परिचय का अंग : संत दादू दयाल जी

Parichay Ka Ang : Sant Dadu Dayal Ji

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
दादू निरंतर पिव पाइया, तहाँ पंखी उनमनि जाय।
सप्तौ मंडल भेदिया, अष्टैं रह्या समाय।।2।।
दादू निरन्तर पिव पाइया, जहाँ निगम न पहुँचे वेद।
तेज स्वरूपी पिव बसे, कोई विरला जाने भेद।।3।।
दादू निरन्तर पिव पाइया, तीन लोक भरपूर।
सबो सेजों सांई बसे, लोक बतावें दूर।।4।।
दादू निरन्तर पिव पाइया, जहँ आनन्द बारह मास।
हंस सौ परम हंस खेले, तहँ सेवक स्वामी पास।।5।।
दादू रँग भरि खेलौं पीव सौं, तहँ बाजे बेणु रसाल।
अकल पाट पर बैठा स्वामी, प्रेम पिलावे लाल।।6।।
दादू रँग भरि खेलौं पीव सौं, सेती दीन दयाल।
निश वासर नहिं तहँ बसे, मानसरोवर पाल।।7।।
दादू रँग भरि खेलौं पीव सौं, तहँ कबहुँ न होय वियोग।
आदि पुरुष अंतरि मिल्या, कुछ पूरबले संयोग।।8।।
दादू रँग भरि खेलौं पीव सौं, तहँ बारह मास बसंत।
सेवक सदा अनंद है, जुग-जुग देखूँ कंत।।9।।
दादू काया अंतरि पाइया, त्रिाकुटी केरे तीर।
सहजैं आप लखाइया, व्याप्या सकल सरीर।।10।।

दादू काया अंतरि पाइया, निरन्तर निरधार।
सहजैं आप लखाइया, ऐसा समर्थ सार।।11।।
दादू काया अंतरि पाइया, अनहद वेणु बजाय।
सहजैं आप लखाइया, शून्य मंडल में जाय।।12।।
दादू काया अंतरि पाइया, सब देवन का देव।
सहजै आप लखाइया, ऐसा अलख अभेव।।13।।
दादू भँवर कमल रस बेधिया, सुख सरवर रस पीव।
तहँ हंसा मोती चुणैं, पिव देखे सुख जीव।।14।।
दादू भँवर कमल रस बेधिया, गहे चरण कर हेत।
पिवजी परसत ही भया, रोम-रोम सब श्वेत।।15।।
दादू भँवर कमल रस बेधिया, अनत न भरमे जाय।
तहाँ वास विलम्बिया, मगन भया रस खाय।।16।।
दादू भँवर कमल रस बेधिया, गही जु पिव की ओट।
तहाँ दिल भँवरा रहै, कौन करे शिर चोट।।17।।
दादू खोजि तहाँ पिव पाइये, शब्द ऊपने पास।
तहाँ एक एकान्त है, तहाँ ज्योति प्रकास।।18।।
दादू खोजि तहाँ पिव पाइये, जहाँ चंद न ऊगे सूर।
निरन्तर निर्धार है, तेज रह्या भरपूर।।19।।
दादू खोजि तहाँ पिव पाइये, जहँ बिन जिह्ना गुण गाय।
तहँ आदि पुरुष अलेख है, सहजै रह्या समाय।।20।।

दादू खोजि तहाँ पिव पाइये, जहाँ अजरा अमर उमंग।
जरा मरण भय भाजसी, राख अपणे संग।।21।।
दादू गाफिल छो वतैं, मंझे रब्ब निहार।
मंझेई पिव पाण जो, मंझेई सु विचार।।22।।
दादू गाफिल छो वतैं, आहे मंझि अल्लाह।
पिरी पाण जो पाण सैं, लहै सभोई साव।।23।।
दादू गाफिल छो वतैं, आहे मंझि मुकाम।
दरगह में दीवान तत, पसे न बैठो पाण।।24।।
दादू गाफिल छो वतैं, अन्दर पीरी पसु।
तखत रबाणी बीच में, पेरे तिन्ही वसु।।25।।
हरि चिन्तामणि चिन्ततां, चिन्ता चित की जाइ।
चिन्तामणि चित में मिल्या, तहँ दादू रह्या लुभाइ।।26।।
अपनै नैनहुं आप को, जब आतम देखे।
तहाँ दादू परमातमा, ताही को पेखे।।27।।
दादू बिन रसना जहाँ बोलिए, तहँ अंतरयामी आप।
बिन श्रवणहुं सांई सुणे, जे कुछ कीजे जाप।।28।।
ज्ञान लहर जहाँ तैं उठे, वाणी का परकास।
अनुभव जहाँ तैं ऊपजे, शब्दौं किया निवास।।29।।
सो घर सदा विचार का, तहाँ निरंजन वास।
तहँ तूं दादू खोज ले, ब्रह्म जीव के पास।।30।।

जहँ तन-मन का मूल है, उपजै ओंकार।
अनहद सेझा शब्द का, आतम करे विचार।।31।।
भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार।
तहँ दादू निधि पाइये, निरन्तर निरधार।।32।।
एक ठौर सूझै सदा, निकट निरन्तर ठाम।
तहाँ निरंजन पूरि ले अजरावर तिहिं नाम।।33।।
साधू जन क्रीड़ा करैं, सदा सुखी तिहिं गाँउं।
चलु दादू उस ठौर की, मैं बलिहारी जाँउं।।34।।
दादू पसु पिरंनि के, पेही मंझि कलूब।
बैठो आहे बीच में, पाण जो महबूब।।35।।
नैनहु वाला निरखि कर, दादू घालै हाथ।
तब ही पावै राम-धान, निकट निरंजन नाथ।।36।।
नैनहु बिन सूझे नहीं, भूला कत हूँ जाय।
दादू धान पावे नहीं, आया मूल गंमाय।।37।।
जहाँ आत्म तहँ राम है, सकल रह्या भरपूर।
अन्तरगति ल्यो लाय रहु, दादू सेवक सूर।।38।।
पहली लोचन दीजिए, पीछे ब्रह्म दिखाइ।
दादू सूझे सार सब, सुख में रहे समाइ।।39।।
ऑंधी के आनंद हुआ, नैनहुँ सूझन लाग।
दर्शन देखे पीव का, दादू मोटे भाग।।40।।

