नज़्में बृज नारायण चकबस्त
Poems/Nazmein Brij Narayan Chakbast

1. आसिफ़ुद्दौला का इमामबाड़ा लखनऊ

आसिफ़ुद्दौला-ए-मरहूम की तामीर-ए-कुहन
जिस की सनअ'त का नहीं सफ़्हा-ए-हस्ती पे जवाब

देख सय्याह उसे रात के सन्नाटे में
मुँह से अपने मह-ए-कामिल ने जब उल्टी हो नक़ाब

दर-ओ-दीवार नज़र आते हैं क्या साफ़-ओ-सुबुक
सहर करती है निगाहों पे ज़िया-ए-महताब

यही होता है गुमाँ ख़ाक से मस इस को नहीं
है सँभाले हुए दामन में हवा-ए-शादाब

यक-ब-यक दीदा-ए-हैराँ को ये शक होता है
ढल के साँचे में ज़मीं पर उतर आया है सहाब

बे-ख़ुदी कहती है आया ये फ़ज़ा में क्यूँ कर
किसी उस्ताद मुसव्विर का है ये जल्वा-ए-ख़्वाब

इक अजब मंज़र-ए-दिल-गीर नज़र आता है
दूर से आलम-ए-तस्वीर नज़र आता है

2. ख़ाक-ए-हिंद

ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-क़ुदरत तेरे लिए रवाँ है
तेरे जबीं से नूर-ए-हुस्न-ए-अज़ल अयाँ है
अल्लाह-रे ज़ेब-ओ-ज़ीनत क्या औज-ए-इज़्ज़-ओ-शाँ है

हर सुब्ह है ये ख़िदमत ख़ुर्शीद-ए-पुर-ज़िया की
किरनों से गूँधता है चोटी हिमालिया की

इस ख़ाक-ए-दिल-नशीं से चश्मे हुए वो जारी
चीन ओ अरब में जिन से होती थी आबियारी
सारे जहाँ पे जब था वहशत का अब्र तारी
चश्म-ओ-चराग़-ए-आलम थी सर-ज़मीं हमारी

शम-ए-अदब न थी जब यूनाँ की अंजुमन में
ताबाँ था महर-ए-दानिश इस वादी-ए-कुहन में

'गौतम' ने आबरू दी इस माबद-ए-कुहन को
'सरमद' ने इस ज़मीं पर सदक़े किया वतन को
'अकबर' ने जाम-ए-उल्फ़त बख़्शा इस अंजुमन को
सींचा लहू से अपने 'राणा' ने इस चमन को

सब सूरबीर अपने इस ख़ाक में निहाँ हैं
टूटे हुए खंडर हैं या उन की हड्डियाँ हैं

दीवार-ओ-दर से अब तक उन का असर अयाँ है
अपनी रगों में अब तक उन का लहू रवाँ है
अब तक असर में डूबी नाक़ूस की फ़ुग़ाँ है
फ़िरदौस-ए-गोश अब तक कैफ़िय्यत-ए-अज़ाँ है

कश्मीर से अयाँ है जन्नत का रंग अब तक
शौकत से बह रहा है दरिया-ए-गंग अब तक

अगली सी ताज़गी है फूलों में और फलों में
करते हैं रक़्स अब तक ताऊस जंगलों में
अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में
पस्ती सी आ गई है पर दिल के हौसलों में

गुल शम-ए-अंजुमन है गो अंजुमन वही है
हुब्ब-ए-वतन वही है ख़ाक-ए-वतन वही है

बरसों से हो रहा है बरहम समाँ हमारा
दुनिया से मिट रहा है नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ कम नहीं अजल से ख़्वाब-ए-गिराँ हमारा
इक लाश-ए-बे-कफ़न है हिन्दोस्तान हमारा

इल्म-ओ-कमाल ओ ईमाँ बर्बाद हो रहे हैं
ऐश-ओ-तरब के बंदे ग़फ़लत में सो रहे हैं

ऐ सूर-ए-हुब्ब-ए-क़ौमी इस ख़्वाब से जगा दे
भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे
मुर्दा तबीअतों की अफ़्सुर्दगी मिटा दे
उठते हुए शरारे इस राख से दिखा दे

हुब्ब-ए-वतन समाए आँखों में नूर हो कर
सर में ख़ुमार हो कर दिल में सुरूर हो कर

शैदा-ए-बोस्ताँ को सर्व-ओ-समन मुबारक
रंगीं तबीअतों को रंग-ए-सुख़न मुबारक
बुलबुल को गुल मुबारक गुल को चमन मुबारक
हम बे-कसों को अपना प्यारा वतन मुबारक

ग़ुंचे हमारे दिल के इस बाग़ में खिलेंगे
इस ख़ाक से उठे हैं इस ख़ाक में मिलेंगे

है जू-ए-शीर हम को नूर-ए-सहर वतन का
आँखों की रौशनी है जल्वा इस अंजुमन का
है रश्क-ए-महर ज़र्रा इस मंज़िल-ए-कुहन का
तुलता है बर्ग-ए-गुल से काँटा भी इस चमन का

गर्द-ओ-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को
मर कर भी चाहते हैं ख़ाक-ए-वतन कफ़न को

(रक़्स=नृत्य, ताऊस=मोर, पस्ती=शिथिलता,
गुल शमअ-ए-अंजुमन=सभा का दीपक बुझा हुआ,
गो=यद्यपि, हुब्बे-वतन=स्वदेश-प्रेम, बरहम=
अस्त-व्यस्त, अज़ल=मृत्यु, ख़्वाबे-गराँ=गहरी
नींद, ऐशो-तरब=भोग-विलास, सूरे-हुब्बे-क़ौमी=
जातीय प्रेम का नगाड़ा, अफ़सुर्दगी=कुम्हलाहट,
शरारे=चिंगारियाँ, जू-ए-शीर=दूध की नदी,
नूरे-सहर=प्रभात का प्रकाश, रश्क़े-महर=सूर्य
को लज्जित करने वाला, ज़र्र:=धूल-कण,
मंज़िले -कुहन=प्राचीन पथ, बर्गे-गुल=फूल
की पत्ती से, ग़र्दो-ग़ुबार=मिट्टी,रेत,
ख़िलअत=पोशाक)

