब के वो नुक्ता-नवाज़ है

डरता हूँ ख़ंजर उस का न बह जाए हो के आब
मेरे गले में नाला-ए-आहन-गुदाज़ है

दरवाज़ा मै-कदे का न कर बंद मोहतसिब
ज़ालिम ख़ुदा से डर के दर-ए-तौबा बाज़ है

ख़ाना-ख़राबियाँ दिल-ए-बीमार-ए-ग़म की देख
वो ही दवा ख़राब है जो ख़ाना-साज़ है

शबनम की जा-ए-गुल से टपकती हैं शोख़ियाँ
गुलशन में किस की ख़ाक-ए-शहीदान-ए-नाज़ है

आह ओ फ़ुग़ाँ न कर जो खुले 'ज़ौक़' दिल का हाल
हर नाला इक कलीद-ए-दर-ए-गंज-ए-राज़ है

उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया

उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया

जिस इन्साँ को सगे-दुनिया न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया न पाया

मुक़द्दर से ही गर सूदो-ज़ियाँ है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया

अहाते से फ़लक़ के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया

जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया

किया हमने सलामे-इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया

न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया

लहद में भी तेरे मुज़तर ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया

कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया न पाया

(सगे-दुनिया=सांसारिक कुत्ता,
व्यसन-लिप्त, हमपाया=बराबर का,
मुक़द्दर=भाग्य, सूदो-ज़ियाँ=लाभ-हानि,
फ़लक़=क्षितिज, लहद=कब्र, मुज़तर=
प्रेम-रोगी, लबे-गोया=वाक-शक्ति)

ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ

ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
वर्ना जिगर को रोएगा तू धर के सर पे हाथ

छोड़ा न दिल में सब्र न आराम ने क़रार
तेरी निगह ने साफ़ किया घर के घर पे हाथ

खाए है इस मज़े से ग़म-ए-इश्क़ मेरा दिल
जैसे गुरिसना मारे है हलवा-ए-तर पे हाथ

ख़त दे के चाहता था ज़बानी भी कुछ कहे
रक्खा मगर किसी ने दिल-ए-नामा-बर पे हाथ

जूँ पंच-शाख़ा तू न जला उँगलियाँ तबीब
रख रख के नब्ज़-ए-आशिक़-ए-तफ़्ता-जिगर पे हाथ

क़ातिल ये क्या सितम है कि उठता नहीं कभी
आ कर मज़ार-ए-कुश्ता-ए-तेग़-ए-नज़र पे हाथ

मैं ना-तवाँ हूँ ख़ाक का परवाने की ग़ुबार
उठता हूँ रख के दोश-ए-नसीम-ए-सहर पे हाथ

ऐ शम्अ एक चोर है बादी ये बाद-ए-सुब्ह
मारे है कोई दम में तिरे ताज-ए-ज़र पे हाथ

ऐ 'ज़ौक़' मैं तो बैठ गया दिल को थाम कर
इस नाज़ से खड़े थे वो रख कर कमर पे हाथ

कब हक़-परस्त ज़ाहिद-ए-जन्नत-परस्त है

कब हक़-परस्त ज़ाहिद-ए-जन्नत-परस्त है
हूरों पे मर रहा है ये शहवत-परस्त है

दिल साफ़ हो तो चाहिए मानी-परस्त हो
आईना ख़ाक साफ़ है सूरत-परस्त है

दरवेश है वही जो रियाज़त में चुस्त हो
तारिक नहीं फ़क़ीर भी राहत-परस्त है

जुज़ ज़ुल्फ़ सूझता नहीं ऐ मुर्ग़-ए-दिल तुझे
ख़ुफ़्फ़ाश तू नहीं है के ज़ुल्मत-परस्त है

दौलत की रख न मार-ए-सर-ए-गंज से उम्मीद
मूज़ी वो देगा क्या के जो दौलत-परस्त है

अन्क़ा ने गुम किया है निशाँ नाम के लिए
गुम-गश्ता कौन कहता है शोहरत-परस्त है

ये 'ज़ौक़' मै-परस्त है या है सनम-परस्त
कुछ है बला से लेक मोहब्बत-परस्त है

कल गए थे तुम जिसे बीमार-ए-हिज्राँ छोड़ कर

कल गए थे तुम जिसे बीमार-ए-हिज्राँ छोड़ कर
चल बसा वो आज सब हस्ती का सामाँ छोड़ कर

तिफ़्ल-ए-अश्क ऐसा गिरा दामान-ए-मिज़्गाँ छोड़ कर
फिर न उट्ठा कूचा-ए-चाक-ए-गरेबाँ छोड़ कर

क्यूँकि निकले तेरा उस का दिल में पैकाँ छोड़ कर
जाए बैज़े को कहाँ ये मुर्ग़-ए-पर्रां छोड़ कर

जिस ने हो लज़्ज़त उठाई ज़ख़्म तेग़-ए-इश्क़ की
कब वो मरहम-दान को ढूँडे नमक-दाँ छोड़ कर

