पद्मावत : मलिक मुहम्मद जायसी

Padmavat : Malik Muhammad Jayasi

28. रत्नसेन-साथी-खंड

रत्नसेन गए अपनी सभा । बैठे पाट जहाँ अठ खंभा ॥
आइ मिले चितउर के साथी । सबै बिहँसि कै दीन्ही हाथी ॥
राजा कर भल मानहु भाई । जेइ हम कहँ यह भूमि देखाई ॥
हम कहँ आनत जौ न नरेसू । तौ हम कहाँ, कहाँ यह देसू ॥
धनि राजा तुम्ह राज बिसेखा । जेहि के राज सबै किछु देखा ॥
बोगबिलास सबै किछु पावा । कहाँ जीभ जेहि अस्तुति आवा?॥
अब तुम आइ अँतरपट साजा । दरसन कहँ न तपावहु राजा ॥

नैन सेराने, भूख गइ देखे दरस तुम्हार ।
नव अवतार आजु भा, जीवन सफल हमार ॥1॥

(हाथी दीन्हीं=हाथ मिलाया, भल मानहु=भला मनाओ,
एहसान मानो, अंतरपट साजा=आँख की ओट में हुए,
तपावहु=तरसाओ, सेराने=ठंडे हुए)

हँसि कै राज रजायसु दीन्हा । मैं दरसन कारन एत कीन्हाँ ॥
अपने जोग लागि अस खेला । गुरु भएउँ आपु, कीन्ह तुम्ह चेला ॥
अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु । गुरु चीन्हि कै जोग बिसेखेहु ॥
जौ तुम्ह तप साधा मोहिं लागी । अब जिनि हिये होहु बैरागी ॥
जो जेहि लागि सहै तप जोगू । सो तेहि के सँग मानै भोगू ॥
सोरह सहस पदमिनी माँगी । सबै दीन्हि, नहिं काहुहि खाँगी ॥
सब कर मंदिर सोने साजा । सब अपने अपने घर राजा ॥

हस्ति घोर औ कापर सबहिं दीन्ह नव साज ।
भए गृही औ लखपती, घर घर मानहु राज ॥2॥

(एत=इतना सब, अहक=लालसा, काँगी=घटी;कम हुई)

29. षट्-ऋतु-वर्णन-खंड

पदमावति सब सखी बोलाई । चीर पटोर हार पहिराई॥
सीस सबन्ह के सेंदुर पूरा और राते सब अंग सेंदुरा॥
चंदन अगर चित्र सब भरीं ।नए चार जानहु अवतारीं॥
जनहु कँवल सँग फूली कूईं । जनहुँ चाँद सँग तरई ऊईं॥
धनि पदमावति, धनि तोर नाहू । जेहि अभरन पहिरा सब काहू॥
बारह अभरन, सोरह सिंगारा । तोहि सौंह नहिं ससि उजियारा॥
ससि सकलंक रहै नहिं पूजा । तू निकलंक, न सरि कोई दूजा॥

काहू बीन गहा कर, काहू नाद मृदंग ।
सबन्ह अनंद मनावा रहसि कूदि एक संग॥1॥

(चार=ढंग,चाल,प्रकार, जेहि=जिसकी बदौलत, सौंह=
सामने, पूजा=पूरा)

पदमावति कह सुनहु, सहेली । हौं सो कँवल, तुम कुमुदनि-बेली॥
कलस मानि हौं तेहि दिन आई । पूजा चलहु चढ़ावहिं जाई॥
मँझ पदमावतिं कर जो बेवानू । जनु परभात परै लखि भानू॥
आस-पास बाजत चौडोला । दुंदुभि, झाँझ, तूर, डफ ढोला॥
एक संग सब सोंधे-भरी । देव-दुवार उतरि भइ खरी॥
अपने हाथ देव नहलावा । कलस सहस इक घिरित भरावा॥
पोता मँडप अगर औ चंदन । देव भरा अरगज औ बंदन॥

कै प्रनाम आगे भई, विनय कीन्ह बहु भाँति ।
रानी कहा चलहु घर, सखी! होति है राति॥2॥

(चौडोल=पालकी (के आसपास), सोंधे=
सुगंध, बंदन=सिंदूर या रोली)

भइ निसि, धनि जस ससि परगसी । राजै-देखि भूमि फिर बसी॥
भइ कटकई सरद-ससि आवा । फेरि गगन रवि चाहै छावा॥
सुनि चनि भौंह-धनुक फिरि फेरा । काम कटाछन्ह कोरहि हेरा॥
जानहु नाहिं पैज,प्रिय! खाँचौं । पिता सपथ हौं आजु न बाँचौं॥
काल्हि न होइ, रही महि रामा । आजु करहु रावन संग्रामा॥
सेन सिंगार महूँ है सजा । गज-पति चाल, अँचल-गति धजा॥
नैन समुद औ खड़ग नासिका । सरवरि जूझ को मो सहुँ टिका?॥

हौं रानी पदमावति, मैं जीता रस भोग ।
तू सरवरि करु तासौं जो जोगी तोहि जोग॥3॥

(कटकई=चढ़ाई, सेना का साज, कोरहि हेरा=कोने से
ताका, पैज खाँचौं=प्रतिज्ञा करती हूँ, हौं=मुझसे, रही
महि=पृथ्वी पर पड़ी रही, धजा=ध्वजा, सहुँ=सामने )

हौं अस जोगी जान सब कोऊ । बीर सिंगार जिते मैं दोऊ॥
उहाँ सामुहें रिपु दल माहाँ । इहाँ त काम-कटक तुम्ह पाहाँ॥
उहा त हय चढ़ि कै दल मंडौं । इहाँ त अधर अमिय-रस खंडौं॥
उहाँ त खड़ग नरिंदहि मारौं । इहाँ त बिरह तुम्हार सँघारौं॥
उहाँ त गज पेलौं होइ केहरि । इहवाँ कामिनी-हिय हरि॥
उहाँ त लूटौं कटक खँधारू । इहाँ त जीतौं तोर सिंगारू॥
उहाँ त कुंभस्थल गज नावौं । इहाँ त कुच-कलसहि कर लावौं॥

परै बीच धरहरिया, प्रेम-राज को टेक?॥
मानहिं भोग छवौ ऋतु मिलि दूवौ होइ एक॥4॥

(मंडौं=शोभित करता हूँ, इहवाँ काम...हिय हरि=यहाँ
कामिनि के हृदय से काम-ताप को हरकर ठेलता हूँ,
खँधारू=स्कंधाबार,तंबू छावनी, धरहरिया=बीच-बिचाव
करनेवाला)

प्रथम वसंत नवल ऋतु आई । सुऋतु चैत बैसाख सोहाई॥
चंदन चीर पहिरि धरि अंगा । सेंदुर दीन्ह बिहँसि भरि मंगा॥
कुसुम हार और परिमल बासू । मलयागिरि छिरका कबिलासू॥
सौंर सुपेती फूलन डासी । धनि औ कंत मिले सुखबासी॥
पिउ सँजोग धनि जोबन बारी । भौंर पुहुप संग करहिं धमारी॥
होइ फाग भलि चाँचरि जोरी । बिरह जराइ दीन्ह जस होरी॥
धनि ससि सरिस, तपै पिय सूरू । नखत सिंगार होहिं सब चूरू॥

जिन्ह घर कंता ऋतु भली, आव बसंत जो नित्त ।
सुख भरि आवहिं देवहरै, दुःख न जानै कित्त॥5॥

(सार=चादर, डासी=बिछाई हुई, देवहरे=देवमंदिर में)

ऋतु ग्रीषम कै तपनि न तहाँ । जेठ असाढ़ कंत घर जहाँ॥
पहिरि सुरंग चीर धनि झीना । परिमल मेद रहा तन भीना॥
पदमावति तन सिअर सुबासा । नैहर राज, कंत-घर पासा॥
औ बड़ जूड़ तहाँ सोवनारा । अगर पोति, सुख तने ओहारा॥
सेज बिछावनि सौंर सुपेती । भोग बिलास कहिंर सुख सेंती॥
अधर तमोर कपुर भिमसेना । चंदन चरचि लाव तन बेना॥
भा आनंद सिंगल सब कहूँ । भागवंत कहँ सुख ऋतु छहूँ॥

दारिउँ दाख लेहिं रस, आम सदाफर डार ।
हरियर तन सुअटा कर जो अस चाखनहार॥6॥

(झीना=महीन, सिअर=शीतल, सोवनार=शयनागार,
ओहारा=परदे, सुख सेंती=सुख से)

रितु पावस बरसै, पिउ पावा । सावन भादौं अधिक सोहावा॥
पदमावति चाहत ऋतु पाई । गगन सोहावन, भूमि सोहाई॥
कोकिल बैन, पाँति बग छूटी । धनि निसरीं जनु बीरबहूटी॥
चमक बीजु, बरसै जल सोना । दादुर मोर सबद सुठि लोना॥
रँग-राती पीतम सँग जागी । गरजे गगन चौंकि गर लागी॥
सीतल बूँद, ऊँच चौपारा । हरियर सब देखाइ संसारा॥
हरियर भूमि, कुसुंभी चोला । औ धनि पिउ सँग रचा हिंडोला॥

पवन झकोरे होइ हरष, लागे सीतल बास ।
धनि जानै यह पवन है, पवन सो अपने आस॥7॥

(चाहति=मनचाही, बरसै जल सोना=कौंधे की चमक में
पानी की बूँदें सोने की बूँदों सी लगती हैं, कुसुंभी=कुसुम
के (लाल) रंग का, चोला=पहनावा, धनि जानै...पास=स्त्री
समझती है कि वह हर्ष और शीतल वास पवन में है पर
वह उस प्रिय में है जो उसके पास है)

आइ सरद ऋतु अधिक पियारी । आसनि कातिक ऋतु उजियारी॥
पदमावति भइ पूनिउँ-कला । चौदसि चाँद उई सिंघला॥
सोरह कला सिंगार बनावा । नखत-भरा सूरुज ससि पावा॥
भा निरमल सब धरति अकासू । सेज सँवारि कीन्ह फुल-बासू॥
सेत बिछावन औ उजियारी । हँसि हँसि मिलहिं पुरुष औ नारी॥
सोन-फूल भइ पुहुमी फूली । पिय धनि सौं, धनि पिय सौं भूली॥
चख अंजन देइ खंजन देखावा । होइ सारस जोरी रस पावा॥

एहि ऋतु कंता पास जेहि , सुख तेहि के हिय माँह ।
धनि हँसि लागै पिउ गरै, धनि-गर पिउ कै बाँह॥8॥

(नखत-भरा-ससि=आभूषणों के सहित पद्मावती,
फुल-बासू=फूलों से सुगंधित)

ऋतु हेमंत सँग पिएउ पियाला । अगहन पूस सीत सुख-काला॥
धनि औ पिउ महँ सीउ सोहागा । दुहुँन्ह अंग एकै मिलि लागा॥
मन सौ मन, तन सौं तन गहा । हिय सौं हिय, बिचहार न रहा॥
जानहुँ चंदन लागेउ अंगा । चंदन रहै न पावै संगा॥
भोग करहिं सुख राजा रानी । उन्ह लेखे सब सिस्टि जुड़ानी॥
जूझ दुवौ जोवन सौं लागा । बिच हुँत सीउ जीउ लेइ भागा॥
दुइ घट मिलि ऐकै होइ जाहीं । ऐस मिलहिं, तबहूँ न अघाहीं॥

हंसा केलि करहिं जिमि , खूँदहिं कुरलहिं दोउ ।
सीउ पुकारि कै पार भा, जस चकई क बिछोउ॥9॥

(धनि ....सोहागा=शीत दोनों के बीच सोहागे के समान है
जो सोने के दो टुकड़ों को मिलाकर एक करता है, उन्ह
लेखे=उनकी समझ में, बिच हुँत=बीच, खूदहि कुरलहिं=
उमंग में क्रीड़ा करते हैं, बिछोउ=बिछोह,वियोग)

आइ सिसिर ऋतु, तहाँ न सीऊ । जहाँ माघ फागुन घर पीऊ॥
सौंर सुपेती मंदिर राती । दगल चीर पहिरहिं बहु भाँती॥
घर घर सिंघल होइ सुख जोजू । रहान कतहुँ दुःख कर खोजू॥
जहँ धनि पुरुष सीउ नहिं लागा । जानहुँ काग देखि सर भागा॥
जाइ इंद्र सौं कीन्ह पुकारा । हौं पदमावति देस निसारा॥
एहि ऋतु सदा समग महँ सेवा । अब दरसन तें मोर बिछोवा॥
अब हँसि कै ससि सूरहिं भेंटा । रहा जो सीउ बीच सो मेटा॥

भएउ इंद्र कर आयसु, बड़ सताव यह सोइ ।
कबहुँ काहु के पार भइ कबहुँ काहु के होइ॥10॥

(सौंर=चादर, राती=रात में, दगल=एक प्रकार का अँगरखा
या चोला, जोज=भोग, खोजू=निशान,पता, सर=बाण,तीर,
जानहु काग=यहाँ इंद्र के पुत्र जयंत की ओर लक्ष्य है,
आयसु भएउ=(इंद्र) ने कहा, बड़ सताव यह सोइ=यह
वही है जो लोगों को बहुत सताया करता है)

30. नागमती-वियोग-खंड

नागमती चितउर-पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ॥
नागर काहु नारि बस परा । तेइ मोर पिउ मोसौं हरा ॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ ॥
भएउ नरायन बावन करा । राज करत राजा बलि छरा ॥
करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ॥
मानत भोग गोपिचंद भोगी । लेइ अपसवा जलंधर जोगी ॥
लेइगा कृस्नहि गरुड़ अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?॥

सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह? ।
झुरि झुरि पींजर हौं भई , बिरह काल मोहि दीन्ह ॥1॥

(पथ हेरा=रास्ता देखती है, नागर=नायक, बावँन करा=
वामन रूप, छरा=छला, करन=राजा कर्ण, छंदू=
छल-छंदू, धूर्त्तता, झिलमिल=कवच (सीकड़ों का),
अपसवा=चल दिया, पींजर=पंजर,ठटरी)

पिउ-बियोग अस बाउर जीऊ । पपिहा निति बोलै `पिउ पीऊ' ॥
अधिक काम दाधै सो रामा । हरि लेइ सुबा गएउ पिउ नामा ॥
बिरह बान तस लाग न डोली । रकत पसीज, भींजि गइ चोली ॥
सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी ॥
खन एक आव पेट महँ! साँसा । खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा ॥
पवन डोलावहिं, सीचहिं चोला । पहर एक समुजहिं मुख-बोला ॥
प्रान पयान होत को राखा? । को सुनाव पीतम कै भाखा?॥

आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि
हंस जो रहा सरीर मह, पाँख जरा, गा भागि ॥2॥

(बाउर=बावला, हरे हरे=धीरे धीरे, नारी=नाड़ी, चोला=शरीर,
पहर, एक...बोला=इतना अस्पष्ट बोल निकालता है कि
मतलब समझने में पहरों लग जाते हैं, हंस=हंस और जीव)

पाट-महादेइ! हिये न हारू । समुझि जीऊ, चित चेतु सँभारू ॥
भौंर कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा ॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास; बाँधु मन थीती ॥
धरतहिं जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा ॥
पुनि बसंत ऋतु आव नबेली । सो रस, सो मधुकर, सो बेली ॥
जिनि अस जीव करसि तू बारी । यह तरिबर पुनि उठिहि सँवारी ॥
दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोई सरवर, सोइ हंसा ॥

मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकस भेंटि अहंत ।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ॥3॥

(पाट महादेव=पट्ट महादेवी,पटरानी, मेरावा=मिलाप, टेकु
पियास=प्यास सह, बाँधु मन थीती=मन में स्थिरता बाँध,
जिनि=मत, पलुहंत=पल्लवित होते हैं,पनपते हैं)

चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा ॥
धूम, साम, धीरे घन धाए । सेत धजा बग-पाँति देखाए ॥
खड़ग-बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद-बान बरसहिं घन घोरा ॥
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी । कंत! उबारु मदन हौं घेरी ॥
दादुर मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ ॥
पुष्प नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह, मँदिर को छाँवा?॥
अद्रा लाग, लागि भुइँ लेई । मोहिं बिनु पिउ को आदर देई?॥

जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब ॥4॥

(गाजा=गरजा, धूम=धूमले रंग के, धौरे=धवल,सफेद,
ओनई=झुकी, लेई लागि=खेतों में लेवा लगा,खेत पानी
से भर गए, गारौ=गौरव,अभिमान)

सावन बरस मेह अति पानी । भरनि परी, हौं बिरह झुरानी ॥
लाग पुनरबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि , कहँ कंत सरेखा ॥
रकत कै आँसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चली जस बीरबहूटी ॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियारि भूमि, कुसुंभी चोला ॥
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा ॥
बाट असूझ अथाह गँभीरी । जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी ॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी ॥