3. दर्द-ए-दिल

दर्द है दिल के लिए और दिल इंसाँ के लिए
ताज़गी बर्ग-ओ-समर की चमनिस्ताँ के लिए
साज़-ए-आहंग-ए-जुनूँ तार-ए-रग-ए-जाँ के लिए
बे-ख़ुदी शौक़ की बे-सर-ओ-सामाँ के लिए

क्या कहूँ कौन हवा सर में भरी रहती है
बे पिए आठ-पहर बे-ख़बरी रहती है

न हूँ शाइ'र न वली हूँ न हूँ एजाज़-ए-बयाँ
बज़्म-ए-क़ुदरत में हूँ तस्वीर की सूरत हैराँ
दिल में इक रंग है लफ़्ज़ों से जो होता है अयाँ
लय की मुहताज नहीं है मिरी फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ

शौक़-ए-शोहरत हवस-ए-गर्मी-ए-बाज़ार नहीं
दिल वो यूसुफ़ है जिसे फ़िक्र-ए-ख़रीदार नहीं

और होंगे जिन्हें रहता है मुक़द्दर से गिला
और होंगे जिन्हें मिलता नहीं मेहनत का सिला
मैं ने जो ग़ैब की सरकार से माँगा वो मिला
जो अक़ीदा था मिरे दिल का हिलाए न हिला

क्यूँ डराते हैं अबस गबरू मुसलमाँ मुझ को
क्या मिटाएगी भला गर्दिश-ए-दौराँ मुझ को

क्या ज़माना पे खुले बे-ख़बरी का मिरी राज़
ताइर-ए-फ़िक्र में पैदा तो हो इतनी पर्वाज़
क्यूँ तबीअ'त को न हो बे-ख़ुदी-ए-शौक़ पे नाज़
हज़रत-ए-अब्र के क़दमों पे है ये फ़र्क़-ए-नियाज़

फ़ख़्र है मुझ को उसी दर से शरफ़ पाने का
मैं शराबी हूँ उसी रिंद के मयख़ाने का

दिल मिरा दौलत-ए-दुनिया का तलबगार नहीं
ब-ख़ुदा ख़ाक-नशीनी से मुझे आर नहीं
मस्त हूँ हुब्ब-ए-वतन से कोई मय-ख़्वार नहीं
मुझ को मग़रिब की नुमाइश से सरोकार नहीं

अपने ही दिल का पियाला पिए मदहोश हूँ मैं
झूटी पीता नहीं मग़रिब की वो मय-नोश हूँ मैं

क़ौम के दर्द से हूँ सोज़-ए-वफ़ा की तस्वीर
मेरी रग रग से है पैदा तप-ए-ग़म की तासीर
है मगर आज नज़र में वो बहार-ए-दिल-गीर
कर दिया दिल को फ़रिश्तों ने तरब के तस्ख़ीर

ये नसीम-ए-सहरी आज ख़बर लाई है
साल गुज़रा मिरे गुलशन में बहार आई है

क़ौम में आठ बरस से है ये गुलशन शादाब
चेहरा-ए-गुल पे यहाँ पास-ए-अदब की है नक़ाब
मेरे आईना-ए-दिल में है फ़क़त इस का जवाब
उस के काँटों पे किया मैं ने निसार अपना शबाब

काम शबनम का लिया दीदा-ए-तर से अपने
मैं ने सींचा है उसे ख़ून-ए-जिगर से अपने

हर बरस रंग पे आता ही गया ये गुलज़ार
फूल तहज़ीब के खिलते गए मिटते गए ख़ार
पत्ती पत्ती से हुआ रंग-ए-वफ़ा का इज़हार
नौजवानान-ए-चमन बन गए तस्वीर-ए-बहार

रंग-ए-गुल देख के दिल क़ौम का दीवाना हुआ
जो था बद-ख़्वाह-ए-चमन सब्ज़ा-ए-बेगाना हुआ

बू-ए-नख़वत से नहीं याँ के गुलों को सरोकार
है बुज़ुर्गों का अदब इन की जवानी का सिंगार
इल्म-ओ-ईमाँ की तरावत का दिलों में है गुज़ार
धो गए चश्मा-ए-अख़लाक़ से सीनों के ग़ुबार

रंग दिखलाती है यूँ दिल की सफ़ा यारों में
रौशनी सुब्ह की जिस तरह हो गुलज़ारों में

किस को मा'लूम थी इस गुलशन-ए-अख़्लाक़ की राह
मैं ने फूलों को किया रंग-ए-वफ़ा से आगाह
अब तो इस बाग़ पे है सब की मोहब्बत की निगाह
जो कि पौदे थे शजर हो गए माशा-अल्लाह

क्या कहूँ रंग-ए-जवानी में जो इस राग के थे
बाग़बाँ हो गए गुलचीं जो मेरे बाग़ के थे

गो कि बाक़ी नहीं कैफ़िय्यत-ए-तूफ़ान-ए-शबाब
फँस के जंजाल में दुनिया के ये क़िस्सा हुआ ख़्वाब
मस्त रहता है मगर अब भी दिल-ए-ख़ाना-ख़राब
शाम को बैठ के महफ़िल में लुंढाता हूँ शराब

नश्शा-ए-इल्म की उम्मीद पे जीने वाले
सिमट आते हैं सर-ए-शाम से पीने वाले

और ही रंग पे है आज बहार-ए-गुलशन
सैर के वास्ते आए हैं अज़ीज़ान-ए-वतन
फ़र्श आँखें किए बैठे हैं जवानान-ए-चमन
दिल में तूफ़ान-ए-तरब लब पे मोहब्बत के सुख़न

