हिन्दी में कविता/शायरी : मीर तकी मीर

Poetry/Shayari in Hindi : Mir Taqi Mir

1. आए हैं मीर मुँह को बनाए

आए हैं मीर मुँह को बनाए जफ़ा से आज
शायद बिगड़ गयी है उस बेवफा से आज

जीने में इख्तियार नहीं वरना हमनशीं
हम चाहते हैं मौत तो अपने खुदा से आज

साक़ी टुक एक मौसम-ए-गुल की तरफ़ भी देख
टपका पड़े है रंग चमन में हवा से आज

था जी में उससे मिलिए तो क्या क्या न कहिये 'मीर'
पर कुछ कहा गया न ग़म-ए-दिल हया से आज

2. कहा मैंने

कहा मैंने कितना है गुल का सबात
कली ने यह सुनकर तब्बसुम किया

जिगर ही में एक क़तरा खूं है सरकश
पलक तक गया तो तलातुम किया

किसू वक्त पाते नहीं घर उसे
बहुत 'मीर' ने आप को गम किया

3. आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में

आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में

नाज़ुक बदन है कितना वो शोख़-चश्म दिलबर
जान उस के तन के आगे आती नहीं नज़र में

सीने में तीर उस के टूटे हैं बे-निहायत
सुराख़ पड़ गए हैं सारे मिरे जिगर में

आइंदा शाम को हम रोया कुढ़ा करेंगे
मुतलक़ असर न देखा नालीदन-ए-सहर में

बे-सुध पड़ा रहूँ हूँ उस मस्त-ए-नाज़ बिन मैं
आता है होश मुझ को अब तो पहर पहर में

सीरत से गुफ़्तुगू है क्या मो'तबर है सूरत
है एक सूखी लकड़ी जो बू न हो अगर में

हम-साया-ए-मुग़ाँ में मुद्दत से हूँ चुनाँचे
इक शीरा-ख़ाने की है दीवार मेरे घर में

अब सुब्ह ओ शाम शायद गिर्ये पे रंग आवे
रहता है कुछ झमकता ख़ूनाब चश्म-ए-तर में

आलम में आब-ओ-गिल के क्यूँकर निबाह होगा
अस्बाब गिर पड़ा है सारा मिरा सफ़र में

4. अपने तड़पने की

अपने तड़पने की मैं तदबीर पहले कर लूँ
तब फ़िक्र मैं करूँगा ज़ख़्मों को भी रफू का।

यह ऐश के नहीं हैं या रंग और कुछ है
हर गुल है इस चमन में साग़र भरा लहू का।

बुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर
सब हमसे सीखते हैं, अंदाज़ गुफ़्तगू का।

5. हस्ती अपनी होबाब की सी है

हस्ती अपनी हुबाब की सी है ।
ये नुमाइश सराब की सी है ।

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए,
हर एक पंखुड़ी गुलाब की सी है ।

चश्म-ए-दिल खोल इस आलम पर,
याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है ।

बार-बार उस के दर पे जाता हूँ,
हालत अब इज्तेराब की सी है ।

मैं जो बोला कहा के ये आवाज़,
उसी ख़ाना ख़राब की सी है ।

‘मीर’ उन नीमबाज़ आँखों में,
सारी मस्ती शराब की सी है ।

6. फ़कीराना आए सदा कर चले

फ़क़ीराना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले

जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले

कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले

बहोत आरजू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले

दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

जबीं सजदा करते ही करते गई
हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले

परस्तिश की याँ तईं कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सबों की ख़ुदा कर चले