परबत समुद, अगम बिच, बीहड़ घन बनढाँख ।
किमि कै भेंटौं कंत तुम्ह? ना मोहि पाँव न पाँख ॥5॥

(मेह=मेघ, भरनि परी=खेतों में भरनी लगी, सरेख=चतुर,
भँभीरी=एक प्रकार का पतिंगा जो संध्या के समय बरसात
में आकाश में उड़ता दिखाई पड़ता है)

भा भादों दूभर अति भारी । कैसे भौंर रैनि अँधियारी ॥
मंदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा ॥
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी ॥
चमक बीजु, घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा ॥
बरसै मघा झकोरि झकोरि । मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी ॥
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ । अबहुँ न आएन्हि सीचेन्हि नाहाँ ॥
पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आक जवास भई तस झूरी ॥

थल जल भरे अपूर सब, धरनि गगन मिलि एक ।
जनि जोबन अवगाह महँ दे बूड़त ,पिउ! टेक ॥6॥

(दूभर=भारी कठिन, भरौं=काटूँ,बिताऊँ, अनतै=अन्यत्र,
तरासा=डराता है, ओरी=ओलती, पुरबा=एक नक्षत्र)

लाग कुवार, नीर जग घटा । अबहूँ आउ, कंत! तन लटा ॥
तोहि देखे, पिउ! पलुहै कया । उतरा चीतु, बहुरि करु मया ॥
चित्रा मित्र मीन कर आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा ॥
उआ अगस्त, हरित-घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा ॥
स्वाति-बूँद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहिं, खँजन देखाए ॥
भा परगास, काँस बन फूले । कंत न फिरे, बिदेसहि भूले ॥

बिरह-हस्ति तन सालै, घाय करै चित चूर ।
वेगि आइ, पिउ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर ॥7॥

(लटा=शिथिल हुआ, पलुहै=पनपती है, उतरा चीतु=चित्त
से उतरी या भूली बात ध्यान में ला, चित्रा=एक नक्षत्र,
तुरय=घोड़ा, पलानि=जीन कसकर, घाय=घाव, बाजु=लड़ो,
गाजहु=गरजो, सदूर=शार्दूल,सिंह)

कातिक सरद-चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी ॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहुँ जरैं सब धरति अकासा ॥
तम मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद, खएउ मोहिं राहू ॥
चहूँ खंड लागै अँधियारा । जौं घर नाहीं कंत पियारा ॥
अबहूँ, निठुर! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा ॥
सखि झूमक गावैं अँग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी ॥
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह, सवति दुख दूजा ॥

सखि मानैं तिउहार सब गाइ, देवारी खेलि ।
हौं का गावौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि ॥8॥

(झुमक=मनोरा झूमक नाम का गीत, झुरावँ=सूखती हूँ,
जनम=जीवन)

अगहन दिवस घटा, निसि बाढ़ी । दुभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी? ॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती ॥
काँपै हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ ॥
घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप-रँग लेइगा नाहू ॥
पलटि त बहुरा गा जो बिछोई । अबहुँ फिरै, फिरै रँग सोई ॥
वज्र-अगिनि बिरहिन हिय जारा । सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा ॥
यह दुख-दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥

पिउ सौ कहेहु सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग!
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ॥9॥

(दूभर=भारी,कठिन, नाहू=नाथ, सो घनि विरहै ...लाग=
अर्थात् वही धुआँ लगने के कारण मानों भौंरे और
कौए काले हो गए)

पूस जाड़ थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा ॥
बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ॥
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे ॥
सौंर सपेती आवै जूड़ी । जानहु सेज हिवंचल बूड़ी ॥
चकई निसि बिछूरे दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला ॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी ॥
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा । जियत खाइ औ मुए न छाँड़ा ॥

रकत ढुरा माँसू गरा, हाड़ भएउ सब संख ।
धनि सारस होइ ररि मुई, पाउ समेटहि पंख ॥10॥

(लंका दिसि=दक्षिण दिशा को, चाँपा जाइ=दबा जाता
है, कोकिला=जलकर कोयल (काली) हो गई, सचान=
बाज, जाड़ा=जाड़े में, ररि मुई=रटकर मर गई,
पीउ ...पंख=प्रिय आकर अब पर समेटे)

लागेउ माघ, परै अब पाला । बिरह काल भएउ जड़ काला ॥
पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा ॥
एहि माह उपजै रसमूलू । तू सो भौंर, मोर जोबन फूलू ॥
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर-चीरू ॥
टप टप बूँद परहिं जस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला ॥
केहि क सिंगार, कौ पहिरु पटोरा । गीउ न हार, रही होइ डोरा ॥

तुम बिनु कापै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल ।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उढ़ावा झोल ॥11॥

(जड़काला=जाड़े के मौसिम में, माहा=माघ से, महवट=
मघवट, माघ की झड़ी, चीरू=चीर, घाव, सर=बाण, झोला
मारना=बात के प्रकोप से अंग का सुन्न हो जाना, केहि
क सिंगार?=किसका श्रृंगार? कहाँ का श्रृंगार करना?
पटोरा=एक प्रकार का रेशमी कपड़ा, डोरा=क्षीण होकर
डोरे के समान पतली, तिनउर=तनके का समूह, झोल=
राख, भस्म)

फागुन पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ॥
तरिवर झरहि झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा ॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥

यह तन जारों छार कै, कहौं कि `पवन! उड़ाव' ।
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरै जहँ पाव ॥12॥

(ओनत=झुकी हुई, निहोर लगौं=यह शरीर तुम्हारे
निहोरे लग जाय,तुम्हारे काम आ जाय)

चैत बसंता होइ धमारी । मोहिं लेखे संसार उजारी ॥
पंचम बिरह पंच सर मारे । रकत रोइ सगरौं बन ढारै ॥
बूड़ि उठे सब तरिवर-पाता । भीजि मजीठ, टेसु बन राता ॥
बौरे आम फरैं अब लागै । अबहुँ आउ घर, कंत सभागे! ॥
सहस भाव फूलीं बनसपती । मधुकर घूमहिं सँवरि मालती ॥

मोकहँ फूल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे ॥
फिर जोबन भए नारँग साखा । सुआ-बिरह अब जाइ न राखा ॥

घिरिन परेवा होइ, पिउ! आउ बेगि ,परु टूटि ।
नारि पराए हाथ है, तोह बिनु पाव न छूटि ॥13॥

(पंचम=कोकिल का स्वर या पंचम राग, सगरौं=सारे,
बूड़ि उठे ...पाता=नए पत्तों में ललाई मानों रक्त में
भीगने के कारण है, घिरिन परेवा=गिरहबाज कबूतर
या कौडिल्ला पक्षी, नारि=नाड़ी,स्त्री)

भा बैसाख तपनि अति लागी । चोआ चीर चंदन भा आगि ॥
सूरुज जरत हिवंचल तअका । बिरह=बजागि सौंह रथ हाँका ॥
जरत बजागिनि करु, पिउ! छाहाँ । आइ बुझाउ, अँगारन्ह माहाँ ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ आगि तें करु फुलवारी ॥
लागिउँ जरै, जरै जस भारू । फिर फिर भूंजेसि, तजेउँ न बारू ॥
सरवर-हिया घटत निति जाई । टूक-टूक होइ कै बिहराई ॥
बिहरत हिया करहु, पिउ! टेका । दीठी-दवँगरा मेरवहु एका ॥

कँवल जो मानसर बिनु जल गएउ सुखाइ ।
कवहुँ बेलि फिरि पलुहै जौ पिउ सींचै आइ ॥14॥

(हिंवचल ताका=उत्तरायण हुआ, बिरह-बजागि...हाँका=
सूर्य तो सामने से हटकर उत्तर की ओर खिसका हुआ
चलता है, उसके स्थान पर विरहाग्नि ने सीधे मेरी
ओर रथ हाँका, भारू=भाड़, सरवर-हिया ....तालों का
पानी जब सूखने लगता हथ तब पानी सूखे हुए
स्थानमें बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे बहुत
से खाने कटे दिखाई पड़ते हैं, दवँगरा=वर्षा के
आरम्भ की झड़ी, मेरवहु एका=दरारें पड़ने के कारण
जो खंड खंड हो गए हैं उन्हें मिलाकर फिर एक
कर दो, बड़ी सुंदर उक्ति है)

जेठ जरै जग चलै लुवारा । उठहि बवंडर परहिं अँगारा ॥
बिरह गाजि हनुवंत होइ जागा । लंका-दाह करै तनु लागा ॥
चारिहु पवन झकोरे आगी । लंका दाहि पलंका लागी ॥
दहि भइ साम नदी कालिंदी । बिरह क आगि कठिन अति मंदी ॥
उठै आगि औ आवै आँधी । नैन न सूझ, मरौ दुःख-बाँधी ॥
अधजर भइउ, माँसु तनु सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा ॥
माँसु खाइ सब हाडन्ह लागै । अबहुँ आउ; आवत सुनि भागै ॥

गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रबि सहि न सकहिं वह आगि ।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि ॥15॥

(लुवार=लू, गाजि=गरज कर, पलंका=पलंग, मंदी=धीरे
धीरे जलाने वाली)

तपै लागि अब जेठ-असाढ़ी । मोहि पिउबिनु छाजनि भइ गाढ़ी ॥
तन तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा, दुख आगरि जरी ॥
बंध नाहिं औ कंध न कोई । बात न आव कहौं का रोई?॥
साँठि नाहिं,जग बात को पूछा?। बिनु जिउ फिरै मूँज-तनु छूँछा ॥
भइ दुहेली टेक बिहूनी । थाँभ नाहि उठि सकै न थूनी ॥
बरसै मेह, चुवहिं नैनाहा । छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा ॥
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा?। तुम बिनु कंत न छाजन छाजा ॥

अबहूँ मया-दिस्ट करि, नाह निठुर! घर आउ ।
मँदिर उजार होत है, नव कै आई बसाउ ॥16॥

(तिनउर=तिनको का ठाट, झूरौं=सूखती हूँ, बंध=ठाट बाँधने
के लिये रस्सी, कंध न कोई=अपने ऊपर भी कोई नहीं है,
साँठि नाठि=पूँजी नष्ट हुई, मूँज तनु छूँछा=बिना बंधन
की मूँज के ऐसा शरीर, थाँम=खंभा, थूनी=लकड़ी की टेक,
छपर छपर=तराबोर, कोरौं=छाजन की ठाट में लगे बाँस
या लकड़ी, नव कै=नए सिर से)

रोइ गँवाए बारह मासा । सहस सहस दुख एक एक साँसा ॥
तिल तिल बरख बरख परि जाई । पहर पहर जुग जुग न सेराई ॥
सो नहिं आवै रूप मुरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी ॥
साँझ भए झुरु झुरि पथ हेरा । कौनि सो घरी करै पिउ फेरा?॥
दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा ॥
रकत न रहा, बिरह तन गरा । रती रती होइ नैनन्ह ढरा ॥
पाय लागि जोरै धनि हाथा । जारा नेह, जुड़ावहु, नाथा ॥

बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि ।
मानुष घर घर बझि कै, बूझै निसरी पंखि ॥17॥

(सहस सहस साँस=एक एक दीर्घ निश्वास सहस्त्रों दुखों
से भरा था,फिर बारह महीने कितने दुःखों से भरे बीते होंगे,
तिल तिल....परि जाई=तिल भर समय एक एक वर्ष के
इतना पड़ जाता है, सेराई=समाप्त होता है, सोहाग=
सौभाग्य, सोहागा, सुनारी=वह स्त्री ,सुनारिन, झुरि=सूखकर)

भई पुछार, लीन्ह बनवासू । बैरिनि सवति दीन्ह चिलवाँसू ॥
होइ खर बान बिरह तनु लागा । जौ पिउ आवै उड़हि तौ कागा ॥
हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहँ पठवौं कौन परेवा?॥
धौरी पंडूक कहु पिउ नाऊँ । जौं चित रोख न दूसर ठाऊँ ॥
जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा ॥
कोइल भई पुकारति रही । महरि पुकारै `लेइ लेइ दही'
पेड़ तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा ॥

जेहि पखी के निअर होइ कहै बिरह कै बात ।
सोई पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात ॥18॥

(पुछार=पूछनेवाली,मयूर, चिलवाँस=चिड़िया फँसाने का
एक फंदा, कागा=स्त्रियाँ बैठै कौवे को देखकर कहती हैं
कि `प्रिय आता हो तो उड़ जा', हारिल=थकी हुई,एक
पक्षी, धौरी=सफेद,एक चिड़िया, पंडूक=पीली,एक चिड़िया,
चित रोख=हृदय में रोष,एक पक्षी, जाहि बया=सँदेश
लेकर जा और फिर आ, कँठलवा=गले में लगानेवाला,
गौरवा=गौरवयुक्त,बड़ा,गौरा पक्षी, दही=दधि,जलाई,
पेड़=पेड़ पर, जल=जल में, तिलोरी=तेलिया मैना,
कटनंसा=काटता और नष्ट करता है, (ख) कटनास
या नीलकंठ, निपात=पत्रहीन)

कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई । रकत-आँसु घुँघुची बन बोई ॥
भइ करमुखी नैन तन राती । को सेराव? बिरहा-दुख ताती ॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होइ वनबासी । तहँ तहँ होइ घुँघुचि कै रासी ॥
बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ । गुंजा गूँजि करै `पिउ पीऊ '॥
तेहि दुख भए परास निपाते । लोहू बुड़ि उठे होइ राते ॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूँ ॥
दैखौं जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता? ॥

नहिं पावस ओहि देसरा:नहिं हेवंत बसंत ।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत ॥19॥

(घुँघची=गुंजा, सेराव=ठंडा करे, बिंब=बिंबाफल)

31. नागमती-संदेश-खंड

फिरि फिरि रोव, कोइ नहीं डोला । आधी राति बिहंगम बोला ॥
"तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी । केहि दुख रैनि न लावसि आँखी"
नागमती कारन कै रोई । का सोवै जो कंत-बिछोई ॥
मनचित हुँते न उतरै मोरे । नैन क जल चुकि रहा न मोरे ॥
कोइ न जाइ ओहि सिंगलदीपा । जेहि सेवाति कहँ नैना सीपा ॥
जोगी होइ निसरा सो नाहू । तब हुँत कहा सँदेस न काहू ॥
निति पूछौं सब जोगी जंगम । कोइ न कहै निज बात, बिहंगम!॥

चारिउ चक्र उजार भए, कोइ न सँदेसा टेक ।
कहौं बिरह दुख आपन, बैठि सुनहु दँड एक ॥1॥

(कारन कै=करुणा करके (अवध), तब हुँत=तब से,
टेक=ऊपर लेता है)

तासौं दुख कहिए, हो बीरा । जेहिं सुनि कै लागै पर पीरा ॥
को होइ भिउ अँगवे पर=दाहा । को सिंघल पहुँचावै चाहा?॥
जहँवाँ कंत गए होइ जोगी । हौं किंगरी भइ झूरि बियोगी ॥
वै सिंगी पूरी, गुरु भेंटा । हौं भइ भसम, न आइ समेटा ॥
कथा जो कहै आइ ओहि केरी । पाँवर होउँ, जनम भरि चेरी ॥
ओहि के गुन सँवरत भइ माला । अबहुँ न बहुरा उड़िगा छाला ॥
बिरह गुरू, खप्पर कै हीया । पवन अधार रहै सो जीया ॥

हाड़ भए सब किंगी, नसैं भई सब ताँति ।
रोवँ रोवँ तें धुनि उठैं, कहौं बिथा केहि भाँति? ॥2॥

(बीरा=भाई, भिउँ=भीम, अँगवै=अंग पर सहे,
चाहा=खबर, पाँवरि=जूती),
ठेघा=टिका, ठहरा, डफारा=चिल्लाया )

पदमावति सौं कहेहु, बिहंगम । कंत लोभाइ रही करि संगम ॥
तू घर घरनि भई पिउ-हरता । मोहि तन दीन्हेसि जप औ बरता ॥
रावट कनक सो तोकहँ भएऊ । रावट लंक मोहिं कै गएऊ ॥
तोहि चैन सुख मिलै सरीरा । मो कहँ हिये दुंद दुख पूरा ॥
हमहुँ बियाही संग ओहि पीऊ । आपुहि पाइ जानु पर-जीऊ ॥
अबहुँ मया करु, करु जिउ फेरा । मोहिं जियाउ कंत देइ मेरा ॥
मोहिं भोग सौं काज न बारी । सौंह दीठि कै चाहनहरी ॥

सवति न होहि तू बैरिनि, मोर कंत जेहहि हाथ ।
आनि मिलाव एक बेर, तोर पाँय मोर माथ ॥3॥