सैद-ए-दिल को क्यूँकि छोड़े जब कि दिखला दे न तू
मछलियाँ दस्त-ए-हिनाई में मिरी जाँ छोड़ कर

सर्द-मेहरी से किसी की आगे ही जी सर्द है
याँ से हट जा धूप ऐ अब्र-ए-ख़िरामाँ छोड़ कर

देखिए क्या हो कि है अब जान के पीछे पड़ी
दिल को ऐ काफ़िर तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ छोड़ कर

ऐ दिल उस के तीर के हमराह सीने से निकल
वर्ना पछताएगा तू ये साथ नादाँ छोड़ कर

क्यूँ न रम कर जाएँ आहू ऐसे वहशी से तिरे
शेर भागें जिस के नालों से नीस्ताँ छोड़ कर

सुर्ख़ी-ए-पाँ देख ले ज़ाहिद जो दंदाँ पर तिरे
उठ खड़ा हो हाथ से तस्बीह-ए-मरजाँ छोड़ कर

पेश-ख़ेमा ले के निकला गर्द-बाद-ए-दूर-रौ
है जो सरगर्म-ए-सफ़र तन को मिरी जाँ छोड़ कर

गर ख़ुदा देवे क़नाअत माह-ए-दो-हफ़्ता की तरह
दौड़े सारी को कभी आधी न इंसाँ छोड़ कर

साग़र-ए-दिल बेचता आया हूँ खो मत हाथ से
चूकता है क्यूँ ये जिंस-ए-दस्त-गर्दां छोड़ कर

काम ये तेरा ही था रहमत हो ऐ अब्र-ए-करम
वर्ना जाए दाग़-ए-इस्याँ मेरा दामाँ छोड़ कर

पढ़ ग़ज़ल ऐ 'ज़ौक़' कोई गर्म सी अब तो न जा
जानिब-ए-मज़मून तर्ज़-ए-तुफ़्ता-जानाँ छोड़ कर

कहाँ तलक कहूँ साक़ी कि ला शराब तो दे

कहाँ तलक कहूँ साक़ी कि ला शराब तो दे
न दे शराब डुबो कर कोई कबाब तो दे

बुझेगा सोज़-ए-दिल ऐ गिर्या पल में आब तो दे
दिगर है आग में दुनिया यूँ ही अज़ाब तो दे

गुज़रने गर ये मिरे सर से इतना आब तो दे
कि सर पे चर्ख़ भी दिखलाई जूँ हबाब तो दे

हज़ारों तिश्ना जिगर किस से होएँगे सैराब
ख़ुदा के वास्ते तेग़-ए-सितम को आब तो दे

तुम्हारे मतला-ए-अबरू पे ये कहे है ख़ाल
कि ऐसा नुक़्ता कोई वक़्त-ए-इंतिख़ाब तो दे

दर-ए-क़ुबूल है दरबाँ न बंद कर दर-ए-यार
दुआ-ए-ख़ैर मिरी होने मुस्तजाब तो दे

खुले है नाज़ से गुलशन में ग़ुंचा-ए-नर्गिस
ज़रा दिखा तो उसे चश्म-ए-नीम-ख़्वाब तो दे

बला से आप न आएँ पे आदमी उन का
तसल्ली आ के मुझे वक़्त-ए-इज़्तिराब तो दे

हुआ बगूले में है कुश्तगान-ए-ज़ुल्फ़ की ख़ाक
कि बाद-ए-मर्ग भी मालूम पेच-ओ-ताब तो दे

बला से कम न हो गिर्ये से मेरा सोज़-ए-जिगर
बुझा पर उन की ज़रा आतिश-ए-इताब तो दे

शहीद कीजियो क़ातिल अभी न कर जल्दी
ठहरने मुझ को तह-ए-तेग़-ए-इज़्तिराब तो दे

शिकार-ए-बस्ता-ए-फ़ितराक को तिरे मक़्दूर
हुआ न ये भी कि बोसा सर-ए-रिकाब तो दे

दिल-ए-बिरिश्ता को मेरे न छोड़ो मय-ख़्वारो
जो लज़्ज़त उस में है ऐसा मज़ा कबाब तो दे

नशे में होश किसे जो गिने हिसाब करे
जो तुझ को देना हैं बोसे बिला हिसाब तो दे

जवाब-ए-नामा नहीं गर तो रख दो नामा-ए-यार
जो पूछें क़ब्र में आशिक़ से कुछ जवाब तो दे

रखे है हौसला दरिया कब अहल-ए-हिम्मत का
नहीं ये इतना कि भर कासा-ए-हबाब तो दे

कहाँ बुझी है तह-ए-ख़ाक मेरी आतिश-ए-दिल
कहो हवा से हिला दामन-ए-सहाब तो दे

ख़ुनुक दिलों की अगर आह-ए-सर्द दोज़ख़ में
पड़े तो वाक़ई इक बार आग दाब तो दे

करेगा क़त्ल वो ऐ 'ज़ौक़' तुझ को सुरमे से
निगह की तेग़ को होने सियाह-ताब तो दे

पहुँच रहूँगा सर-ए-मंज़िल-ए-फ़ना ऐ 'ज़ौक़'
मिसाल-ए-नक़्श-ए-क़दम करने पा-तुराब तो दे

