हुंकार : रामधारी सिंह 'दिनकर' (हिन्दी कविता)
Hunkar : Ramdhari Singh Dinkar

1. परिचय

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं

समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं

जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं

कली की पंखडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं

जलन हूँ, दर्द हूँ, दिल की कसक हूँ,
किसी का हाय, खोया प्यार हूँ मैं ।
गिरा हूँ भूमि पर नन्दन-विपिन से,
अमर-तरु का सुमन सुकुमार हूँ मैं ।

मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं

मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं

न देखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं

सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं

दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा की
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं

बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं

(१९३५ ई०)

2. हाहाकार

दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में,
तृषावंत मैं घूम रहा कविते ! तब से व्याकुल त्रिभुवन में !

उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,
जहाँ पथिक जल की झांकी में एक बूँद के लिए विकल है।

घर-घर देखा धुआं पर, सुना, विश्व में आग लगी है,
'जल ही जल' जन-जन रटता है, कंठ-कंठ में प्यास जगी है।

सूख गया रस श्याम गगन का एक घुन विष जग का पीकर,
ऊपर ही ऊपर जल जाते सृष्टि-ताप से पावस सीकर !

मनुज-वंश के अश्रु-योग से जिस दिन हुआ सिन्धु-जल खारा,
गिरी ने चीर लिया निज उर, मैं ललक पड़ा लाख जल की धारा।

पर विस्मित रह गया, लगी पीने जब वही मुझे सुधी खोकर,
कहती- 'गिरी को फाड़ चली हूँ मैं भी बड़ी विपासित होकर'।

यह वैषम्य नियति का मुझपर, किस्मत बढ़ी धन्य उन कवि की,
जिनके हित कविते ! बनतीं तुम झांकी नग्न अनावृत छवि की ।

दुखी विश्व से दूर जिन्हें लेकर आकाश कुसुम के वन में,
खेल रहीं तुम अलस जलद सी किसी दिव्य नंदन-कानन में।

भूषन-वासन जहाँ कुसुमों के, कहीं कुलिस का नाम नहीं है।
दिन-भर सुमन-हार-गुम्फन को छोड़ दूसरा काम नहीं है।

वही धन्य, जिनको लेकर तुम बसीं कल्पना के शतदल पर,
जिनका स्वप्न तोड़ पाती है मिटटी नहीं चरण-ताल बजकर !

मेरी भी यह चाह विलासिनी ! सुन्दरता को शीश झुकाऊं,
जिधर-जिधर मधुमयी बसी हो, उधर वसंतानिल बन जाऊं !

एक चाह कवि की यह देखूं, छिपकर कभी पहुँच मालिनी तट,
किस प्रकार चलती मुनिबाला यौवनवती लिए कटी पर घाट !

झांकूं उस माधवी-कुंज में, जो बन रहा स्वर्ग कानन में;
प्रथम परस की जहाँ लालिमा सिहर रही तरुणी- आनन में ।

जनारण्य से दूर स्वप्न में मैं भी निज संसार बसाऊँ,
जग का आर्त्त नाद सुन अपना हृदय फाड़ने से बच जाऊँ ।

मिट जाती ज्यों किरण बिहँस सारा दिन कर लहरों पर झिल--मिल,
खो जाऊँ त्यों हर्ष मनाता, मैं भी निज स्वानों से हिलमिल ।

पर, नभ में न कुटी बन पाती, मैंने कितनी युक्ति लगायी,
आधी मिटती कभी कल्पना, कभी उजड़ती बनी-बनायी ।

रह-रह पंखहीन खग-सा मैं गिर पड़ता भू की हलचल में ;
झटिका एक बहा ले जाती स्वप्न-राज्य आँसू के जल में ।

कुपित देव की शाप-शिखा जब विद्युत् बन सिर पर छा जाती,
उठता चीख हृदय विद्रोही, अन्ध भावनाएँ जल जातीं ।

निरख प्रतीची-रक्त-मेघ में अस्तप्राय रवि का मुख-मंडल,
पिघल-पिघल कर चू पड़ता है दृग से क्षुभित, विवश अंतस्तल ।

रणित विषम रागिनी मरण की आज विकट हिंसा-उत्सव में;
दबे हुए अभिशाप मनुज के लगे उदित होने फिर भव में ।

शोणित से रंग रही शुभ्र पट संस्कृति निठुर लिए करवालें,
जला रही निज सिंहपौर पर दलित-दीन की अस्थि मशालें।

घूम रही सभ्यता दानवे, 'शांति ! शांति !' करती भूतल में,
पूछे कोई, भिगो रही वह क्यों अपने विष दन्त गरल में।

टांक रही हो सुई चरम पर, शांत रहें हम, तनिक न डोलें,
यही शान्ति, गर्दन कटती हो, पर हम अपनी जीभ न खोलें ?

बोलें कुछ मत क्षुधित, रोटियां श्वान छीन खाएं यदि कर से,
यही शांति, जब वे आयें, हम निकल जाएँ चुपके निज घर से ?

हब्शी पढ़ें पाठ संस्कृति के खड़े गोलियों की छाया में;
यही शान्ति, वे मौन रहें जब आग लगे उनकी काया में ?

चूस रहे हों दनुज रक्त, पर, हों मत दलित प्रबुद्ध कुमारी !
हो न कहीं प्रतिकार पाप का, शांति या कि यह युद्ध कुमारी !

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
छाते कभी संग बैलों का , ऐसा कोई याम नहीं है।

मुख में जीभ, शक्ति भुज में, जीवन में सुख का नाम नहीं है,
वसन कहाँ ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।

विभव-स्वप्न से दूर, भूमि पर यह दुखमय संसार कुमारी!
खलिहानों में जहाँ मचा करता है हाहाकार कुमारी!

बैलों के ये बंधू वर्ष भर, क्या जाने, कैसे जीते हैं ?
बंधी जीभ, आँखे विषष्ण, गम खा, शायद आंसू पीते हैं।

पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू पीना ?
चूस-चूस सुखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।

विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती,
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती।

कब्र-कब्र में अबुध बालकों की भूखी हड्डी रोती है,
'दूध-दूध !' की कदम कदम पर सारी रात सदा होती है।

'दूध-दूध !' ओ वत्स ! मंदिरों में बहरे पाषाण यहाँ हैं,
'दूध-दूध !' तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान् कहाँ हैं ?

'दूध-दूध !' दुनिया सोती है, लाऊं दूध कहाँ, किस घर से ?
'दूध-दूध !' हे देव गगन के ! कुछ बूँदें टपका अम्बर से !

'दूध-दूध !' गंगा तू ही अपने पानी को दूध बना दे,
'दूध-दूध !' उफ़ ! है कोई, भूखे मुर्दों को जरा मना दे ?

'दूध-दूध !' फिर 'दूध !' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे ?
'दूध-दूध !' मरकर भी क्या टीम बिना दूध के सो न सकोगे ?

वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं।
वे बच्चे भी यही, कब्र में 'दूध-दूध !' जो चिल्लाते हैं।

बेक़सूर, नन्हे देवों का शाप विश्व पर पड़ा हिमालय !
हिला चाहता मूल सृष्टि का, देख रहा क्या खड़ा हिमालय ?

'दूध-दूध !' फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा,
जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा !

जय मानव की धरा साक्षिणी ! जाय विशाल अम्बर की जय हो !
जय गिरिराज ! विन्ध्यगिरी, जय-जय ! हिंदमहासागर की जय हो !

हटो व्योम के मेघ ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
'दूध, दूध ! ...' ओ वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं !

(१९३७ ई०)

3. वर्त्तमान का निमन्त्रण

समय-ढूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये,
आज खोजते उन्हें बुलाने वर्त्तमान के पल आये !

"शैल-श्रृंग चढ़ समय-सिन्धु के आर-पार तुम हेर रहे,
किन्तु, ज्ञात क्या तुम्हें भूमि का कौन दनुज पथ घेर रहे ?

दो वज्रों का घोष, विकट संघात धरा पर जारी है,
वह्नि-रेणु, चुन स्वप्न सजा लो, छिटक रही चिनगारी है ।

रण की घडी, जलन की बेला, रुधिर- पंक में गान करो,
अपनी आहुति धरो कुण्ड में, कुछ तुम भी बलिदान करो ।"

वर्त्तमान के हठी बाल ये रोते हैं, बिललाते हैं,
रह-रह हृदय चौंक उठता है, स्वप्न टूटते जाते हैं ।

श्रृंग छोड़ मिट्टी पर आया, किंतु, कहो क्या गाऊँ मैं ?
जहाँ बोलना पाप, वहाँ क्या गीतों से समझाऊँ मैं ?

विधि का शाप, सुरभि-साँसों पर लिखूँ चरित मैं क्यारी का,
चौराहे पर बँधी जीभ से मोल करूँ चिनगारी का ?

यह बेबसी, गगन में भी छूता धरती का दाह मुझे,
ऐसा घमासान ! मिट्टी पर मिली न अब तक राह मुझे ।

तुम्हें चाह जिसकी वह कलिका इस वन में खिलती न कहीं,
खोज रहा मैं जिसे, जिन्दगी वह मुझको मिलती न कहीं ।

किन्तु, न बुझती जलन हृदय की, हाय, कहाँ तक हुक सहूँ ?
बुलबुल सीना चाक करे औ' मैं फूलों-सा मूक रहूँ ?

रण की घडी, जलन की वेला, तो मैं भी कुछ गाऊँगा,
सुलग रही यदि शिखा यज्ञ की अपना हवन चढाऊँगा ।

'वर्त्तमान की जय', अभीत हो खुलकर मन की पीर बजे,
एक राग मेरा भी रण में, बन्दी की जंजीर बजे ।

नई किरण की सखी, बाँसुरी, के छिदों से कूक उठे,
सांस- साँस पर खडूग-धार पर नाच हृदय की हुक उठे ।

नये प्रात के अरुण ! तिमिर-उर में मरीचि-संधान करो,
युग के मूक शैल ! उठ जागो, हुंकारो, कुछ गान करो ।

किसकी आहट ? कौन पधारा ? पहचानो, टूक ध्यान करो,
जगो भूमि ! अति निकट अनागत का स्वागत-सम्मान करो ।

'जय हो', युग के देव पधारो ! विकट, रुद्र, हे अभिमानी !
मुक्त-केशिनी खडी द्वार पर कब से भावों की रानी ।

अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि ! बुनो कल्पना की जाली,
तिमिर-ज्योति की समर-भूमि का मैं चारण, मैं वैताली ।

(होलिकोत्सव, १९९५,वि०)

4. दिगम्बरी

उदय-गिरी पर पिनाकी का कहीं टंकार बोला,
दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला।

(१) तिमिर के भाल पर चढ़ कर विभा के बाणवाले,
खड़े हैं मुन्तजिर कब से नए अभियानवाले !

प्रतीक्षा है, सुने कब व्यालिनी ! फुंकर तेरा ?
विदारित कब करेगा व्योम को हुंकार तेरा ?

दिशा के बंध से झंझा विकल है छूटने को ;
धरा के वक्ष से आकुल हलाहल फूटने को !

कलेजों से लगी बत्ती कहीं कुछ जल रही है ;
हवा की सांस पर बेताब सी कुछ चल रही है !

धराधर को हिला गूंजा धरणी से राग कोई,
तलातल से उभरती आ रही है आग कोई !

क्षितिज के भाल पर नव सूर्य के सप्ताष्व बोले
चतुर्दिक भूमि के उत्ताल पारावार बोला !

नये युग की भवानी, आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी! बोल,अम्बर में किरण का तार बोला !

(२)
थकी बेड़ी कफस की हाथ में सौ बार बोली,
ह्रदय पर झनझनाती टूट कर तलवार बोली,

कलेजा मौत ने जब-जब टटोला इम्तिहाँ में,
जमाने को तरुण की टोलियाँ ललकार बोलीं!

पुरातन और नूतन वज्र का संघर्ष बोला,
विभा सा कौंध कर भू का नया आदर्श बोला,

नवागम-रोर से जागी बुझी -ठंडी चिता भी,
नयी श्रृंगी उठाकर वृद्ध भारतवर्ष बोला !

दरारें हो गयीं प्राचीर में बंदी भवन के,
हिमालय की दरी का सिंह भीमाकार बोला !

नये युग की भवानी, आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी! बोल,अम्बर में किरण का तार बोला।

(३)
लगी है धुल को परवाज़, उडती जा रही है,
कड़कती दामिनी झंझा कहीं से आ रही है !

घटा सी दीखती जो, वह उमड़ती आह मेरी,
कड़ी जो विश्व का पथ रोक, है वह चाह मेरी !

सजी चिंगारियां, निर्भय प्रभंजन मग्न आया,
क़यामत की घडी आई, प्रलय का लग्न आया !

दिशा गूंजी, बिखरता व्योम में उल्लास आया,
नए युगदेव का नूतन कटक लो पास आया !

पहन द्रोही कवच रण में युगों के मौन बोले,
ध्वजा पर चढ़ अनागत धर्म का हुंकार बोला !

नए युग की भवानी, आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला !

(४)
ह्रदय का लाल रस हम वेदिका में दे चुके हैं,
विहंस कर विश्व का अभिशाप सिर पर ले चुके हैं !

परीक्षा में रुचे, वह कौन हम उपहार लायें ?
बता, इस बोलने का मोल हम कैसे चुकाएं ?

युगों से हम अनय का भार ढोते आ रहे हैं,
न बोली तू, मगर, हम रोज मिटते जा रहे हैं !

पिलाने को कहाँ से रक्त लायें दानवों को ?
नहीं क्या स्वत्व है प्रतिकार का हम मानवों को ?

जरा तू बोल तो, सारी धरा हम फूंक देंगे,
पड़ा जो पंथ में गिरी, कर उसे दो टूक देंगे !

कहीं कुछ पूछने बूढा विधाता आज आया,
कहेंगे हाँ, तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया !

जिला फिर पाप को टूटी धरा यदि जोड़ देंगे,
बनेगा जिस तरह उस सृष्टि को हम फोड़ देंगे !

ह्रदय की वेदना बोली लहू बन लोचनों में,
उठाने मृत्यु का घूघट हमारा प्यार बोला !

नए युग की भवानी, आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला !

(१९३९ ई०)

5. विपथगा

झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन,
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन,

मेरी पायल झनकार रही तलवारों की झनकारों में
अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुंकारों में !
मैं अहंकार सी कड़क ठठा हन्ति विद्युत् की धारों में,
बन काल-हुताशन खेल रही पगली मैं फूट पहाड़ों में,
अंगडाई में भूचाल, सांस में लंका के उनचास पवन !
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

मेरे मस्तक के आतपत्र खर काल-सर्पिणी के शत फन,
मुझ चिर-कुमारियों के ललाट में नित्य नवीन रुधिर-चन्दन
आँजा करती हूँ चिता-धूम का दृग में अंध तिमिर-अंजन,
संहार-लापत का चीर पहन नाचा करती मैं छूम-छनन !
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

पायल की पहली झमक, सृष्टि में कोलाहल छा जाता है
पड़ते जिस ओर चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है।
लहराती लपट दिशाओं में, खलभल खगोल अकुलाता है,
परकटे विहाग-सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग नरक जल जाता है,
गिरते दहाड़ कर शैल-श्रृंग मैं जिधर फेरती हूँ चितवन !
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

रस्सों से कसे जबान पाप-प्रतिकार न जब कर पाते हैं,
बहनों की लुटती लाज देखकर काँप-कांप रह जाते हैं,
शस्त्रों के भय से जब निरस्त्र आंसू भी नहीं बहाते हैं,
पी अपमानों के गरल-घूँट शासित जब ओठ चबाते हैं,
जिस दिन रह जाता क्रोध मौन, मेरा वह भीषण जन्म लगन
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन!

पौरुष को बेडी डाल पाप का अभय रास जब होता है,
ले जगदीश्वर का नाम-खडग कोई दिल्लीश्वर धोता है,
धन के विलास का बोझ दुखी-दुर्बल दरिद्र जब ढोता है,
दुनियां को भूखों मार भूप जब सुखी महल में सोता है,
सहती कब कुछ मन मार प्रजा,कसमस करता मेरा यौवन
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं,
युवती के लज्जा वासन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं,
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण !
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

डरपोक हुकूमत जुल्मों से लोहा जब नहीं बजाती है,
हिम्मतवाले कुछ कहते हैं, तब जीभ तराशी जाती है,
उलटी चालें ये देख देश में हैरत-सी छा जाती है,
भट्ठी की ओदी आंच छिपी तब और अधिक धुन्धुआती है,
सहसा चिंघार खड़ी होती दुर्गा मैं करने दस्यु-दलन !
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

चढ़कर जूनून-सी चलती हूँ, मृत्युंजय वीर कुमारों पर,
आतंक फ़ैल जाता कानूनी पार्लमेंट, सरकारों पर,
'नीरों' के जाते प्राण सूख मेरे कठोर हुंकारों पर,
कर अट्टहास इठलाती हूँ जारों के हाहाकारों पर,
झंझा सी पकड़ झकोर हिला देती दम्भी के सिंहासन !
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

मैं निस्तेजों का तेज, युगों के मूक मौन की बानी हूँ,
दिल-जले शासितों के दिल की मैं जलती हुई कहानी हूँ,
सदियों की जब्ती तोड़ जगी, मैं उस ज्वाला की रानी हूँ,
मैं जहर उगलती फिरती हूँ, मैं विष से भरी जवानी हूँ,
भूखी बाघिन की घात घूर, आहत भुजंगिनी का दंसन ।
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

जब हुई हुकूमत आँखों पर, जनमी चुपके मैं आहों में,
कोड़ुों की खाकर मार पली पीड़ित की दबी कराहों में,
सोने-सी निखर जवान हुई तप कड़े दमन के दाहों में,
ले जान हथेली पर निकली मैं मर-मिटने की चाहों में,
मेरें चरणों में खोज रहे भय-कम्पित तीनों लोक शरण ।
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

असि की नोकों से मुकुट जीत अपने सिर उसे सजाती हूँ,
ईश्वर का आसन छीन कूद मैं आप खडी हो जाती हूँ,
थर-थर करते कानून-न्याय इङ्गित पर जिन्हें नचाती हूँ,
भयभीत पातकी धर्मों से अपने पग मैं धुलवाती हूँ,
सिर झुका घमंडी सरकारें करती मेरा अर्चन-पूजन ।
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

मुझ विपथगामिनी को न ज्ञात किस रोज किधर से आऊँगी,
मिट्टी से किस दिन जाग क्रुध्द अम्बर में आग लगाऊँगी,
आँखें अपनी कर बन्द देश में जब भूकम्प मचाऊँगी,
किसका टूटेगा श्रृंग, न जानें, किसका महल गिराऊँगी ।
निर्बन्ध, क्रूर, निर्मोह सदा मेरा कराल नर्तन-गर्जन ।
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

अब की अगस्त्य की बारी है, पापों के पारावार ! सजग,
बैठे 'विसूवियस' के मुख पर भोले अबोध संसार, सजग,
रेशों का रक्त कृशानु हुआ, ओ जुल्मी की तलवार, सजग,
दुनिया के नीरो, सावधान, दुनिया के पापी जार, सजग !
जाने किस दिन फुंकार उठें, पद-दलित काल-सर्पों के फन !
झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन !

(ससराम, १९३८ ई०)

6. अनल-किरीट

लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले !
कालकूट पहले पी लेना, सुधा बीज बोनेवाले !


धरकर चरण विजित श्रृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं,
अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुडाते हैं।

पड़ी समय से होड़, खींच मत तलवों से कांटे रुककर,
फूंक-फूंक चलती न जवानी चोटों से बचकर , झुककर।

नींद कहाँ उनकी आँखों में जो धुन के मतवाले हैं ?
गति की तृषा और बढती, पड़ते पग में जब छले हैं।

जागरूक की जाय निश्चित है, हार चुके सोने वाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले।


जिन्हें देखकर डोल गयी हिम्मत दिलेर मर्दानों की
उन मौजों पर चली जा रही किश्ती कुछ दीवानों की।

बेफिक्री का समाँ कि तूफाँ में भी एक तराना है,
दांतों उँगली धरे खड़ा अचरज से भरा ज़माना है।

अभय बैठ ज्वालामुखियों पर अपना मन्त्र जगाते हैं।
ये हैं वे, जिनके जादू पानी में आग लगाते हैं।

रूह जरा पहचान रखें इनकी जादू टोनेवाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले।


तीनों लोक चकित सुनते हैं, घर घर यही कहानी है,
खेल रही नेजों पर चढ़कर रस से भरी जवानी है।

भू संभले, हो सजग स्वर्ग, यह दोनों की नादानी है,
मिटटी का नूतन पुतला यह अल्हड है, अभिमानी है।

अचरज नहीं, खींच ईंटें यह सुरपुर को बर्बाद करे,
अचरज नहीं, लूट जन्नत वीरानों को आबाद करे।

तेरी आस लगा बैठे हैं , पा-पाकर खोनेवाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले।


संभले जग, खिलवाड़ नहीं अच्छा चढ़ते-से पानी से,
याद हिमालय को, भिड़ना कितना है कठिन जवानी से।
ओ मदहोश ! बुरा फल हल शूरों के शोणित पीने का,
देना होगा तुम्हें एक दिन गिन-गिन मोल पसीने का ।

कल होगा इन्साफ, यहाँ किसने क्या किस्मत पायी है,
अभी नींद से जाग रहा युग, यह पहली अंगडाई है।

मंजिल दूर नहीं अपनी दुख का बोझा ढोनेवाले
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले।

(१९३८ ई०)

7. कविता का हठ

"बिखरी लट, आँसू छलके, यह सस्मित मुख क्यों दीन हुआ ?
कविते ! कह, क्यों सुषमाओं का विश्व आज श्री-हीन हुआ ?
संध्या उतर पड़ी उपवन में ? दिन-आलोक मलीन हुआ ?
किस छाया में छिपी विभा ? श्रृंगार किधर उड्डीन हुआ ?