(घर=अपने घर में ही, घरनि=घर वाली,गृहिणी, रावट=
महल, लंक=जलती हुई लंका, चाहनहारी=देखनेवाली)

रतनसेन कै माइ सुरसती । गोपीचंद जसि मैनावती ॥
आँधरि बूढ़ि होइ दुख रोवा । जीवन रतन कहाँ दहुँ खोवा ॥
जीवन अहा लीन्ह सो काढ़ी । भइ विनु टेक, करै को ठाढ़ी?॥
बिनु जीवन भइ आस पराई । कहाँ सो पूत खंभ होइ आई ॥
नैन दीठ नहिं दिया बराहीं । घर अँधियार पूत जौ नाहीं ॥
को रे चलै सरवन के ठाँऊ । टेक देह औ टेकै पाऊँ ॥
तुम सरवन होइ काँवरि सजा । डार लाइ अब काहे तजा?॥

"सरवन! सरवन!" ररि मुई माता काँवरि लागि ।
तुम्ह बिनु पानि न पावैं, दसरथ लावै आगि ॥4॥

(खंभ=सहारा, बराहीं=जलते हैं, सरवन=`श्रमणकुमार',जिसकी
कथा उत्तरापथ में घर घर प्रसिद्ध है, काँवरि=बाँस के
डंडे के दोनों छोरों पर बँधे हुए झाबे, जिनमे तीर्थयात्री
लोग गंगाजल आदि लेकर चला करते हैं,(सरवन अपने
माता=पिता को काँवरि में बैठाकर ढोया करते थे )

लेइ सो सँदेश बिहंगम चला । उठी आगि सगरौं सिंगला ॥
बिरह-बजागि बीच को ठेघा?। धूम सो उठा साम भए मेघा ॥
भरिगा गगन लूक अस छूटे । होइ सब नखत आइ भुइँ टूटे ॥
जहँ जहँ भूमि जरी भा रेहू । बिरह के दाघ भई जनु खेहू ॥
राहु केतु, जब लंका जारी । चिनगो उड़ी चाँद महँ परी ॥
जाइ बिहंगम समुद डफारा । जरे मच्छ पानी भा खारा ॥
दाधे बन बीहड़, जड़, सीपा । जाइ निअर भा सिंघलदीपा ॥

समुद तीर एक तरिवर, जाइ बैठ तेहि रूख ।
जौ लगि कहा सदेस नहि, नहिं पियास, नहिं भूख ॥5॥

रतनसेन बन करत अहेरा । कीन्ह ओही तरिवर-तर फेरा ॥
सीतल बिरिछ समुद के तीरा । अति उतंग ओ छाँह गँभीरा ॥
तुरय बाँधि कै बैठ अकेला । साथी और करहिं सब खेला ॥
देखत फिरै सो तरिवर-साखा । लाग सुनै पंखिन्ह कै भाखा ॥
पंखिन महँ सो बिहंगम अहा । नागमती जासौं दुख कहा ॥
पूछहिं सबै बिहंगम नामा । अहौ मीत! काहै तुम सामा?॥
कहेसि "मीत! मासक दुइ भए । जंबूदीप तहाँ हम गए ॥

नगर एक हम देखा, गढ़ चितउर ओहि नाँव ।
सो दुख कहौं कहाँ लगि, हम दाढ़े तेहिं ठावँ ॥6॥

जोगी होइ निसरा सो राजा । सून नगर जानहु धुंध बाजा ॥
नागमती है ताकरि रानी । जरी बिरह, भइ कोइल-बानी ॥
अब लगि जरि भइ होइहि छारा । कही न जाइ बिरह कै झारा ॥
हिया फाट वहव जबहिं कूकी । परै आँसु सब होइ होइ लूकी ॥
चहूँ खंड छिटकी वह आगी । धरती जरति गगन कहँ लागी ॥
बिरह-दवा को जरत बुझावा?। जेहि लागै सो सौंहैं धावा ॥
हौं पुनि तहाँ सो दाढ़ै लागा । तन भा साम, जीउ लेइ भागा ॥

का तुम हँसहु गरब कै, करहु समुद महँ केलि ।
मति ओहि बिरहा बस परै, दहै अगिनि जो मेलि"॥7॥

(धुँध बाजा=धुंध या अंधकार छाया, बानी=वर्ण की,
भइ होइहि=हुई होगी, झार=ज्वाला, लूकी=लुक,
दवा=दावाग्नि)

सुनि चितउर-राजा मन गुना । बिदि-सँदेस मैं कासौं सुना ॥
को तरिवरि पर पंखि-बेखा । नागमति कर कहै सँदेसा?॥
को तुँ मीत मन-चित्त-बसेरु । देव कि दानव पवन पखेरू?॥
ब्रह्म बिस्नु बाचा है तोही । सो निज बात कहै तू मोही ॥
कहाँ सो नागमती तैं देखी ।कहेसि बिरह जस मनहिं बिसेखी ॥
हौं सोई राजा भा जोगी । जेहि कारन वह ऐसि बियोगी ॥
जस तूँ पंखि महूँ दिन भरौं । चाहौं कबहि जाइ उड़ि परौं ॥

पंखि! आँखि तेहि मारग लागी सदा रहाहिं ।
कोइ न सँदेसी आवहिं, तेहि क सँदेश कहाँहिं ॥8॥

(बसेरू=वसनेवाला, दिन भरौं=दिन बिताता हूँ, महूँ=मैं भी)

पूछसि कहा सँदेस-बियोगू । जोगी भए न जानसि भोगू ॥
दहिने संख न सिंगी पूरै । बाएँ पूरि राति दिन झूरै ॥
तेलि बैल जस बावँ फिराई । परा भँवर महँ सो न तिराई ॥
तुरय, नाव, दहिने रथ हाँका । बाएँ फिरै कोहाँर क चाका ॥
तोहिं अस नाहीं पंखि भुलाना । उड़े सो आव जगत महँ जाना ॥
एक दीप का आएउँ तोरे । सब संसार पाँय-तर मोरे ॥
दहिने फिरै सो अस उजियारा । जस जग चाँद सुरुज मनियारा ॥

मुहमद बाईं दिसि तजा, एक स्रवन, एक आँखि ।
जब तें दाहिन होइ मिला बोल पपीहा पाँखि ॥9॥

(दहिने संख=दक्षिणावर्त शंख नहीं फूँकता, झूरै=सूखता है,
तिराई=पानी के ऊपर आता है, तोहिं अस...भुलाना=पक्षी
तेरे ऐसा नहीं भूले हैं, वे जानते हैं कि हम उड़ने के लिए
इस संसार में आए हैं, मनियार=रौनक,चमकता हुआ,
मुहमद बाँई...आँखि=मुम्मद कवि ने बाईं ओर आँख
और कान करना छोड़ दिया (जायसी काने थे भी)

अर्थात् वाम मार्ग छोड़कर दक्षिण मार्ग का अनुसरण
किया, बोल=कहलाता है)

हौं धुव अचल सौं दाहिनि लावा । फिर सुमरु चितुउर-गढ़ आवा ॥
देखेउँ तोरे मँदिर घमोई । मातु तोहि आँधरि भइ रोई ॥
जस सरवन बिनु अंधी अंधा । तस ररि मुई, तोहि चित बँधा ॥
कहेसि मरौं, को काँवरि लेइ?। पूत नाहिं, पानी को तेई?॥
गई पियास लागि तेहि साथा । पानि दीन्ह दशरथ के हाथा ॥
पानि न पिये, आगि पै चाहा । तोहि अस सुत जनमे अस लाहा ॥
होइ भगीरथ करु तहँ फेरा । जाहि सवार, मरन कै बेरा ॥

तू सपूत माता कर , अस परदेस न लेहि ।
अब ताईं मुइ होइहि, मुए जाइ गति तेहि ॥10॥

(दाहिन लावा=प्रदक्षिणा की, घमोई=सत्यानासी या
भँडभाँढ नामक कंटीला पौधा जो खंडहरों या उजड़े
मकानों में प्रायः उगता है, सबार=जल्दी)

नागमति दुख बिरह अपारा । धरती सरग जरै तेहि झारा ॥
नगर कोट घर बाहर सूना । नौजि होइ घर पुरुष-बिहूना ॥
तू काँवरू परा बस टोना । भूला जोग, छरा तोहि लोना ॥
वह तोहि कारन मरि भइ छारा । रही नाग होइ पवन अधारा ॥
कहुँ बोलहि `मो कहँ लेइ खाहू'। माँसु न, काया रचै जो काहू ॥
बिरह मयूर, नाग वह नारी । तू मजार करु बेगि गोहारी ॥
माँसु गिरा, पाँजर होइ परी । जोगी! अबहुँ पहुँचु लेइ जरी ॥

देखि बिरह-दुख ताकर मैं सो तजा बनवास ।
आएउँ भागि समुद्रतट तबहुँ न छाड़ै पास ॥11॥

(नौजि=न,ईश्वर न करे (अवध), काँवरू=कामरूप में जो
जादू के लिये प्रसिद्ध है, लोना=लोना चमारी जो जादू में
एक थी, मजार=बिल्ली, जरी=जड़ी-बूटी)

अस परजरा बिरह कर गठा । मेघ साम भए धूम जो उठा ॥
दाढ़ा राहु, केतु गा दाधा । सूरज जरा, चाँद जरि आधा ॥
औ सब नखत तराईं जरहीं । टूटहिं लूक धरति महँ परहीं ॥
जरै सो धरती ठावहिं ठाऊँ । दहकि पलास जरै तेहि दाऊ ॥
बिरह-साँस तस निकसै झारा । दहि दहि परबत होहिं अँगारा ॥
भँवर पतंग जरैं औ नागा । कोइल, भुजइल, डोमा कागा ॥
बन-पंखी सब जिउ लेइ उड़े । जल महँ मच्छ दुखी होइ बुड़े ॥

महूँ जरत तहँ निकसा, समुद बुझाएउँ आइ ।
समुद, पान जरि खार भा, धुँआ रहा जग छाइ ॥12॥

(परजरा=प्रज्वलित हुआ,जला, गठा=गट्ठा,ढेर, दाऊँ=
दवाग्नि, भुजइल=भुजंगा नाम का काला पक्षी, डोमा
कागा=बड़ा कौवा जो सर्वांग काला होता है)

राजै कहा, रे सरग सँदेसी । उतरि आउ, मोहिं मिलु, रे बिदसी ॥
पाय टेकि तोहि लायौं हियरे । प्रेम-सँदेस कहहु होइ नियरे ॥
कहा बिहंगम जो बनवासी । "कित गिरही तें होइ उदासी?॥
"जेहि तरवर-तर तुम अस कोऊ । कोकिल काग बराबर दोऊ ॥
"धरती महँ विष-चारा परा । हारिल जानि भूमि परिहरा ॥
"फिरौं बियोगी डारहि डारा । करौं चलै कहँ पंख सँवारा ॥
"जियै क घरी घटति निति जाहीं । साँझहिं जीउ रहै, दिन नाहीं ॥

जौ लहि फिरौं मुकुत होइ परौं न पींजर माँह ।
जाउ बेगि थल आपने, है जेहि बीच निबाह"" ॥13॥

(सरग सँदेसी=स्वर्ग से (ऊपर से) सँदेसा कहनेवाला, गिरही=
गृह ।हारिल...परिहरा=कहते हैं, हारिल भूमि पर पैर नहीं
रखता; चंगुल में सदा लकड़ी लिए रहता है जिससे पैर
भूमि पर पैर न पड़े, चलै कहँ=चलने के लिए)

कहि संदेस बिहंगम चला । आगि लागि सगरौं सिघला ॥
घरी एक राजा गोहराबा । भा अलोप, पुनि दिस्टि न आवा ॥
पंखी नावँ न देखा पाँखा । राजा होइ फिरा कै साँखा ॥
जस हैरत वह पंखि हेराना । दिन एक हमहूँ करब पयाना ॥
जौ लगि प्रान पिंड एक ठाऊँ । एक बार चितउर गढ़ जाऊँ ॥
आवा भँवर मंदिर महँ केवा । जीउ साथ लेइ गएउ परेवा ॥
तन सिंघल, मन चितउर बसा । जिउ बिसँभर नागिनि जिमि डसा ॥

जेति नारि हँसि पूछहिं अमिय-बचन जिउ-तंत ।
रस उतरा, बिष चढ़ि रहा, ना ओहि तंत न मंत ॥14॥

(गोहरावा=पुकारा, साँखा=शंका, चिंता, पिंड=शरीर, मंदिर
महँ केवा=कमल (पद्मावती) के घर में, बिसँभर=बेसँभाल,
सुध-बुध भूला हुआ, जेति नारि=जितनी स्त्रियाँ हैं सब,
जिउ तंत=जी की बात (तत्त्व))

बरिस एक तेहि सिंगल भएऊ । भौग बिलास करत दिन गयऊ ॥
भा उदास जौ सुना सँदेसू । सँवरि चला मन चितउर देसू ॥
कँवल उदास जो देखा भँवरा । थिर न रहै अब मालति सँवरा ॥
जोगी, भवरा, पवन परावा । कित सो रहै जो चित्त उठावा?॥
जौं पै काढ़ देइ जिउ कोई । जोगी भँवर न आपन होई ॥
तजा कवल मालति हिय घाली । अब कित थिर आछै अलि , आली ॥
गंध्रबसेन आव सुनि बारा । कस जिउ भएउ उदास तुम्हारा?॥

मैं तुम्हही जिउ लावा, दीन्ह नैन महँ बास ।
जौ तुम होहु उदास तौ यह काकर कबिलास? ॥15॥

(परावा=पराए,अपने नहीं, चित्त उठावा=जाने का संकल्प
या विचार किया, हिय घाली=हृदय में लाकर)


32. रत्नसेन-बिदाई-खंड

रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति जोग जीभ नहिं मोरी ॥
सहस जीभ जौ होहिं, गोसाईं । कहि न जाइ अस्तुति जहँ ताईं ॥
काँच रहा तुम कंचन कीन्हा । तब भा रतन जोति तुम दीन्हा ॥
गंग जो निरमल-नीर कुलीना । नार मिले जल होइ मलीना ॥
पानि समुद्र मिला होइ सोती । पाप हरा, निरमल भा मोती ॥
तस हौं अहा मलीनी कला । मिला आइ तुम्ह, भा निरमला ॥
तुम्ह मन आवा सिंघलपुरी । तुम्ह तैं चढ़ा राज औ कुरी ॥

सात समुद तुम राजा, सरि न पाव कोइ खाट ।
सबै आइ सिर नावहिं जहँ तुम साजा पाट ॥1॥

(कुरी=कुल,कुलीनता, खाट=खटाता है,ठहरता है, सरि न
पाव....खाट=बराबरी करने में कोई नहीं ठहर सकता)

अब बिनती एक करौं, गोसाईं । तौ लगि कया जीउ जब ताईं ॥
आवा आजु हमार परेवा । पाती आनि दीन्ह मोहिं देवा!॥
राज-काज औ भुइँ उपराहीं । सत्रु भाइ सम कोई नाहीं ॥
आपन आपन करहिं सो लीका । एकहिं मारि एक चह टीका ॥
भए अमावस नखतन्ह राजू । हम्ह कै चंद चलावहु आजू ॥
राज हमार जहाँ चलि आवा । लिखि पठइनि अब होइ परावा ॥
उहाँ नियर दिल्ली सुलतानू । होइ जो भौर उठे जिमि भानू ॥

रहहु अमर महि गगन लगि तुम महि लेइ हम्ह आउ ॥
सीस हमार तहाँ निति जहाँ तुम्हारा पाउ ॥2॥

(देवा=हे देव! उपराहीं=ऊपर, लीका करहिं=अपना सिक्का
जमाते हैं, लीका=थाप, हम्ह कै चाँद....आजू=उन नक्षत्रों
के बीच चंदमा ( उनका स्वामी) बनाकर हमें भेजिए,
भोर=प्रभात,भूला हुआ,असावधान, महि लेइ...आउ=
पृथ्वी पर हमारी आयु लेकर)

राजसभा पुनि उठी सवारी । 'अनु, बिनती राखिय पति भारी ॥
भाइन्ह माहँ होइ जिनि फूटी । घर के भेद लंक अस टूटी ॥
बिरवा लाइन सूखै दीजै । पावै पानि दिस्टि सो कीजै ॥
आनि रखा तुम दीपक लेसी । पै न रहै पाहुन परदेसी ॥
जाकर राज जहाँ चलि आवा । उहै देस पै ताकहँ भावा ॥
हम तुम नैन घालि कै राखे ।ऐसि भाख एहि जीभ नभाखे ॥
दिवस देहु सह कुसल सिधावहिं । दीरघ आइ होइ, पुनि आवहिं"॥