दादू मिहीं महल बारीक है, गाँउं न ठाउं न नाउं।
तासूं मन लागा रहे, मैं बलिहारी जाउं।।41।।
दादू खेल्या चाहे प्रेम रस, आलम अंग लगाय।
दूजे कूं ठाहर नहीं, पुहुप न गंधा समाय।।42।।
नाहीं ह्नै करि नाम ले, कुछ न कहाई रे।
साहिबजी की सेज पर, दादू जाई रे।।43।।
जहाँ राम तहँ मैं नहीं, मैं तहँ नाहीं राम।
दादू महल बारीक है, द्वै को नाहीं ठाम।।44।।
मैं नाहीं तहँ मैं गया, एकै दूसर नाँहि।
नाहीं को ठाहर घणी, दादू निज घर माँहि।।48।।
मैं नाहीं तहँ मैं गया, आगे एक अलाव।
दादू ऐसी बन्दगी, दूजा नाहीं आव।।46।।
दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होइ।
जब यहु आपा मिट गया, तब दूजा नाहीं कोइ।।47।।
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यों था त्यों ही होइ।।48।।
दादू है कूं भै घणा, नाहीं को कुछ नाँहि।
दादू नाहीं होइ रहो, अपणे साहिब माँहि।।49।।
दादू तीन शून्य आकार की, चौथी निर्गुण नाम।
सहज शून्य में रम रह्या, जहाँ तहाँ सब ठाम।।50।।

पाँच तत्तव के पाँच हैं, आठ तत्तव के आठ।
आठ तत्तव का एक है, तहाँ निरंजन हाट।।51।।
जहाँ मन माया ब्रह्म था, गुण इन्द्री आकार।
तहँ मन विरचै सबन तैं, रचि रहु सिरजनहार।।52।।
काया शून्य पंच का बासा, आतम शून्य प्राण प्रकासा।
परम शून्य ब्रह्म सौं मेला, आगे दादू आप अकेला।।53।।
दादू जहाँ तैं सब ऊपजे, चन्द सूर आकाश।
पानी पवन पावक किये, धारती का परकाश।।54।।
काल कर्म जिव ऊपजे, माया मन घट श्वास।
तहाँ रहिता रमिता राम है, सहज शून्य सब पास।।55।।
सहज शून्य सब ठौर है, सब घट सबही माँहि।
तहाँ निरंजन रमि रह्या, कोइ गुण व्यापै नाँहि।।56।।
दादू तिस सरवर के तीर, सो हंसा मोती चुणे।
पीवे नीझर नीर, सो है हंसा सो सुणे।।57।।
दादू तिस सरवर के तीर, जप तप संयम कीजिए।
तहँ सन्मुख सिरजनहार, प्रेम पिलावे पीजिए।।58।।
दादू तिस सरवर के तीर, संगी सबै सुहावणे।
तहाँ बिन कर बाजे बेन, जिह्ना हीणे गावणे।।59।।
दादू तिस सरवर के तीर, चरण कमल चित लाइया।
तहँ आदि निरंजन पीव, भाग हमारे आइया।।60।।

दादू सहज सरोवर आतमा, हंसा करैं कलोल।
सुख सागर सूभर भरया, मुक्ता हल मन मोल।।61।।
दादू हरि सरवर पूरण सबै, जित तित पाणी पीव।
जहाँ तहाँ जल अंचतां, गई तृषा सुख जीव।।62।।
सुख सागर सूभर, भरया, उज्ज्वल निर्मल नीर।
प्यास बिना पीवे नहीं, दादू सागर तीर।।63।।
शून्य सरोवर हंस मन, मोती आप अनंत।
दादू चुगि-चुगि चंच भरि, यों जन जीवें संत।।64।।
शून्य सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
दादू यह रस विलसिये, ऐसा अलख अभेद।।65।।
शून्य सरोवर मन भँवर, तहाँ कमल करतार।
दादू परिमल पीजिए, सन्मुख सिरजनहार।।66।।
शून्य सरोवर सहज का, तहँ मरजीवा मन।
जादू चुणि-चुणि लेयगा, भीतर राम रतन।।67।।
दादू मंझि सरोवर विमल जल, हंसा केलि कराँहि।
मुक्ता हल मुकता चुगैं, तिहिं हंसा डर नाँहि।।68।।
अखंड सरोवर अथग जल, हंसा सरवर नाँहि।
निर्भय पाया आप घर, अब उडि अनत न जाँहि।।69।।
दादू दरिया प्रेम का, तामें झूलैं दोइ।
इक आतम पर आत्मा, एकमेक रस होइ।।70।।

दादू हिण दरियाव, माणिक मंझेई।
टुबी डेई पाण में, डिठो हंझेई।।71।।
पर आतम सूं आतमा, ज्यूँ हंस सरोवर माँहि।
हिलमिल खेलैं पीव सूं, दादू दूसर नाँहि।।72।।
दादू सरवर सहज का, तामें प्रेम तरंग।
तहँ मन झूले आत्मा, अपणे, सांई संग।।73।।
दादू देखूँ निज पीव को, दूसर देखूँ नाँहि।
सबै दिसा सौं सोधा कर, पाया घट ही माँहि।।74।।
दादू देखूँ निज पीव को, और न देखूँ कोइ।
पूरा देखूँ पीव को, बाहर भीतर सोइ।।75।।
दादू देखूँ निज पीव को, देखत ही दुख जाय।
हूँ तो देखूँ पीव को, सब में रह्या समाय।।76।।
दादू देखौं निज पीव को, सोई देखन जोग।
परगट देखूँ पीव को, कहाँ बतावें लोग।।77।।
दादू देखूँ दयाल को, सकल रह्या भरपूर।
रोम-रोम में रमि रह्या, तूं जनि जाने दूर।।78।।
दादू देखूँ दयाल को, बाहर भीतर सोइ।
सब दिशि देखूँ पीव को, दूसर नाँहीं कोइ।।71।।
दादू देखूँ दयाल को, सन्मुख सांई सार।
जीधार देखूँ नैन भरि, तीधार सिरजनहार।।80।।

दादू देखूँ दयाल को, रोक रह्या सब ठौर।
घट-घट मेरा सांईयां, तूं जिनि जाणै और।।81।।
तन-मन नाहीं मैं नहीं, नहिं माया नहिं जीव।
दादू एकै देखिए, दह दिशि मेरा पीव।।82।।
दादू पाणी मांहैं पैसिकर, देखे दृष्टि उघार।
जलाबिम्ब सब भर रह्या, ऐसा ब्रह्म विचार।।83।।
सदा लीन आनन्द में, सहज रूप सब ठौर।
दादू देखे एक को, दूजा, नाँही और।।84।।
दादू जहँ-तहँ साथी संग हैं, मेरे सदा आनन्द।
नैन बैंन हिरदै रहैं, पूरण परमानन्द।।85।।
जागत जगपति देखिए, पूरण परमानन्द।
सोवत भी सांई मिले, दादू अति आनन्द।।86।।
दादू दह दिशि दीपक तेज के, बिन बाती बिनतेल।
चहुँ दिशि सूरज देखिए, दादू अद्भुत खेल।।87।।
सूरज कोटि प्रकाश है, रोम-रोम की लार।
दादू ज्योति जगदीश की, अन्त न आवे पार।।88।।
ज्यों रवि एक आकाश है, ऐसे सकल भरपूर।
दादू तेज अनन्त है, अल्लह आली नूर।।89।।
सूरज नहीं तहँ सूरज देखे, चंद नहीं तहँ चंदा।
तारे नहीं तहँ झिलमिल देख्या, दादू अति आनंदा।।90।।