इस अविकच यौवन पर रूपसि, बता, श्वेत साड़ी कैसी ?
आज असंग चिता पर सोने की यह तैयारी कैसी ?
आँखों से जलधार, हिचकियों पर हिचकी जारी कैसी ?
अरी बोल, तुझ पर विपत्ति आयी यह सुकुमारी ! कैसी ?"

यों कहते-कहते मैं रोया, रुद्ध हुई मेरी वाणी,
ढार मार रो पडी लिपट कर मुझ से कविता कल्याणी ।
"मेरे कवि ! मेरे सुहाग ! मेरे राजा ! किस ओर चले ?
चार दिनों का नेह लगा रे छली ! आज क्यों छोड़ चले ?

"वन-फूलों से घिरी कुटी क्यों आज नहीं मन को भाती ?
राज-वाटिका की हरीतिमा हाय, तुझे क्यों ललचाती ?
करुणा की मैं सुता बिना पतझड़ कैसे जी पाऊँगी ?
कवि ! बसन्त मत बुला, हाय, मैं विभा बीच खो जाऊँगी ।

"खंडहर की मैं दीन भिखारिन, अट्टालिका नहीं लूँगी,
है सौगन्ध, शीश पर तेरे रखने मुकुट नहीं दूंगी।
तू जायेगा उधर, इधर मैं रो-रो दिवस बिताऊँगी,
खंडहर में नीरव निशीथ में रोऊँगी, चिल्लाऊँगी ।

"व्योम-कुंज की सखी कल्पना उतर सकेगी धूलों में ?
नरगिस के प्रेमी कवि ढूंढेंगे मुझको वन-फूलों में ?
हँस-हँस कलम नोंक से चुन रजकण से कौन उठायेगा?
ठुकरायी करुणा का कण हूँ, मन में कौन बिठायेगा ?

"जीवन-रस पीने को देगा, ऐसा कौन यहाँ दानी ?
उर की दिव्य व्यथा कह अपनायेगी दुनिया दीवानी?
गौरव के भग्नावशेष पर जब मैं अश्रु बहाऊँगी,
कौन अश्रु पोंछेगा, पल भर कहाँ शान्ति मैं पाऊँगी ?

"किसके साथ कहो खेलूँगी दूबों की हरियाली में ?
कौन साथ मिल कर रोयेगा नालन्दा-वैशाली में ?
कुसुम पहन मैं लिये विपंची घुमूंगी यमुना-तीरे,
किन्तु, कौन अंचल भर देगा चुन-चुन धूल भरे हीरे ?

"तेरे कण्ठ-बीच कवि ! मैं बनकर युग-धर्म पुकार चुकी,
प्रकृति-पक्ष ले रक्त-शोषिणी संस्कृति को ललकार चुकी ।
वार चुकी युग पर तन-मन-धन, अपना लक्ष्य विचार चुकी,
कवे ! तुम्हारे महायज्ञ की आहुति कर तैयार चुकी ।

"उठा अमर तूलिका, स्वर्ग का भू पर चित्र बनाऊँगी,
अमापूर्ण जग के आँगन में आज चन्द्रिका लाऊँगी ।
रुला-रुला आँसू में धो जगती की मैल बहाऊँगी,
अपनी दिव्य शक्ति का परिचय भूतल को बतलाऊँगी ।

"तू संदेश वहन कर मेरा, महागान मैं गाऊँगी,
एक विश्व के लिए लाख स्वर्गों को मैं ललचाऊँगी ।
वहन करूँगी कीर्ति जगत में बन नवीन युग की वाणी,
ग्लानि न कर संगिनी प्राण की, हूँ मैं भावों की रानी ।"

(१९३४ ई०)

8. फूलों के पूर्व जन्म

प्रिय की पृथुल जांघ पर लेटी करती थीं जो रंगरलियाँ,
उनकी कब्रों पर खिलती हैं नन्हीं जूही की कलियाँ।

पी न सका कोई जिनके नव अधरों की मधुमय प्याली,
वे भौरों से रूठ झूमतीं बन कर चम्पा की डाली।

तनिक चूमने से शरमीली सिहर उठी जो सुकुमारी,
सघन तृणों में छिप उग आयी वह बन छुई-मुई प्यारी।

जिनकी अपमानित सुन्दरता चुभती रही सदा बन शूल,
वे जगती से दूर झूमतीं सूने में बन कर वन-फूल ।

अपने बलिदानों से जग में जिनने ज्योति जगायी है,
उन पगलों के शोणित की लाली गुलाब में छायी है ।

अबुध वत्स जो मरे हाय, जिन पर हम अश्रु बहाते हैं,
वे हैं मौन मुकुल अलबेले खिलने को अकुलाते हैं !

9. दिल्ली

यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में !
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?
मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ?
यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !

इस उजाड़, निर्जन खंडहर में,
छिन-भिन्न उजड़े इस घर में,
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यानाश प्रहर में !

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं गाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिडकाना ?

महल कहाँ ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फांस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
गम, आंसू या गंगाजल का;

यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है
आजीवन बधिकों के फल का,
मरने पर भी हमें कफ़न है
माता शैव्या के अंचल का !

गुलचीं निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,
कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में;
हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान् !
यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में ?

बिखरी लट, आंसू छलके हैं,
देख, वन्दिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं,
दिल्ली ! आह ! कलम रुक जाती।

अरि विवश हैं, कहो, करें क्या ?
पैरों में जंजीर हाय, हाथों-
में हैं कड़ियाँ कस जातीं !

और कहें क्या ? धरा न धंसती,
हुन्करता न गगन संघाती !
हाय ! वन्दिनी मां के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती !

तड़प-तड़प हम कहो करें क्या ?
'बहै न हाथ, दहै रिसि छाती',
अंतर ही अंतर घुलते हैं,
'भा कुठार कुंठित रिपु-घाती !'

अपनी गर्दन रेत-रेत असी की तीखी धारों पर
राजहंस बलिदान चढाते माँ के हुंकारों पर।
पगली ! देख, जरा कैसे मर-मिटने की तैयारी ?
जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बंजारों पर।

तू वैभव-मद में इठलाती
परकीया-सी सैन चलाती,
री ब्रिटेन की दासी ! किसको
इन आँखों पर है ललचाती ?

हमने देखा यहीं पांडू-वीरों का कीर्ति-प्रसार,
वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महा-स्वप्न-अभिसार,
यही कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं श्रृंगार।

तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली !
मत फिर यों इतराती दिल्ली !
अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली !

हाय ! छिनी भूखों की रोटी
छिना नग्न का अर्द्ध वसन है,
मजदूरों के कौर छिने हैं
जिन पर उनका लगा दसन है ।

छिनी सजी-साजी वह दिल्ली
अरी ! बहादुरशाह 'जफर' की ;
और छिनी गद्दी लखनउ की
वाजिद अली शाह 'अख्तर' की ।

छिना मुकुट प्यारे 'सिराज' का,
छिना अरी, आलोक नयन का,
नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है
वन-वन लिये चंचु में तिनका।

आहें उठीं दीन कृषकों की,
मजदूरों की तड़प, पुकारें,
अरी! गरीबों के लोहू पर
खड़ी हुई तेरी दीवारें ।

अंकित है कृषकों के दृग में तेरी निठुर निशानी,
दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी ।
औ' तेरा दृग-मद यह क्या है ? क्या न खून बेकस का ?
बोल, बोल क्यों लजा रही ओ कृषक-मेध की रानी ?

वैभव की दीवानी दिल्ली !
कृषक-मेध की रानी दिल्ली !
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली !

अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे ! तू छवि में इतराती !
परदेसी-संग गलबाँही दे
मन में है फूली न समाती !

दो दिन ही के 'बाल-डांस' में
नाच हुई बेपानी दिल्ली !
कैसी यह निर्लज्ज नग्नता,
यह कैसी नादानी दिल्ली !

अरी हया कर, है जईफ यह खड़ा कुतुब मीनार,
इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी ! हुशियार ।
इन्हें देखकर भी तो दिल्ली ! आँखें, हाय, फिरा ले,
गौरव के गुरु रो न पड़े, हा, घूंघट जरा गिरा ले !

अरी हया कर, हया अभागी !
मत फिर लज्जा को ठुकराती;
चीख न पड़ें कब्र में अपनी,
फट न जाय अकबर की छाती ।

हुक न उठे कहीं 'दारा' की
कूक न उठे कब्र मदमाती !
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा,
दिल्ली घूंघट क्यों न गिराती ?

बाबर है, औरंग यहीं है
मदिरा औ' कुलटा का द्रोही,
बक्सर पर मत भूल, यहीं है
विजयी शेरशाह निर्मोही ।

अरी ! सँभल, यह कब्र न फट कर कहीं बना दे द्वार !
निकल न पड़े क्रोध में ले कर शेरशाह तलवार !
समझायेगा कौन उसे फिर ? अरी, सँभल नादान !
इस घूंघट पर आज कहीं मच जाय न फिर संहार !

जरा गिरा ले घूंघट अपना,
और याद कर वह सुख सपना,
नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में
दीवाने सलीम का तपना;

गुम्बद पर प्रेमिका कुपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन की आनन्द-घडी में
जन्नत की परियों का जुड़ना ।

जरा याद कर, यहीं नहाती---
थी रानी मुमताज अतर में,
तुझ-सी तो सुन्दरी खड़ी---
रहती थी पैमाना ले कर में ।

सुख, सौरभ, आनन्द बिछे थे
गली, कूच, वन, वीथि, नगर में,
कहती जिसे इन्द्रपुर तू वह-
तो था प्राप्य यहाँ घर-घर में ।

आज आँख तेरी बिजली से कौध-कौध जाती है !
हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है !

खिलें फूल, पर, मोह न सकती
हमें अपरिचित छटा निराली,
इन आँखों में घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब की लाली ।

उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी,
पलकें जोग रहीं बीते वैभव की एक निशानी,
दिल्ली ! तेरे रूप-रंग पर कैसे ह्रदय फंसेगा ?
बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी।

(१९३३ ई०)

10. शहीद-स्तवन (कलम, आज उनकी जय बोल)

(उनके लिए जो जा चुके हैं)

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिनने चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।
कलम, आज उनकी जय बोल ।

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।
कलम, आज उनकी जय बोल ।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रहीं लू लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।
कलम, आज उनकी जय बोल ।

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा ?
साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।
कलम, आज उनकी जय बोल ।

(उनके लिए जो जीवित शहीद हैं)

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

सूख रही है बोटी-बोटी,
मिलती नहीं घास की रोटी,
गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।
नमन उन्हें मेरा शत बार ।

अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,
शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,
रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।
नमन उन्हें मेरा शत बार ।

जिनकी चढ़ती हुई जवानी
खोज रही अपनी क़ुर्बानी
जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।
नमन उन्हें मेरा शत बार ।

दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,
स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,
जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।
नमन उन्हें मेरा शत बार ।

वीर, तुम्हारा लिए सहारा
टिका हुआ है भूतल सारा,
होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।
नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,
जीवन का बल-तेज जगा लूँ,
मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।
नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

(उन के लिए जो भविष्य के गर्भ में हैं)

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

'जय हो', नव होतागण ! आओ,
संग नई आहुतियाँ लाओ,
जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।
आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

टूटी नहीं शिला की कारा,
लौट गयी टकरा कर धारा,
सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।
आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

फिर डंके पर चोट पड़ी है,
मौत चुनौती लिए खड़ी है,
लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?
आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

(१९३८ ई०)

11. आलोकधन्वा

ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर-मण्डल का,
मेरा शिखण्ड अरुणाभ, किरीट अनल का ।
रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे,
किरणों में उज्जल गीत गूँथे हैं मेरे ।

मैं उदय-प्रान्त का सिह प्रदीप्त विभा से,
केसर मेंरे बलते हैं कनक-शिखा से ।
ज्योतिर्मयि अन्त:शिखा अरुण है मेरी,
हैं भाव अरुण, कल्पना अरुण है मेरी ।

पाया निसर्ग ने मुझे पुण्य के फल-सा,
तम के सिर पर निकला मैं कनक-कमल-सा ।
हो उठा दीप्त धरती का कोना-कोना,
जिसको मैने छू दिया हुआ वह सोना ।

रंग गयी घास पर की शबनम की प्याली,
हो गयी लाल कुहरे की झीनी जाली ।
मेरे दृग का आलोक अरुण जब छलका,
बन गयी घटाएँ विम्ब उषा-अंचल का ।

उदयाचल पर आलोक-शरासन ताने
आया मैं उज्जवल गीत विभा के गाने ।
ज्योंतिर्धनु की शिंजिनी बजा गाता हूँ,
टंकार-लहर अम्बर में फैलाता हूँ ।

किरणों के मुख में विभा बोलती मेरी,
लोहिनी कल्पना उषा खोलती मेरी ।
मैं विभा-पुत्र, जागरण गान है मेरा,
जग को अक्षय आलोक दान है मेरा ।

कोदण्ड-कोटि पर स्वर्ग लिये चलता हूँ,
कर-गत दुर्तभ अपवर्ग किये चलता हूँ ।
आलोक-विशिख से वेध जगा जन-जन को,
सजता हूँ नूतन शिखा जला जीवन को ।

जड़ को उड़ने की पाँख दिये देता हूँ,
चेतन के मन को आँख दिये देता हूँ ।
दौड़ा देता हूँ तरल अग्नि नस-नस में,
रहने देता बल को न बुद्धि के बस में ।

स्वर को कराल हुंकार बना देता हूँ,
यौवन को भीषण ज्वार बना देता हूँ ।
शुरों के दृग अंगार बना देता हूँ,
हिम्मत को ही तलवार बना देता हूँ ।

लोहू में देता हूँ वह तेज रवानी,
जूझती पहाडों से हो अभय जवानी ।
मस्तक में भर अभिमान दिया करता हूँ,
पतनोन्मुख को उत्थान दिया करता हूँ ।

म्रियमाण जाति को प्राण दिया करता हूँ,
पीयूष प्रभा-मय गान दिया करता हूँ,
जो कुछ ज्वलन्त हैं भाव छिपे नर-नर में,
है छिपी विभा उनकी मेरे खर शर में ।

किरणें आती है समय-वक्ष से कढ़ के,
जाती हैं अपनी राह धनुष पर चढ़ के ।
हूँ जगा रहा आलोक अरुण बाणों से,
मरघट में जीवन फूँक रहा गानों से ।

मैं विभा-पुत्र, जागरण गान है मेरा,
जग को अक्षय आलोक दान है मेरा ।

(१९४० ई०)

12. सिपाही

वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,
ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ ।
जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैंने पहचाना,
सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना ।

मसि की तो क्या बात ? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,
जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है ?
इतिहासों में अमर रहूँ, है ऐसी मृत्यु नहीं मेरी,
विश्व छोड़ जब चला, भूलते लगती फिर किसको देरी ?