किसी बेकस को ऐ बेदाद गर मारा तो क्या मारा

किसी बेकस को ऐ बेदाद गर मारा तो क्या मारा
जो आप ही मर रहा हो उस को गर मारा तो क्या मारा

न मारा आप को जो ख़ाक हो इक्सीर बन जाता
अगर पारे को ऐ इक्सीर गर मारा तो क्या मारा

बड़े मूज़ी को मारा नफ़्स-ए-अम्मारा को गर मारा
नहंग ओ अज़दहा ओ शेर-ए-नर मारा तो क्या मारा

ख़ता तो दिल की थी क़ाबिल बहुत सी मार खाने के
तिरी ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध कर मारा तो क्या मारा

नहीं वो क़ौल का सच्चा हमेशा क़ौल दे दे कर
जो उस ने हाथ मेरे हाथ पर मारा तो क्या मारा

तुफ़ंग ओ तीर तो ज़ाहिर न था कुछ पास क़ातिल के
इलाही उस ने दिल को ताक कर मारा तो क्या मारा

हँसी के साथ याँ रोना है मिसल-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना
किसी ने क़हक़हा ऐ बे-ख़बर मारा तो क्या मारा

मिरे आँसू हमेशा हैं ब-रंग-ए-लाल-ए-ग़र्क़-ए-ख़ूँ
जो ग़ोता आब में तू ने गुहर मारा तो क्या मारा

जिगर दिल दोनों पहलू में हैं ज़ख़्मी उस ने क्या जाने
इधर मारा तो क्या मारा उधर मारा तो क्या मारा

गया शैतान मारा एक सज्दा के न करने में
अगर लाखों बरस सज्दे में सर मारा तो क्या मारा

दिल-ए-संगीन-ए-ख़ुसरव पर भी ज़र्ब ऐ कोहकन पहुँची
अगर तेशा सर-ए-कोहसार पर मारा तो क्या मारा

दिल-ए-बद-ख़्वाह में था मारना या चश्म-ए-बद-बीं में
फ़लक पर 'ज़ौक़' तीर-ए-आह गर मारा तो क्या मारा

कोई इन तंग-दहानों से मोहब्बत न करे

कोई इन तंग-दहानों से मोहब्बत न करे
और जो ये तंग करें मुँह से शिकायत न करे

इश्क़ के दाग़ को दिल मोहर-ए-नबूवत समझा
डर है काफ़िर कहीं दावा-ए-नबूवत न करे

है जराहत का मिरी सौदा-ए-अल्मास इलाज
फ़ाएदा उस को कभी संग-ए-जराहत न करे

हर क़दम पर मिरे अश्कों से रवाँ है दरिया
क्या करे जादा अगर तर्क-ए-रिफ़ाक़त न करे

आज तक ख़ूँ से मिरे तर है ज़बान-ए-ख़ंजर
क्या करे जब कि तलब कोई शहादत न करे

है ये इंसाँ बड़े उस्ताद का शागिर्द-ए-रशीद
कर सके कौन अगर ये भी ख़िलाफ़त न करे

बिन जले शम्अ के परवाना नहीं जल सकता
क्या बढ़े इश्क़ अगर हुस्न ही सब्क़त न करे

फिर चला मक़्तल-ए-उश्शाक़ की जानिब क़ातिल
सर पे बरपा कहीं कुश्तों के क़यामत न करे

कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे

कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे
कि आदमी जो कहे बात सोच कर तो कहे

मिरी हक़ीक़त-ए-पुर-दर्द को कभी उस से
ब-आह-ओ-नाला न कहवे ब-चश्म-ए-तर तो कहे

ये आरज़ू है जहन्नम को भी कि आतिश-ए-इश्क़
मुझे न शोला गर अपना कहे शरर तो कहे

ब-क़द्र-ए-माया नहीं गर हर इक का रुत्बा ओ नाम
तो हाँ हबाब को देखें कोई गुहर तो कहे

कहे जो कुछ मुझे नासेह नहीं वो दीवाना
कि जानता है कहे का हो कुछ असर तो कहे

जल उट्ठे शम्अ के मानिंद क़िस्सा-ख़्वाँ की ज़बाँ
हमारा क़िस्सा-ए-पुर-सोज़ लहज़ा भर तो कहे

सदा है ख़ूँ में भी मंसूर के अनल-हक़ की
कहे अगर कोई तौहीद इस क़दर तो कहे

मजाल है कि तिरे आगे फ़ित्ना दम मारे
कहेगा और तो क्या पहले अल-हज़र तो कहे

बने बला से मिरा मुर्ग़-ए-नामा-बर भँवरा
कि उस को देख के वो मुँह से ख़ुश-ख़बर तो कहे