गई उम्र दर बंद-ऐ-फ़िक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले

कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले

7. बेखुदी कहाँ ले गई हमको

बेखुदी कहाँ ले गई हमको,
देर से इंतज़ार है अपना

रोते फिरते हैं सारी सारी रात,
अब यही रोज़गार है अपना

दे के दिल हम जो गए मजबूर,
इस मे क्या इख्तियार है अपना

कुछ नही हम मिसाल-ऐ- उनका लेक
शहर शहर इश्तिहार है अपना

जिसको तुम आसमान कहते हो,
सो दिलो का गुबार है अपना

8. अश्क आंखों में कब नहीं आता

अश्क आंखों में कब नहीं आता
लहू आता है जब नहीं आता।

होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता।

दिल से रुखसत हुई कोई ख्वाहिश
गिरिया कुछ बे-सबब नहीं आता।

इश्क का हौसला है शर्त वरना
बात का किस को ढब नहीं आता।

जी में क्या-क्या है अपने ऐ हमदम
हर सुखन ता बा-लब नहीं आता।

9. गम रहा जब तक कि दम में दम रहा

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा

दिल न पहुँचा गोशा-ए-दामन तलक
क़तरा-ए-ख़ूँ था मिज़्हा पे जम रहा

जामा-ए-अहराम-ए-जाहिद पर न जा
था हरम में लेक ना-महरम रहा

ज़ुल्फ़ खोले तू जो टुक आया नज़र
उम्र भर याँ काम-ए-दिल बरहम रहा

उसके लब से तल्ख़ हम सुनते रहे
अपने हक़ में आब-ए-हैवाँ सम रहा

हुस्न था तेरा बहुत आलम फरेब
खत के आने पर भी इक आलम रहा

मेरे रोने की हकीकत जिस में थी
एक मुद्दत तक वो क़ाग़ज़ नम रहा

सुबह पीरी शाम होने आई `मीर'
तू न जीता, याँ बहुत दिन कम रहा

(मिज़्हा=भवें, जामा-ए-अहराम-ए-जाहिद=
पवित्र चोले, हरम=मस्जिद, ना-महरम=
अपरिचित,अँधेरे में, टुक=क्षण भर के
लिए, काम-ए-दिल बरहम=दिल परेशान
रहा, तल्ख़=चुभने वाली बातें, आब-
ए-हैवाँ=अमृत-कुण्ड, सम=विष, सुबह
पीरी शाम होने आई=जीवन-संध्या
की रात होने को है)

10. देख तो दिल कि जाँ से उठता है

देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

गोर किस दिल-जले की है ये फलक
शोला इक सुबह याँ से उठता है

खाना-ऐ-दिल से ज़िन्हार न जा
कोई ऐसे मकान से उठता है

नाला सर खेंचता है जब मेरा
शोर एक आसमान से उठता है

लड़ती है उस की चश्म-ऐ-शोख जहाँ
इक आशोब वां से उठता है

सुध ले घर की भी शोला-ऐ-आवाज़
दूद कुछ आशियाँ से उठता है

बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तेरे आस्तान से उठता है

यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है
बोझ कब नातावां से उठता है


(आशोब=चीत्कार, आर्तनाद)

11. दिल-ऐ-पुर-खूँ की इक गुलाबी से

दिल-ऐ-पुर-खूँ की इक गुलाबी से
उम्र भर हम रहे शराबी से

दिल दहल जाए है सहर से आह
रात गुज़रेगी किस खराबी से

खिलना कम कम कली ने सीखा है
उस की आंखों की नीम-ख्वाबी से

काम थे इश्क में बहुत से 'मीर'
हम ही फ़ारिग हुए शिताबी से

12. था मुस्तेआर हुस्न से उसके जो नूर था

था मुस्तेआर हुस्न से उसके जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़हूर था

हंगामा गर्म कुन जो दिले-नासुबूर था
पैदा हर एक नाला-ए-शोरे-नशूर था

पहुँचा जो आप को तो मैं पहुँचा खुदा के तईं
मालूम अब हुआ कि बहोत मैं भी दूर था

आतिश बुलन्द दिल की न थी वर्ना ऐ कलीम
यक शोला बर्क़े-ख़िरमने-सद कोहे-तूर था

हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था

मजलिस में रात एक तेरे परतवे बग़ैर
क्या शम्म क्या पतंग हर एक बे-हज़ूर था

मूनिम के पास क़ाक़िमो-सिंजाब था तो क्या
उस रिन्द की भी रात कटी जोकि ऊर था

कल पाँव एक कासा-ऐ-सर पर जो आ गया
यक-सर वो इस्तख़्वान शिकस्तों चूर था

कहने लगा के देख के चल राह बे-ख़बर
मैं भी कभू किसी का सर-ऐ-पुर-ग़ुरूर था

था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीं में 'मीर'
समझे न हम तो फ़हम का अपने क़सूर था