कौन है आज जो इस बज़्म में मसरूर नहीं
रूह-ए-सरशार भी खिंच आए तो कुछ दूर नहीं

मगर अफ़्सोस ये दुनिया है मक़ाम-ए-इबरत
रंज की याद दिलाता है ख़याल-ए-राहत
आज याद आती है उन फूलों की मुझ को सूरत
खिलते ही कर गए जो मेरे चमन से रेहलत

चश्म-ए-बद-दूर गुलों की ये भरी डाली है
चंद फूलों की मगर इस में जगह ख़ाली है

ये वो गुल थे जिन्हें अरबाब-ए-नज़र ने रोया
भाई ने बहनों ने मादर ने पिदर ने रोया
ख़ाक रोना था जो इस दीदा-ए-तर ने रोया
मुद्दतों इन को मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर ने रोया

दिल के कुछ दाग़-ए-मोहब्बत हैं निशानी उन की
बचपना देख के देखी न जवानी उन की

ख़ैर दुनिया में कभी सोज़ है और कभी है साज़
नौनिहालान-ए-चमन की रहे अब उम्र दराज़
भाई से बढ़ के मुझे हैं ये मेरे माया-नाज़
मेरे मोनिस हैं यही और यही मेरे हमराज़

मर के भी रूह मिरी दिल की तरह शाद रहे
मैं रहूँ या न रहूँ ये चमन आबाद रहे

4. बरसात

है दिलाती याद मय-नोशी फ़ज़ा बरसात की
दिल बढ़ा जाती है आ आ कर घटा बरसात की

बंध गई है रहमत-ए-हक़ से हवा बरसात की
नाम खुलने का नहीं लेती घटा बरसात की

उग रहा है हर तरफ़ सब्ज़ा दर-ओ-दीवार पर
इंतिहा गर्मी की है और इब्तिदा बरसात की

देखना सूखी हुई शाख़ों में भी जान आ गई
हक़ में पौदों के मसीहा है हवा बरसात की

हों शरीक-ए-बज़्म-ए-मय ज़ाहिद भी तौबा तोड़ कर
झूमती क़िबले से उट्ठी है घटा बरसात की

अस्ल तो ये है मय-ओ-माशूक़ का जब लुत्फ़ है
चाँदनी हो रात को दिन को घटा बरसात की

वो पपीहों की सदाएँ और वो मोरों का रक़्स
वो हवा-ए-सर्व और काली घटा बरसात की

पार उतर जाएँगे बहर-ए-ग़म से रिंद-ए-बादा-नोश
ले उड़ेगी कश्ती-ए-मय को हवा बरसात की

ख़ुद-बख़ुद ताज़ा उमंगें जोश पर आने लगीं
दिल को गरमाने लगी ठंडी हवा बरसात की

वो दुआएँ मय-कशों की और वो लुत्फ़-ए-इंतिज़ार
हाए किन नाज़ों से चलती है हवा बरसात की

मैं ये समझा अब्र के रंगीन टुकड़े देख कर
तख़्त परियों के उड़ लाई हवा बरसात की

नाज़ हो जिस को बहार-ए-मिस्र-ओ-शाम-ओ-रूम पर
सर-ज़मीन-ए-हिंद में देखे फ़ज़ा बरसात की

5. मज़हब-ए-शायराना

कहते हैं जिसे अब्र वो मैख़ाना है मेरा
जो फूल खिला बाग़ में पैमाना है मेरा ।

क़ैफ़ीयते गुलशन है मेरे नशे का आलम
कोयल की सदा नारा-ए-मस्ताना है मेरा ।

पीता हूँ वो मय नशा उतरता नहीं जिसका
ख़ाली नहीं होता है वो पैमाना है मेरा ।

दरिया मेरा आईना है लहरें मेरे गेसू
और मौज-ए-नसीम-ए-सहरी शाना मेरा ।

हर ज़र्रा-ए-ख़ाकी है मेरा मूनिस-ओ-हमदम
दुनिया जिसे कहते हैं वो काशाना है मेरा ।

जिस जा हो ख़ुशी है वो मुझे मंज़िल-ए-राहत
जिस घर में हो मातम वो अज़ाख़ाना है मेरा ।

जिस गोशा-ए-दुनिया में परिस्तिश हो जहाँ की
काबा है वही और वही बुतख़ाना है मेरा ।

मैं दोस्त भी अपना हूँ अदू भी हूँ मैं अपना
अपना है कोई और न बेगाना है मेरा ।

आशिक़ भी हूँ, माशूक़ भी ये तुरफ़ा मज़ा है
दीवाना हूँ मैं जिसका वो दीवाना है मेरा ।

ख़ामोशी में याँ रहता है तक़रीर का आलम
मेरे लब-ए-ख़ामोश पे अफ़साना है मेरा ।

कहते हैं खुदी किसको ख़ुदा नाम है किसका
दुनिया में फ़क़त जलवा-ए-जानाना है मेरा ।

मिलता नहीं हरएक को वो नूर है मुझमें
जो साहिब-ए-बीनश हो वो परवाना है मेरा ।

शायर का सुख़न कम नहीं मज़ज़ूब की बड़ से
हर एक न समझेगा वो अफ़साना है मेरा ।

(अब्र=बादल, आलम=नशे की हालत, सदा=
आवाज़, नार-ए-मस्ताना=मतवालों की आवाज़,
मै=मद्य, गेसू=जुल्फ़ के बाल, मौज=लहर,
नसीम-ए-सहरी=प्रभात की वायु, शाना=काँधा,
अदू=दुश्मन)