सबहि विचार परा अस, भा गवने कर साज ।
सिद्धि गनेस मनावहिं, बिधि पुरवहु सब काज ॥3॥

(राजसभा=रत्नसेन के साथियों की सभा, सवारी=सब,
अनु=हाँ,यही बात है, फूटी....फूट, दीपक लेसी=पद्मावती
ऐसा प्रज्वलित करके, पाहुन=अतिथि)

बिनय करै पदमावति बारी । "हौं पिउ! जैसी कुंद नेवारी ॥
मोहि असि कहाँ सो मालति बेली । कदम सेवती चंप चमेली ॥
हौ सिंगारहार सज तागा ।पुहुप कली अस हिरदय लागा ॥
हौं सो बसंत करौं निति पूजा । कुसुम गुलाल सुदरसन कूजा ॥
बकुचन बिनवौं रोस न मोही । सुनु बकाउ तजि चाहु न जूही ॥
नागसेर जो है मन तोरे । पूजि न सकै बोल सरि मोरे ॥
होइ सदबरग लीन्ह मैं सरना । आगे करु जो, कंत! तोहि करना "॥

केत बारि समुझावै , भँवर न काँटे बेध ।
कहै मरौं पै चितउर, जज्ञ करौं असुमेध ॥4॥

(मालति=अर्थात् नागमती, कदम सेवती=चरण सेवा
करती है,कदंब और सफेद गुलाब, हौ सिंगारहार...तागा=
हार के बीच पड़े हुए डोरे के समान तुम हो, पुहुप-कली
लागा=कली के हृदय के भीतर इस प्रकार पैठे हुए हो,
बकुचन=बद्धांजलि,जुड़ा हुआ हाथ, गुच्छा, बकाउ=
बकावली, नागसेर=नागमती,एक फूल, बोल=एक झाड़ी
जो अरब, शाम की ओर होती है, कोत बारि=केतकी,
रूपवाला,कितना ही वह स्त्री)

गवन-चार पदमावति सुना । उठा धसकि जिउ औ सिर धुना ॥
गहबर नैन आए भरि आँसू । छाँड़ब यह सिंघल कबिलासू ॥
छाँडिउँ नैहर, चलिउँ बिछौई । एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई ॥
छाँडिउँ आपन सखी सहेली । दूरि गवन, तजि चलिउँ अकेली ॥
जहाँ न रहन भएउ बिनु चालू । होतहि कस न तहाँ भा कालू ॥
नैहर आइ काह सुख देखा?। जनु होइगा सपने कर लेखा ॥
राखत बारि सो पिता निछोहा । कित बियाहि अस दीन्ह बिछोहा?॥

हिये आइ दुख बाजा, जिउ जानहु गा छेंकि ।
मन तेवान कै रोवै हर मंदिर कर टेकि ॥5॥

(धसकि उठा=दहल उठा, गहबर=गीले, होतहि...कालू=जन्म
लेते ही क्यों न मर गई?, बाजा=पड़ा, तेवान=सोच,चिंता,
हर मंदिर=प्रत्येक घर में)

पुनि पदमावति सखी बोलाई । सुनि कै गवन मिलै सब आईं ॥
मिलहु, सखी! हम तहँवाँ जाहीं । जहाँ जाइ पुनि आउब नाहीं ॥
सात समुद्र पार वह देसा । कित रे मिलन, कित आव सँदेसा ॥
अगम पंथ परदेस सिधारी । न जनौं कुसल कि बिथा हमारी ॥
पितै न छोह कीन्ह हिय माहाँ । तहँ को हमहिं राख गहि बाहाँ? ॥
हम तुम मिलि एकै सँग खेला । अंत बिछोह आनि गिउ मेला ॥
तुम्ह अस हित संघती पियारी ।जियत जीउ नहिं करौं निनारी ॥

कंत चलाई का करौं आयसु जाइ न मेटि ।
पुनि हम मिलहिं कि ना मिलहिं, लेहु सहेली भेंटि ॥6॥

(बिथा=दुःख गिउ मेला=गले पड़ा)

धनि रोवत रोवहिं सब सखी । हम तुम्ह देखि आपु कहँ झँखी ॥
तुम्ह ऐसी जौ रहै न पाई । पुनि हम काह जो आहिं पराई ॥
आदि अंत जो पिता हमारा । ओहु न यह दिन हिये बिचारा ॥
छोह न कीन्ह निछोही ओहू । का हम्ह दोष लाग एक गोहूँ ॥
मकु गोहूँ कर हिया चिराना । पै सो पिता न हिये छोहाना ॥
औ हम देखा सखी सरेखा । एहि नैहर पाहुन के लेखा ॥
तब तेइ नैहर नाहीं चाहा । जौ ससुरारि होइ अति लाहा ॥

चालन कहँ हम अवतरीं, चलन सिखा नहिं आय ।
अब सो चलन चलावै, कौ राखै गहि पाय?॥7॥

(झंखी=झीखी,पछताई, का हम्ह दोष....गोहूँ=हम लोगों
को एक गेहूँ के कारण क्या ऐसा दोष लगा (मुसलमानों
के अनुसार जिस पौधे के फल को खुदा के मना करने
पर भी हौवा ने आदम को खिलाया था वह गेहूँ था,
इसी निषिद्ध फल के कारण खुदा ने हौवा को शाप
दिया और दोनों को बहिश्त से निकाल दिया),
चिराना=बीच से चिर गया, छोहाना=दया की,
सरेखा=चतुर)

तुम बारी, पिउ दुहुँ जग राजा । गरब किरोध ओहि पै छाजा ॥
सब फर फूल ओहि के साखा । चहै सो तूरै, चाहै राखा ॥
आयसु लिहे रहिहु निति हाथा । सेवा करिहु लाइ भुइँ माथा ॥
बर पीपर सिर उभ जो कीन्हा । पाकरि तिन्हहिं छीन फर दीन्हा ॥
बौरिं जो पौढ़ि सीस भुइँ लावा । बड़ फल सुफल ओहि जग पावा ॥
आम जो फरि कै नवै तराहीं । फल अमृत भा सब उपराहीं ॥
सोइ पियारी पियहि पिरीती । रहै जो आयसु सेवा जीती ॥

पत्रा काढ़ि गवन दिन देखहि, कौन दिवस दहुँ चाल ।
दिसासूल चक जोगिनी सौंह न चलिए, काल ॥8॥

(तूरै=तोड़े, ऊभ=ऊँचा,उठा हुआ, बौंरि=लता, पौढ़ि=
लेट कर, तराहा=नीचे, सेवा जीता=सेवा में सबसे
जीती हुई अर्थात् बढ़कर रहे)

अदित सूक पच्छिउँ दिसि राहू । बीफै दखिन लंक-दिसि दाहू ॥
सोम सनीचर पुरुब न चालू । मंगल बुद्ध उतर दिसि कालू ॥
अवसि चला चाहै जौ कोई । ओषद कहौं, रोग नहिं होई ॥
मंगल चलत मेल मुख धनिया ।चलत सोम देखै दरपनिया ॥
सूकहिं चलत मेल मुख राई । बीफै चलै दखिन गुड़ खाई ॥
अदिति तँबोल मेलि मुख मंडै । बायबिरंग सनीचर खंडै ॥
बुद्धहिं दही चलहु कर भोजन । ओषध इहै, और नहिं खोजन ॥

अब सुनु चक्र जोगिनी, ते पुनि थिर न रहाहिं ।
तीसौं दिवस चंद्रमा आठो दिसा फिराहिं ॥9॥

(अदित=आदित्यवार, सूक=शुक्र, खंडै=चबाय)

बारह ओनइस चारि सताइस । जोगिनि परिच्छउँ दिसा गनाइस ॥
नौ सोरह चौबिस औ एका । दक्खिन पुरुष कोन तेइ टेका ॥
तीन इगारह छबिस अठारहु । जोगिनि दक्खिन दिसा बिचारहु ॥
दुइ पचीस सत्रह औ दसा । दक्खिन पछिउँ कोन बिच बसा ॥
तेरस तीस आठ पंद्रहा । जोगिनि उत्तर होहिं पुरुब सामुहा ॥
चौदह बाइस ओनतिस साता । जोगिनि उत्तर दिसि कहँ जाता ॥
बीस अठारह तेरह पाँचा । उत्तर पछिउँ कोन तेइ नाचा ॥

एकइस औ छ जोगिनि उतर पुरुब के कोन ।
यह गनि चक्र जोगिनि बाँचु जौ चह सिध होन ॥10॥

(दसा=दस, सामुहा=सामने, बाँचु=तू बच)

परिवा, नवमी पुरुब न भाए । दूइज दसमी उतर अदाए ॥
तीज एकादसि अगनिउ मारै । चौथि दुवादसि नैऋत वारे ॥
पाँचइँ तेरसि दखिन रमेसरी । छठि चौदसि पच्छिउँ परमेसरी ॥
सतमी पूनिउँ बायब आछी । अठइँ अमावस ईसन लाछी ॥
तिथि नछत्र पुनि बार कहीजै । सुदिन साथ प्रस्थान धरीजै ॥
सगुन दुघरिया लगन साधना । भद्रा औ दिकसूल बाँचना ॥
चक्र जोमिनी गनै जो जानै । पर बर जीति लच्छि घर आनै ॥

सुख समाधि आनंद घर कीन्ह पयाना पीउ ।
थरथराइ तन काँपै धरकि धरकि उठ जीउ ॥11॥

(न भाए=नहीं अच्छा है, अदाएँ=वाम,बुरा, अगनिउ=
आग्नेय दिशा, मारै=घातक है, वारै=बचावे, रमेसरी=
लक्ष्मी,परमेसरी देवी, बायब=वायव्य, ईसन=ईसान
कोण, लाछी=लक्ष्मी, सगुन दुघरिया=दुघरिया मुहूर्त्त
जो होरा के अनुसार निकाला जाता है और जिसमें
दिन का विचार नहीं किया जाता रात दिन को दो
दो घड़ियों में विभक्त करके राशि के अनुसार
शुभाशुभ का विचार किया जाता है)

मेष, सिंह धन पूरुब बसै । बिरखि, मकर कन्या जम-दिसै ॥
मिथुन तुला औ कुंभ पछाहाँ । करक, मीन, बिरछिक उतराहाँ ॥
गवन करै कहँ उगरै कोई । सनमुख सोम लाभ बहु होई ॥
दहिन चंद्रमा सुख सरबदा । बाएँ चंद त दुख आपदा ॥
अदित होइ उत्तर कहँ कालू । सोम काल बायब नहिं चालू ॥
भौम काल पच्छिउ, बुध निऋता । गुरु दक्खिन और सुक अगनइता ॥
पूरब काल सनीचर बसै । पीठि काल देइ चलै त हँसै ॥

धन नछत्र औ चंद्रमा औ तारा बल सोइ ।
समय एक दिन गवनै लछमी केतिक होइ ॥12॥

(बिरछिक=वृश्चिक राशि, उगरे=निकले, अगनइता=आग्नेय दिशा)

पहिले चाँद पुरुब दिसि तारा । दूजे बसै इसान विचारा ॥
तीजे उतर औ चौथे बायब । पचएँ पच्छिउँ दिसा गनाइब ॥
छठएँ नैऋत, दक्खिन सतए । बसै जाइ अगनिउँ सो अठएँ ॥
नवए चंद्र सो पृथिबी बासा । दसएँ चंद जो रहै अकासा ॥
ग्यरहें चंद पुरुब फिरि जाई । बहु कलेस सौं दिवस बिहाई ॥
असुनि, भरनि, रेवती भली । मृगसिर, मूल, पुनरबसु बली ॥
पुष्य, ज्येष्ठा, हरत, अनुराधा । जो सुख चाहै पूजै साधा ॥

तिथि, नछत्र और बार एक अस्ट सात खँड भाग ।
आदि अंत बुध सो एहि दुख सुख अंकम लाग ॥13॥

परवा, छट्ठि, एकादसि नंदा । दुइज, सत्तमी, द्वादसि मंदा ॥
तीज, अस्टमी, तेरसि जया । चौथि चतुरदसि नवमी खया ॥
पूरन पूनिउँ, दसमी, पाँचै । सुक्रै नंदै, बुध भए नाचै ॥
अदित सौं हस्त नखत सिधि लहिए । बीफै पुष्य स्रवन ससि कहिए ॥
भरनि रेवती बुध अनुराधा । भए अमावस रोहिनि साधा ॥
राहु चंद्र भू संपत्ति आए । चंद गहन तब लाग सजाए ॥
सनि रिकता कुज अज्ञा लोजै । सिद्धि-जोग गुरु परिवा कीजै ॥

छठे नछत्र होइ रवि, ओहि अमावस होइ ।
बीचहि परिबा जौ मिलै सुरुज-गहन तब होई ॥14॥

(नंदा=आनंददायिनी,शुभ, मंदा=अशुभ, जया=विजय
देनेवाली, खया=क्षय करने वाली, सनि रिकता=शनि
रिक्ता, शनिवार रिक्ता तिथि या खाली दिन)

`चलहु चलहु' भा पिउ कर चालू । घरी न देख लेत जिउ कालू ॥
समदि लोग पुनि चढ़ी बिवाना । जेहि दिन डरी सो आइ तुलाना ॥
रोवहिं मात पिता औ भाई । कोउ न टेक जौ कंत चलाई ॥
रोवहिं सब नैहर सिंघला । लेइ बजाइ कै राजा चला ॥
तजा राज रावन, का केहू? । छाँडा लंक बिभीषन लेहु ॥
भरीं सखी सब भेंटत फेरा । अंत कंत सौं भएउ गुरेरा ॥
कोउ काहू कर नाहिं निआना । मया मोह बाँधा अरुझाना ॥

कंचन-कया सो रानी रहा न तोला माँसु ।
कंत कसौटी घालि कै चूरा गढ़ै कि हाँसु ॥15॥

(समदि=विदा के समय मिलकर (समदन=बिदाई; जैसे,
पितृ समदन अमावस्या), आइ तुलाना=आ पहुँचा, टेक=
पकड़ता है, का केहू=और कोई क्या है? गुरेरा=देखा-देखी,
साक्षात्कार)

जब पहुँचाइ फिरा सब कोऊ । चला साथ गुन अवगुन दोऊ ॥
औ सँग चला गवन सब साजा । उहै देइ अस पारे राजा ॥
डोली सहस चलीं सँग चेरी । सबै पदमिनी सिंघल केरी ॥
भले पटोर जराव सँवारे । लाख चारि एक भरे पेटारे ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । काढि भँडार दीन्ह रथ जोती ॥
परखि सो रतन पारखिन्ह कहा । एक अक दीप एक एक लहा ॥
सहसन पाँति तुरय कै चली । औ सौ पाँति हस्ति सिंघली ॥

लिखनी लागि जौ लेखै, कहै न परै जोरि ।
अब,खरब दस, नील, संख औ अरबुद पदुम करोरि ॥16॥

(एक एक दीप....लहा=एक एक रत्न का मोल
एक एक द्वीप था)

देखि दरब राजा गरबाना । दिस्टि माहँ कोई और न आना ॥
जौ मैं होहुँ समुद के पारा । को है मोहिं सरिस संसारा ॥
दरब ते गरब, लोभ बिष-मूरी । दत्त न रहै, सत्त होइ दूरी ॥
दत्त सत्त हैं दूनौं भाई । दत्त न रहै, सत्त पै जाई ॥
जहाँ लोभ तहँ पाप सँघाती । सँचि कै मरै आनि कै थाती ॥
सिद्ध जो दरब आगि कै थापा। कोई जार, जारि कोइ तापा ॥
काहू चाँद, काहु भा राहू । काहू अमृत, विष भा काहू ॥

तस भुलान मन राजा । लोभ पाप अँधकूप ।
आइ समुद्र ठाढ़ भा कै दानी कर रूप ॥17॥

(दत्त=दान, सत्त=सत्य, सँचि कै=संचित करके, सिद्ध
जो... थापा=जो सिद्ध हैं वे द्रव्य को अग्नि ठहराते हैं,
थापा=थापते हैं, ठहराते हैं, दानी=दान लेने वाला,
भिक्षुक, कै दानी कर रूप=मंगन का रूप धरकर)

33. देशयात्रा खंड

बोहित भरे, चला लेइ रानी । दान माँगि सत देखै दानी ॥
लोभ न कीजै, दीजै दानू ।दान पुन्नि तें होइ कल्यानू ॥
दरब-दान देवै बिधि कहा । दान मोख होइ, बाँचै मूरू ॥
दान करै रच्छा मँझ नीरा । दान खेइ कै लावै तीरा ॥
दान करन दै दुइ जग तरा । रावन संचा अगिनि महँ जरा ॥
दान मेरु बढ़ि लागि अकासा । सैंति कुबेर मुए तेहि पासा ॥