(मुस्तेआर=उधार लिया हुआ,कृपा, ख़ुर्शीद=सूर्य, ज़हूर=
प्रकाशमान, हंगामा गर्म कुन=तूफान मचा हुआ था,
दिले-नासुबूर=बेकल हृदय, नाला-ए-शोरे-नशूर=प्रलय
के दिन वाला प्रलाप, कलीम=मित्र, बर्क़े-ख़िरमने-
सद=हज़ारों बिजलियों, कोहे-तूर=वो पहाड़ जहाँ
मूसा को दिव्य-दर्शन हुए थे, सिपहर=आकाश,
परतवे=प्रकाशमान उपस्थिति, पतंग=परवाना,
बे-हज़ूर=अनाथ, मूनिम=धनवान, क़ाक़िमो-
सिंजाब=मख़मल और ज़री, ऊर=वस्त्र-हीन,
चीथड़ों में, कासा-ऐ-सर=खोपड़ी, इस्तख़्वान=
हड्डियां, सर-ऐ-पुर-ग़ुरूर=गर्वोन्मत्त मस्तक,
रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती=ऐसा सौंदर्य जो स्वर्ग
की अप्सराओं के लिए भी ईर्ष्या का विषय
है)

13. इधर से अब्र उठकर जो गया है

इधर से अब्र उठकर जो गया है
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है

मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानीहा सा हो गया है

मुकामिर-खाना-ऐ-आफाक वो है
के जो आया है याँ कुछ खो गया है

सरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है

14. जीते-जी कूचा-ऐ-दिलदार से जाया न गया

जीते-जी कूचा-ऐ-दिलदार से जाया न गया
उस की दीवार का सर से मेरे साया न गया

दिल के तईं आतिश-ऐ-हिज्राँ से बचाया न गया
घर जला सामने पर हम से बुझाया न गया

क्या तुनक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने आह
इक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया

दिल जो दीदार का क़ायेल की बहोत भूका था
इस सितम-कुश्ता से यक ज़ख्म भी खाया न गया

शहर-ऐ-दिल आह अजब जाए थी पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया

15. जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा

जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
तो हम-साया काहे को सोता रहेगा

मैं वो रोनेवाला जहाँ से चला हूँ
जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा

मुझे काम रोने से हरदम है नासेह
तू कब तक मेरे मुँह को धोता रहेगा

बसे गिरया आंखें तेरी क्या नहीं हैं
जहाँ को कहाँ तक डुबोता रहेगा

मेरे दिल ने वो नाला पैदा किया है
जरस के भी जो होश खोता रहेगा

तू यूं गालियाँ गैर को शौक़ से दे
हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा

बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आंसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा


(नासेह=नसीहत देने वाला, नाला=रुदन,विलाप,
जरस=घड़ियाल, मिज़गां=पलकें)

16. इब्तिदा-ऐ-इश्क है रोता है क्या

इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे-आगे देखिये होता है क्या

क़ाफ़िले में सुबह के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्मे-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशान-ऐ-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या

ग़ैरते-युसूफ़ है ये वक़्त ऐ अजीज़
'मीर' इस को रायेग़ाँ खोता है क्या


(इब्तिदा-ए-इश्क़=प्रेमारंभ, ग़ाफ़िल=
अनभिज्ञ, सब्ज़=हरी, तुख़्मे-ख़्वाहिश=
इच्छाओं के बीज, अबस=बिन
प्रयोजन, रायेग़ाँ=व्यर्थ)

17. पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश के बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मै-ओ-ख़ोर की तितली का तारा जाने है

आगे उस मुतक़ब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद् ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा जाने है

आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़िआँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है

चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है

क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्यद बच्चा
त'एर उड़ते हवा में सारे अपनी उसारा जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है

क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है

आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है

रख़नों से दीवार-ए-चमन के मूँह को ले है छिपा य'अनि
उन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है

तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है

18. उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया

उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात बहुत थे जागे सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया

सारे रिन्दो-बाश जहाँ के तुझसे सजुद में रहते हैं
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझको अमान किया

सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया

किसका क़िबला कैसा काबा कौन हरम है क्या अहराम
कूचे के उसके बाशिन्दों ने सबको यहीं से सलाम किया