6. मर्सिया गोपाल कृष्ण गोखले

लरज़ रहा था वतन जिस ख़याल के डर से
वह आज ख़ून रुलाता है दीदा-ए-तर से
सदा ये आती है फल फूल और पत्थर से
ज़मीं पे ताज गिरा क़ौम-ए-हिन्द के सर से
हबीब क़ौम का दुनिया से यूँ रवाना हुआ
ज़मीं उलट गई क्या मुंक़लिब ज़माना हुआ

बढ़ी हुई थी नहूसत ज़वाल-ए-पैहम की
तिरे ज़ुहूर से तक़दीर क़ौम की चमकी
निगाह-ए-यास थी हिंदुस्ताँ पे आलम की
अजीब शय थी मगर रौशनी तिरे दम की
तुझी को मुल्क में रौशन दिमाग़ समझे थे
तुझे ग़रीब के घर का चराग़ समझे थे

वतन को तू ने सँवारा किस आब-ओ-ताब के साथ
सहर का नूर बढ़े जैसे आफ़्ताब के साथ
चुने रिफ़ाह के गुल हुस्न-ए-इंतिख़ाब के साथ
शबाब क़ौम का चमका तिरे शबाब के साथ
जो आज नश्व-ओ-नुमा का नया ज़माना है
ये इंक़लाब तिरी उम्र का फ़साना है

रहा मिज़ाज में सौदा-ए-क़ौम ख़ू हो कर
वतन का इश्क़ रहा दिल की आरज़ू हो कर
बदन में जान रही वक़्फ़-ए-आबरू हो कर
रगों में जोश-ए-मोहब्बत रहे लहू हो हो कर
ख़ुदा के हुक्म से जब आब-ओ-गिल बना तेरा
किसी शहीद की मिट्टी से दिल बना तेरा

वतन की जान पे क्या क्या तबाहियाँ आईं
उमँड उमँड के जिहालत की बदलियाँ आईं
चराग़-ए-अम्न बुझाने को आँधियाँ आईं
दिलों में आग लगाने को बिजलियाँ आईं
इस इंतिशार में जिस नूर का सहारा था
उफ़ुक़ पे क़ौम के वह एक ही सितारा था

हदीस-ए-क़ौम बनी थी तिरी ज़बाँ के लिए
ज़बाँ मिली थी मोहब्बत की दास्ताँ के लिए
ख़ुदा ने तुझ को पयम्बर किया यहाँ के लिए
कि तेरे हाथ में नाक़ूस था अज़ाँ के लिए
वतन की ख़ाक तिरी बारगाह-ए-आला' है
हमें यही नई मस्जिद नया शिवाला है

ग़रीब हिन्द ने तन्हा नहीं ये दाग़ सहा
वतन से दूर भी तूफ़ान रंज-ओ-ग़म का उठा
हबीब क्या हैं हरीफ़ों ने ये ज़बाँ से कहा
सफ़ीर-ए-क़ौम जिगर-बंद-ए-सल्तनत न रहा
पयाम शह ने दिया रस्म-ए-ताज़ियत के लिए
कि तू सुतून था ऐवान-ए-सल्तनत के लिए

दिलों में नक़्श हैं अब तक तिरी ज़बाँ के सुख़न
हमारी राह में गोया चराग़ हैं रौशन
फ़क़ीर थे जो तिरे दर के ख़ादिमान-ए-वतन
उन्हें नसीब कहाँ होगा अब तिरा दामन
तिरे अलम में वह इस तरह जान खोते हैं
कि जैसे बाप से छुट कर यतीम रोते हैं

अजल के दाम में आना है यूँ तो आलम को
मगर ये दिल नहीं तय्यार तेरे मातम को
पहाड़ कहते हैं दुनिया में ऐसे ही ग़म को
मिटा के तुझ को अजल ने मिटा दिया हम को
जनाज़ा हिन्द का दर से तिरे निकलता है
सुहाग क़ौम का तेरी चिता में जलता है

रहेगा रंज ज़माने में यादगार तिरा
वह कौन दिल है कि जिस में नहीं मज़ार तिरा
जो कल रक़ीब था है आज सोगवार तिरा
ख़ुदा के सामने है मुल्क शर्मसार तिरा
पली है क़ौम तिरे साया-ए-करम के तले
हमें नसीब थी जन्नत तिरे क़दम के तले

7. मर्सिया बाल-गंगा-धर-तिलक

मौत ने रात के पर्दे में किया कैसा वार
रौशनी-ए-सुब्ह वतन की है कि मातम का ग़ुबार
मा'रका सर्द है सोया है वतन का सरदार
तनतना शेर का बाक़ी नहीं सूना है कछार
बेकसी छाती है तक़दीर फिरी जाती है
क़ौम के हाथ से तलवार गिरी जाती है

उठ गया दौलत-ए-नामूस-ए-वतन का वारिस
क़ौम मरहूम के एज़ाज़-ए-कुहन का वारिस
जाँ-निसार-ए-अज़ली शेर-ए-दकन का वारिस
पेशवाओं के गरजते हुए रन का वारिस
थी समाई हुई पूना की बहार आँखों में
आख़िरी दौर का बाक़ी था ख़ुमार आँखों में

मौत महाराष्ट्र की थी या तिरी मरने की ख़बर
मुर्दनी छा गई इंसान तो क्या पत्थर पर
पत्तियाँ झुक गईं मुरझा गए सहरा के शजर
रह गए जोश में बहते हुए दरिया थम कर
सर्द-ओ-शादाब हवा रुक गई कोहसारों की
रौशनी घट गई दो-चार घड़ी तारों की

था निगहबान-ए-वतन दबदबा-ए-आम तेरा
न डिगें पाँव पे था क़ौम को पैग़ाम तेरा
दिल रक़ीबों के लरज़ते थे ये था काम तेरा
नींद से चौंक पड़े सुन जो लिया नाम तेरा
याद कर के तुझे मज़लूम-ए-वतन रोएँगे
बंदा-ए-रस्म-ए-जफ़ा चैन से अब सोएँगे