जग भूले, पर मुझे एक, बस, सेवा-धर्म निभाना है,
जिसकी है यह देह उसीमें इसे मिला मिट जाना है ।
विजय-विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,
फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे ?

वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आकर तुम्हें जगायेगी,
सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर-बीच खो जायेगी ।
देव करेंगे विनय, किन्तु, क्या स्वर्ग-बीच रुक पाऊँगा ?
किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊँगा ।

तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूँगा इधर-उधर,
कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बनकर:
अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,
रह जाऊँगा मौन वृन्त पर सोच, न जाने, क्या मन में ?

तप्त वेग धमनी का बनकर कभी संग मैं हो लूँगा,
कभी चरण- तल की मिट्टी में छिपकर जय-जय बोलूँगा ।
अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचायेगी,
मैं गरजूंगा ध्वजा-श्रृंग पर, वह पहचान न पायेगी ।

'न्योछावर में एक फूल', पर, जग की ऐसी रीत कहाँ ?
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी, सस्ते इतने गीत कहाँ ?
कविते ! देखो विजन विपिन में वन्य-कुसुम का मुरझाना;
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू-कण बरसाना ।

(१९३६ ई०)

13. शब्द-वेध

खेल रहे हिलमिल घाटी में, कौन शिखर का ध्यान करे ?
ऐसा बीर कहाँ कि शैलरुह फूलों का मधुपान करे ?

लक्ष्यवेध है कठिन, अमा का सूचि-भेद्य तमतोम यहाँ?
ध्वनि पर छोडे तीर, कौन यह शब्द-वेध संधान करे ?

"सूली ऊपर सेज पिया की", दीवानी मीरा ! सो ले,
अपना देश वही देखेगा जो अशेष बलिदान करे ।

जीवन की जल गयी फसल, तब उगे यहाँ दिल के दाने;
लहरायेगी लता, आग बिजली का तो सामान करे ।

सबकी अलग तरी अपनी, दो का चलना मिल साथ मना;
पार जिसे जाना हो वह तैयार स्वयं जलयान करे ।

फूल झडे, अलि उड़े, वाटिका का मंगल-मधु स्वप्न हुआ,
दो दिन का है संग, हृदय क्या हृदयों से पहचान करे ?

सिर देकर सौदा लेते हैं, जिन्हें प्रेम का रंग चढ़ा;
फीका रंग रहा तो घर तज क्या गैरिक परिधान करे ?

उस पद का मजीर गूँजता, हो नीरव सुनसान जहाँ;
सुनना हो तो तज वसन्त, निज को पहले वीरान करे ।

मणि पर तो आवरण, दीप से तूफाँ में कब काम चला ?
दुर्गम पंथ, दूर जाना है, क्या पन्थी अनजान करे ?

तरी खेलती रहे लहर पर, यह भी एक समाँ कैसा ?
डाँड़ छोड़, पतवार तोड़ कर तू कवि ! निर्भय गान करे ।

(१९३५ ई०)

14. मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी

सावधान हों निखिल दिशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगन !
बहने चले आज खुल-खुल कर लंका के उनचास पवन ।

हे अशेषफण शेष ! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,
मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, टूट न पड़े कहीं अम्बर ।

गूँजे तुमुल विषाण गगन में गाओ, है गाओं किन्नर !
उतरो भावुक प्रलय ! भूमि पर आओं शिव ! आओ सुन्दर ।

बजे दीप्ति का राग गगन में, बजे किरण का तार बजे;
अघ पीनेवाली भीषण ज्वालाओं का त्योहार सजे ।

हिले 'आल्प्स' का मूल, हिले 'राकी', छोटा जापान हिले,
मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, अब तो हिंदुस्तान हिले ।

चोट पडी भूमध्य-सिन्धु में, नील-तटी में शोर हुआ;
मर्कट चढ़े कोट पर देखो, उठो, 'सिलासी' ! भोर हुआ ।

हुआ विधाता वाम, 'जिनेवा'-बीच सुधी चकराते हैं;
बुझा रहे ज्वाला साँसों से, कर से आँच लगाते हैं !

'राइन'-तट पर खिली सभ्यता, 'हिटलर' खड़ा कौन बोले ?
सस्ता खून यहूदी का है, 'नाजी' ! निज 'स्वस्तिक' धो ले ।

ले हिलोर 'अतलांत' ! भयंकर, जाग, प्रलय का बाण चला;
जाग प्रशान्त, कौन जाने, किस ओर आज तुफान चला?

'दजला' ! चेत, 'फुरात' ! सजग हो, जाग-जाग ओ शंघाई !
लाल सिन्धु ! बोले किस पर यह घटा घुमड़ छाने आयी ।

बर्फों की दीवार खडी, ऊँचे-नीचे पर्वत ढालू,
तो भी पंजा बजा रहा है साइबेरिया का भालू ।

काबुल मूक, दूर "यूरल" है, क्या भोली 'आमु' बोले ?
उद्वेलित 'भूमध्य', स्वेज का मुख इटली कैसे खोले ?

श्वेतानन स्वर्गीय देव हम ! ये हब्शी रेगिस्तानी !
ईसा साखी रहें, इसाई दुनिया ने बर्छी तानी ।

(सन् १९३५ ई० में रक्तपिपासु इटैलियन फैसिस्टों द्वारा
अबीसीनिया पर आक्रमण के अवसर पर लिखित)

15. तकदीर का बँटवारा

है बँधी तकदीर जलती डार से,
आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ ?
वेदना मन की सही जाती नहीं,
यह जहर लेकिन उगल आऊँ कहाँ ?

पापिनी कह जीभ काटी जायगी
आँख देखी बात जो मुँह से कहूँ,
हड्डियाँ जल जायेंगी, मन मार कर
जीभ थामें मौन भी कैसे रहूँ ?

तान कर भौहें, कड़कना छोड़ कर
मेघ बर्फों-सा पिघल सकता नहीं,
शौक हो जिनको, जलें वे प्रेम से,
मैं कभी चुपचाप जल सकता नहीं ।

बाँसुरी जनमी तुम्हारी गोद में
देश-माँ, रोने-रुलाने के लिए,
दौड़ कर आगे समय की माँग पर
जीभ क्या, गरदन कटने के लिए ।

जिन्दगी दौड़ी नयी संसार में
खून में सब के रवानी और है;
और हैं लेकिन हमारी किस्मतें,
आज भी अपनी कहानी और है ।

हाथ की जिसकी कड़ी टूटी नहीं
पाँव में जिसके अभी जंजीर है;
बाँटने को हाय ! तौली जा रही,
बेहया उस कौम की तकदीर है !