ऐसे आहो-एहरम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सिहर किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझ को राम किया

याँ के सपेद-ओ-स्याह में हमको दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया

सायदे-सीमीं दोनों उसके हाथ में लेकर छोड़ दिए
भूले उसके क़ौलो-क़सम पर हाय ख़याले-ख़ाम किया

ऐसे आहू-ए-रम ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल है
सिह्र किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझको राम किया

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब का अब पूछते क्या हो उनने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा, कबका तर्क इस्लाम किया


(तदबीरें=युक्तियाँ, अह्द-ए-जवानी=यौवन-काल, पीरी=
वृद्धावस्था, मुख़्तारी=स्वतंत्रता, अबस=यूँ ही, रिन्दो-बाश=
शराबी-मवाली, सजुद=तेरा सम्मान करते हैं, वहशत=
पागलपन में, सायदे-सीमीं=चाँदी-सी बाहें, आहू-ए-रम
ख़ुर्दा=ज़ख़्म खाए-हिरण, क़श्क़ा खींचा=तिलक लगाया,
दैर=मंदिर, तर्क=छोड़)

19. न सोचा न समझा न सीखा न जाना

न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया ख़ुदबख़ुद दिल लगाना

ज़रा देख कर अपना जल्वा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाये ज़माना

ज़ुबाँ पर लगी हैं वफ़ाओं कि मुहरें
ख़मोशी मेरी कह रही है फ़साना

गुलों तक लगायी तो आसाँ है लेकिन
है दुशवार काँटों से दामन बचाना

करो लाख तुम मातम-ए-नौजवानी
प 'मीर' अब नहीं आयेगा वोह ज़माना

20. दिल की बात कही नहीं जाती, चुप के रहना ठाना है

दिल की बात कही नहीं जाती, चुप के रहना ठाना है
हाल अगर है ऐसा ही तो जी से जाना जाना है

सुर्ख़ कभू है आँसू होती ज़र्द् कभू है मूँह मेरा
क्या क्या रंग मोहब्बत के हैं, ये भी एक ज़माना है

फ़ुर्सत है यां कम रहने की, बात नहीं कुछ कहने की
आँखें खोल के कान जो खोले बज़्म-ए-जहां अफ़साना है

तेग़ तले ही उस के क्यूँ ना गर्दन डाल के जा बैठें
सर तो आख़िरकार हमें भी हाथ की ओर झुकाना है

21. दम-ए-सुबह बज़्म-ए-ख़ुश जहाँ शब-ए-ग़म

दम-ए-सुबह बज़्म-ए-ख़ुश जहाँ शब-ए-ग़म से कम न थी मेहरबाँ
कि चिराग़ था सो तो दर्द था जो पतंग था सो ग़ुबार था

दिल-ए-ख़स्ता जो लहू हो गया तो भला हुआ कि कहाँ तलक
कभी सोज़्-ए-सीना से दाग़ था कभी दर्द-ओ-ग़म से फ़िग़ार था

दिल-ए-मुज़तरिब से गुज़र गई शब-ए-वस्ल अपनी ही फ़िक्र मे
न दिमाग़ था न फ़राग़ था न शकेब था न क़रार था

ये तुम्हारी इन दिनों दोस्ताँ मिज़्ह्ग़ाँ जिस के ग़म में है ख़ूँ-चकाँ
वही आफ़त-ए-दिल-ए-आशिक़ाँ किसी वक़्त हमसे भी यार था

कभी जायेगी उधर सबा तो ये कहियो उस से कि बेवफ़ा
मगर एक "मीर"-ए-शिकस्ता-पा तेरे बाग़-ए-ताज़ा में ख़ार था

22. गुल को महबूब में क़यास किया

गुल को महबूब में क़यास किया
फ़र्क़ निकला बहोत जो बास किया

दिल ने हम को मिसाल-ए-आईना
एक आलम से रू-शिनास किया

कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
शौक़ ने हम को बे-हवास किया