ज़िंदगी तेरी बहार चमनिस्तान-ए-वफ़ा
आबरू तेरे लिए क़ौम से पैमान-ए-वफ़ा
आशिक़-ए-नाम-ए-वतन कुश्ता-ए-अरमान-ए-वफ़ा
मर्द-ए-मैदान-ए-वफ़ा जिस्म-ए-वफ़ा जान-ए-वफ़ा
हो गई नज़्र-ए-वतन हस्ती-ए-फ़ानी तेरी
न तो पीरी रही तेरी न जवानी तेरी

औज-ए-हिम्मत पे रहा तेरी वफ़ा का ख़ुर्शेद
मौत के ख़ौफ़ पे ग़ालिब रही ख़िदमत की उमेद
बन गया क़ैद का फ़रमान भी राहत की नवेद
हुए तारीकी-ए-ज़िंदाँ में तिरे बाल सपेद
फिर रहा है मिरी नज़रों में सरापा तेरा
आह-ओ-क़ैद-ए-सितम और बुढ़ापा तेरा

मो'जिज़ा अश्क-ए-मोहब्बत का दिखाया तू ने
एक क़तरा से ये तूफ़ान उठाया तू ने
मुल्क को हस्ती-ए-बेदार बनाया तू ने
जज़्बा-ए-क़ौम को जादू को जगाया तू ने
इक तड़प आ गई सोते हुए अरमानों में
बिजलियाँ कौंद गईं क़ौम के वीरानों में

लाश को तेरी सँवारें न रफ़ीक़ान-ए-कुहन
हो जबीं के लिए संदल की जगह ख़ाक-ए-वतन
तर हुआ है जो शहीदों के लहू से दामन
दें उसी का तुझे पंजाब के मज़लूम कफ़न
शोर-ए-मातम न हो झंकार हो ज़ंजीरों की
चाहिए क़ौम के भीषम को चिता तीरों की

8. रामायण का एक सीन

रुख़्सत हुआ वो बाप से ले कर ख़ुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मंज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
मंज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतिज़ाम
दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम
इज़हार-ए-बे-कसी से सितम होगा और भी
देखा हमें उदास तो ग़म होगा और भी

दिल को सँभालता हुआ आख़िर वो नौनिहाल
ख़ामोश माँ के पास गया सूरत-ए-ख़याल
देखा तो एक दर में है बैठी वो ख़स्ता-हाल
सकता सा हो गया है ये है शिद्दत-ए-मलाल
तन में लहू का नाम नहीं ज़र्द रंग है
गोया बशर नहीं कोई तस्वीर-ए-संग है

क्या जाने किस ख़याल में गुम थी वो बे-गुनाह
नूर-ए-नज़र ये दीदा-ए-हसरत से की निगाह
जुम्बिश हुई लबों को भरी एक सर्द आह
ली गोशा-हा-ए-चश्म से अश्कों ने रुख़ की राह
चेहरे का रंग हालत-ए-दिल खोलने लगा
हर मू-ए-तन ज़बाँ की तरह बोलने लगा

आख़िर असीर-ए-यास का क़ुफ़्ल-ए-दहन खुला
अफ़्साना-ए-शदाइद-ए-रंज-ओ-मेहन खुला
इक दफ़्तर-ए-मज़ालिम-ए-चर्ख़-ए-कुहन खुला
वा था दहान-ए-ज़ख़्म कि बाब-ए-सुख़न खुला
दर्द-ए-दिल-ए-ग़रीब जो सर्फ़-ए-बयाँ हुआ
ख़ून-ए-जिगर का रंग सुख़न से अयाँ हुआ

रो कर कहा ख़मोश खड़े क्यूँ हो मेरी जाँ
मैं जानती हूँ जिस लिए आए हो तुम यहाँ
सब की ख़ुशी यही है तो सहरा को हो रवाँ
लेकिन मैं अपने मुँह से न हरगिज़ कहूँगी हाँ
किस तरह बन में आँखों के तारे को भेज दूँ
जोगी बना के राज-दुलारे को भेज दूँ

दुनिया का हो गया है ये कैसा लहू सपीद
अंधा किए हुए है ज़र-ओ-माल की उमीद
अंजाम क्या हो कोई नहीं जानता ये भेद
सोचे बशर तो जिस्म हो लर्ज़ां मिसाल-ए-बीद
लिक्खी है क्या हयात-ए-अबद इन के वास्ते
फैला रहे हैं जाल ये किस दिन के वास्ते

लेती किसी फ़क़ीर के घर में अगर जनम
होते न मेरी जान को सामान ये बहम
डसता न साँप बन के मुझे शौकत-ओ-हशम
तुम मेरे लाल थे मुझे किस सल्तनत से कम
मैं ख़ुश हूँ फूँक दे कोई इस तख़्त-ओ-ताज को
तुम ही नहीं तो आग लगा दूँगी राज को

किन किन रियाज़तों से गुज़ारे हैं माह-ओ-साल
देखी तुम्हारी शक्ल जब ऐ मेरे नौनिहाल
पूरा हुआ जो ब्याह का अरमान था कमाल
आफ़त ये आई मुझ पे हुए जब सफ़ेद बाल
छटती हूँ उन से जोग लिया जिन के वास्ते
क्या सब किया था मैं ने इसी दिन के वास्ते

ऐसे भी ना-मुराद बहुत आएँगे नज़र
घर जिन के बे-चराग़ रहे आह उम्र भर
रहता मिरा भी नख़्ल-ए-तमन्ना जो बे-समर
ये जा-ए-सब्र थी कि दुआ में नहीं असर
लेकिन यहाँ तो बन के मुक़द्दर बिगड़ गया
फल फूल ला के बाग़-ए-तमन्ना उजड़ गया