बादल नहीं तहँ वर्षत देख्या, शब्द नहीं गरजंदा।
बीज नहीं तहँ चमकत देख्या, दादू परमानंदा।।91।।
दादू ज्योति चमके झिलमिले, तेज पुंज परकाश।
अमृत झरे रस पीजिए, अमरबेलि आकाश।।92।।
दादू अविनाशी अंग तेज का, ऐसा तत्तव अनूप।
सो हम देख्या नैन भरि, सुन्दर सहज स्वरूप।।93।।
परम तेज प्रकट भया, तहँ मन रह्या समाय।
दादू खेले पीव सौं, नहिं आवे नहिं जाय।।94।।
निराधार निज देखिए, नैनउँ लागा बंद।
तहाँ मन खेले पीव सौं, दादू सदा अनंद।।95।।
ऐसा एक अनूप फल, बीज बाकुला नाँहि।
मीठा निर्मल एक रस, दादू नैनउँ माँहि।।96।।
हीरे-हीरे तेज के, सो निरखे त्रिाय लोइ।
कोइ इक देखे संत जन, और न देखे कोइ ।।97।।
नैन हमारे नूर मा, तहाँ रहे ल्यौ लाय।
दादू उस दीदार कूँ, निशदिन निर्खत जाय।।98।।
नैनउँ आगे देखिए, आतम अंतर सोइ।
तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल झिलमिल होइ।।99।।
अनहद बाजे बाजिये, अमरा पुरी निवास।
ज्योति स्वरूप जगमगे, कोई निर्खे निज दास।।100।।

परम तेज तहँ मन रहै, परम नूर निज देखै।
परम ज्योति तहँ आतम खेलै, दादू जीवन लेखै।।101।।
दादू जरै सु ज्योति स्वरूप है, जरै सु तेज अनंत।
जरै सु झिलमिल नूर है, जरै सु पुंज रहंत।।102।।
दादू अलख अल्लाह का, कहु कैसा है नूर।
दादू बेहद हद नहीं, सकल रह्या भरपूर।।103।।
वार पार नहिं नूर का, दादू तेज अनंत।
कीमत नहिं करतार की, ऐसा है भगवंत।।104।।
निर्संधा नूर अपार है, तेज पुंज सब माँहि।
दादू ज्योति अनंत है, आगो पीछो नाँहि।।105।।
खंड-खंड निज ना भया, इकलस एकै नूर।
ज्यों था त्यों ही तेज है, ज्योति रही भरपूर।।106।।
परम तेज प्रकाश है, परम नूर निवास।
परम ज्योति आनन्द में, हंसा दादू दास।।107।।
नूर सरीखा नूर है, तेज सरीखा तेज।
ज्योति सरीखी ज्योति हे, दादू खेले सेज।।108।।
तेज पुंज की सुन्दरी, तेज पुंज का कंत।
तेज पुंज की सेज परि, दादू बन्या वसंत।।109।।
पुहुप प्रेम वर्षे सदा, हरिजन खेलैं फाग।
ऐसे कौतुक देखिए, दादू मोटे भाग।।110।।

अमृत धारा देखिए, पार ब्रह्म वर्षन्त।
तेज पुंज झिलमिल झरै, को साधू जन पीवन्त।।111।।
रस ही में रस बरषि है, धारा कोटि अनंत।
तहँ मन निश्चल राखिये, दादू सदा वसंत।।112।।
घन बादल बिन बरषि है, नीझर निर्मल धार।
दादू भीजे आतमा, को साधू पीवण हार।।113।।
ऐसा अचरज देखिया, बिन बादल बरषे मेह।
तहँ चित चातक ह्नै रह्या, दादू अधिक सनेह।।114।।
महा रस मीठा पीजिए, अविगत अलख अनंत।
दादू निर्मल देखिए, सहजै सदा झरंत।।115।।
कामधोनु दुहि पीजिए, अकल अनूपम एक।
दादू पीवे प्रेम सौं, निर्मल धार अनेक।।116।।
कामधोनु दुहि पीजिए, ताको लखे न कोइ।
दादू पीवै प्यास सौं, महारस मीठा सोइ।।117।।
कामधोनु दुहि पीजिए, अलख रूप आनन्द।
दादू पीवै हेत सौं, सुषमन लागा बन्द।।118।।
कामधोनु दुहि पीजिए, अगम अगोचर जाय।
दादू पीवै प्रीति सौं, तेज पुंज की गाय।।119।।
कामधोनु करतार है, अमृत सरवै सोइ।
दादू बछरा दूधा कूँ, पीवै तो सुख होइ।।120।।

ऐसी एकै गाइ है, दूझै बारह मास।
सो सदा हमारे संग है, दादू आतम पास।।121।।
तरुवर शाखा मूल बिन, धारती पर नाँहीं।
अविचल अमर अनन्त फल, सो दादू खाहीं।।122।।
तरुवर शाखा मूल बिन, धार अम्बर न्यारा।
अविनाशी आनन्द फल, दादू का प्यारा।।123।।
तरुवर शाखा मूल बिन, रज वीरज रहिता।
अजर अमर अतीत फल, सो दादू गहिता।।124।।
तरुवर शाखा मूल बिन, उत्पति परले नाँहि।
रहिता रमता राम फल, दादू नैनहुँ माँहि।।125।।
प्राण तरुवर सुरति जड़, ब्रह्म भूमि ता माँहि।
रस पीवे फूले-फले, दादू सूखे नाँहि।।126।।
ब्रह्म शून्य तहँ क्या रहे, आतम के अस्थान।
काया अस्थल क्या बसे, सद्गुरु कहैं सुजान।।127।।
काया के अस्थल रहैं, मन राजा पंच प्रधान।
पच्चीस प्रकृति तीन गुण, आपा गर्व गुमान।।128।।
आतम के अस्थान हैं, ज्ञान धयान विस्वास।
सहज शील संतोष सत, भाव भक्ति निधि पास।।129।।
ब्रह्म शून्य तहँ ब्रह्म है, निरंजन निराकार।
नूर तेज तहँ ज्योति है, दादू देखणहार।।130।।