सुबह तक शमा सर को ढुँढती रही
क्या पतंगे ने इल्तेमास किया

ऐसे वहाशी कहाँ हैं अए ख़ुबाँ
'मीर' को तुम ने अबस उदास किया

23. होती है अगर्चे कहने से यारों पराई बात

होती है अगर्चे कहने से यारों पराई बात
पर हम से तो थमी न कभू मुँह पे आई बात

कहते थे उस से मिलते तो क्या-क्या न कहते लेक
वो आ गया तो सामने उस के न आई बात

बुलबुल के बोलने में सब अंदाज़ हैं मेरे
पोशीदा क्या रही है किसु की उड़ाई बात

इक दिन कहा था ये के ख़ामोशी में है वक़ार
सो मुझ से ही सुख़न नहीं मैं जो बताई बात

अब मुझ ज़ैफ़-ओ-ज़ार को मत कुछ कहा करो
जाती नहीं है मुझ से किसु की उठाई बात

24. इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ

इस अहद में इलाही मोहब्बत् को क्या हुआ
छोड़ा वफ़ा को उन्ने मुरव्वत को क्या हुआ

उम्मीदवार वादा-ए-दीदार मर चले
आते ही आते यारों क़यामत को क्या हुआ

बक्शिश ने मुझ को अब्र-ए-करम की किया ख़िजल
ए चश्म-ए-जोश अश्क-ए-नदामत को क्या हुआ

जाता है यार तेग़ बकफ़ ग़ैर की तरफ़
ए कुश्ता-ए-सितम तेरी ग़ैरत को क्या हुआ

25. जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा

जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा
तो जीना हमें अपना दुशवार होगा

ग़म-ए-हिज्र रखेगा बेताब दिल को
हमें कुढ़ते-कुढ़ते कुछ आज़ार होगा

जो अफ़्रात-ए-उल्फ़त है ऐसा तो आशिक़
कोई दिन में बरसों का बिमार होगा

उचटती मुलाक़ात कब तक रहेगी
कभू तो तह-ए-दिल से भी यार होगा

तुझे देख कर लग गया दिल न जाना
के इस संगदिल से हमें प्यार होगा

26. काबे में जाँबलब थे हम दूरी-ए-बुताँ से

काबे में जाँबलब थे हम दूरी-ए-बुताँ से
आये हैं फिर के यारों अब के ख़ुदा के याँ से

जब कौंधती है बिजली तब जानिब-ए-गुलिस्ताँ
रखती है छेड़ मेरे ख़ाशाक-ए-आशियाँ से

क्या ख़ूबी उस के मूँह की ए ग़ुन्चा नक़्ल करिये
तू तो न बोल ज़ालिम बू आती है वहाँ से

ख़ामोशी में ही हम ने देखी है मसलहत अब
हर इक से हाल दिल का मुद्दत कहा ज़बाँ से

इतनी भी बद् मिज़ाजी हर लहज़ा 'मीर' तुम को
उलझाव है ज़मीन से, झगड़ा है आसमाँ से

27. मानिंद-ए-शमा मजलिस-ए-शब अश्कबार पाया

मानिंद-ए-शमा मजलिस-ए-शब अश्कबार पाया
अल क़िस्सा 'मीर' को हमने बेइख़्तियार पाया

शहर-ए-दिल एक मुद्दत उजड़ा बसा ग़मों में
आख़िर उजाड़ देना उसका क़रार पाया

इतना न दिल से मिलते न दिल को खो के रहते
जैसा किया था हमने वैसा ही यार पाया

क्या ऐतबार याँ का फिर उस को ख़ार देखा
जिसने जहाँ में आकर कुछ ऐतबार पाया

आहों के शोले जिस् जाँ उठे हैं 'मीर' से शब
वाँ जा के सुबह देखा मुश्त-ए-ग़ुबार पाया