हर एक शेर में मज़मून-ए-गिर्या है मेरे
मिरी तरह से कोई 'ज़ौक़' शेर-ए-तर तो कहे

कौन वक़्त ऐ वाए गुज़रा जी को घबराते हुए

कौन वक़्त ऐ वाए गुज़रा जी को घबराते हुए
मौत आती है अजल को याँ तलक आते हुए

आतिश-ए-ख़ुर्शीद से उठता नहीं देखा धुआँ
आ खड़े हो बाम पर तुम बाल सुखलाते हुए

चाक आता है नज़र पैरहन-ए-सुब्ह-ए-बहार
किस शहीद-ए-नाज़ को देखा है कफ़नाते हुए

वो न जागे रात को और ज़िद से बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता की
बज गया आख़िर गजर ज़ंजीर खड़काते हुए

क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद

क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद
सीने में होगी साँस अड़ी दो घड़ी के बाद

क्या रोका अपने गिर्ये को हम ने कि लग गई
फिर वो ही आँसुओं की झड़ी दो घड़ी के बाद

कोई घड़ी अगर वो मुलाएम हुए तो क्या
कह बैठेंगे फिर एक कड़ी दो घड़ी के बाद

उस लाल-ए-लब के हम ने लिए बोसे इस क़दर
सब उड़ गई मिसी की धड़ी दो घड़ी के बाद

अल्लाह रे ज़ोफ़-ए-सीना से हर आह-ए-बे-असर
लब तक जो पहुँची भी तो चढ़ी दो घड़ी के बाद

कल उस से हम ने तर्क-ए-मुलाक़ात की तो क्या
फिर उस बग़ैर कल न पड़ी दो घड़ी के बाद

थे दो घड़ी से शैख़ जी शेख़ी बघारते
सारी वो शेख़ी उन की झड़ी दो घड़ी के बाद

कहता रहा कुछ उस से अदू दो घड़ी तलक
ग़म्माज़ ने फिर और जड़ी दो घड़ी के बाद

परवाना गिर्द शम्अ के शब दो घड़ी रहा
फिर देखी उस की ख़ाक पड़ी दो घड़ी के बाद

तू दो घड़ी का वादा न कर देख जल्द आ
आने में होगी देर बड़ी दो घड़ी के बाद

गो दो घड़ी तक उस ने न देखा इधर तो क्या
आख़िर हमीं से आँख लड़ी दो घड़ी के बाद

क्या जाने दो घड़ी वो रहे 'ज़ौक़' किस तरह
फिर तो न ठहरे पाँव घड़ी दो घड़ी के बाद

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उन का बंदा हूँ जो बंदे हैं मोहब्बत वाले

चाहें गर चारा जराहत का मोहब्बत वाले
बेचें अल्मास ओ नमक संग-ए-जराहत वाले

गए जन्नत में अगर सोज़-ए-मोहब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले

साक़िया हों जो सुबूही की न आदत वाले
सुब्ह-ए-महशर को भी उट्ठें न तिरे मतवाले

दुख़्तर-ए-रज़ को नहीं छेड़ते हैं मतवाले
हज़र उस फ़ाहिशा से करते हैं हुरमत वाले

रहे जूँ शीशा-ए-साअ'त वो मुकद्दर दोनों
कभी मिल भी गए दो दिल जो कुदूरत वाले

किस मरज़ की हैं दवा ये लब-ए-जाँ-बख़्श तिरे
जाँ-ब-लब हैं तिरे आज़ार-ए-मोहब्बत वाले

हिर्स के फैलते हैं पाँव ब-क़द्र-ए-वुसअत
तंग ही रहते हैं दुनिया में फ़राग़त वाले

हाए रे हसरत-ए-दीदार मिरी हाए को भी
लिखते हैं हा-ए-दो-चश्मी से किताबत वाले

नहीं जुज़ शम्अ' मुजाविर मिरी बालीन-ए-मज़ार
नहीं जुज़ कसरत-ए-परवाना ज़ियारत वाले

न शिकायत है करम की न सितम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र ओ क़नाअ'त वाले

क्या तमाशा है कि मिस्ल-ए-मह-ए-नौ अपना फ़रोग़
जानते अपनी हिक़ारत को हैं शोहरत वाले

दिल से कुछ कहता हूँ मैं मुझ से है कुछ कहता दिल
दोनों इक हाल में हैं रंज ओ मुसीबत वाले

तू गर आ जाए तो ऐ दर्द-ए-मोहब्बत की दवा
मिरे हमदर्द हों बेदर्द फ़ज़ीहत वाले

छोड़ देते हैं क़लम जूँ क़लम-ए-आतिश-बाज़
मिरी शरह-ए-तपिश-ए-दिल की किताबत वाले

कभी अफ़्सोस है आता कभी रोना आता
दिल-ए-बीमार के हैं दो ही अयादत वाले

तू मिरे हाल से ग़ाफ़िल है पर ऐ ग़फ़लत-केश
तेरे अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल नहीं ग़फ़लत वाले