चालिस अंस दरब जहँ एक अंस तहँ मोर ।
नाहिं त जरै कि बूड़ै, कि निसि मूसहिं चोर ॥1॥

(जूरू=जोड़ना, सँचा=संचित किया, दान=दान से,
सैंति=सहेजकर;संचित करके)

सुनि सो दान राजै रिस मानी । केइ बौराएसि बौरे दानी ॥
सोई पुरुष दरब जेइ सैंती । दरबहिं तैं सुनु बातैं एती ॥
दरब तें गरब करै जे चाहा । दरब तें धरती सरग बेसाहा ॥
दरब तें हाथ आव कविलासू । दरब तें अछरी चाँड न पासू ॥
दरब तें निरगुन होइ गुनवंता । दरब तें कुबज होइ रूपवंता ॥
दरब रहै भुइँ दिपै लिलारा । अस मन दरब देइ को पारा?॥
दरब तें धरम करम औ राजा । दरब तें सुद्ध बुद्धि बल गाजा ॥

कहा समुद्र , रे लोभी! बैरी दरब, न झाँपु ।
भएउ न काहू आपन, मूँद पेटारी साँपु ॥2॥

(सैंति=संचित किया, एती=इतनी, बेसाहा=खरीदते हैं,
कुबुज=कुबड़ा, दरब रहै लिलारा=द्रव्य धरती में गढ़ा
रहता है और चमकता है माथा (असंगति का यह
उदाहरण इस कहावत के रूप में भी प्रसिद्ध है:
गाड़ा है मँडार, बरत है लिलार"), देइ को पारा=
कौन दे सकता है, मूँद=मूँदा हुआ,बंद)

आधे समुद ते आए नाहीं । उठी बाउ आँधी उतराहीं ॥
लहरैं उठीं समुद उलथाना । भूला पंथ, सरग नियराना ॥
अदिन आइ जौ पहुँचै काऊ । पाहन उड़ै सो घाऊ ॥
बोहित चले जो चितउर ताके । भए कुपंथ, लंक-दिसि हाँके ॥
जो लेइ भार निबाह न पारा । सो का गरब करै कंधारा?॥
दरब-भार सँग काहु न उठा । जेइ सैता ताही सौं रुठा ॥
गहे पखान पंखि नहिं उड़ै । `मौर मौर' जो करै सो बुड़ै ॥

दरब जो जानहि आपका, भूलहिं गरब मनाहिं ।
जौ रे उठाइ न लेइ सके, बोरि चले जल माहिं ॥3॥

(उतराही=उत्तर की हवा, अदिन=बुरादिन, काऊ=कभी,
मनाहिं=मन में)

केवट एक बिभीषन केरा । आव मच्छ कर करत अहेरा ॥
लंका कर राकस अति कारा । आवै चला होइ अँधियारा ॥
पाँच मूँड, दस बाहीं ताही । दहि भा सावँ लंक जब दाही ॥
धुआँ उठै मुख साँस सँघाता । निकसै आगि कहै जौ बाता ॥
फेंकरे मूंड चँवर जनु लाए । निकसि दाँत मुँह-बाहर आए ॥
देइ रीछ कै रीछ डेराइ । देखत दिस्टि धाइ जनु खाई ॥
राते नैन नियर जौ आवा । देखि भयावन सब डर खावा ॥

धरती पायँ सरग सिर, जनहुँ सहस्राबाहु ।
चाँद सूर और नखत महँ अस देखा जस राहु ॥4॥

(सँघाता=संग, फेंकरे=नंगे;बिना टोपी या पगड़ी के
(अवधी) चँवर जनु लाए=चँवर के से खड़े बाल
लगाए हुए, चाँद,सूर,नखत=पद्मावती, राजा और
सखियाँ)

बोहित बहे, न मानहि खेवा । राजहिं देखि हँसा मन देवा ॥
बहुतै दिनहि बार भइ दूजी । अजगर केरि आइ भुख पूजी ॥
यह पदमिनी विभीषन पावा । जानहु आजु अजोध्या छावा ॥
जानहु रावन पाई सीता । लंका बसी राम कहँ जीता ॥
मच्छ देखि जैसे बग आवा । टोइ टोइ भुइँ पावँ उठावा ॥
आइ नियर होइ किन्ह जोहारू । पूछा खेम कुसल बेवहारू ॥
जो बिस्वासघात कर देवा । बड़ बिसवास करै कै सेवा ॥

कहाँ, मीत! तुम भूलेहु औ आएहु केहि घाट?।
हौं तुम्हार अस सेवक, लाइ देउँ तोहि बाट ॥5॥

(देवा=देव,राक्षस, बग=बगला, लाइ देउँ तोहि बाट=
तुझे रास्ते पर लगादूँ)

गाढ़ परे जिउ बाउर होई । जो भलि बात कहै भल सोई ॥
राजै राकस नियर बोलावा । आगे कीन्ह, पंथ जनु पावा ॥
करि विस्वास राकसहि बोला । बोहित फेरू, जाइ नहिं डोला ॥
तू खेवक खेवकन्ह उपराहीं । बोहित तीर लाउ गहि बाहीं ॥
तोहिं तें तीर घाट जौ पावौं नोगिरिही तोड़ेर पहिरावौं ॥
कुंडल स्रवन देउँ पहिराई । महरा कै सौंपौं महराई ॥
तस मैं तोरि पुरावौं आसा । रकसाई कै रहै न बासा ॥

राजै बीरा दीन्हा, नहिं जाना बिसवास ॥
बग अपने भख कारन होइ मच्छ कर दास ॥6॥

(नौगिरिही=कलाई में पहनने का,स्त्रियों का,एक गहना
जो बहुत से दानों को गूँथ कर बनाया जाता है, तोडर=
तोड़ा,कलाई में पहनने का गहना, महरा=मल्लहों का
सरदार, रकसाई=राक्षसपन, बासा=गंध, बिसवास=विश्वासघात)

राकस कहा गोसाइँ बिनाती । भल सेवक राकस कै जाती ॥
जहिया लंक दही श्रीरामा । सेव न छाँडा दहि भा सामा ॥
अबहूँ सेव करौं सँग लागे । मनुष भुलाइ होउँ तेहि आगे ॥
सेतुबंध जहँ राघव बाँधा । तहँवाँ चढ़ौं भार लेइ काँधा ॥
पै अब तुरत धान किछु पावौं । तुरत खेइ ओहि बाँध चढ़ावौं ॥
तुरत जो दान पानि हँसि दीजै । थोरै दान बहुत पुनि लीजै ॥
सेव कराइ जो दोजै दानू । दान नाहिं, सेवा कर मानू ॥

दिया बुझा, सत ना रहा हुत निरमल जेहि रूप ।
आँधी वोहित उड़ाइ कै लाइ कीन्ह अँधकूप ॥7॥

(जहिया=जब, पानि=हाथ हाथ से, हुत=था, जेहि=जिससे )

जहाँ समुद मझधार मँडारू । फिरै पानि पातार-दुआरू ॥
फिर फिरि पानि ठाँव ओहि मरै । फेरि न निकसै जो तहँ परै ॥
ओही ठाँब महिरावन-पुरी । परे हलका तर जम-कातर छुरी ॥
ओही ठाँव महिरावन मारा । पूरे हाड़ जनु खरे पहारा ॥
परी रीढ़ जो तेहि कै पीठी । सेतुबंध अस आवै दीठी ॥
राकस आइ तहाँ के जुरे । बोहित भँवर-चक महँ परे ॥
फिरै लगै बोहित तस आई । जस कोहाँर धरि चाक फिराई ॥

राजै कहा, रे राकस! जानि बूझि बौरासि ।
सेतुबंध यह देखै; कस न तहाँ लेइ जासि ॥8॥

(मँडारू=दह,गड्ढा, हलका=हिलोर,लहर, तर=नीचे,
बौरासि=बावला होता है तू)

`सेतुबंध' सुनि राकस हँसा । जानहु सरग टूटि भुइँ खसा ॥
को बाउर? बाउर तुम देखा । जो बाउर, भख लागि सरेखा ॥
पाँखी जो बाउर घर माटी । जीभ बढ़ाइ भखै सब चाँटी ॥
बाउर तुम जो भखै कहँ आने । तबहिं न समझे, पंथ भुलाने ॥
महिरावन कै रीढ़ जो परी । कहहु सो सेतुबंध, बुधि छरी ॥
यह तो आहि महिरावन-पुरी । जहवाँ सरग नियर, घर दुरी ॥
अब पछिताहु दरब जस जोरा । करहु सरग चढ़ि हाथ मरोरा ॥

जो रे जियत महिरावन लेत जगत कर भार ।
सो मरि हाड़ न लेइगा, अस होइ परा पहार ॥9॥

(जो बाउर...सरेखा=पागल भी अपना भक्ष्य ढूँढने के
लिये चतुर होता है, पाँखी=पतिंगा, घरमाटी=मिट्टी
के घर में, छरी=छली गई,भ्रांत हुई)

बोहित भवँहिं, भँवै सब पानी । नाचहिं राकस आस तुलानी ॥
बूडहिं हस्ती , घोर, मानवा । चहुँदिशि आइ जुरे मँस-खवा ॥
ततखन राज-पंखि एक आवा । सिखर टूट जस डसन डोलावा ॥
परा दिस्टि वह राकस खोटा । ताकेसि जैस हस्ति बड़ मोटा ॥
आइ होही राकस पर टूटा । गहि लेइ उड़ा, भँवर जल छूटा ॥
बोहित टूक टूक सब भए । एहु न जाना कहँ चलि गए ॥
भए राजा रानी दुइ पाटा । दूनौं बहे, चले दुइ बाटा ॥

काया जीउ मिलाइ कै, मारि किए दुइ खंड ।
तन रोवै धरती परा; जीउ चला बरम्हंड ॥10॥

(भँवंहि=चक्कर खाते हैं, आस तुलानी=आशा जाती रही,
मानवा=मनुष्य, डहन=डैना,पर)

34. लक्ष्मी-समुद्र-खंड

मुरछि परी पदमावति रानी । कहाँ जीउ, कहँ पीउ, न जानी ॥
जानहु चित्र-मूर्त्ति गहि लाई । पाटा परी बही तस जाई ॥
जनम न सहा पवन सुकुवाँरा । तेइ सो परी दुख-समुद अपारा ॥
लछिमी नाँव समुद कै बेटी । तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी ॥
खेलति अही सहेलिन्ह सेंती । पाटा जाइ लाग तेहि रेती ॥
कहेहि सहेली "देखहु पाटा । मूरति एक लागि बहि घाटा ॥
जौ देखा, तिवई है साँसा । फूल मुवा, पै मुई न बासा ॥

रंग जो राती प्रेम के ,जानहु बीर बहूटि ।
आइ बही दधि-समुद महँ, पै रंग गएउ न छूटि ॥1॥

(न जानी=न जानें, अही=थी, सेंती=से, रेती=बालू का
किनारा, तीवइ=स्त्री में)

लछिमी लखन बतीसौं लखी । कहेसि "न मरै, सँभारहु, सखी!॥
कागर पतरा ऐस सरीरा । पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा ॥
लहरि झकोर उदधि-जल भीजा । तबहूँ रूप-रंग नहिं छीजा "
आपु सीस लेइ बैठी कोरै । पवन डोलावै सखि चहुँ ओरै ॥
बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ । माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ ॥
पानि पियाइ सखी मुख धोई । पदमिनि जनहुँ कवँल सँग कोईं ॥
तब लछिमी दुख पूछा ओही । तिरिया समुझि बात कछु मोहीं ॥

देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर ।
केहि नगरी कै नागरी, काह नाँव धनि तोर?" ॥2॥

(कागर=कागज, पतरा=पतला, उड़ाइ=उड़कर, कौरै=
गोद में, बोलि कै=पुकारकर, समुझि=सुध करके)

नैन पसार देख धन चेती । देखै काह, समुद कै रेती ॥
आपन कोइ न देखेसि तहाँ । पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?॥
कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई । सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई ॥
कहाँ जगत महँ पीउ पियारा । जो सुमेरु, बिधि गरुअ सँवारा ॥
ताकर गरुई प्रीति अपारा । चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा ॥
रहौं जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी । कैसे जिऔं भार-दुख चाँपी? ॥
कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ । दीन्ह बहाइ उदधि जल माहाँ ॥

आवा पवन बिछोह कर, पात परी बेकरार ।
तरिवर तजा जौ चूरि कै, लागौं केहि के डार? ॥3॥

(चेती=चेत करके,होश में आकर, देखै काह=देखती
क्या है कि, झाँपी=आच्छादित, चाँपी=दबी हुई, चूरी=
चूर्ण किया, लागौं केहहि के ड़ार=किसकी डाल लगूँ
अर्थात् किसका सहारा लूँ?)

कहेन्हि" न जानहिं हम तोर पीऊ । हम तोहिं पाव रहा नहिं जीऊ ॥
पाट परी आई तुम बही । ऐस न जानहिं दुहुँ कहँ अही" ।
तब सुधि पदमावति मन भई । सवरि बिछोह मुरुछि मरि गई ॥
नैनहिं रकत-सुराही ढरै । जनहुँ रकत सिर काटे परै ॥
खन चेतै खन होइ बेकरारा । भा चंदन बंदन सब छारा ॥
बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा ॥
को मोहिं आगि देइ रचि होरी । जियत न बिछुरै सारस-जोरी ॥

जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि ।
लोग कहैं यह सिर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि ॥4॥

(पाव=पाया, सँवरि=स्मरण करके, सिर=चिता )

काया-उदधि चितव पिउ पाँहा । देखौं रतन सो हिरदय माहाँ ॥
जनहुँ आहि दरपन मोर हीया । तेहि महँ दरस देखावै पीया ॥
नैन नियर, पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि मरौं मैं झूरी ॥
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई । को रे मिलाव, कहौं केहि रोई?॥
साँस पास निति आवै जाई । सो न सँदेस कहै मोहिं आई ॥
नैन कौडिया होइ मँडराहीं । थिरकि मार पै आवै नाहीं ॥
मन भँवरा भा कँवल-बसेरी । होइ मरजिया न आनै हेरी ॥

साथी आथि निआथि जो सकै साथ निरबाहि ।
जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि ॥5॥

(थिरकि मार=थिरकता या चारों ओर नाचता है,
साथी....निरबाहि=साथी वही है जो धन और दरिद्रता
दोनों में साथ निभा सके, आथि=सार,पूँजी, निआथि=
निर्धनता)

सती होइ कहँ सीस उघारा । घन महँ बीजु घाव जिमि मारा ॥
सेंदुर, जरै आगि जनु लाई । सिर कै आगि सँभारि न जाई ॥
छूटि माँग अस मोति-पिरोई । बारहिं बार जरै जौं रोई ॥
टूटहिं मोति बिछोह जो भरै । सावन-बूँद गिरहिं जनु झरे ॥
भहर भहर कै जोबन बरा । जानहुँ कनक अगिनि महँ परा ॥
अगिनि माँग, पै देइ न कोई । पाहुन पवन पानि सब कोई ॥
खीन लंक टूटी दुखभरी । बिनु रावन केहि बर होइ खरी ॥

रोवत पंखि बिमोहे जस कोकिल-अरंभ ।
जाकर कनक-लता सो बिछुरा पीतम खंभ ॥6॥

(घन महँ...मारा=काले बालों के बीच माँग
ऐसी है जैसे बिजली की दरार, भहर भहर=जगमगाता
हुआ, माँग=माँगती है, पाहुन पवन...सब कोई=मेहमान
समझ कर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं, बर=
बल,सहारा, अरंभ=रंभ,नाद,कूक)

लछिमी लागि बुझावै जीऊ ।"ना मरु बहिन! मिलिहि तोर पीऊ ॥
पीउ पानि, होइ पवन=अधारी । जसि हौं तहूँ समुद कै बारी ॥
मैं तोहि लागि लेउँ खटवाटू । खोजहि पिता जहाँ लगि घाटू ॥
हौं जेहि मिलौं ताहि बड़ भागू । राजपाट औ देऊँ सोहागू "॥
कहि बुझाइ लेइ मंदिर सिधारी । भइ जेवनार न जेंवै बारी ॥
जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा । कहँ तेहि भूख, कहाँ सुख-सोवा?॥
कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा । को अस तेहि सौं कहै सँदेसा?॥

लछिमी जाइ समुद पहँ रोइ बात यह चालि ।
कहा समुद "वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि" ॥7॥

(बुझावै लागि=समझाने-बुझाने लगी, बारी=लड़की, लेउँ
खटवाटू=खटपाटी लूँगी; रूसकर काम-धंधा छोड़ पड़ी
रहूँगी (स्त्रियों का रूसकर खाना-पीना छोड़ खाट पर
इसलिये पड़ रहना कि जब तक मेरी बात न मानी
जायगी न उठूँगी,`खटपाटी' लेना कहलाता है), सुख-
सोवा=सुख से सोना (साधारण क्रिया का यह रूप
बँगला से मिलता है), कहाँ सुमेरु...सेसा=आकाश
पाताल का अंतर, बात चालि=बात चलाई)