मौजूद खबर माबूद खबर, अरवाह खबर वजूद।
मकाम चे चीज हस्त, दादनी सजूद।।131।।
नफ्स गालिब किब्र काबिज, गुस्स: मनी एस्त।
दुई दरोगा हिर्स हुज्जत, नाम नेकी नेस्त।।132।।
इश्क इबादत बंदगी, यगानगी इखलास।
महर मुहब्बत खैर खूबी, नाम नेकी खास।।133।।
यके नूर खूब खूबां, दीननी हैरान।
अजब चीज खुरदनी, पियालए मस्तान।।134।।
हैवान आलम गुमराह गाफिल, अव्वल शरीयत पंद।
हलाल हराम नेकी बदी, दर्से दानिशमंद।।135।।
कुल फारिक तर्क दुनियां, हर रोज हरदम याद।
अल्लह आली इश्क आशिक, दरूने फरियाद।।136।।
आब आतश अर्श कुर्सी, सूरते सुबहान।
शरर सिफत करद बूद, मारफत मकाम।।137।।
हक हासिल नूर दीदम, करारे मकसूद।
दीदार दरिया अरवाहे, आमद मौजूदे मौजूद।।138।।
चहार मंजिल बयान गुफतम, दस्त करद: बूद।
पीरां मुरीदा खबर करद:, जा राहे माबूद।।139।।
पहली प्राण पशू नर कीजे, साच-झूठ संसार।
नीति-अनीति, भला-बुरा, शुभ-अशुभ निर्धार।।140।।

सब तजि देखि विचारि करि, मेरा नाँहि कोइ।
अनदिन राता राम सौं, भाव भक्ति रत होइ।।141।।
अंबर धारती सूर शशि, सांई सब लै लावै अंग।
यश कीरति करुणा करे, तन-मन लागा रंग।।142।।
परम तेज तहाँ मैं गया, नैनहुँ देख्या आय।
सुख संतोष पाया घणा, ज्योतिहिं ज्योति समाय।।143।।
अर्थ चार अस्थान का, गुरु शिष्य कह्या समझाय।
मारग सिरजनहार का, भाग बड़े सो जाय।।144।।
आशिकां मस्ताने आलम, खुरदनी दीदार।
चंद रह चे कार दादू, यार मां दिलदार।।145।।
दादू दया दयालु की, सो क्यूँ छानी होइ।
प्रेम पुलक मुलकत रहै, सदा सुहागनि सोइ।।146।।
दादू विगसि-विगसि दर्शन करै, पुलकि-पुलकि रस पान।
मगन गलित माता रहै, अरस परम मिल प्रान।।147।।
दादू देखि-देखि सुमिरण करै, देखि-देखि लै लीन।
देखि-देखि तन-मन विलै, देखि-देखि चित दीन।।148।।
दादू निर्खि-निर्खि निज नाम ले, निर्खि-निर्खि रस पीव।
निर्खि-निर्खि पिव को मिलै, निर्खि-सुख जीव।।149।।
तन सौं सुमिरण सब करैं, आतम सुमिरण एक।
आतम आगे एक रस, दादू बड़ा विवेक।।150।।

दादू माटी के मुकाम का, सब को जाणें जाप।
एक आध अरवाह का, विरला आपैं आप।।151।।
जब लग अस्थल देह का, तब लग सब व्यापैं।
निर्भय अस्थल आतमा, आगें रस आपै।।152।।
नाहीं सुरति शरीर की, बिसरे सब संसार।
आत्म न जाणे आपकूं, तब एक रह्या निर्धार।।153।।
तन सौं सुमिरण कीजिए, जब लग तन नीका।
आतम सुमिरण ऊपजे, तब लागे फीका।।154।।
आगें आपैं आप हैं, तहाँ क्या जीव का।
दादू दूजा कहन को, नाँहि लघु टीका।।155।।
चर्म दृष्टि देखैं बहुत, आतम दृष्टी एक।
ब्रह्म दृष्टि परचै भया, तब दादू बैठा देख।।156।।
ये ही नैना देह के, ये ही आतम होइ।
ये ही नैना ब्रह्म के, दादू पलटे दोइ।।157।।
घट परचै सब घट लखै, प्राण परचै प्रान।
ब्रह्म परचै पाइये, दादू है हैरान।।158।।
दादू जल पाषाण ज्यों, सेवे सब संसार।
दादू पाणी लौंण ज्यों, कोई विरला पूजणहार।।159।।
अलख नाम अंतर कहै, सब घट हरि-हरि होइ।
दादू पाणी लौंण ज्यों, नाम कहीजे सोइ।।160।।

छाड़ै सुरति शरीर को, तेज पुंज में आय।
दादू ऐसे मिल रहै, ज्यों जल जलहि समाय।।161।।
सुरति रूप शरीर का, पिव के परसे होइ।
दादू तन-मन एक रस, सुमिरण कहिए सोइ।।162।।
राम कहत रामहि रह्या, आप विसर्जन होइ।
मन पवना पंचों विलै, दादू सुमिरण सोइ।।163।।
जहँ आतम राम सँभालिए, तहँ दूजा नाहीं और।
देही आगे अगम है, दादू सूक्षम ठौर।।164।।
परमात्मा सौं आतमा, ज्यों पाणी में लौंण।
दादू तन-मन एक रस, तब दूजा कहिए कौंण।।165।।
तन-मन विलै यों कीजिए, ज्यों पाणी में लौंण।
जीव ब्रह्म एकै भया, तब दूजा कहिए कौंण।।166।।
तन-मन विलै यों कीजिए, ज्यों घृत लागे घाम।
आत्म कमल तहाँ बंदगी, तहँ दादू परगट राम।।167।।
कोमल कमल तहँ पैसि करि, जहाँ न देखि कोइ।
मन थिर सुमिरण कीजिए, तब दादू दर्शन होइ।।168।।
नख-शिख सब सुमिरण करे, ऐसा कहिए जाप।
अंतर विगसे आत्मा, तब दादू प्रगटे आप।।169।।
अंतरगति हरि हरि करे, तब मुख की हाजति नाँहि।
सहजैं धुनि लागी रहै, दादू मन ही माँहि।।170।।

दादू सहजैं सुमिरण होत है, रोम-रोम रमि राम।
चित चहूंटया चित सौं, यौं लीजे हरि नाम।।171।।
दादू सुमिरण सहज का, दीन्हा आप अनन्त।
अरस परस उस एक सौं, खेलैं सदा वसन्त।।172।।
दादू शब्द अनाहद हम सुन्या, नख-शिख सकल शरीर।
सब घट हरि हरि होत है, सहजैं ही मन थीर।।173।।
हुण दिल लगा हिकसाँ, मे कूं ये हा ताति।
दादू कंमि खुदाइ दे, बैठा डीहै राति।।174।।
दादू माला सब आकार की, कोई साधु सुमिरै राम।
करणी गर तैं क्या किया, ऐसा तेरा नाम।।175।।
सब घट मुख रसना करे, रटे राम का नाम।
दादू पीवे राम रस, अगम अगोचर ठाम।।176।।
दादू मन चित स्थिर कीजिए, तो नख-शिख सुमिरण होइ।
श्रवण नेत्रा मुख नासिका, पंचों पूरे सोइ।।177।।
आतम आसन राम का, तहाँ बसे भगवान।
दादू दोनों परस्पर, हरि आतम का स्थान।।178।।
राम जपे रुचि साधु को, साधु जपे रुचि राम।
दादू दोनों एक टग, यहु आरंभ यहु काम।।179।।
जहाँ राम तहँ संत जन, जहाँ साधु तहँ राम।
दादू दोनों एकठे, अरस परस विश्राम।।180।।