हम ने देखा है जो उस बुत में नहीं कह सकते
कि मुबादा कहीं सुन पाएँ शरीअ'त वाले

नाज़ है गुल को नज़ाकत पे चमन में ऐ 'ज़ौक़'
उस ने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाकत वाले

क़स्द जब तेरी ज़ियारत का कभू करते हैं

क़स्द जब तेरी ज़ियारत का कभू करते हैं
चश्म-ए-पुर-आब से आईने वज़ू करते हैं

करते इज़हार हैं दर-पर्दा अदावत अपनी
वो मिरे आगे जो तारीफ़-ए-अदू करते हैं

दिल का ये हाल है फट जाए है सौ जाए से और
अगर इक जाए से हम उस को रफ़ू करते हैं

तोड़ें इक नाले से इस कासा-ए-गर्दूं को मगर
नोश हम इस में कभू दिल का लहू करते हैं

क़द-ए-दिल-जू को तुम्हारे नहीं देखा शायद
सरकशी इतनी जो सर्व-ए-लब-ए-जू करते हैं

क़ुफ़्ल-ए-सद-ख़ाना-ए-दिल आया जो तू टूट गए

क़ुफ़्ल-ए-सद-ख़ाना-ए-दिल आया जो तू टूट गए
जो तिलिस्मात न टूटे थे कभू टूट गए

सैकड़ों कासा सर-ए-दहर में मानिंद-ए-हबाब
कभू ऐ चर्ख़ बने तुझ से कभू टूट गए

टाँके क्या जैब के फिर बाद-ए-रफ़ू टूट गए
हो के नाख़ुन कभी सीने में फ़रो टूट गए

तू जो कहता है कि दे ग़ैर को भी साग़र-ए-मय
हाथ क्या उस के हैं ऐ आईना-रू टूट गए

क्यूँके बिन कश्ती-ए-मय कीजिए सैर-ए-दरिया
मय-कशो ज़ेर-ए-बग़ल अब तो कदू टूट गए

देख कर सुरमे की तहरीर तिरी आँखों में
काफ़िरों के भी हैं ज़ुन्नार गुलू टूट गए

सदमा-ए-ग़म से तिरे जूँ गुल-बाज़ी अफ़्सोस
सारे आ'ज़ा मिरे ऐ अरबदा-जू टूट गए

संग-ए-ग़ैरत से कई आईने ऐ अहद शिकन
देख कर साफ़ तिरा रू-ए-नकू टूट गए

तीर दिल से वो निकलते हैं कोई जज़्बा-ए-शौक़
निकले सूफ़ार जो सीने से गुलू टूट गए

दिल शिकस्ता ही रहा बा'द-ए-फ़ना भी मैं तो
कि मिरी ख़ाक से बनते ही सुबू टूट गए

शिद्दत-ए-गिर्या से था रात ये अश्कों का हुजूम
चश्म-ए-तर फिर मिरे मिज़्गाँ के हैं मू टूट गए

गुलशन-ए-इश्क़ में अल्लाह है क्या कसरत-ए-बार
बिन हवा कितने ही नख़्ल-ए-लब-ए-जू टूट गए

कह ब-तब्दील-ए-क़वाफ़ी ग़ज़ल इक और भी 'ज़ौक़'
देखें बिठलाए है किस तरह से तू टूट गए

ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े

ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े

बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है जी
अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढ़ूँ कुछ तू बढ़े

बढ़ते बढ़ते बढ़ गई वहशत वगर्ना पहले तो
हाथ के नाख़ुन बढ़े सर के हमारे मू बढ़े

तुझ को दुश्मन वाँ शरारत से जो भड़काते है रोज़
चाहते हैं और शर ऐ शोख़-ए-आतिश-ख़ू बढ़े

कुछ तप-ए-ग़म को घटा क्या फ़ाएदा इस से तबीब
रोज़ नुस्ख़े में अगर ख़ुर्फ़ा घटे काहू बढ़े

पेशवाई को ग़म-ए-जानाँ की चश्म-ए-दिल से 'ज़ौक़'
जब बढ़े नाले तो उस से बेशतर आँसू बढ़े

ख़ूब रोका शिकायतों से मुझे

ख़ूब रोका शिकायतों से मुझे
तू ने मारा इनायतों से मुझे

वाजिब-उल-क़त्ल उस ने ठहराया
आयतों से रिवायतों से मुझे

कहते क्या क्या हैं देख तो अग़्यार
यार तेरी हिमायतों से मुझे

क्या ग़ज़ब है कि दोस्त तू समझे
दुश्मनों की रिआयतों से मुझे

दम-ए-गिर्या कमी न कर ऐ चश्म
शौक़ कम है किफ़ायतों से मुझे

कमी-ए-गिर्या ने जला मारा
हुआ नुक़साँ किफ़ायतों से मुझे

ले गई इश्क़ की हिदायत 'ज़ौक़'
उन कने सब निहायतों से मुझे

गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में

गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में
पड़ा जिस दिन से दिल बस में तिरे और दिल के हम बस में