बेबसी में काँप कर रोया हृदय,
शाप-सी आहें गरम आयीं मुझे;
माफ करना, जन्म ले कर गोद में
हिन्द की मिट्टी ! शरम आयी मुझे !

गुदड़ियों में एक मुटूठी हड्डियाँ,
मौत-सी, गम की मलीन लकीर-सी,
कौम की तकदीर हैरत से भरी
देखती टूक-टूक खडी तस्वीर-सी ।

चीथडों पर एक की आँखें लगीं,
एक कहता है कि मैं लूँगा जबाँ;
एक की ॰जिद है कि पीने दो मुझे
खून जो इसकी रगों में है रवां !

खून ! खूं की प्यास, तो जाकर पियो
जालिमो ! अपने हृदय का खून ही;
मर चुकी तकदीर हिन्दुस्तान की,
शेष इसमें एक बूंद लहू नहीं ।

मुस्लिमों ! तुम चाहते जिसकी ज़बाँ,
उस गरीबिन ने ज़बाँ खोली कभी ?
हिंदुओ ! बोलो तुम्हारी याद में
कौम की तकदीर क्या बोली कभी ?

छेड़ता आया जमाना, पर कभी
कौम ने मुंह खोलना सीखा नहीं ।
जल गयी दुनिया हमारे सामने,
किन्तु, हमने बोलना सीखा नहीं ।

ताव थी किसकी कि बाँधे कौम को
एक होकर हम कहीं मुंह खोलते ?
बोलना आता कहीं तकदीर को,
हिंदवाले आसमाँ पर बोलते ।

खूं बहाया जा रहा इन्सान का
सींगवाले जानवर के प्यार में !
कौम की तकदीर फोड़ी जा रही
मस्जिदों की ईंट की दीवार में ।

सूझता आगे न कोई पन्थ है,
है घनी गफलत-घटा छायी हुई,
नौजवानो कौम के ! तुम हो कहाँ ?
नाश की देखो घड़ी आयी हुई ।

(कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच
समझौता-वार्ता के असफल होने पर रचित
१९३८ ई०)

16. बसन्त के नाम पर

१.
प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।
तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।

सुन्दरता को जगी देखकर,
जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;
मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,
निज कविता के दीप जलाऊॅं।

ठोकर मार भाग्य को फोडूँ
जड़ जीवन तज कर उड़ जाऊॅं;
उतरी कभी न भू पर जो छवि,
जग को उसका रूप दिखाऊॅं।

स्वप्न-बीच जो कुछ सुन्दर हो उसे सत्य में व्याप्त करूँ।
और सत्य तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूँ।

२.

कलम उठी कविता लिखने को,
अन्तस्तल में ज्वार उठा रे!
सहसा नाम पकड़ कायर का
पश्चिम पवन पुकार उठा रे!

देखा, शून्य कुँवर का गढ़ है,
झॉंसी की वह शान नहीं है;
दुर्गादास - प्रताप बली का,
प्यारा राजस्थान नहीं है।

जलती नहीं चिता जौहर की,
मुटठी में बलिदान नहीं है;
टेढ़ी मूँछ लिये रण - वन,
फिरना अब तो आसान नहीं है।

समय माँगता मूल्य मुक्ति का,
देगा कौन मांस की बोटी?
पर्वत पर आदर्श मिलेगा,
खायें, चलो घास की रोटी।

चढ़े अश्व पर सेंक रहे रोटी नीचे कर भालों को,
खोज रहा मेवाड़ आज फिर उन अल्हड़ मतवालों को।

३.

बात-बात पर बजीं किरीचें,
जूझ मरे क्षत्रिय खेतों में,
जौहर की जलती चिनगारी
अब भी चमक रही रेतों में।

जाग-जाग ओ थार, बता दे
कण-कण चमक रहा क्यों तेरा?
बता रंच भर ठौर कहाँ वह,
जिस पर शोणित बहा न मेरा?

पी-पी खून आग बढ़ती थी,
सदियों जली होम की ज्वाला;
हॅंस-हॅंस चढ़े सीस, आहुति में
बलिदानों का हुआ उजाला।

सुन्दरियों को सौंप अग्नि पर निकले समय-पुकारों पर,
बाल, वृद्ध औ तरुण विहॅंसते खेल गए तलवारों पर।

४.

हाँ, वसन्त की सरस घड़ी है,
जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;
कवि हूँ, आज प्रकृति-पूजन में
निज कविता के दीप जलाऊॅं।

क्या गाऊॅं? सतलज रोती है,
हाय! खिलीं बेलियाँ किनारे।
भूल गए ऋतुपति, बहते हैं,
यहाँ रुधिर के दिव्य पनारे।

बहनें चीख रहीं रावी-तट,
बिलख रहे बच्चे मतवारे;
फूल-फूल से पूछ रहे हैं,
कब लौटेंगे पिता हमारे?

उफ? वसन्त या मदन-बाण है?
वन-वन रूप-ज्वार आया है।
सिहर रही वसुधा रह-रह कर,
यौवन में उभार आया है।

कसक रही सुन्दरी-आज मधु-ऋतु में मेरे कन्त कहाँ?
दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती-प्यारी, और वसन्त कहाँ?

(1935)

17. हिमालय

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।

सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,

जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति! तू ने की पुकार,
'पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।'

उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।

किन द्रौपदियों के बाल खुले ?
किन किन कलियों का अन्त हुआ ?
कह हृदय खोल चित्तौर ! यहाँ
कितने दिन ज्वाल-वसन्त हुआ ?

पूछे, सिकता - कण से हिमपति !
तेरा वह राजस्थान कहाँ ?
वन - वन स्वतंत्रता - दीप लिये
फिरनेवाला बलवान कहाँ ?

तू पूछ, अवध से, राम कहाँ ?
वृन्दा! बोलो, घनश्याम कहाँ ?
ओ मगध ! कहाँ मेरे अशोक ?
वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ ?

पैरों पर ही है पडी हुई
मिथिला भिखारिणी सुकुमारी,
तू पूछ, कहाँ इसने खोईं
अपनी अनन्त निधियां सारी ?

री कपिलवस्तु ! कह, बुध्ददेव
के वे मंगल - उपदेश कहाँ ?
तिब्बत, इरान, जापान, चीन
तक गये हुए सन्देश कहाँ ?

वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?

तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?


प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।

कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।

ले अंगडाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुँकार भरे
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल !

रचनाकाल १९३३

18. असमय आह्वान

(1)
समय-असमय का तनिक न ध्यान,
मोहिनी, यह कैसा आह्वान ?

पहन मुक्ता के युग अवतंस,
रत्न-गुंफित खोले कच-जाल
बजाती मघुर चरण-मंजीर,
आ गयी नभ में रजनी-बाल ।

झींगुरों में सुन शिंजन-नाद
मिलन-आकुलता से द्युतिमान,
भेद प्राची का कज्जल-भाल,
बढ़ा ऊपर विधु वेपथुमान ।

गया दिन धूलि-धूम के बीच
तुम्हारा करते जय-जयकार,
देखने आया था इस सांझ,
पूर्ण विधु का मादक श्रृंगार ।

एक पल सुधा-वृष्टि के बीच
जुड़ा पाये न क्लान्त मन-प्राण,
कि सहसा गूंज उठा सब ओर
तुम्हारा चिर-परिचित आह्वान ।

(2)
यह कैसा आह्वान !
समय-असमय का तनिक न ध्यान ।

झुकी जातीं पल्कें निस्पन्द
दिवस के श्रम का लेकर भार,
रहे दृग में क्रम-क्रम से खेल
नये, भोले, लघु स्वप्न-सुकुमार ।

रक्त-कर्दम में दिन-भर फूंक
रजत-श्रृंगी से भैरव-नाद,
अभी लगता है कितना मधुर
चाँदनी का सुनना संवाद !