दादू हरि साधु यों पाइये, अविगति की आराधा।
साधु संगति हरि मिलैं, हरि संगति तैं साधा।।181।।
दादू राम नाम सौं मिल रहै, मन के छाड़ि विकार।
तो दिल ही माँही देखिए, दोनों का दीदार।।182।।
साधु समाना राम में, राम रह्या भरपूर।
दादू दोनों एक रस, क्यूँ करि कीजे दूर।।183।।
दादू सेवक सांई का भया, तब सेवक का सब कोइ।
सेवक सांई को मिल्या, तब सांई सरीखा होइ।।184।।
मिश्री माँहीं मेलिकरि, मोल बिकाना बंस।
यौं दादू महँगा भया, पार ब्रह्म मिल हंस।।185।।
मीठे मांहैं राखिये, सो काहे न मीठा होइ।
दादू मीठा हाथ ले, रस पीवै सब कोइ।।186।।
मीठे सौं मीठा भया, खारे सौं खारा।
दादू ऐसा जीव है, यहु रंग हमारा।।187।।
मीठे-मीठे कर लिये, मीठा माँहैं बाहि।
दादू मीठा ह्नै रह्या, मीठे माँहि समाय।।188।।
राम बिना किस काम का, नहिं कौड़ी का जीव।
सांई सरीखा ह्नै गया, दादू परसैं पीव।।189।।
हीरा कौड़ी ना लहै, मूरख हाथ गँवार।
पाया पारिख जौहरी, दादू मोल अपार।।190।।

अंधो हीरा परखिया, कीया कौड़ी मोल।
दादू साधू जौहरी, हीरे मोल न तोल।।191।।
मीरां कीया महर सौं, परदे तैं लापर्द।
राखि लिया दीदार में, दादू भूला दर्द।।192।।
दादू नैन बिन देखबा, अंग बिन पेखबा।
रसन बिन बोलबा, ब्रह्म सेती।।193।।
श्रवन बिन सुनबा, चरण बिन चालिबा।
चित्ता बिन चित्ताबा, सहज एती।।194।।
दादू देख्या एक मन, सो मन सब ही माँहि।
तिहिं मन सौं मन मानिया, दूजा भावे नाँहि।।195।।
दादू जिहिँ घट दीपक राम का, तिहिँ घट तिमर न होइ।
उस उजियारे ज्योति के, सब जग देखे सोइ।।196।।
दादू दलि अरवाह का, सो अपना ईमान।
सोई साबित राखिए, जहँ देखै रहिमान।।197।।
अल्लह आप ईमान है, दादू के दिल माँहि।
सोई साबित राखिए, दूजा कोई नाँहि।।198।।
प्राण पवन ज्यों पतला, काया करे कमाय।
दादू सब संसार में, क्यूं ही गह्या न जाय।।199।।
नूर तेज ज्यों ज्योति है, प्राण पिंड यों होइ।
दृष्टि मुष्टि आवें नहीं, साहिब के वश सोइ।।200।।

काया सूक्ष्म करि मिले, ऐसा कोई एक।
दादू आतम ले मिलैं, ऐसे बहुत अनेक।।201।।
आडा आतम तन धारै, आप रहे ता माँहि।
आपन खेले आप सौं, जीवन सेती नाँहि।।202।।
दादू अनुभव तैं आनन्द भया, पाया निर्भय नाम।
निश्चल निर्मल निर्वाण पद, अगम अगोचर ठाम।।203।।
दादू अनुभव वाणी अगम को, ले गई संग लगाय।
अगह गहै अकह कहै, अभेद भेद लहाय।।204।।
जो कुछ वेद कुरान तैं, अगम अगोचर बात।
सो अनुभव साचा कहै, यहु दादू अकह कहात।।205।।
दादू-जब घट अनुभव ऊपजे, तब किया करम का नाश।
भय भ्रम भागे सबै, पूरण ब्रह्म प्रकाश।।206।।
दादू-अनुभव काटे रोग को, अनहद उपजे आय।
सेझे का जल निर्मला, पीवे रुचि ल्यौलाय।।207।।
दादू वाणी ब्रह्म की, अनुभव घट प्रकास।
राम अकेला रहि गया, शब्द निरंजन पास।।208।।
जो कबहूँ समझे आतमा, तो दृढ गहि राखे मूल।
दादू सेझा राम रस, अमृत काया कूल।।209।।
दादू मुझ ही मांहै मैं रहूँ, मैं मेरा घर बार।
मुझ ही मांहै मैं बसूँ, आप कहै करतार।।210।।

दादू मैं ही मेरा अर्श में, मैं ही मेरा थान।
मैं ही मेरी ठौर में, आप कहै रहिमान।।211।।
दादू मैं ही मेरे आसरे, मैं मेरे आधार।
मेरे तकिये मैं रहूँ, कहते सिरजनहार।।212।।
दादूµमैं ही मेरी जाति में, मैं ही मेरा अंग।
मैं ही मेरा जीव में, आप कहै परसंग।।213।।
दादूµसबै दिशा सो सारिखा, सबै दिशा मुख बैन।
सबै दिशा श्रवण हुँ सुणैं, सबै दिशा कर नैन।।214।।
सबै दिशा पग शीश हैं, सबै दिशा मन चैन।
सबै दिशा सन्मुख रहै, सबै दिशा ऍंग ऐन।।215।।
बिन श्रवण हुँ सब कुछ सुणे, बिन नैनों सब देखै।
बिन रसना मुख सब कुछ बोले, यह दाजू अचरज पेखै।।216।।
सब अंग सब ही ठौर सब, सर्वंगी सब सार।
कहै गहै देखे सुने, दादू सब दीदार।।217।।
कहै सब ठौर, गहै सब ठौर, रहे सब ठौर, ज्योति प्रवानै।
नैन सब ठौर, बैन सब ठौर, ऐन सब ठौर, सोई भलजानै।
शीश सब ठौर, श्रवण सब ठौर, चरण सब ठौर, कोई यहु मानै।
अंग सब ठौर, संग सब ठौर, सबै सब ठौर दादू धयानै।।218।।
तेज ही कहणा, तेज ही गहणा, तेज ही रहणा सारे।
तेज ही बैना, तेज ही नैना, तेज ही ऐन हमारे।
तेज ही मेला, तेज ही खेला, तेज अकेला, तेज ही तेज सँवारे।
तेज ही लेवे, तेज ही देवे, तेज ही खेवे, तेज ही दादू तारे।।219।।
नूर हि का धार, नूर हि का घर, नूर हि का वर मेरा।
नूर ही मेला, नूर ही खेला, नूर अकेला, नूर हि मंझ बसेरा।
नूर हि का ऍंग, नूर हि का सँग, नूर हि का रँग मेरा।
नूर हि राता, नूर हि माता, नूर हि खाता दादू तेरा।।220।।