राजा जाइ तहाँ बहि लागा । जहाँ न कोइ सँदेसी कागा ॥
तहाँ एक परबत अस डूँगा । जहँवाँ सब कपूर औ मूँगा ॥
तेहि चढ़ि हेर कोइ नहिं साथा । दरब सैंति किछु लाग न हाथा ॥
अहा जो रावन लंक बसेरा । गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा ॥
ढाढ मारि कै राजा रोवा । केइ चितउरगढ़-राज बिछोवा?॥
कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब कटक खँधारा?॥
कहाँ तुरंगम बाँका बली । कहाँ मोर हस्ती सिंघली? ॥

कहँ रानी पदमावति जीउ बसै जेहि पाहँ ।
'मोर मोर' कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह ॥8॥

(डूँगा=टीला, खँधारा=स्कंधावार,डेरा,तंबू,
अवगाह=अथाह (समुद्र) में)

भँवर केतकी गुरु जो मिलावै । माँगै राज बेगि सो पावै ॥
पदमिनि-चाह जहाँ सुनि पावौं । परौं आगि औ पानि धँसावौं ॥
खोजौं परबत मेरु पहारा । चढ़ौं सरग औ परौं पतारा ॥
कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी ॥
परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा । जहाँ न वार पार, नहि थाहा ॥
सीता-हरन राम संग्रामा । हनुवँत मिला त पाई रामा ॥
मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई । को बर बाँधि गवेसी होई?॥

भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि ।
आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह सो बेलि ॥9॥

(चाह=खबर, दँसावौं=धँसूँ, गवेसी=खोजी,ढूँढनेवाला,
गवेषणा करनेवाला, बर वाँधि=रेखा खींचकर,दृढ़
प्रतिज्ञा करके,आजकल `वरैया बाँधि' बोलते हैं)

काहि पुकारौं, का पहँ जाऊँ । गाढ़े मीत होइ एहि ठाऊँ ॥
को यह समुद मथै बल गाढ़ै । को मथि रतन पदारथ काढ़ै? ॥
कहाँ सो बरह्मा, बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू? ॥
को अस साज देइ मोहिं आनी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी ॥
को दधि-समुद मथै जस मथा? करनी सार न कहिए कथा ॥
जौ लहि मथै न कोइ देइ जीऊ । सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ ॥
लेइ नग मोर समुद भा बटा । गाढ़ परै तौ लेइ परगटा ॥

लीलि रहा अब ढील होइ पेट पदारथ मेलि ।
को उजियार करै जग झाँपा चंद उघेलि?॥10॥

(मीत होइ=जो मित्र हो, गाढ़े=संकट के समय में, दाम=रस्सी,
करनी सार ..कथा=करनी मुख्य है,बात कहने से क्या है? बटा
भा=बटाऊ हुआ,चल दिया, ढील होइ रहा=चुपचाप बैठा रहा,
उघेलि=खोलकर)

ए गोसाइँ! तू सिरजन हारा । तुइँ सिरजा यह समुद अपारा ॥
तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा ॥
तुइँ जल ऊपर धरती राखी । जगत भार लेइ भार न थाकी ॥
चाँद सुरुज औ नखतन्ह=पाँती । तोरे डर धावहिं दिन राती ॥
पानी पवन आगि औ माटी । सब के पीठ तोरि है साँटी ॥
सो मूरुख औ बाउर अंधा । तोहि छाँडि चित औरहि बंधा ॥
घट घट जगत तोरि है दीठी । हौं अंधा जेहि सूझ न पीठी ॥

पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि ।
आगि होइ भा माटी, गोरखधंधै लागि ॥11॥

(थाँबा=ठहराया,टिकाया, थूनि=लकड़ी का बल्ला जो टेक के
लिये छप्पर के नीचे खड़ा किया जाता है, भार न थाकी=भार
से नहीं थकी, सब के पीठि....साँटी=सब की पीठ पर तेरी छड़ी
है, अर्थात् सब के ऊपर तेरा शासन है)

तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ । तुही बिछोवसि, करसि मेराऊ ॥
चौदह भुवन सो तोरे हाथा । जहँ लगि बिधुर आव एक साथा ॥
सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ ॥
जानसि सबै अवस्था मोरी । जस बिछुरी सारस कै जोरी ॥
एक मुए ररि मुवै जो दूजी । रहा न जाइ, आउ अब पूजी ॥
झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ । कलपौं माँथ बेगि निस्तरऊँ ॥
मरौं सो लेइ पदमावति नाऊँ । तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ ॥

दुख सौं पीतम भेंटि कै, सुख सौं सोव न कोइ ।
एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ ॥12॥

(मेरवसि=तू मिलाता है, आउ=आयु, बिछोवसि=बिछोह
करता है, मेराऊ=मिलाप, जाहाँ=जहाँ, कलपौं=काटूँ, करेसि=
तुम करना)

कहि कै उठा समुद पहँ आवा । काढ़ि कटार गीउ महँ लावा ॥
कहा समुद्र, पाप अब घटा । बाह्मन रूप आइ परगटा ॥
तिलक दुवादस मस्तक कीन्हे । हाथ कनक-बैसाखी लीन्हे ॥
मुद्रा स्रवन, जनेऊ काँधे । कनक-पत्र धोती तर बाँधे ॥
पाँवरि कनक जराऊँ पाऊँ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ ॥
कहसि कुँवर! मोसौं सत बाता । काहे लागि करसि अपघाता ॥
परिहँस मरस कि कौनिउ लाजा । आपन जीउ देसि केहि काजा ॥

जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप ।
सकति जीउ जौं काढ़ै , महा दोष औ पाप ॥13॥

(पाप अब घटा=यह तो बड़ा पाप मेरे सिर घटा चाहता
है, बैसाखी=लाठी, पाँवरि=खड़ाऊँ, पाऊँ=पाँव में, काहे लगि=
किस लिये, अपघात=आत्मघात, परिहँस=ईर्ष्या)

को तुम्ह उतर देइ, हो पाँडे । सो बीलै जाकर जिउ भाँडे ॥
जंबूदीप केर हौं राजा । सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा ॥
सिंघलदीप राजघर-बारी । सो मैं जाइ बियाही नारी ॥
बहु बोहित दायज उन दीन्हा । नग अमोल निरमर भरि लीन्हा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हुतीन काहु के संपति ओती ॥
बहल,घोड़, हस्ती सिंघली । और सँग कुँवरि लाख दुइ चलीं ।
ते गोहने सिंघल पदमिनी । एक सो एक चाहि रुपमनी ॥

पदमावती जग रूपमति, कहँ लगि कहौं दुहेल ।
तेहिं समुद्र महँ खोएउँ, हौं का जिओ अकेल?॥14॥

(तुम्ह=तुम्हें, भाँडे=घट में,शरीर में, ओती=उतनी,
चाहि, चाहि=बढ़कर, रूपमनी=रूपवती, दुहेल=दुख)

हँसा समुद, होइ उठा अँजोरा । जग बूड़ा सब कहि कहि 'मोरा ॥
तोर होइ तोहि परे न बेरा । बूझि बिचारि तहुँ केहि केरा ॥
हाथ मरोरि धुनै सिर झाँखी । पै तोहि हिये न अघरै आँखी ॥
बहुतै आइ रोइ सिर मारा । हाथ न रहा झूठ संसारा ॥
जो पै जगत होति फुर माया । सैंतत सिद्धि न पावत, राया! ॥
सिद्धै दरब न सैंता गाड़ा । देखा भार चूमि कै छाड़ा ॥
पानी कै पानी महँ गई । तू जो जिया कुसल सब भई ॥

जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव ।
धन लछिमी सब थअकर, लेइ त का पछितावा?॥15॥

(तोर...होइ...बेरा=तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता,
झाँखी=झीखकर, उघरे=खुलती है, सैंतत सिद्धि...राया=तो हे
राजा! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिद्धि पा न जाते, पानी
कै...गई=जो वस्तुएँ (रत्न आदि) पानी की थीं वे पानी में
गई, लेइ चाह=लिया ही चाहे, जब भाव=जब चाहे)

अनु, पाँडे! पुरुषहि का हानी । जौ पावौं पदमावति रानी ॥
तपि कै पावा ,मिली कै फूला । पुनि तेहि खौइ सोइ पथ भूला ॥
पुरुष न आपनि नारि सराहा । मुए गए सँवरै पै चाहा ॥
कहँ अस नारी जगत उपराहीं?। कहँ अस जीवन कै सुख-छाहीं? ॥
कहँ अस रहस भोग अब करना । ऐसे जिए चाहि भल मरना ॥
जहँ अस परा समुद नग दीया । तहँ किमि जिया चहै मरजीया? ॥
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ । देइ हत्या झगरौं सिवलोका ॥

का मैं ओहि क नसअवा, का सँवरा सो दाँव?।
जाइ सरग पर होइहि एहि कर मोर नियाव ॥16॥

(अनु=फिर,आगे, फूला=प्रफुल्ल हुआ, चाहि=अपेक्षा,
बनिस्बत, मोकाँ=मोकहँ,मुझको, देइ हत्या=सिर पर
हत्या चढ़ाकर, दाँव=बदला लेने का मौका)

जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? ना मुइ मरै, न रौवै मरा ॥
जो मरि भा औ छाँडेसि काया । बहुरि न करै मरन कै दाँया ॥
जो मरि भएउ न बूड़ै नीरा । बहा जाइ लागै पै तीरा ॥
तुही एक मैं बाउर भेंटा । जैस राम, दसरथ कर बेटा ॥
ओहू नारि कर परा बिछोवा । एहि समुद महँ फिरि फिरि रोवा ॥
उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा । इति दशमाथ अरमपद दीन्हा ॥
तोहि बल नाहिं-मूँदु अब आँखी । लावौ तीर, टेक बैसाखी ॥

बाउर अंध प्रेम कर सुनत लुबधि भा बाट ।
निमिष एक महँ लेइगा पदमावति जेहि घाट ॥17॥

(मरि भा=मर चुका, दायाँ=दाँव,आयोजन, बाट भा=रास्ता पकड़ा)

पदमावति कहँ दुख तस बीता । जस असोक-बीरो तर सीता ॥
कनक लता दुइ नारँग फरी । तेहि के भार उठि होइ न खरी ॥
तेहि पर अलक भुअंगिनि डसा । सिर पर चढ़ै हिये परगसा ॥
रही मृनाल टेकि दुख-दाधी । आधी कँवल भई, ससि आधी ॥
नलिन=खंड दुइ तस करिहाऊ । रोमावली बिछूक कहाऊँ ॥
रही टूटि जिमि कंचन-तागू । को पिउ मेरवै, देइ सोहागू ॥
पान न खाइ करै उपवासू । फुल सूख, तन रही न बासू ॥

गगन धरति जल बुड़ि गए, बूड़त होइ निसाँस ।
पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास ॥18॥

(बीरौ=बिरवा,पेड़, दाधी=जली हुई, करिहाउँ=कमर,कटि,
बिछूक=बिच्छू, सेवाति=स्वाति नक्षत्र में)

लछिमी चंचल नारि परेवा । जेहि सत होइ छरै कै सेवा ॥
रतनसेन आवै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा ॥
औ भइ पदमावति कै रूपा । कीन्हेसि छाँह जरै जहँ धूपा ॥
देखि सो कँवल भँवर होइ धावा । साँस लीन्ह, वह बास न पाबा ॥
निरखत आइ लच्छमी दीठी । रतनसेन तब दीन्ही पीठी ॥
जौ भलि होति लच्छमी नारी । तजि महेस कत होत भिखारी?॥
पुनि धनि फिरि आगे होइ रोई । पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई?॥

हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ ।
आनि समुद महँ छाँडेहु, अब रोवौं देइ जीउ ॥19॥

(छरै=छलती है, बाटा=मार्ग में, अगमन=आगे, दीठी=देखा,
दीन्ही पीठी=पीठ दी,मुँह फेर लिया)

मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू लेत फिरौं मालति कर खौजू ॥
मालति नारि, भँवर पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीऊ ॥
का तुइँ नारि बैठि अस रोई । फूल सोइ पै बास न सोई ॥
भँवर जो सब फूलन कर फेरा । बास न लेइ मालतिहि हेरा ॥
जहाँ पाव मालति कर बासू । वारै जीउ तहाँ होइ दासू ॥
कित वह बास पवन पहुँचावै । नव तन होइ, पेट जिउ आवै ॥
हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ । और फूल कै बास न लेऊँ ॥

भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि ।
सौंहैं भाल खाइ, पै फिरि कै देइ न पीठि ॥20॥

(खोज=पता, कर फेरा=फेरा करता है, हेरा=ढूँढता है, वारै=
निछावर करता है, नव=नया, भाल=भाला)

तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ । जहाँ सो मालति लेइ चलु, जाऊँ ॥
लेइ सो आइ पदमावति पासा । पानि पियावा मरत पियासा ॥
पानी पिया कँवल जस तपा । निकसा सुरुज समुद महँ छपा ॥
मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुँवर मनि दिपै ललाटा ॥
दसन दिपै जस हीरा जोती । नैन-कचोर भरे जनु मोती ॥
भुजा लंक डर केहरि जीता । मूरत कान्ह देख गोपीता ॥
जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है छूँछा ॥

जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग ।
मिला भँवर मालति कहँ, करहु दोउ मिलि भोग ॥21॥

(लेइ चलुँ, जाउँ=यदि ले चले तो जाऊँ, छपा=छिपा हुआ,
कचोर=कटोरा, गोपीता=गोपी, दमनहि=दमयंती को, पिंड=शरीर,
छूँछा=खाली, पदिक=गले में पहनने का एक चौखूँटा गहना
जिसमें रत्न जड़े जाते हैं)

पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती ॥
जानहुँ सूर कीन्ह परगासू । दिन बहुरा, भा कँवल-बिगासू ॥
कँवल जो बिहँसि सूर-मुख दरसा । सूरुज कँवल दिस्टि सौं परसा ॥
लोचन-कँवल सिरी-मुख सूरू । भएउ अनंद दुहूँ रस-मूरू ॥
मालति देखि भँवर गा भूली । भँवर देखि मालति बन फूली ॥
देखा दरस, भए एक पासा । वह ओहि के, वह ओहि के आसा ॥
कंचन दाहि दीन्हि जनु जीऊ । ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ ॥

पायँ परी धनि पीउ के, नैनन्ह सों रज मेट ।
अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कवलहिं भेंट ॥22॥

(पदिक पदारथ=अर्थात् पद्मावती, बहुरा=लौटा,फिरा, मूरू=मूल,
जड़, एक पासा=एक साथ, सीऊ=सीत, रज मेट=आँसुओं से पैर
की भूल धोती है, भइ ससि कँवलहि भेंट=शशि, पद्मावती का
मुख और कमल,राजा के चरण)

जिनि काहू कह होइ बिछोऊ । जस वै मिलै मिलै सब कोऊ ॥
पदमावति जौ पावा पीऊ । जनु मरजियहि परा तन जीऊ ॥
कै नेवछावरि तन मन वारी । पायन्ह परी घालि गिउ नारी ॥
नव अवतार दीन्ह बिधि आजू । रही छार भइ मानुष-साजू ॥
राजा रोव घालि गिउ पागा । पदमावति के पायन्ह लागा ॥
तन जिउ महँ बिधि दीन्ह बिछोऊ । अस न करै तौ चीन्ह न कोऊ ॥
सोई मारि छार कै मेटा । सोइ जियाइ करावै भेंटा ॥

मुहमद मीत जौ मन बसै, बिधि मिलाव ओहि आनि ।
संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि ॥23॥

(घालि गिउ=गरदन नीचे झुकाकर, मानुष साजू=मनुष्य-रूप में,
घालि गिउ पागा=गले में दुपट्टा डालकर, पागा=पगड़ी, तन
जिउ ...चीन्ह न कोऊ=शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने
वियोग दिया;यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोई न पहचाने)

लछमी सौं पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पायउँ जो चहा ॥
जौ सब खोइ जाहि हम दोऊ । जो देखै भल कहै न कोऊ ॥
जे सब कुँवर आए हम साथी । औ जत हस्ति, घोड़ औ आथी ॥
जौ पावैं, सुख जीवन भोगू । नाहिं त मरन भरन दुख रोगू ॥
तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ । जो एहि कर सब बूड़ सो पाऊँ ॥
तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा ॥
एक एक कै दीन्ह सो आनी । भा सँतोष मन राजा रानी ॥

आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं अनंद ।
भई प्राप्त सुख-संपति, गएउ छूटि दुख-द्वंद ॥24॥