28. मिलो इन दिनों हमसे इक रात जानी

मिलो इन दिनों हमसे इक रात जानी
कहाँ हम, कहाँ तुम, कहाँ फिर जवानी

शिकायत करूँ हूँ तो सोने लगे है
मेरी सर-गुज़िश्त अब हुई है कहानी

अदा खींच सकता है बहज़ाद उस की
खींचे सूरत ऐसी तो ये हमने मानी

मुलाक़ात होती है तो है कश-म-कश से
यही हम से है जब न तब खींचा तानी

29. मुँह तका ही करे है जिस-तिस का

मुँह तका ही करे है जिस-तिस का
हैरती है ये आईना किस का

जाने क्या गुल खिलाएगी गुल-रुत
ज़र्द चेह्रा है डर से नर्गिस का

शाम ही से बुझा-सा रहता है
दिल हो गोया चराग़ मुफ़लिस का

आँख बे-इख़्तियार भर आई
हिज्र सीने में जब तेरा सिसका

थे बुरे मुगाबचो के तेवर लेक
शैख़ मयखाने से भला खिसका

फ़ैज़ ये अब्र-ए-चश्म-ए-तर से उठा
आज दामन वसीअ है इस का

ताब किस को जो हाल-ऐ-'मीर' सुने
हाल ही और कुछ है मजलिस का

30. शब को वो पीए शराब निकला

शब् को वो पीए शराब निकला
जाना ये कि आफ़्ताब निकला

क़ुर्बाँ प्याला-ए-मै-नाब
जैसे कि तेरा हिजाब निकला

मस्ती में शराब की जो देखा
आलम ये तमाम ख़्वाब निकला

शैख़ आने को मै-क़दे में आया
पर हो के बहोत ख़राब निकला

था ग़ैरत-ए-बादा अक्स-ए-गुल से
जिस जू-ए-चमन से आब निकला

31. तुम नहीं फ़ितना-साज़ सच साहब

तुम नहीं फ़ितना-साज़ सच साहब
शहर पुर-शोर इस ग़ुलाम से है

कोई तुझसा भी काश तुझ को मिले
मुद्दा हम को इन्तक़ाम से है

शेर मेरे हैं सब ख़्वास पसंद
पर मुझे गुफ़्तगू आवाम से है

सहल है 'मीर' का समझना क्या
हर सुख़न उसका इक मक़ाम से है

32. क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़

क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़
जान का रोग है, बला है इश्क़

इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़

इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानि अपना ही मुब्तला है इश्क़

इश्क़ है तर्ज़-ओ-तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़

कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू इश्क़ वा मुद्दा है इश्क़

कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का
तू कहे जिन्स-ए-नारवा है इश्क़

मीर जी ज़र्द होते जाते हैं
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़?

33. आँखों में जी मेरा है इधर यार देखना

आँखों में जी मेरा है इधर यार देखना
आशिक़ का अपने आख़री दीदार देखना

कैसा चमन के हम से असीरों को मना है
चाक-ए-क़फ़स से बाग़ की दीवार देखना

आँखें चुराईओ न टुक अब्र-ए-बहार से
मेरी तरफ़ भी दीदह-ए-ख़ँबार देखना

अए हम-सफ़र न आब्ले को पहुँचे चश्म-ए-तर
लगा है मेरे पाओं में आ ख़ार देखना

होना न चार चश्म दिक उस्स ज़ुल्म-पैशाह से
होशियार ज़ीन्हार ख़बरदार देखना

सय्यद दिल है दाग़-ए-जुदाई से रश्क-ए-बाग़
तुझ को भी हो नसीब ये गुलज़ार देखना

गर ज़मज़मा यही है कोई दिन तो हम-सफ़ीर
इस फ़स्ल ही में हम को गिरिफ़्तार देखना

बुल-बुल हमारे गुल पे न गुस्ताख़ कर नज़र
हो जायेगा गले का कहीं हार देखना

शायद हमारी ख़ाक से कुछ हो भी अए नसीम
ग़िर्बाल कर के कूचा-ए-दिलदार देखना

उस ख़ुश-निगाह के इश्क़ से परहेज़ कीजिओ 'मीर'
जाता है लेके जी ही ये आज़ार देखना

34. सहर गह-ए-ईद में दौर-ए-सुबू था

सहर गह-ए-ईद में दौर-ए-सुबू था
पर अपने जाम में तुझ बिन लहू था

जहाँ पुर है फ़साने से हमारे
दिमाग़-ए-इश्क़ हम को भी कभू था

गुल-ओ-आईना क्या ख़ुर्शीद-ओ-माह क्या
जिधर देखा उधर तेरा ही रू था

35. जिस सर को ग़रूर आज है याँ ताजवरी का

जिस सर को ग़रूर आज है याँ ताजवरी का
कल जिस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का