दग्ध करती दिन-भर सब अंग
तुम्हारे मरु की जलती धूल;
निशा में ही खिल पाते देवि !
कल्पना के उन्मादक-फूल ।

अन्य अनुचर सोये निश्चिन्त
शिथिल परियों को करते प्यार;
रात में भी मुझ पर ही पड़ा
द्वार-प्रहरी का दुरुतम भार ।

सुलाने आई गृह-गृह डोल
नींद का सौरभ लिये बतास;
हुए खग नीड़ों में निस्पन्द,
नहीं तब भी मुझको अवकाश !

ऊंघती इन कलियों को सौंप
कल्पना के मोहक सामान;
पुन: चलना होगा क्या हाय,
तुम्हारा सुन निष्ठुर आह्वान ?

(3)
यह कैसा आह्वान ?
समय-असमय का तनिक न ध्यान ।

तुम्हारी भरी सृष्टि के बीच
एक क्या तरल अग्नि ही पेय ?
सुधा-मधु का अक्षय भाण्डार
एक मेरे ही हेतु अदेय ?

'उठो' सुन उठूं, हुई क्या देवि,
नींद भी अनुचर का अपराध ?
'मरो' सुन मरूं, नहीं क्या शेष
अभी दो दिन जीने की साध ?

विपिन के फूल-फूल में आज
रही बासन्ती स्वयं पुकार;
अभी भी सुनना होगा देवि !
दुखी धरणी का हाहाकार ?

कर्म क्या एकमात्र वरदान ?
सत्य ही क्या जीवन का श्रेय ?
दग्ध, प्यासी अपनी लघु चाह
मुझे ही रही नहीं क्या गेय ?

मचलता है उड़ुओं को देख
निकलने जब कोई अरमान;
तभी उठता बज अन्तर-बीच
तुम्हारा यह कठोर आह्वान ।

(4)
यह कैसा आह्वान !
समय-असमय का तनिक न ध्यान ।

चांदनी में छिप किस की ओट
पुष्पधन्वा ने छोड़े तीर ?
बोलने लगी कोकिला मौन,
खोलने लगी हृदय की पीर ?

लताएँ ले द्रुम का अवलम्ब
सजाने लगीं नया श्रृंगार;
प्रियक-तरु के पुलकित सब अंग
प्रिया का पाकर मधुमय भार ।

नहीं यौवन का श्लथ आवेग
स्वयं वसुधा भी सकी संभाल;
शिरायों का कम्पन ले दिया
सिहरती हरियाली पर डाल ।

आज वृन्तों पर बैठे फूल
पहन नूतन, कर्बुर परिधान;
विपिन से लेकर सौरभ-मार
चला उड़, व्योम-ओर पवमान ।

किया किस ने यह मधुर स्पर्श
विश्व के बदल गये व्यापार ।
करेगी उतर व्योम से आज
कल्पना क्या भू पर अभिसार ?

नील कुसुमों के वारिद-बीच
हरे पट का अवगुष्ठन डाल;
स्वामिनी ! यह देखो, है खड़ी
पूर्व-परिचित-सी कोई बाल !

उमड़ता सुषमायों को देख
आज मेरे दृग में क्यों नीर ?
लगा किसका शर सहसा आन ?
जगी अंतर में क्यों यह पीर ?

न जाने, किस ने छूकर मर्म ?
जगा दी छवि-दर्शन की चाह;
न जाने चली स्वयं को छोड़
खोजने किस को सुरभित आह ?

अचानक कौन गया कर क्षुब्ध
न जाने, उर का सिन्धु अथाह ?
जगा किस का यह मादक रोष
रोकने मुझ अजेय की राह ?

न लूंगा आज रजत का शंख,
न गाऊँगा पौरुष का राग,
स्वामिनी ! जलने दो उर-बीच
एक पल तो यह मीठी आग ।

तपा लेने दो जी-भर आज
वेदना में प्राणों के गान;
कनक-सा तपकर पीड़ा-बीच
सफल होगा मेरा बलिदान ।

चन्द्र-किरणों ने खोले आज;
रुद्ध मेरी आहों के द्वार;
मनाने आ बैठा एकान्त
मधुरता का नूतन त्योहार ।

शिथिल दृग में तन्द्रा का भार,
हृदय पें छवि का मादक ध्यान;
वेदना का सम्मुख मधु पर्व,
और तब भी दारुण आह्वान !

(5)
यह कैसा आह्वान !
समय-असमय का तनिक न ध्यान ।

चांदनी की अलकों में गूँथ
छोड़ दूँ क्या अपने अरमान ?
आह ! कर दूँ कलियों में बन्द
मधुर पीड़ाओं का वरदान ?

देवि, कितना कटु सेवा-धर्म !
न अनुचर को निज पर अधिकार
न छिपकर भी कर पाता हाय !
तड़पते अरमानों को प्यार ।

हँसो, हिल-डुल वृंतों के दीप !
हँसो, अम्बर के रत्न अनन्त !
हँसो, हिलमिलकर लता-कदम्ब !
तुम्हें, मंगलमय मधुर वसंत !

चीरकर मध्य निशा की शान्ति
कोकिले, छेड़ो पंचम तान;
पल्लवों में तुम से भी मधुर
सुला जाता हूं अपने गान ।

भिगोएगी वन के सब अंग
रोर कर जब अब की बरसात,
बजेगा इन्हीं पल्लवों-बीच
विरह मेरा तब सारी रात ।

फेंकता हूं, लो तोड़-मरोड़
अरी निष्ठुरे ! बीन के तार,
उठा चांदी की उज्जवल शंख
फूंकता हूं भैरव-हुंकार ।

नहीं जीते-जी सकता देख
विश्व में झुका तुम्हारा भाल;
वेदना-मधु का भी कर पान
आज उगलूंगा गरल कराल ।

सोख लूँ बनकर जिसे अगसत्य
कहाँ बाधक वह सिन्धु अथाह ?
कहो, खांडव-वन वह किस ओर
आज करना है जिसका दाह ?

फोड़ पैठूं अनंत पाताल ?
लूट लाऊं वासव का देश ?
चरण पर रख दूँ तीनों लोक ?
स्वामिनी ! करो शीघ्र आदेश ।

किधर होगा अम्बर में दृश्य
देवता का रथ अब की बार ?
श्रृंग पर चढ़कर जिस के हेतु
करूं नव स्वागतं-मंत्रोच्चार ?

चाहती हो बुझना यदि आज
होम की शिखा बिना सामान ?
अभय दो, कूद पड़ूं जय बोल,
पूर्ण कर लूं अपना बलिदान ।

उगे जिस दिन प्राची की ओर
तुम्हारी जय का स्वर्ण विहान,
उगे अंकित नभ पर यह मंत्र,
'स्वामिनी का असमय आह्वान ।'