कभी मिलना कभी रहना अलग मानिंद मिज़्गाँ के
तमाशा कज-सिरिश्तों का है कुछ इख़्लास के बस में

तवक़्क़ो' क्या हो जीने की तिरे बीमार-ए-हिज्राँ के
न जुम्बिश नब्ज़ में जिस की न गर्मी जिस के मलमस में

दिखाए चीरा-दस्ती आह बालादस्त गर अपनी
तो मारे हाथ दामान-ए-क़यामत चर्ख़-ए-अतलस में

जो है गोशा-नशीं तेरे ख़याल-ए-मस्त-ए-अबरू में
वो है बैतुस-सनम में भी तो है बैतुल-मुक़द्दस में

करे लब-आश्ना हर्फ़-ए-शिकायत से कहाँ ये दम
तिरे महज़ून-ए-बे-दम में तिरे मफ़्तून-ए-बेकस में

हवा-ए-कू-ए-जानाँ ले उड़े उस को तअ'ज्जुब क्या
तन-ए-लाग़र में है जाँ इस तरह जिस तरह बू ख़स में

मुझे हो किस तरह क़ौल-ओ-क़सम का ए'तिबार उन के
हज़ारों दे चुके वो क़ौल लाखों खा चुके क़स्में

हुए सब जम्अ' मज़मूँ 'ज़ौक़' दीवान-ए-दो-आलम के
हवास-ए-ख़मसा हैं इंसाँ के वो बंद-ए-मुख़म्मस में

गुहर को जौहरी सर्राफ़ ज़र को देखते हैं

गुहर को जौहरी सर्राफ़ ज़र को देखते हैं
बशर के हैं जो मुबस्सिर बशर को देखते हैं

न ख़ूब ओ ज़िश्त न ऐब-ओ-हुनर को देखते हैं
ये चीज़ क्या है बशर हम बशर को देखते हैं

वो देखें बज़्म में पहले किधर को देखते हैं
मोहब्बत आज तिरे हम असर को देखते हैं

वो अपनी बुर्रिश-ए-तेग़-ए-नज़र को देखते हैं
हम उन को देखते हैं और जिगर को देखते हैं

जब अपने गिर्या ओ सोज़-ए-जिगर को देखते हैं
सुलगती आग में हम ख़ुश्क-ओ-तर को देखते हैं

रफ़ीक़ जब मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं
तो चारागर उन्हें वो चारागर को देखते हैं

न तुमतराक़ को ने कर्र-ओ-फ़र्र को देखते हैं
हम आदमी के सिफ़ात ओ सियर को देखते हैं

जो रात ख़्वाब में उस फ़ित्नागर को देखते हैं
न पूछ हम जो क़यामत सहर को देखते हैं

वो रोज़ हम को गुज़रता है जैसे ईद का दिन
कभी जो शक्ल तुम्हारी सहर को देखते हैं

जहाँ के आईनों से दिल का आईना है जुदा
इस आईने में हम आईना-गर को देखते हैं

बना के आईना देखे है पहले आईना-गर
हुनर-वर अपने ही ऐब-ओ-हुनर को देखते हैं

चश्म-ए-क़ातिल हमें क्यूँकर न भला याद रहे

चश्म-ए-क़ातिल हमें क्यूँकर न भला याद रहे
मौत इंसान को लाज़िम है सदा याद रहे

मेरा ख़ूँ है तिरे कूचे में बहा याद रहे
ये बहा वो नहीं जिस का न बहा याद रहे

कुश्ता-ए-ज़ुल्फ़ के मरक़द पे तू ऐ लैला-वश
बेद-ए-मजनूँ ही लगा ता-कि पता याद रहे

ख़ाकसारी है अजब वस्फ़ कि जूँ जूँ हो सिवा
हो सफ़ा और दिल-ए-अहल-ए-सफ़ा याद रहे

हो ये लब्बैक-ए-हरम या ये अज़ान-ए-मस्जिद
मय-कशो क़ुलक़ुल-ए-मीना की सदा याद रहे

याद उस वादा-फ़रामोश ने ग़ैरों से बदी
याद कुछ कम तो न थी और सिवा याद रहे

ख़त भी लिखते हैं तो लेते हैं ख़ताई काग़ज़
देखिए कब तक उन्हें मेरी ख़ता याद रहे

दो वरक़ में कफ़-ए-हसरत के दो आलम का है इल्म
सबक़-ए-इश्क़ अगर तुझ को दिला याद रहे

क़त्ल-ए-आशिक़ पे कमर बाँधी है ऐ दिल उस ने
पर ख़ुदा है कि उसे नाम मिरा याद रहे

ताएर-ए-क़िबला-नुमा बन के कहा दिल ने मुझे
कि तड़प कर यूँ ही मर जाएगा जा याद रहे

जब ये दीं-दार हैं दुनिया की नमाज़ें पढ़ते
काश उस वक़्त उन्हें नाम-ए-ख़ुदा याद रहे