सरज़द हुए थे मुझ से ख़ुदा जाने क्या गुनाह
मंजधार में जो यूँ मिरी कश्ती हुई तबाह
आती नज़र नहीं कोई अम्न-ओ-अमाँ की राह
अब याँ से कूच हो तो अदम में मिले पनाह
तक़्सीर मेरी ख़ालिक़-ए-आलम बहल करे
आसान मुझ ग़रीब की मुश्किल अजल करे

सुन कर ज़बाँ से माँ की ये फ़रियाद-ए-दर्द-ख़ेज़
उस ख़स्ता-जाँ के दिल पे चली ग़म की तेग़-ए-तेज़
आलम ये था क़रीब कि आँखें हों अश्क-रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़
सोचा यही कि जान से बेकस गुज़र न जाए
नाशाद हम को देख के माँ और मर न जाए

फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर
मायूस क्यूँ हैं आप अलम का है क्यूँ वफ़ूर
सदमा ये शाक़ आलम-ए-पीरी में है ज़रूर
लेकिन न दिल से कीजिए सब्र-ओ-क़रार दूर
शायद ख़िज़ाँ से शक्ल अयाँ हो बहार की
कुछ मस्लहत इसी में हो पर्वरदिगार की

ये ज'अल ये फ़रेब ये साज़िश ये शोर-ओ-शर
होना जो है सब उस के बहाने हैं सर-ब-सर
अस्बाब-ए-ज़ाहिरी में न इन पर करो नज़र
क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जल्वा-गर
ख़ास उस की मस्लहत कोई पहचानता नहीं
मंज़ूर क्या उसे है कोई जानता नहीं

राहत हो या कि रंज ख़ुशी हो कि इंतिशार
वाजिब हर एक रंग में है शुक्र-ए-किर्दगार
तुम ही नहीं हो कुश्ता-ए-नैरंग-ए-रोज़गार
मातम-कदे में दहर के लाखों हैं सोगवार
सख़्ती सही नहीं कि उठाई कड़ी नहीं
दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं

देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने ने इंक़लाब
जिन से कि ब-गुनाहों की उम्रें हुईं ख़राब
सोज़-ए-दरूँ से क़ल्ब ओ जिगर हो गए कबाब
पीरी मिटी किसी की किसी का मिटा शबाब
कुछ बन नहीं पड़ा जो नसीबे बिगड़ गए
वो बिजलियाँ गिरीं कि भरे घर उजड़ गए

माँ बाप मुँह ही देखते थे जिन का हर घड़ी
क़ाएम थीं जिन के दम से उमीदें बड़ी बड़ी
दामन पे जिन के गर्द भी उड़ कर नहीं पड़ी
मारी न जिन को ख़्वाब में भी फूल की छड़ी
महरूम जब वो गुल हुए रंग-ए-हयात से
उन को जला के ख़ाक किया अपने हात से

कहते थे लोग देख के माँ बाप का मलाल
इन बे-कसों की जान का बचना है अब मुहाल
है किब्रिया की शान गुज़रते ही माह-ओ-साल
ख़ुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया ख़याल
हाँ कुछ दिनों तो नौहा-ओ-मातम हुआ किया
आख़िर को रो के बैठ रहे और क्या किया

पड़ता है जिस ग़रीब पे रंज-ओ-मेहन का बार
करता है उस को सब्र अता आप किर्दगार
मायूस हो के होते हैं इंसाँ गुनाहगार
ये जानते नहीं वो है दाना-ए-रोज़गार
इंसान उस की राह में साबित-क़दम रहे
गर्दन वही है अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे

और आप को तो कुछ भी नहीं रंज का मक़ाम
बाद-ए-सफ़र वतन में हम आएँगे शाद-काम
होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम
क़ाएम उमीद ही से है दुनिया है जिस का नाम
और यूँ कहीं भी रंज-ओ-बला से मफ़र नहीं
क्या होगा दो घड़ी में किसी को ख़बर नहीं

अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बाँ
है दिन की धूप रात की शबनम उन्हें गिराँ
लेकिन जो रंग बाग़ बदलता है ना-गहाँ
वो गुल हज़ार पर्दों में जाते हैं राएगाँ
रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें अपनी जाँ की तरह
मिलते हैं दस्त-ए-यास वो बर्ग-ए-ख़िज़ाँ की तरह

लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा में बे-शुमार
मौक़ूफ़ कुछ रियाज़ पे उन की नहीं बहार
देखो ये क़ुदरत-ए-चमन-आरा-ए-रोज़गार
वो अब्र-ओ-बाद ओ बर्फ़ में रहते हैं बरक़रार
होता है उन पे फ़ज़्ल जो रब्ब-ए-करीम का
मौज-ए-सुमूम बनती है झोंका नसीम का

अपनी निगाह है करम-ए-कारसाज़ पर
सहरा चमन बनेगा वो है मेहरबाँ अगर
जंगल हो या पहाड़ सफ़र हो कि हो हज़र
रहता नहीं वो हाल से बंदे के बे-ख़बर
उस का करम शरीक अगर है तो ग़म नहीं
दामान-ए-दश्त दामन-ए-मादर से कम नहीं

ये गुफ़्तगू ज़रा न हुई माँ पे कारगर
हँस कर वुफ़ूर-ए-यास से लड़के पे की नज़र
चेहरे पे यूँ हँसी का नुमायाँ हुआ असर
जिस तरह चांदनी का हो शमशान में गुज़र
पिन्हां जो बेकसी थी, वो चेहरे पे छा गई
जो दिल की मुर्दनी थी, निगाहों में आ गई

फिर ये कहा के मैनें सुनी सब ये दस्तान
लाखों बरस की उम्र हो, देते हो माँ को ज्ञान
लेकिन जो मेरे दिल को है दरपेश इम्तिहान
बच्चे हो, उसका इल्म नहीं तुमको बेगुमान
उस दर्द का शरीक तुम्हारा जिगर नहीं
कुछ ममता की आँच की तुम को ख़बर नहीं