दादू नूरी दिल अरवाह का, तहाँ बसे माबूदं।
तहाँ बन्दे की बन्दगी, जहाँ रहे मौजूदं।।221।।
दादू नूरी दिल अरवाह का, तहँ खालिक भरपूरं।
आली नूर अल्लाह का, खिदमतगार हजूरं।।222।।
दादू नूरी दिल अरवाह का, तहँ देख्या करतारं।
तहँ सेवक सेवा करे, अनन्त कला रवि सारं।।223।।
दादू नूरी दिल अरवाह का, तहाँ निरंजन बासं।
तहँ जन तेरा एक पग, तेज पुंज परकासं।।224।।
दादू तेज कमल दिल नूर का, तहाँ राम रहमानं।
तहँ कर सेवा बन्दगी, जे तू चतुर सयानं।।225।।
तहाँ हजूरी बन्दगी, नूरी दिल में होय।
तहँ दादू सिजदा करे, जहाँ न देखे कोय।।226।।
दादू देही माँहे दोय दिल, इक खाकी इक नूर।
खाकी दिल सूझे नहीं, नूरी मंझि हजूर।।227।।
दादू हौज हजूरी दिल ही भीतर, गुसल हमारा सारं।
उजू साजि अल्लह के आगे, तहाँ नमाज गुजारं।।228।।
काया मसीत करि पंच जमाती, मन ही मुल्ला इमामं।
आप अलेख इलाही आगे, तहाँ सिजदा करे सलामं।।229।।
दादू सब तन तसबीह कहै करीमं, ऐसा करले जापं।
रोजा एक दूर कर दूजा, कलमाँ आपै आपं।।230।।

दादू अठें पहर अल्लह के आगे, इकटग रहिबा धयानं।
आपै आप अर्श के ऊपर, जहाँ रहै रहिमानं।।231।।
अठे पहर इबादती, जीवन मरण निर्वाहि।
साहिब दर सेवे खड़ा, दादू छाड़ि न जाय।।232।।
अट्ठे पहर अर्श में, ऊभोई आहे।
दादू पसे तिन्न के, अल्लह गाल्हाये।।233।।
अट्ठे पहर अर्श में, बैठा पिरी पसंनि।
दादू पसे तिन्न के, जे दीदार लंहनि।।234।।
अट्ठे पहर अर्श में, जिन्हीं रूह रहंनि।
दादू पसे तिन्न के, गुझ्यूँ गाल्ही कंनि।।235।।
अट्ठे पहर अर्श में, लुड़ींदा आहीन।
दादू पसे तिन्न के, असां खबरि डीन्ह।।236।।
अट्ठे पहर अर्श में, वजी जे गाहीन।
दादू पसे तिन्न के, केतेई आहीन।।237।।
प्रेम पियाला नूर का, आशिक भर दीया।
दादू दर दीदार में, मतवाला कीया।।238।।
इश्क सलूंना आशिकां, दरगाह तैं दीया।
दर्द मुहब्बत प्रेम रस, प्याला भरि पीया।।239।।
दादू दिल दीदार दे, मतवाला कीया।
जहाँ अर्श इलाही आप था, अपना कर लीया।।240।।

दादू प्याला नूर दा, आशिक अर्श पिवन्नि।
अठे पहर अल्लाहदा, मुँह दिठ्ठे जीवन्नि।।241।।
आशिक अमली साधु सब, अलख दरीबै जाय।
साहिब दर दीदार में, सब मिल बैठे आय।।242।।
राते माते प्रेम-रस, भर-भर देइ खुदाय।
मस्तान मालिक कर लिये, दादू रहे ल्यौं लाय।।243।।
दादू भक्ति निरंतर राम की, अविचल अविनाशी।
सदा सजीवन आत्मा, सहजैं परकाशी।।244।।
दादू जैसा राम अपार है, तैसी भक्ति अगाधा।
इन दोनों की मित नहीं, सकल पुकारैं साधा।।245।।
दादू जैसा अविगत राम है, तैसी भक्ति अलेख।
इन दोनों की मित नहीं, सहस मुखां कहैं शेष।।246।।
दादू जैसा निर्गुण राम है, तैसी भक्ति निरंजन जाणि।
इन दोनों की मित नहीं, संत कहैं परमाणि।।247।।
जैसा पूरा राम है, तैसी पूरण भक्ति समान।
इन दोनों की मित नहीं, दादू नाहीं आन।।248।।
दादू जब लग राम है, तब लग सेवग होइ।
अखंडित सेवा एक रस, दादू सेवग सोइ।।249।।
दादू जैसा राम है, तैसी सेवा जाणि।
पावेगा तब करेगा, दादू सो परमाणि।।250।।

सांइ सरीखा सुमिरण कीजे, सांई सरीखा गावे।
सांई सरीखा सेवा कीजे, तब सेवक सुख पावे।।251।।
दादू सेवक सेवा कर डरै, हम तैं कछू न होय।
तूं है तैसी बन्दगी, कर नहिं जाने कोय।।252।।
दादू जे साहिब माने नहीं, तऊ न छाड़ौं सेव।
इहिं अवलम्बन, जीजिये, साहिब अलख अभेव।।253।।
आदि अन्त आगे रहे, एक अनुपम देव।
निराकार निज निर्मला, कोई न जाणै भेव।।254।।
अविनाशी अपरं परा, वार पार नहिं छेव।
सो तूं दादू देखि ले, उर अंतर कर सेव।।255।।
दादू भीतर पैसि कर, घट के जड़ै कपाट।
सांई की सेवा करै, दादू अविगत घाट।।256।।
घट परिचय सेवा करै, प्रत्यक्ष देखै देव।
अविनाशी दर्शन करै, दादू पूरी सेव।।257।।
पूजण हारे पास हैं, देही माँहै देव।
दादू ता को छाड कर, बाहर माँडी सेव।।258।।
दादू रमता राम सूँ, खेले अंतर माँहि।
उलट समाना आप में, सो सुख कत हूँ नाँहि।।259।।
दादू जे जन बेधो प्रीति सौं, सो जन सदा सजीव।
उलट समाना आपमें, अंतर नाहीं पीव।।260।।