आफ़ाक़ की मंज़िल से गया कौन सलामात
असबाब लुटा राह में याँ हर सफ़री का

ज़िन्दाँ में भी शोरिशन गयी अपने जुनूँ की
अब संग मदावा है इस आशुफ़्तासरी का

हर ज़ख़्म-ए-जिगर दावर-ए-महशर से हमारा
इंसाफ़ तलब है तेरी बेदादगरी का

इस रंग से झमके है पलक पर के कहे तू
टुकड़ा है मेरा अश्क अक़ीक़े-जिगरी का

ले साँस भी आहिस्ता से नाज़ुक़ है बहुत काम
आफ़ाक़ है इस कारगाहे-शीशागरी का

टुक मीरे-जिगर सोख़्ता की जल्द ख़बर ले
क्या यार भरोसा है चराग़े-सहरी का


(ताजवरी=मुकुट धारण करने का, नौहागरी=मृत्यु पर
किया जाने वाला विलाप, आफ़ाक़=जीवन, सफ़री=
यात्री, ज़िन्दाँ=जेल, संग=पत्थर, मदावा=इलाज,
आशुफ़्तासरी=जंगलीपन,वहशीपन, अक़ीक़े-जिगरी=
हृदय के हीरे, कारगाहे-शीशागरी=शीशे का कारख़ाने,
टुक=ज़रा, मीरे-जिगर सोख़्ता=मीर जैसे दिल के
मारे हुए, चराग़े-सहरी=सुबह का चिराग़)

36. मेहर की तुझसे तवक़्क़ो थी सितमगर निकला

मेहर की तुझसे तवक़्क़ो थी सितमगर निकला
मोम समझे थे तेरे दिल को सो पत्थर निकला

दाग़ हूँ रश्क-ए-मोहब्बत से के इतना बेताब
किस की तस्कीं के लिये घर से तू बाहर निकला

जीते जी आह तेरे कूचे से कोई न फिरा
जो सितमदीदा रहा जाके सो मर कर निकला

दिल की आबादी की इस हद है ख़राबी के न पूछ
जाना जाता है कि इस राह से लश्कर निकला

अश्क-ए-तर, क़तरा-ए-ख़ूँ, लख़्त्-ए-जिगर, पारा-ए-दिल
एक से एक अदू आँख से बेहतर निकला

हम ने जाना था लिखेगा तू कोई हर्फ़ अए 'मीर'
पर तेरा नामा तो एक शौक़ का दफ़्तर निकला

37. बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया

बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया
अबके शर्ते-वफ़ा बजा लाया

क़द्र रखती न थी मताए-दिल
सारे आलम को मैं दिखा लाया

दिल कि यक क़तरा-ए-ख़ूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया

सब पे जिस बार ने गिरानी की
उसको यह नातवाँ उठा लाया

दिल मुझे उस गली में ले जाकर
और भी ख़ाक में मिला लाया

इब्तिदा ही में मर गए सब यार
इश्क़ की कौन इंतिहा लाया

अब तो जाते हैं बुतकदे से मीर
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया


(आलम=दुनिया, गिरानी=अभाव,
नातवाँ=दुर्बल, इब्तिदा=शुरुआत,
इंतिहा=अंत, बुतकदे=मंदिर, प्रेयसी का घर,
बारहा=प्राय:, गोर=क़ब्र, शर्ते-वफ़ा बजा
लाया=वफ़ादारी की शर्त निभाई, मताए-
दिल=दिल जैसी वस्तु, आलम=जहान,
यक क़तरा-ए-ख़ूँ नहीं है बेश=रक्त की
एक बूँद से अधिक नहीं है, बला=तबाही,
बार=बोझ,भार, गिरानी=भारी लगा,
नातवाँ=कमज़ोर, बुतक़दे=मूर्तियों वाले
मंदिर को)

38. आ जायें हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ

आ जायें हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ
मोहलत बसाँ-ए-बर्क़-ओ-शरार कम बहुत है याँ