आख़िर है उम्र, है ये मेरा वक़्ते-वापिसी
क्या ऐतबार, आज हूँ दुनिया में, कल नहीं
लेकिन वो दिन भी आयेगा, इस दिल को है यक़ीन
सोचोगे जब कि रोती थी क्यूँ मादर-ए-हज़ीं
औलाद जब कभी तुम्हे सूरत दिखायेगी
फ़रियाद इस ग़रीब कि तब याद आयेगी

इन आँसूओं की क़दर तुम्हे कुछ अभी नहीं
बातों से जो बुझे, ये वो दिल कि लगी नहीं
लेकिन तुम्हें हो रंज, ये मेरी खुशी नहीं
जाओ, सिधारो, खुश रहो, मैं रोकती नहीं
दुनिया में बेहयाई से ज़िन्दा रहूँगी मैं
पाला है मैनें तुम को, तो दुख भी सहूँगी मैं

नश्तर थे राम के लिये ये हर्फ़-ए-आरज़ू
दिल हिल गया, सरकने लगा जिस्म से लहू
समझे जो माँ के दीन को इमान-ओ-आबरू
सुननी पड़े उसको ये ख़ज़ालत की गुफ़्तगु
कुछ भी जवाब बन न पड़ा फ़िक्र-ओ-ग़ौर से
क़दमों पे माँ के गिर पड़ा आँसू के तौर से

तूफ़ान आँसूओं का ज़बान से हुआ न बन्द
रुक रुक के इस तरह हुआ गोया वो दर्दमंद
पँहुची है मुझसे आप के दिल को अगर गज़न्द
मरना मुझे क़बूल है, जीना नहीं पसन्द
जो बेवफ़ा है मादर-ए-नशाद के लिये
दोज़ख ये ज़िन्दगी है उस औलाद के लिये

है दौर इस ग़ुलाम से ख़ुद राई का ख़याल
ऐसा गुमान भी हो, ये मेरी नहीं मजाल
ग़र सौ बरस भी उम्र को मेरी न हो ज़वाल
जो दीन आपका है, अदा हो, ये है मुहाल
जाता कहीं न छोड़ के क़दमों को आपके
मजबूर कर दिया मुझे वादे ने बाप के

आराम ज़िन्दगी का दिखाता है सब्ज़-बाग़
लेकिन बहार ऐश का मुझको नहीं दिमाग़
कहते हैं जिसको धरम, वो दुनिया का है चिराग़
हट जाऊँ इस रविश से, तो कुल में लगेगा दाग़
बेआबरू ये वंश न हो, ये हवास है
जिस गोद में पला हूँ, मुझे उस का पास नहीं

वनवास पर खुशी से जो राज़ी न हूँगा मैं
किस तरह से मुँह दिखाने के क़ाबिल रहूँगा मैं?
क्यूँ कर ज़बान-ए-गै़र के ताने सुनूँगा मैं?
दुनिया जो ये कहेगी, तो फिर क्या कहूँगा मैं?
लड़के ने बेहयाई को नक़्श-ए-ज़बीं किया
क्या बेअदब था, बाप का कहना नहीं किया

तासीर का तिलिस्म था मासूम का खिताब
खुद माँ के दिल को चोट लगी सुन के ये जवाब
ग़म की घटा मिट गयी, तारीकि-ए-एइताब
छाती भर आयी, ज़ब्त की बाक़ी रही न ताब
सरका के पाँव गोद में सर को उठा लिया
सीने से अपने लख़्त-ए-जिगर को लगा लिया

दोनों के दिल भर आये, हुआ और ही समाँ
गंग-ओ-जमन की तरह से आँसू हुए रवाँ
हर आँख को नसीब ये अश्क-ए-वफ़ा कहाँ?
इन आँसूओं क मोल अगर है तो नक़द-ए-जाँ
होती है इन की क़दर फ़क़त दिल के राज में
ऐसा गुहर न था कोई दशरथ के ताज में

9. वतन का राग

ज़मीन हिन्द की रुत्बा में अर्श-ए-आ'ला है
ये होम-रूल की उम्मीद का उजाला है
मिसिज़-बेसेंट ने इस आरज़ू को पाला है
फ़क़ीर क़ौम के हैं और ये राग माला है
तलब फ़ुज़ूल है काँटे की फूल के बदले
न लें बहिश्त भी हम होम-रूल के बदले

वतन-परस्त शहीदों की ख़ाक लाएँगे
हम अपनी आँख का सुर्मा उसे बनाएँगे
ग़रीब माँ के लिए दर्द-दुख उठाएँगे
यही पयाम-ए-वफ़ा क़ौम को सुनाएँगे
तलब फ़ुज़ूल है काँटे की फूल के बदले
न लें बहिश्त भी हम होम-रूल के बदले

हमारे वास्ते ज़ंजीर-ओ-तौक़ गहना है
वफ़ा के शौक़ में गाँधी ने जिस को पहना है
समझ लिया कि हमें रंज-ओ-दर्द सहना है
मगर ज़बाँ से कहेंगे वही जो कहना है
तलब फ़ुज़ूल है काँटे की फूल के बदले
न लें बहिश्त भी हम होम-रूल के बदले

पहनाने वाले अगर बेड़ियाँ पहनाएँगे
ख़ुशी से क़ैद के गोशे को हम बसाएँगे
जो संतरी दर-ए-ज़िंदाँ के भी सो जाएँगे
ये राग गा के उन्हें नींद से जगाएँगे
तलब फ़ुज़ूल है काँटे की फूल के बदले
न लें बहिश्त भी हम होम-रूल के बदले

ज़बाँ को बंद किया है ये ग़ाफ़िलों को है नाज़
ज़रा रगों में लहू का भी देख लें अंदाज़
रहेगा जान के हम-राह दिल का सोज़-ओ-गुदाज़
चिता से आएगी मरने के बा'द ये आवाज़
तलब फ़ुज़ूल है काँटे की फूल के बदले
न लें बहिश्त भी हम होम-रूल के बदले