(तुम्ह=तुम्हारे, आथी=पूँजी,धन, जरी=जड़ी)

और दीन्ह बहु रतन पखाना । सोन रूप तौ मनहिं न आना ॥
जे बहु मोल पदारथ नाऊँ । का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ ॥
तिन्ह कर रूप भाव को कहै । एक एक नग चुनि चुनि कै गहे ॥
हीर-फार बहु-मोल जो अहे । तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहे ॥
जौ एक रतन भँजावै कोई । करै सोइ जो मन महँ होई ॥
दरब-गरब मन गएउ भुलाई । हम सब लक्ष्छ मनहिं नहिं आई ॥
लघु दीरघ जो दरब बखाना । जो जेहि चहिय सोइ तेइ माना ॥

बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी=काज जो सोइ ।
जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ ॥25॥

(पखाना=नग,पत्थर, सोन=सोना, रूप=चाँदी, तुम्ह ठाऊँ=
तुम्हारे निकट, तुमसे, हीर-फार=हीरे के टुकड़े, फार=फाल,कतरा,
टुकड़ा, हम सम लच्छ=हमारे ऐसे लाखों हैं)

दिन दस रहे तहाँ पहुनाई । पुनि भए बिदा समुद सौं जाई ॥
लछमी पसमावति सौं भेंटी । औ तेहि कहा `मोरि तू बेटी" ॥
दीन्ह समुद्र पान कर बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा ॥
और पाँच नग दीन्ह बिसेखे । सरवन सुना, नैन नहिं देखे ॥
एक तौ अमृत, दूसर हंसू । औ तीसर पंखी कर बंसू ॥
चौथ दीन्ह सावक-सादूरू । पाँचवँ परस, जो कंचन-मूरू ॥
तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए । जल=मानुष अगुवा सँग लाए ॥

भेंट-घाँट कै समदि तब फिरे नाइकै माथ ।
जल-मानुष तबहीं फिरे जब आए जगनाथ ॥26॥

(पहुनाई=मेहमानी, बिसेखे=विशेष प्रकार के, बंसू=वंश,कुल,
सावक-सादूरू=शार्दूल-शावक,सिंह का बच्चा, परस=पारस
पत्थर, कंचन-मूरू=सोने का मूल,सोना उत्पन्न करने वाला,
जल-मानुष=समुद्र के मनुष्य, अगुवा=पथ-प्रदर्शक संग
लाए=संग में लगा दिए, भेंट-घाट=भेंट-मिलाप, समदि=
बिदा करके)

जगन्नाथ कहँ देखा आई । भोजन रींधा भात बिकाई ॥
राजै पदमावति सौं कहा । साँठि नाठि, किछु गाँठि न रहा ॥
साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला । निसँठ जो पुरुष पात जिमि डोला ॥
साँठहि रंक चलै झौंराई । निसँठराव सब कह बौराई ॥
साँठिहि आव गरब तन फूला । निसँठहि बोल, बुद्धि बल भूला ॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई । निसँठहि काह होइ औंघाई ॥
साँठिहि दिस्टि, जोति होइ नैना । निसँठ होइ, मुख आव न बैना ॥

साँठिहि रहै साधि तन, निसँठहि आगरि भूख ।
बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि ठाढ़ ठाढ़ पै सूख ॥ 27॥

(रींधा=पका हुआ, साँठि=पूँजी,धन, नाठि=नष्ट हुई, झौंराई=झूमकर,
कह=कहते हैं, औंघाई=नींद, साधि तन=शरीर को संयत करके,
आगरि=बढ़ी हुई, अधिक, गथ=पूँजी)

पदमावति बोली सुनु राजा । जीउ गए धन कौने काजा?॥
अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी । पुनि कित मिलै लच्छि जौ नाठी ॥
मुकती साँठि गाँठि जो करै । साँकर परे सोइ उपकरै ॥
जेहि तन पंख, जाइ जहँ ताका । पैग पहार होइ जौ थाका ॥
लछमी दीन्ह रहा मोहिं बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा ॥
काढ़ि एक नग बेगि भँजावा । बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा ॥
दरब भरोस करै जिनि कोई । साँभर सोइ गाँठि जो होई ॥

जोरि कटक पुनि राजा घर कहँ कीन्ह पयान ।
दिवसहि भानु अलोप भा, बासुकि इंद्र सकान ॥28॥

(नाठी=नष्ट हुई, मुकती=बहुत सी,अधिक, साँकर परे=संकट
पड़ने पर, उपकरै=उपकार करती है,काम आती है, साँभर=संबल,
राह का खर्च, सकान=डरा)

35. चित्तौर-आगमन-खंड

चितउर आइ नियर भा राजा । बहुरा जीति, इंद्र अस गाजा ॥
बाजन बाजहिं, होइ अँदोरा । आवहिं बहल हस्ति औ घोरा ॥
पदमावति चमडोल बईठी । पुनि गइ उलटि सरग सौं दीठी ॥
यह मन ऐंठा रहै न सूझा । बिपति न सँवरे संपति-अरुझा ॥
सहस बरिस दुख सहै जो कोई । घरी एक सुख बिसरै सोई ॥
जोगी इहै जानि मन मारा । तौंहुँ न यह मन मरै अपारा ॥
रहा न बाँधा बाँधा जेही । तेलिया मारि डार पुनि तेही ॥

मुहमद यह मन अमर है, केहुँ न मारा जाइ ॥
ज्ञान मिलै जौ एहि घटै, घटतै घटत बिलाइ ॥1॥

(अँदोरा=अंदोर,हलचल,शोर (आंदोल), चंडोल=पालकी, सरग
सौं=ईश्वर से, तेलिया=सींगिया विष, तेलिया....तेही=चाहे उसे
तेलिया विष से न मारे, केहुँ=किसी प्रकार)

नागमती कहँ अगम जनावा । गई तपनि बरषा जनु आवा ॥
रही जो मुइ नागिनि जसि तुचा । जिउ पाएँ तन कै भइ सुचा ॥
सब दुख जस केंचुरि गा छूटी । होइ निसरी जनु बीरबहूटी ॥
जसि भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई । परहिं बूँद औ सोंधि बसाई ॥
ओहि भाँति पलुही सुख-बारी । उठी करिल नइ कोंप सँवारी ॥
हुलसि गंग जिमि बाढ़िहि लेई । जोबन लाग हिलोरैं देई ॥
काम, धनुक सर लेइ भइ ठाढ़ी । भागेउ बिरह रहा जो डाढ़ी ॥

पूछहिं सखी सहेलरी, हिरदय देखि अनंद ।
आजु बदन तोर निरमल, अहैं उवा जस चंद ॥2॥

(तुच=त्वचा,केंचली, सुचा=सूचना,सुध,खबर, सोंधि बसाई=
सुगंध से बस जाती है या सोंधी महकती है, करिल=कल्ला,
कोंप=कोंपल)

अब लगि रहा पवन, सखि ताता । आजु लाग मोहिं सीअर गाता ॥
महि हुलसै जस पावस-छाहाँ । तस उपना हुलास मन माहाँ ॥
दसवँ दावँ कै गा जो दसहरा । पलटा सोइ नाव लेइ महरा ॥
अब जोबन गंगा होइ बाढ़ा । औटन कठिन मारि सब काढ़ा ॥
हरियर सब देखौं संसारा । नए चार जनु भा अवतारा ॥
भागेउ बिरह करत जो दाहू । भा मुख चंद, छूटि गा राहू ॥
पलुहे नैन, बाँह हुलसाहीं । कोउ हितु आवै जाहि मिलाहीं ॥

कहतहि बात सखिन्ह सौं, ततखन आबा भाँट ।
राजा आइ निअर भा, मंदिर बिछावहु पाट ॥3॥

(ताता=गरम, दसवँ दावँ=दशम दशा,मरण, महरा=सरदार,
औटन=ताप, नए चार=नए सिर से )

सुनि तेहि खन राजा कर नाऊँ । भा हुलास सब ठाँवहिं ठाऊँ ॥
पलटा जनु बरषा-ऋतु राजा । जस असाढ़ आवै दर साजा ॥
देखि सो छत्र भई जग छाहाँ । हस्ति-मेघ ओनए जग माहाँ ॥
सेन पूरि आई घन घोरा । रहस-चाव बरसै चहुँ ओरा ॥
धरति सरग अव होइ मेरावा । भरीं सरित औ ताल तलावा ॥
उठी लहकि महि सुनतहि नामा । ठावहिं ठावँ दूब अस जामा ॥
दादुर मोर कोकिला बोले । हुत जो अलोप जीभ सब खोले ॥

होइ असवार जो प्रथमै मिलै चले सब भाइ ।
नदी अठारह गंडा मिलीं समुद कह जाइ ॥4॥

(दर=दल, रहस-चाव=आनंद-उत्साह, लहकि उठी=लहलहा
उठी, हुत=थे, अठारह गंडा नदी=अवध में जन साधारण के
बीच यह प्रसिद्ध है कि समुद्र में अठारह गंडे (अर्थात् 72)

नदियाँ मिलती हैं)

बाजत गाजत राजा आवा ।नगर चहूँ दिसि बाज बधावा ॥
बिहँसि आइ माता सौं मिला । राम जाइ भेंटी कौसिला ॥
साजै मंदिर बंदनवारा । होइ लाग बहु मंगलचारा ॥
पदमावति कर आव बेवानू । नागमती जिउ महँ भा आनू ॥
जनहुँ छाँह महँ धूप देखाई । तैसइ झार लागि जौ आई ॥
सही न जाइ सवति कै झारा । दुसरे मंदिर दीन्ह उतारा ॥
भई उहाँ चहुँ खंड बखानी । रतनसेन पदमावति आनी ॥

पुहुप गंध संसार महँ, रूप बखानि न जाइ ।
हेम सेत जनु उघरि गा, जगत पात फहराइ ॥5॥

(बेवान=विमान, जिउ महँ भा आनू=जी में कुछ और भाव
हुआ, झार=लपट,ईर्ष्या,डाह, जौ=अब,उतारा, हेम सेत=सफेद
पाला या बर्फ)

बैठ सिंघासन, लोग जोहारा । निधनी निरगुन दरब बोहारा ॥
अगनित दान निछावरि कीन्हा । मँगतन्ह दान बहुत कै दीन्हा ॥
लेइ के हस्ति महाउत मिले । तुलसी लेइ उपरोहित चले ॥
बेटा भाइ कुँवर जत आवहिं । हँसि हँसि राजा कंठ लगावहिं ॥
नेगी गए, मिले अरकाना । पँवरहिं बाजै घहरि निसाना ॥
मिले कुँवर, कापर पहिराए । देइ दरब तिन्ह घरहिं पठाए ॥
सब कै दसा फिरी पुनि दुनी । दान-डाँग सबही जग सुनी ॥

बाजैं पाँच सबद निति, सिद्धि बखानहिं भाँट ।
छतिस कूरि, षट दरसन, आइ जुरे ओहि पाट ॥6॥

(बहुत कै=बहुत सा, जत=जिससे, अरकाना=अरकाने दौलत,
सरदार उमरा, दुनी=दुनिया में, डाँग=डंका, पाँच सबद=पंच
शब्द, पाँच बाजे-तंत्री,ताल,झाँझ,नगाड़ा और तुरही, छतिस
कूरि=छत्तीसों कुल के क्षत्रिय, षट दरसन=(लक्षण से) छः
शास्त्रों के वक्ता)

सब दिन राजा दान दिआवा । भइ निसि, नागमती पहँ आवा ॥
नागमती मुख फेरि बईठी । सौंह न करै पुरुष सौं दीठी ॥
ग्रीषम जरत छाँडि जो जाइ । सो मुख कौन देखावै आई?॥
जबहिं जरै परबत बन लागै । उठी झार, पंखी उड़ि भागे ॥
जब साखा देकै औ छाहाँ । को नहिं रहसि पसारै बाहाँ ॥
को नहिं हरषि बैठ तेहि डारा । को नहिं करै केलि कुरिहारा?॥
तू जोगी होइगा बैरागी । हौं जरि छार भएउँ तोहि लागी ॥

काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ ओर सौं नह ।
तुम्ह मुख चमकै बीजुरी, मोहिं मुख बरिसै मेह ॥7॥

(दिआवा=दिलाया, कुरिहारा=कलरव,कोलाहल)

नागमति तू पहिलि बियाही । कठिन प्रीति दाहै जस दाही ॥
बहुतै दिनन आव जो पीऊ । धनि न मिलै धनि पाहन जीऊ ॥
पाहन लोह पोढ़ जग दोऊ । तेऊ मिलहिं जौ होइ; बिछोऊ ।
भलेहि सेत गंगाजल दीठा । जमुन जो साम, नीर अति मीठा ॥
काह भएउ तन दिन दस दहा । जौ बरषा सिर ऊपर अहा ॥
कोइ केहु पास आस कै हेरा । धनि ओहि दरस-निरास न फेरा ॥
कंठ लाइ कै नारि मनाई । जरी जो बेलि सींचि पलुहाई ॥

सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर ॥
जौ भा मेर भएउ रँग राता । नागमती हँसि पूछी बाता ॥8॥

(पोढ़=दृढ़,मजबूत,कड़े, फरे सहस...भीर=अर्थात् नागमती में
फिर यौवन-श्री और रस आ गया और राजा के अंग अंग
उससे मिले)

कहहु, कंत! ओहि देस लोभाने । कस धनि मिली, भोग कस माने ॥
जौ पदमावति सुठि होइ लोनी । मोरे रूप की सरवरि होनी?॥
जहाँ राधिका गोपिन्ह माहाँ । चंद्रावलि सरि पूज न छाहाँ ॥
भँवर-पुरुष अस रहै न राखा । तजै दाख, महुआ-सर चाखा ॥
तजि नागेसर फूल सोहावा कँवल बिसैंधहिं सौं मन लावा ॥
जौ अन्हवाइ भरै अरगजा । तौंहुँ बिसायँध वह नहिं तजा ॥

काह कहौं हौं तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव ।
इहाँ भात मुख मोसौं, उहाँ जीउ ओहि ठाँव ॥9॥

(मेर=मेल,मिलाप, लोनी=सुंदर, नागसेर=नागमती, कँवल=
पद्मावती, बिसैंधा=बिसायँध गंधवाला,मछली की सी गंधवाला,
भाव=प्रेम भाव)

कहि दुख कथा जौ रैनि बिहानी । भएउ भोर जहँ पदमिनि रानी ॥
भानु देख ससि-बदन मलीना । कँवल-नैन राते, तनु खीना ॥
रेनि नखत गनि कीन्ह बिहानू । बिकल भई देखा जब भानू ॥
सूर हँसै, ससि रोइ डफारा । टूट आँसु जनु नखतन्ह मारा ॥
रहै न राखी होइ निसाँसी । तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी ॥
हौं कै नेह कुआँ महँ मेली । सींचै लागि झुरानी बेली ॥
नैन रहे होइ रहँट क घरी । भरी ते ढारी, छूँछी भरी ॥

सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोइ ।
कंबल न प्रीतम परिहरै, सूखि पंक बरू होइ ॥10॥

(देख=देखा, भानू=सूर्य,रत्नसेन, डफारा=ढाढ मारती है,
मारा=माला, कुआँ महँ मेली=मुझे तो कुएँ में डाल दिया,
किनारे कर दिया, झुरान=सूखी, घरी=घड़ा, सुभर=भरा हुआ)

पदमावति तुइँ जीउ पराना । जिउ तें जगत पियार न आना ॥
तुइ जिमि कँवल बसी हिय माहाँ । हौं होइ अलि बेधा तोहि पाहाँ ॥
मालति-कली भँवर जौ पावा । सो तजि आन फूल कित भावा? ॥
मैं हौं सिंघल कै पदमिनी । सरि न पूज जंबू-नगिनी ॥
हौं सुगंध निरमल उजियारी । वह बिष-भरी डेरावनि कारी ॥
मोरी बास भँवर सँग लागहिं । ओहि देखत मानुष डरि भागहिं ॥
हौं पुरुषन्ह कै चितवन दीठी । जेहिके जिउ अस अहौं पईठी ॥

ऊँचे ठाँव जो बैठे , करै न नीचहि संग ।
जहँ सो नागिनि हिरकै करिया करै सो अंग ॥11॥

(बेधा तोहि पाहाँ=तेरे पास उलझ गया हूँ, डेरावनि=डरावनी,
हिरके=सटे, करिया=काला)

पलुही नागमती कै बारी । सोने फूल फूलि फुलवारी ॥
जावत पंखि रहे सब दहे । सबै पंखि बोलत गहगहे ॥
सारिउँ सुवा महरि कोकिला । रहसत आइ पपीहा मिला ॥
हारिल सबद, महोख सोहावा । काग कुराहर करि सुख पावा ॥
भोग बिलास कीन्ह कै फेरा । बिहँसहिं, रहसहिं, करहिं बसेरा ॥
नाचहिं पंडूक मोर परेवा । बिफल न जाइ काहुकै सेवा ॥
होइ उजियार सूर जस तपै । खूसट मुख न देखावै छपै ॥

संग सहेली नागमति, आपनि बारी माहँ ।
फूल चुनहिं, फल तूरहिं, रहसि कूदि सुख-छाँह ॥12॥

(पलुही=पल्लवित हुई,पनपी, गहहे=आनन्द-पूर्वक,
कुराहर=कोलाहल, जस=जैसे ही, खूसट=उल्लू,
तूरहि=तोड़ती हैं)

36. नागमती-पद्मावती-विवाद-खंड

जाही जूही तेहि फुलवारी । देखि रहस रहि सकी न बारी ॥
दूतिन्ह बात न हिये समानी । पदमावति पहँ कहा सो आनी ॥
नागमती है आपनि बारी । भँवर मिला रस करै धमारी ॥
सखी साथ सब रहसहिं कूदहिं । औ सिंगार-हार सब गूँथहिं ॥
तुम जो बकावरि तुम्ह सौं भर ना । बकुचन गहै चहै जो करना ॥
नागमती नागेसरि नारी । कँवल न आछे आपनि बारी ॥
जस सेवतीं गुलाल चमेली । तैसि एक जनु वहू अकेली ॥

अलि जो सुदरसन कूजा , कित सदबरगै जोग?
मिला भँवर नागेसरिहि , दीन्ह ओहि सुख-भोग ॥1॥

(धमारी करै=होली की सी धमार या क्रीड़ा करता है,
तुम जो बकावरि ...भर ना=तुम जो बकावली फूल हो
क्या तुमसे राजा का जी नहीं भरता? बकुचन गहे...
करना=जो वह करना फूल को पकड़ना या आलिंगन
करना चाहता है, नागेसरि=नागकेसर, कँवल न....
आपनि बारी=कँवल (पद्मावती) अपनी बारी या घर
में नहीं है अर्थात् घर नागमती का जान पड़ता है,
जस सेवतीं..चमेली=जैसे सेवती और गुलाला आदि
(स्त्रियाँ) नागमती की सेवा करती हैं वैसे ही एक
पद्मिनी भी है, अलि जो ....सदबरगै जोग=जो भँवरा
सुदरसन फूल पर गूँजेगा वह सदबर्ग (गेंदा) के
योग्य कैसे रह जायगा?)