हम पे सौ बार जफ़ा हो तो रखो एक न याद
भूल कर भी कभी होवे तो वफ़ा याद रहे

महव इतना भी न हो इश्क़-ए-बुताँ में ऐ 'ज़ौक़'
चाहिए बंदे को हर वक़्त ख़ुदा याद रहे

चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए

चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए
जी ही जी में तिलमिलाना कोई हम से सीख जाए

अब्र क्या आँसू बहाना कोई हम से सीख जाए
बर्क़ क्या है तिलमिलाना कोई हम से सीख जाए

ज़िक्र-ए-शम-ए-हुस्न लाना कोई हम से सीख जाए
उन को दर-पर्दा जलाना कोई हम से सीख जाए

झूट-मूट अफ़यून खाना कोई हम से सीख जाए
उन को कफ़ ला कर डराना कोई हम से सीख जाए

सुन के आमद उन की अज़-ख़ुद-रफ़्ता हो जाते हैं हम
पेशवा लेने को जाना कोई हम से सीख जाए

हम ने अव्वल ही कहा था तू करेगा हम को क़त्ल
तेवरों का ताड़ जाना कोई हम से सीख जाए

लुत्फ़ उठाना है अगर मंज़ूर उस के नाज़ का
पहले उस का नाज़ उठाना कोई हम से सीख जाए

जो सिखाया अपनी क़िस्मत ने वगरना उस को ग़ैर
क्या सिखाएगा सिखाना कोई हम से सीख जाए

देख कर क़ातिल को भर लाए ख़राश-ए-दिल में ख़ूँ
सच तो ये है मुस्कुराना कोई हम से सीख जाए

तीर ओ पैकाँ दिल में जितने थे दिए हम ने निकाल
अपने हाथों घर लुटाना कोई हम से सीख जाए

कह दो क़ासिद से कि जाए कुछ बहाने से वहाँ
गर नहीं आता बहाना कोई हम से सीख जाए

ख़त में लिखवा कर उन्हें भेजा तो मतला दर्द का
दर्द-ए-दिल अपना जताना कोई हम से सीख जाए

जब कहा मरता हूँ वो बोले मिरा सर काट कर
झूट को सच कर दिखाना कोई हम से सीख जाए

वाँ हिले अबरू यहाँ फेरी गले पर हम ने तेग़
बात का ईमा से पाना कोई हम से सीख जाए

तेग़ तो ओछी पड़ी थी गिर पड़े हम आप से
दिल को क़ातिल के बढ़ाना कोई हम से सीख जाए

ज़ख़्म को सीते हैं सब पर सोज़न-ए-अल्मास से
चाक सीने के सिलाना कोई हम से सीख जाए

पूछे मुल्ला से जिसे करना हो सज्दा सहव का
सीखे गर अपना भुलाना कोई हम से सीख जाए

क्या हुआ ऐ 'ज़ौक़' हैं जूँ मर्दुमुक हम रू-सियाह
लेकिन आँखों में समाना कोई हम से सीख जाए

जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर

जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
क्या ही पछताता था मैं क़ातिल का दामाँ छोड़ कर

मैं वो मजनूँ हूँ जो निकलूँ कुंज-ए-ज़िंदाँ छोड़ कर
सेब-ए-जन्नत तक न खाऊँ संग-ए-तिफ़्लाँ छोड़ कर

पीवे मेरा ही लहू मानी जो लब उस शोख़ के
खींचे तो शंगर्फ़ से ख़ून-ए-शहीदाँ छोड़ कर

मैं हूँ वो गुमनाम जब दफ़्तर में नाम आया मिरा
रह गया बस मुंशी-ए-क़ुदरत जगह वाँ छोड़ कर

साया-ए-सर्व-ए-चमन तुझ बिन डराता है मुझे
साँप सा पानी में ऐ सर्व-ख़िरामाँ छोड़ कर

हो गया तिफ़्ली ही से दिल में तराज़ू तीर-ए-इश्क़
भागे हैं मकतब से हम औराक़-ए-मीज़ाँ छोड़ कर

अहल-ए-जौहर को वतन में रहने देता गर फ़लक
लाल क्यूँ इस रंग से आता बदख़्शाँ छोड़ कर

शौक़ है उस को भी तर्ज़-ए-नाला-ए-उश्शाक़ से
दम-ब-दम छेड़े है मुँह से दूद-ए-क़ुल्याँ छोड़ कर

दिल तो लगते ही लगे गा हूरयान-ए-अदन से
बाग़-ए-हस्ती से चला हूँ हाए परियाँ छोड़ कर

घर से भी वाक़िफ़ नहीं उस के कि जिस के वास्ते
बैठे हैं घर-बार हम सब ख़ाना-वीराँ छोड़ कर

वस्ल में गर होवे मुझ को रूयत-ए-माह-ए-रजब
रू-ए-जानाँ ही को देखूँ मैं तो क़ुरआँ छोड़ कर

इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर

जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा

जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा
है अपना अपना मुक़द्दर जुदा नसीब जुदा