यही दुआ है वतन के शिकस्ता हालों की
यही उमंग जवानी के नौनिहालों की
जो रहनुमा है मोहब्बत पे मिटने वालों की
हमें क़सम है उसी के सपेद बालों की
तलब फ़ुज़ूल है काँटे की फूल के बदले
न लें बहिश्त भी हम होम-रूल के बदले

यही पयाम है कोयल का बाग़ के अंदर
इसी हवा में है गंगा का ज़ोर आठ-पहर
हिलाल-ए-ईद ने दी है यही दिलों को ख़बर
पुकारता है हिमाला से अब्र उठ उठ कर
तलब फ़ुज़ूल है काँटे की फूल के बदले
न लें बहिश्त भी हम होमरूल के बदले

बसे हुए हैं मोहब्बत से जिन की क़ौम के घर
वतन का पास है उन को सुहाग से बढ़ कर
जो शीर-ख़ार हैं हिन्दोस्ताँ के लख़्त-ए-जिगर
ये माँ के दूध से लिक्खा है उन के सीने पर
तलब फ़ुज़ूल है काँटे की फूल के बदले
न लें बहिश्त भी हम होम-रूल के बदले

(तलब=चाह, तौक़=गले की ज़ंजीर, गोशे=कोने,
ज़िन्दाँ=कारागार, गाफ़िलों=अनजानों,
सोज़-ओ-गुदाज़=दुःख दर्द, शिकस्ता हालों=
दुःखी दीन, पयाम=सन्देश, हिलाले ईद=ईद
का चाँद, अब्र=बादल, शीर-ख़ार=दूध पीने
वाला, लख़्त-ए-जिगर=कलेजे के टुकड़े)

10. हुब्ब-ए-क़ौमी

हुब्ब-ए-क़ौमी का ज़बाँ पर इन दिनों अफ़्साना है
बादा-ए-उल्फ़त से पुर दिल का मिरे पैमाना है

जिस जगह देखो मोहब्बत का वहाँ अफ़्साना है
इश्क़ में अपने वतन के हर बशर दीवाना है

जब कि ये आग़ाज़ है अंजाम का क्या पूछना
बादा-ए-उल्फ़त का ये तो पहला ही पैमाना है

है जो रौशन बज़्म में क़ौमी तरक़्क़ी का चराग़
दिल फ़िदा हर इक का उस पर सूरत-ए-परवाना है

मुझ से इस हमदर्दी-ओ-उल्फ़त का क्या होवे बयाँ
जो है वो क़ौमी तरक़्क़ी के लिए दीवाना है

लुत्फ़ यकताई में जो है वो दुई में है कहाँ
बर-ख़िलाफ़ इस के जो हो समझो कि वो दीवाना है

नख़्ल-ए-उल्फ़त जिन की कोशिश से उगा है क़ौम में
क़ाबिल-ए-तारीफ़ उन की हिम्मत-ए-मर्दाना है

है गुल-ए-मक़्सूद से पुर गुलशन-ए-कश्मीर आज
दुश्मनी ना-इत्तिफ़ाक़ी सब्ज़ा-ए-बेगाना है

दुर-फ़िशाँ है हर ज़बाँ हुब्ब-ए-वतन के वस्फ़ में
जोश-ज़न हर सम्त बहर-ए-हिम्मत-ए-मर्दाना है

ये मोहब्बत की फ़ज़ा क़ाएम हुई है आप से
आप का लाज़िम तह-ए-दिल से हमें शुक्राना है

हर बशर को है भरोसा आप की इमदाद पर
आप की हमदर्दियों का दूर दूर अफ़्साना है

जम्अ हैं क़ौमी तरक़्क़ी के लिए अर्बाब-ए-क़ौम
रश्क-ए-फ़िरदौस उन के क़दमों से ये शादी-ख़ाना है

11. नज़राने रूह

तेरा बन्दा रहे दिल से यही पैमान रहा,
तायरे-फ़िक्र तेरे औज से हैरान रहा

क़द्र करना तेरी सीखें यही अरमान रहा
यही मसला, यही मज़हब यही ईमान रहा

आबरू क्या है तमन्ना-ए-वफ़ा में मरना
दीन क्या है किसी कामिल की परस्तिश करना

मुझ से याराने अदम ने ये अगर फ़रमाया
हसरत आबाद जहाँ से तुझे क्या हाथ आया

मैं कहूँगा कि बस एक रहबरे कामिल पाया
ज़िन्दगी की यही दौलत है यही सरमाया

लेके दुनिया से यही महरे वफ़ा आया हूँ
अपने मोहसिन की ग़ुलामी की सनद लाया हूँ।

(तायरे-फ़िक्र=चिन्तन रूपी पक्षी,
औज=शान,ऊँचाई)

12. पयामे-वफ़ा

हो चुकी क़ौम के मातम में बहुत सीनाज़नी
अब हो इस रंग का सन्यास ये है दिल में ठनी
मादरे-हिन्द की तस्वीर हो सीने पे बनी
बेड़ियाँ पैर में हों और गले में क़फ़नी
हो ये सूरत से अयाँ आशिक़े-आज़ादी है
कुफ़्ल है जिनकी ज़बाँ पर यह वह फ़रियादी है

आज से शौक़े वफ़ा का यही जौहर होगा
फ़र्श काँटों का हमें फूलों का बिस्तर होगा
फूल हो जाएगा छाती पे जो पत्थर होगा
क़ैद ख़ाना जिसे कहते हैं वही घर होगा
सन्तरी देख के इस जोश को शरमाएँगे
गीत ज़ंजीर की झनकार पे हम गाएँगे

(सीनाज़नी=छाती पीटने की क्रिया,
सन्यास=दीक्षा, कुफ़्ल=ताला, जौहर=
गुण)