सुनि पदमावति रिस न सँभारी । सखिन्ह साथ आई फुलवारी ॥
दुवौ सवति मिलि पाट बईठी । हिय विरोध, मुख बातैं मीठी ॥
बारी दिस्टि सुरंग सो आई । पदमावति हँसि बात चलाई ॥
बारी सुफल अहैं तुम रानी । है लाई, पै लाइ न जानी ॥
नागेसर औ मालति जहाँ । सँगतराव नहिं चाही तहाँ ॥
रहा जो मधुकर कँवल-पिरीता । लाइउ आनि करीलहि रीता ॥
जह अमिलीं पाकै हिय माहाँ । तहँ न भाव नौरँग कै छाहाँ ॥

फूल फूल जस फर जहाँ , देखहु हिये बिचारि ।
आँब लाग जेहि बारी जाँबु काह तेहि बारि? ॥2॥

(संगतराव=सँगतरा नीबू;संगत राव,राजा का साथ,
अमिलीं=इमली;न मिली हुई;विरहिणी, नौरँग=नारंगी;
नए आमोद-प्रमोद )

अनु, तुम कही नीक यह सोभा । पै फल सोइ भँवर जेहि लोभा ॥
साम जाँबु कस्तूरी चोवा । आँब ऊँच, हिरदय तेहि रोवाँ ॥
तेहि गुन अस भइ जाँबु पियारी । लाई आनि माँझ कै बारी ॥
जल बाढ़े बहि इहाँ जो आई । है पाकी अमिली जेहि ठाईं ॥
तुँ कस पराई बारी दूखी । तजा पानि, धाई मुँह-सूखी ॥
उठै आगि दुइ डार अभेरा । कौन साथ तहँ बैरी केरा ॥
जो देखी नागेसर बारी । लगे मरै सब सूआ सारी ॥

जो सरवर-जल बाढ़ै रहै सो अपने ठाँव ।
तजि कै सर औ कुंडहि जाइ न पर-अंबराव ॥3॥

(अनु=और, तजा पाकि=सरोवर का जल छोड़ा, अभेरा=भिड़ंत,
रगड़ा, सारी=सारिका,मैना, सरवर-जल=सरोवर के जल में,
बाढ़ै=बढ़ता है?)

तुइँ अँबराव लीन्हा का जूरी?। काहे भई नीम विष-मूरी ॥
भई बैरि कित कुटिल कटेली । तेंदू टेंटी चाहि कसेली ॥
दारिउँ दाख न तोरि फुलवारी । देखि मरहिं का सूआ सारी?॥
औ न सदाफर तुरँज जँभीरा । लागे कटहर बडहर खीरा ॥
कँवल के हिरदय भीतर केसर । तेहि न सरि पूजै नागेसर ॥
जहँ कटहर ऊमर को पूछै?। बर पीपर का बोलहिं छूँछै ॥
जो फल देखा सोई फीका । गरब न करहिं जानि मन नीका ॥

रहु आपनि तू बारी, मोसौं जूझु, न बाजु ।
मालति उपम न पूजै वन कर खूझा खाजु ॥4॥

(तुइँ अँबराव...जूरी=तूने अपने अमराव में इकट्ठा ही क्या
किया है? ऊमर=गूलर, न बाजु=न लड़, खूझा खाजु=खर
पतवार, नीरस फल)

जो कटहर बडहर झड़बेरी । तोहि असि नाहीं, कोकाबेरी! ॥
साम जाँबु मोर तुरँज जँभीरा । करुई नीम तौ छाँह गँभीरा ॥
नरियर दाख ओहि कहँ राखौं । गलगल जाउँ सवति नहिं भाखौं ॥
तोरे कहे होइ मोरर काहा?। फरे बिरिछ कोइ ढेल न बाहा ॥
नवैं सदाफर सदा जो फरई । दारिउँ देखि फाटि हिय मरई ॥
जयफर लौंग सोपारि छोहारा । मिरिच होइ जो सहै न झारा ॥
हौं सो पान रंग पूज न कोई । बिरह जो जरै चून जरि होई ॥

लाजहिं बूड़ि मरसि नहिं,, उभि उठावसि बाँह ।
हौं रानी, पिय राजा; तो कहँ जोगी नाह ॥5॥

(झड़बेरी=झड़बेर,जंगली बेर, कोकाबेरी=कमलिनी, गल गल
जाउ=चाहे गल जाऊँ;गलगल नीबू, सवति नहिं भाखौं=
सपत्नी का नाम न लूँ, कोइ ढेल न बाहा=कोई ढेला
न फेंके (उससे क्या होता है) ऊभी=उठाकर)

हौं पदमिनि मानसर केवा । भँवर मराल करहिं मोरि सेवा ॥
पूजा-जोग दई हम्म गढ़ी । और महेस के माथे चढ़ी ॥
जानै जगत कँवल कै करी । तोहि अस नहिं नागिनि बिष-भरी ॥
तुइँ सब लिए जगत के नागा । कोइल भेस न छाँडेसि कागा ॥
तू भुजइल, हौं हँसिनि भोरी । मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी ॥
कंचन-करी रतन नग बाना । जहाँ पदारथ सोह न आना ॥
तू तौ राहु, हौं ससि उजियारी । दिनहि न पूजै निसि अँधियारी ॥

ठाढ़ि होसि जेहि ठाईं मसि लागै तेहि ठाव ।
तेहि डर राँध न बैठौं मकु साँवरि होइ जाव ॥6॥

(केवा=कमल, कागा=कौवापन, भुजइल=भुजंगा पक्षी, पोत=काँच
या पत्थर की गुरिया, मसि=स्याही, राँध=पास,समीप)

कँवल सो कौन सोपारी रोठा । जेहि के हिये सहस दस कोठा ॥
रहै न झाँपै आपन गटा । सो कित उघेलि चहै परगटा ॥
कँवल-पत्र तर दारिउँ, चोली । देखे सूर देसि है खोली ॥
ऊपर राता, भीतर पियरा । जारौं ओहि हरदि अस हियरा ॥
इहाँ भँवर मुख बातन्ह लावसि । उहाँ सुरुज कह हँसि बहरावसि ॥
सब निसि तपि तपि मरसि पियासी । भोर भए पावसि पिय बासी ॥
सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी । तू मोसौं का सरवरि करसी?॥

सुरुज-किरन बहरावै, सरवर लहरि न पूज ।
भँवर हिया तोर पावै, धूप देह तोरि भूँज ॥7॥

(रोठा=रोड़ा,टुकड़ा, जेहि के हिये..कोठा=कँवल गट्टे के भीतर
बहुत से बीज कोष होते हैं, गटा=कँवलगट्टा, उघेलि=खोलकर,
दारिउँ=अनार के समान कँवलगट्टा जो तेरा स्तन है, निसि
भरसी=रात बिताती है तू, करसी=तू करती है, सरवर...पूज=
ताल की लहर उसके पास तक नहीं पहुँचती;वह जल के
ऊपर उठा रहता है, भूँज=भूनती है)

मैं हौं कँवल सुरुज कै जोरी । जौ पिय आपन तौ का चोरी?॥
हौं ओहि आपन दरपन लेखौं । करौं सिंगार, भोर मुख देखौं ॥
मोर बिगास ओहिक परगासू । तू जरि मरसि निहारि अकासू ॥
हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता । तिमिर बिलाइ होत परभाता ॥
कँवल के हिरदय महँ जो गटा । हरि हर हार कीन्ह, का घटा?॥
जाकर दिवस तेहि पहँ आवा । कारि रैनि कित देखै पावा?॥
तू ऊमर जेहि भीतर माखी । चाहहिं उड़ै मरन के पाँखी ॥

धूप न देखहि, बिषभरी! अमृत सो सर पाव ।
जेहि नागनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव ॥8॥

(हरि हर हार कीन्ह=कमल की माला विष्णु और शिव
पहनते हैं, मरन के पाँखी=कीड़ों को जो पंख अंत समय
में निकलते हैं)

फूल न कँवल भानु बिनु ऊए । पानी मैल होइ जरि छूए ॥
फिरहिं भँवर तारे नयनाहाँ । नीर बिसाइँध होइ तोहि पाहाँ ॥
मच्छ कच्छ दादुर कर बासा । बग अस पंखि बसहिं तोहि पासा ॥
जे जे पंखि पास तोहि गए । पानी महँ सो बिसाइँध भए ॥
जौ उजियार चाँद होइ ऊआ । बदन कलंक डोम लेइ छूआ ॥
मोहि तोहि निसि दिन कर बीचू । राहु के साथ चाँद कै मीचू ॥
सहस बार जौ धोवै कोई । तौहु बिसाइँध जाइ न धोई ॥

काह कहौं ओहि पिय कहँ, मोहि सिर धरेसि अँगारि ।
तेहि के खेल भरोसे तुइ जीती, मैं हारि ॥9॥

(जरि=जड़,मून, डोम छूआ=प्रवाद है कि चंद्रमा डोमों के
ऋणी हैं वे जब घेरते हैं तब ग्रहण होता है)

तोर अकेल का जीतिउँ हारू । मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू ॥
बदन जितिउँ सो ससि उजियारी । बेनी जितिउँ भुअंगिनि कारी ॥
नैनन्ह जितिउँ मिरिग के नैना । कंठ जितिउँ कोकिल के बैना ॥
भौंह जितिउँ अरजुन धनुधारी । गीउ जितिउँ तमचूर पुछारी ॥
नासिक जितिउँ पुहुप तिल, सूआ । सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ ॥
दामिनि जितिउँ दसन दमकाहीं । अधर-रंग जीतिउँ बिंबाहीं ॥
केहरि जितिउँ, लंक मैं लीन्हीं । जितिउँ मराल, चाल वे दीन्ही ॥

पुहुप-बास मलयगिरि निरमल अंग बसाई ।
तू नागिनि आसा-लुबुध डससि काहु कहँ जाइ ॥10॥

(आसालुबुध=सुगंध की आशा से साँप चंदन में लिपटे रहते हैं)

का तोहिं गरब सिंगार पराए । अबहीं लैहिं लूट सब ठाएँ ॥
हौं साँवरि सलोन मोर नैना । सेत चीर, मुख चातक-बैना ॥
नासिक खरग, फूल धुव तारा । भौंहैं धनुक गगन गा हारा ॥
हीरा दसन सेत औ सामा । चपै बीजु जौ बिहँसै बामा ॥
बिद्रूम अधर रंग रस-राते । जूड़ अमिय अस, रबि नहिं ताते ॥
चाल गयंद गरब अति भारी । बसा लंक, नागेसर= करी ॥
साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी । का सरवरि तू करसि जो फीकी ॥

पुहुप-बास औ पवन अधारी कँवल मोर तरहेल ।
चहौं केस धरि नावौं, तोर मरन मोर खेल ॥11॥

(सिंगार पराए=दूसरों से लिया सिंगार जैसा कि ऊपर कहा है,
जूड़ अमिय ...ताते=उन अधरों में बालसूर्य की ललाई है पर वे
अमृत के समान शीतल हैं;गरम नहीं, नागेसर-करी=नागेसर फूल
की कली, तरहेल=नीचे पड़ा हुआ,अधीन)

पदमावति सुनि उतर न सही । नागमती नागिनि जिमि गही ॥
वह ओहि कहँ,वह ओहि कहँ गहा । काह कहौं तस जाइ न कहा ॥
दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं । अछरी जनहुँ अखारे बाजैं ॥
भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा । हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा ॥
कुच सों कुच भइ सौंहैं अनी । नवहिं न नाए, टूटहिं तनी ॥
कुंभस्थल जिमि गज मैमंता । दूवौ आइ भिरे चौदंता ॥
देवलोक देखत हुत ठाढ़े । लगे बान हिय, जाहिं न काढ़े ॥

जनहुँ दीन्ह ठगलाडू देखि आइ तस मीचु ।
रहा न कोइ धरहरिया करै दुहुन्ह महँ बीचु ॥12॥

(बाजैं=लड़ती हैं, बाग न मोरा=बाग नहीं मोड़ती,लड़ाई से
हटती नहीं, अनी=नोक, तनी=चोली के बंद, चौदंता=स्याम
देश का एक प्रकार का हाथी;थोड़ी अवस्था का उद्दंड पशु
(बैल, घोड़े आदि के लिये इस शब्द का प्रयोग होता है ),
ठगलाडू=ठगों के लड्डू जिन्हें खिलाकर वे मुसाफिरों को
बेहोश करते हैं, धरहरिया=झगड़ा छुड़ानेवाला, बीचु करै=
दोनों को अलग करे,झगड़ा मिटाए)

पवन स्रवन राजा के लागा । कहेसि लड़हिं पदमिनि औ नागा ॥
दूनौ सवति साम औ गोरी । मरहिं तौ कहँ पावसि असि जोरी ॥
चलि राजा आवा तेहि बारी । जरत बुझाई दूनौ नारी ॥
एक बार जेइ पिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा?॥
अस गियान मन आव न कोई । कबहुँ राति, कबहुँ दिन होई ॥
धूप छाँह दोउ पिय के रंगा । दूनौ मिली रहहिं एक संगा ॥
जूझ छाँड़ि अब बूझहु दोऊ । सेवा करहु सेव-फल होऊ ॥

गंग जमुन तुम नारि दोउ, लिखा मुहम्मद जोग ।
सेव करहु मिलि दूनौ तौ मानहु सुख भौग ॥13॥

अस कहि दूनौ नारि मनाई । बिहँसि दोउ तब कंठ लगाई ॥
लेइ दोउ संग मँदिर महँ आए । सोन-पलँग जहँ रहे बिछाए ॥
सीझी पाँच अमृत-जेवनारा । औ भोजन छप्पन परकारा ॥
हुलसीं सरस खजहजा खाई । भोग करत बिहँसी रहसाई ॥
सोन-मँदिर नगमति कहँ दीन्हा । रूप-मँदिर पदमावति लीन्हा ॥
मंदिर रतन रतन के खंभा । बैठा राज जोहारै सभा ॥
सभा सो सबै सुभर मन कहा । सोई अस जो गुरु भल कहा ॥

बहु सुगंध, बहु भौग सुख, कुरलहिं केलि कराहिं ।
दुहुँ सौं केलि नित मानै, रहस अनँद दिन जाहिं ॥14॥

  • पद्मावत भाग (5) मलिक मुहम्मद जायसी
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