तिरी गली से निकलते ही अपना दम निकला
रहे है क्यूँ कि गुलिस्ताँ से अंदलीब जुदा

दिखा दे जल्वा जो मस्जिद में वो बुत-ए-काफ़िर
तो चीख़ उट्ठे मोअज़्ज़िन जुदा ख़तीब जुदा

जुदा न दर्द-ए-जुदाई हो गर मिरे आज़ा
हुरूफ़-ए-दर्द की सूरत हूँ ऐ तबीब जुदा

है और इल्म ओ अदब मकतब-ए-मोहब्बत में
कि है वहाँ का मोअल्लिम जुदा अदीब जुदा

हुजूम-ए-अश्क के हमराह क्यूँ न हो नाला
कि फ़ौज से नहीं होता कभी नक़ीब जुदा

फ़िराक़-ए-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
इलाही हो न वतन से कोई ग़रीब जुदा

किया हबीब को मुझ से जुदा फ़लक ने मगर
न कर सका मिरे दिल से ग़म-ए-हबीब जुदा

करें जुदाई का किस किस की रंज हम ऐ 'ज़ौक़'
कि होने वाले हैं हम सब से अन-क़रीब जुदा

जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है

जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है
आरास्ता ये घर इसी मेहमाँ के लिए है

ज़ुल्फ़ें तिरी काफ़िर उन्हें दिल से मिरे क्या काम
दिल काबा है और काबा मुसलमाँ के लिए है

हो क़ैद-ए-तफ़क्कुर से कब आज़ाद सुख़न-वर
मंज़ूर क़फ़स मुर्ग़-ए-ख़ुश-अलहाँ के लिए है

अपनों से न मिल अपने हैं सब अपनों के दुश्मन
हर नय में भरी आग नीस्ताँ के लिए है

कुछ बख़्त से मेरे जो सिवा है वो सियाही
बाक़ी है तो मेरी शब-ए-हिज्राँ के लिए है

दीवाना हूँ मैं भी वो तमाशा कि मिरा ज़िक्र
गोया सबक़ अतफ़ाल-ए-दबिस्ताँ के लिए है

है बादा-कशों के लिए इक ग़ैब से ताईद
ज़ाहिद जो दुआ माँगता बाराँ के लिए है

चंगुल में है मूज़ी के दिल उस चश्म के हाथों
घेरा ये ग़ज़ब पंजा-ए-मिज़्गाँ के लिए है

मैं किस की निगाहों का हूँ वहशी कि मिरी ख़ाक
इक कोहल-ए-बसर चश्म-ए-ग़ज़ालाँ के लिए है

दिल भी है बला क़ाबिल-ए-मश्क़-ए-सितम-ओ-नाज़
जो तीर है उस तूदा-ए-तूफ़ाँ के लिए है

निकले कोई क्या क़ैद-ए-अलाइक़ से कि ऐ 'ज़ौक़'
दर ही नहीं इस ख़ाना-ए-ज़िंदाँ के लिए है

ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से

ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से
जाने का नहीं चोर मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर से

हम ख़ूब हैं वाक़िफ़ तिरे अंदाज़-ए-कमर से
ये तार निकलता है कोई दिल के गुहर से

फिर आए अगर जीते वो का'बे के सफ़र से
तो जानो फिरे शैख़-जी अल्लाह के घर से

सरमाया-ए-उम्मीद है क्या पास हमारे
इक आह है सीने में सो न-उम्मीद असर से

वो ख़ुल्क़ से पेश आते हैं जो फ़ैज़-रसाँ हैं
हैं शाख़-ए-समर-दार में गुल पहले समर से

हाज़िर हैं मिरे जज़्बा-ए-वहशत के जिलौ में
बाँधे हुए कोहसार भी दामन को कमर से

लबरेज़ मय-ए-साफ़ से हों जाम-ए-बिलोरीं
ज़मज़म से है मतलब न सफ़ा से न हजर से

अश्कों में बहे जाते हैं हम सू-ए-दर-ए-यार
मक़्सूद रह-ए-का'बा है दरिया के सफ़र से

फ़रियाद-ए-सितम-कश है वो शमशीर-ए-कशीदा
जिस का न रुके वार फ़लक की भी सिपर से

खुलता नहीं दिल बंद ही रहता है हमेशा
क्या जाने कि आ जाए है तू इस में किधर से

उफ़ गर्मी-ए-वहशत कि मिरी ठोकरों ही में
पत्थर हैं पहाड़ों के उड़े जाते शरर से

कुछ रहमत-ए-बारी से नहीं दूर कि साक़ी
रोएँ जो ज़रा मस्त तो मय अब्र से बरसे

मैं कुश्ता हूँ किस चश्म-ए-सियह-मस्त का या रब
टपके है जो मस्ती मिरी तुर्बत के शजर से

नालों के असर से मिरे फोड़ा सा है पकता
क्यूँ रीम सदा निकले न आहन के जिगर से

ऐ 'ज़ौक़' किसी हमदम-ए-देरीना का मिलना
बेहतर है मुलाक़ात-ए-मसीहा-ओ-ख़िज़र से