परकट खेलैं पीव सौं, अमग अगोचर ठाम।
एक पलक का देखणा, जीवण-मरण का नाम।।261।।
आत्म माँही राम है, पूजा ताकी होइ।
सेवा वन्दन आरती, साधु करै सब कोइ।।262।।
परिचै सेवा आरती, परिचै भोग लगाय।
दादू उस प्रसाद की, महिमा कही न जाय।।263।।
माँहि निरंजन देव है, माँहै सेवा होइ।
माँहै उतारै आरती, दादू सेवक सोइ।।264।।
दादू माँहै कीजे आरती, माँहै पूजा होइ।
माँहै सद्गुरु सेविये, बूझै विरला कोइ।।265।।
संत उतारैं आरती, तन-मन मंगल चार।
दादू बलि-बलि वारणै, तुम पर सिरजनहार।।266।।
दादू अविचल आरती, युग-युग देव अनंत।
सदा अखंडित एक रस, सकल उतारैं संत।।267।।
सत्य राम, आत्मा वैष्णौं, सुबुध्दि भूमि, संतोष स्थान,
मूल मन्त्रा, मन माला, गुरु तिलक, सत्य संयम,
शील शुच्या, धयान धाोती, काया कलश, प्रेम जल,
मनसा मंदिर, निरंजन देव, आत्मा पाती, पुहप प्रीति,
चेतना चंदन, नवधा नाम, भाव पूजा, मति पात्रा,
सहज समर्पण, शब्द घंटा, आनन्द आरती, दया प्रसाद,
अनन्य एक दशा, तीर्थ सत्संग, दान उपदेश, व्रत स्मरण,
षट् गुणज्ञान, अजपा जाप, अनुभव आचार,
मर्यादा राम, फल दर्शन, अभि अन्तर, सदा निरन्तर,
सत्य सौंज दादू वर्तते, आत्मा उपदेश, अन्तर गत पूजा।।268।।
पिव सौं खेलौं प्रेम रस, तो जियरे जक होइ।
दादू पावे सेज सुख, पड़दा नाहीं कोइ।।269।।
सेवग बिसरे आपकूं, सेवा बिसर न जाय।
दादू पूछे राम कूं, सो तत कहि समझाय।।270।।

ज्यों रसिया रस पीवतां, आपा भूले और।
यूँ दादू रहि गया एक रस, पीवत-पीवत ठौर।।271।।
जहँ सेवक तहँ साहिब बैठा, सेवक सेवा माँहि।
दादू सांई सब करै, कोई जाने नाँहि।।272।।
दादू सेवक सांई वश किया, सौंप्या सब परिवार।
तब साहिब सेवा करे, सेवग, के दरबार।।273।।
तेज पुंज को विलसणा, मिल खेलें इक ठाम।
भर-भर पीवै राम रस, सेवा इसका नाम।।274।।
अरस परस मिल खेलिये, तब आनन्द होय।
तन-मन मंगल चहुँ दिश भये, दादू देखै सोय।।275।।
मस्तक मेरे पाँव धार, मंदिर, माँहीं आव।
सँइयां सोवे सेज पर, दादू चंपै पाँव।।276।।
ये चारों पद पिलंग के, सांई की सुख सेज।
दादू इन पर बैस कर, सांई सेती हेज।।277।।
प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आय।
दादू खेले पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाय।।278।।
देव निरंजन पूजिये, पाती पंच पढाइ।
तन मन चन्दन चर्चिये, सेवा सुरति लगाइ।।279।।
भक्ति भक्ति सबको कहै, भक्ति न जाने कोय।
दादू भक्ति भगवंत की, देह निरंतर होय।।280।।

देही माहीं देव है, सब गुण तैं न्यारा।
सकल निरंतर भर रह्या, दादू का प्यारा।।281।।
जीव पियारे राम को, पाती पंच चढाय।
तन मन मनसा सौंपि सब, दादू विलम्ब न लाय।।282।।
शब्द सुरति ले सान चित्ता, तन-मन मनसा माँहि।
मति बुध्दि पंचों आतमा, दादू अनत न जाँहि।।283।।
दादू तन मन पवना पंच गहि, ले राखै निज ठौर।
जहाँ अकेला आप है, दूजा नाहीं और।।284।।
दादू यह मन सुरति समेट कर, पंच अपूठे आणि।
निकट निरंजन लाग रहुँ, संग सनेही जाणि।।285।।
मन चित मनसा आत्मा, सहज सुरति ता माँहि।
दादू पंचों पूरले, जहाँ धारती अम्बर नाँहि।।286।।
दादू भीगे प्रेम रस, मन पंचों का साथ।
मगन भये रस में रहे, तब सन्मुख त्रिाभुवननाथ।।287।।
दादू शब्दें शब्द समाइ ले, परआतम सौं प्राण।
यहु मन मन सौं बंधि ले, चित्तौं चित्ता सुजाण।।288।।
दादू सहजैं सहज समाइले, ज्ञानैं बंधया ज्ञान।
सूत्रौं सूत्रा समाइले, ज्ञानैं बंधया धयान।।289।।
दादू दृष्टैं दृष्टि समाइले, सुरतैं सुरति समाय।
समझैं समझ समाइले, लै सौं लै ले लाय।।290।।

दादू भावैं भाव समाइ ले, भक्तैं भक्ति समान।
प्रेमैं प्रेम समाइ ले, प्रीतैं प्रीति रस पान।।291।।
दादू सुरतैं सुरति समाइ रहु, अरु बैनहुँ सौं बैन।
मन ही सौं मन लाइ रहु, अरु नैनऊँ सौं नैन।।292।।
जहाँ राम तहाँ मन गया, मन तहाँ नैना जाय।
जहाँ नैना तहाँ आतमा, दादू सहज समाय।।293।।
प्राणन खेले प्राण सौं, मनन खेले मंन।
शब्दन खेले शब्द सौं, दादू राम रतंन।।294।।
चित्तान खेले चित्ता सौं, बैनन खेलै बैन।
नैनन खेले नैन सौं, दादू परगट ऐन।।295।।
पाकन खेले पाक सौं, सारन खेले सार।
खूबन खेले खूब सौं, दादू अंग अपार।।296।।
नूरन खेले नूर सौं, तेजन खेले तेज।
ज्योतिन खेले ज्योति सौं, दादू एकै सेज।।297।।
दादू पंच पदारथ मन रतन, पवना माणिक होय।
आतम हीरा सुरति सौं, मनसा मोती पोय।।298।।
अजब अनूपम हार है, सांई सरीखा सोय।
दादू आतम राम गलि, जहाँ न देखे कोय।।299।।
दादू पंचों संगी संगले, आये आकासा।
आसन अमर अलेख का, निर्गुण नित वासा।।300।।

प्राण पवन मन मगन ह्नै, संगी सदा निवासा।
परचा परम दयालु सौं, सहजै सुख दासा।।301।।
दादू प्राण पवन मन मणि बसे, त्रिाकुटी केरे संधि।
पंचों इन्द्री पीव सौं, ले चरणों में बंधि।।302।।
प्राण हमारा पीव सौं, यूं लागा सहिये।
पुहप बास, घृत दूधा में, अब कासौं कहिये।।303।।
पाहण लोह बिच वासदेव, ऐसे मिल रहिये।
दादू दीन दयालु सौं, संगहि सुख लहिये।।304।।
दादू ऐसा बड़ा अगाधा है, सूक्षम जैसा अंग।
पुहप बास तैं पत्ताला, सो सदा हमारे संग।।305।।
दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर कुछ नाँहि।
ज्यों पाला पाणी को मिल्या, त्यों हरि जन हरि माँहि।।306।।
दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब सब पड़दा दूर।
ऐसे मिल एकै भया, बहु दीपक पावक पूर।।307।।
दादूजब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर नाहीं रेख।
नाना विधि बहु भूषणां, कनक कसौटी एक।।308।।
दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब पलक न पड़दाकोय।
डाल मूल फल बीज में, सब मिल एकै होय।।309।।
फल पाका बेली तजी, टिकाया मुख माँहि।
सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगे नाँहि।।310।।

दादू काया कटोरा दूधा मन, प्रेम प्रीति सौं पाय।
हरि साहिब इहिं विधि अंचवै, वेगा बार न लाइ।।311।।
टगाटगी जीवन मरण, ब्रह्म बराबर होय।
परगट खेले पीव सौं, दादू विरला कोय।।312।।
दादू निबरा ना रहै, ब्रह्म सरीखा होय।
लै समाधि रस पीजिए, दादू जब लग दोय।।313।।
बेखुद खबर होशियार बाशद, खुद खबर पामाल।
बे कीमत मस्तान : गलतान, नूर प्याले ख्याल।।314।।
दादू माता प्रेम का, रस में रह्या समाय।
अंत न आवे जब लगैं, तब लग पीवत जाय।।315।।
पीया तेजा सुख भया, बाकी बहु वैराग।
ऐसे जन थाके नहीं, दादू उनमनि लाग।।316।।
निकट निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव।
दादू पीवै राम रस, निष्कामी निज सेव।।317।।
राम रटन छाड़े नहीं, हरि लै लागा जाइ।
बीचैं ही अटके नहीं, कला कोटि दिखलाइ।।318।।
दादू हरि रस पीवतां, कबहूँ अरुचि न होय।
पीवत प्यासा नित नवा, पीवण हारा सोय।।319।।
दादू जैसे श्रवणा दोइ हैं, ऐसे हूँ हि अपार।
रामकथा रस पीजिए, दादू बारंबार।।320।।

जैसे नैना दोय हैं, ऐसे हूँ हि अनंत।
दादू चंद चकोर ज्यूँ, रस पीवैं भगवंत।।321।।
ज्यूँ रसना मुख एक है, ऐसे हूँ कि अनेक।
तो रस पीवै शेष ज्यूँ, यों मुंख मीठा एक।।322।।
ज्यों घट आत्म एक है, ऐसे हूँ कि असंख।
भर-भर राखें राम रस, दादू एकै अंक।।323।।
ज्यूँ-ज्यूँ पीवे राम रस, त्यूँ-त्यूँ बढ़े पियास।
ऐसा कोई एक है, विरला दादू दास।।324।।
राता माता राम का, मतिवाला मैमंत।
दादू पीवत क्यों रहे, जे जुग जाँहि अनंत।।325।।
दादू निर्मल ज्योति जल, वर्षा बारह मास।
तिहिं रस राता प्राणिया, माता प्रेम पियास।।326।।
रोम-रोम रस पीजिए, एती रसना होय।
दादू प्यासा प्रेम का, यों बिन तृप्ति न होय।।327।।
तन गृह छाड़ै पति, जब रस माता होय।
जब लग दादू सावधान, कदे न छाड़ै कोय।।328।।
ऑंगण एक कलाल के, मतवाला रस माँहि।
दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नाँहि।।329।।
पीवत चेतन जब लगैं, तब लग लेवै आय।
जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे कूँ जाय।।330।।

दादू अंतर आतमा, पीवे हरि जल नीर।
सौंज सकल ले उध्दरे, निर्मल होय शरीर।।331।।
दादू मीठा राम रस, एक घूँट कर जाउँ।
पुणग न पीछे को रहै, सब हिरदै माँहि समाउँ।।332।।
चिड़ी चंच भर ले गई, नीर निघट नहिं जाय।
ऐसा बासण ना किया, सब दरिया माँहि समाय।।333।।
दादू अमली राम का, रस बिन रह्या न जाय।
पलक एक पावे नहीं, तो तबहि तलफ मर जाय।।334।।
दादू राता राम का, पीवे प्रेम अघाय।
मतवाला दीदार का, माँगे मुक्ति बलाय।।335।।
उज्वल भँवरा हरि कमल, रस रुचि बारह मास।
पीवे निर्मल वासना, सो दादू निज दास।।336।।
नैनहुँ सौं रस पीजिए, दादू सुरति सहेत।
तन-मन मंगल होत है, हरि सौं लागा हेत।।337।।
पीवे पिलावे राम रस, माता है हुसियार।
दादू रस पीवे घणां, औरों को उपकार।।338।।
नाना विधि पिया राम रस, केती भाँति अनेक।
दादू बहुत विवेक सूँ, आतम अविगत एक।।339।।
परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवे।
मतिवाला माता रहै, यों दादू जीवे।।340।।

परिचय का पय प्रेम रस, पीवे हित चित लाय।
मनसा वाचा कर्मना, दादू काल न खाय।।341।।
परिचय पीवे राम रस, युग-युग सुस्थिर होइ।
दादू अविचल आतमा, काल न लागे कोइ।।342।।
परिचय पीवे राम रस, सो अविनाशी अंग।
काल मीच लागे नहीं, दादू सांई संग।।343।।
परिचय पीवे राम रस, सुख में रहे समाय।
मनसा वाचा कर्मना, दादू काल न खाय।।344।।
परिचय पीवे राम रस, राता सिरजनहार।
दादू कुछ व्यापे नहीं, ते छूटे संसार।।345।।
अमृत भोजन राम रस, काहे न विलसे खाय।
काल बिचारा क्या करे, रम रम राम समाय।।346।।
दादू जीव अजा बिघ काल है, छेली जाया सोइ।
जब कुछ वश नहिं काल का, तब मीनी का मुख होइ।।347।।
मन लवरू के पंख है, उनमनि चढै अकास।
पग रह पूरे साच के, रोप रह्या हरि पास।।348।।
तन मन वृक्ष बबूल का, काँटे लागे शूल।
दादू माखण ह्नै गया, काहू का अस्थूल।।349।।
दादू संषा शब्द है, सुनहां संशा मारि।
मन मींडक सूं मारिये, शंका शर्प निवारि।।350।।

दादू गाँझी ज्ञान है, भंजन है सब लोक।
राम दूधा सब भर रह्या, ऐसा अमृत पोष।।351।।
दादू झूठा जीव है, गढिया गोविन्द बैन।
मनसा मूँगी पंखि सूँ, सूरज सरीखे नैन।।352।।
सांई दीया दत्ता घणां, तिसका वार न पार।
दादू पाया राम धान, भाव भक्ति दीदार।।353।।

।।इति परिचय का अंग सम्पूर्ण।।

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