यक लहज़ा सीना कोबी से फ़ुरसत हमें नहीं
यानि कि दिल के जाने का मातम बहुत है याँ

हम रहरवाँ-ए-राह-ए-फ़ना देर रह चुके
वक़्फ़ा बसाँ-ए-सुबह् कोई दम बहुत है याँ

हासिल है क्या सिवाये तरै के दहर में
उठ आस्माँ तले से के शबनम बहुत है याँ

इस बुतकदे में मानी का किस से करें सवाल
आदम नहीं सूरत-ए-अदम बहुर है याँ

अजाज़-ए-इसवी से नहीं बहस इश्क़ में
तेरी ही बात जान-ए-मुजस्सिम बहुत है याँ

मेरे हिलाक करने का ग़म है अबस तुम्हें
तुम शाद ज़िंदगानी करो ग़म बहुत है याँ

शायद के काम सुबह् तक अपना खिंचे न 'मीर'
अहवाल आज शाम से दरहम बहुत है याँ

39. बात क्या आदमी की बन आई

बात क्या आदमी की बन आई
आस्माँ से ज़मीन नपवाई

चरख ज़न उसके वास्ते है मदाम
हो गया दिन तमाम रात आई

माह-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-बाद सभी
उसकी ख़ातिर हुए हैं सौदाई

कैसे कैसे किये तरद्दद जब
रंग रंग उसको चीज़ पहुँचाई

उसको तरजीह सब के उपर दे
लुत्फ़-ए-हक़ ने की इज़्ज़त अफ़ज़ाई

हैरत आती है उसकी बातें देख
ख़ुद सरी ख़ुद सताई ख़ुदराई

शुक्र के सज्दों में ये वाजिब था
ये भी करता सदा जबीं साई

सो तो उसकी तबीयत-ए-सरकश
सर न लाई फ़रो के टुक लाई

'मीर' नाचीज़ मुश्त-ए-ख़ाक अल्लाह
उन ने ये किबरिया कहाँ पाई

40. कोफ़्त से जान लब पर आई है

कोफ़्त से जान लब पर आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है

लिखते रुक़ा, लिख गए दफ़्तर
शौक़ ने बात क्या बड़ाई है

दीदनी है शिकस्गी दिल की
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है

है तसन्ना के लाल हैं वो लब
यानि इक बात सी बबाई है

दिल से नज़दीक और इतना दूर
किस से उसको कुछ आश्नाई है

जिस मर्ज़ में के जान जाती है
दिलबरों ही की वो जुदाई है

याँ हुए ख़ाक से बराबर हम
वाँ वही नाज़-ए-ख़ुदनुमाई है

मर्ग-ए-मजनूँ पे अक़्ल गुम है 'मीर'
क्या दीवाने ने मौत पाई है

41. मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद

मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
रख के तेशा कहे है 'या उस्ताद'

हम से बिन मर्ग क्या जुदा हो मलाल
जान के साथ है दिल-ए-नाशाद

फ़िक्र-ए-तामीर में न रह मुनीम
ज़िन्दगी की कुछ भी है बुनियाद

ख़ाक भी सर पे डालने को नहीं
किस ख़राबे में हम हुये आबाद

सुनते हो तुक सुनो कि फिर मुझ बाद
न सुनोगे ये नाला-ओ-फ़रियाद

हर तरफ़ हैं असीर हम-आवाज़
बाग़ है घर तेरा तो ऐ सय्याद

हम को मरना ये है के कब होवे
अपनी क़ैद-ए-हयात से आज़ाद

42. ब-रंग-ए-बू-ए-गुल, इस बाग़ के हम आश्ना होते

ब-रंग-ए-बू-ए-गुल, इस बाग़ के हम आश्ना होते
कि हम-राह-ए-सबा टुक सैर करते, और हवा होते

सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हमको
वगरना हम ख़ुदा थे, गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते

फ़लक, ऐ काश्! हमको ख़ाक ही रखता, कि उस में हम
ग़ुबार-ए-राह होते या किसी की ख़ाक-ए-पा होते

इलाही कैसे होते हैं जिंहें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामन-गार होती है, ख़ुदा होते

कहें जो कुछ मलामतगार, बजा है 'मीर' क्या जाने
उंहें मालूम तब होता, कि वैसे से जुदा होते

43. मीर दरिया है, सुने शेर ज़बानी उस की

'मीर' दरिया है, सुने शेर ज़बानी उस की
अल्लाह अल्लाह रे तबियत की रवानी उस की

मिंह तो बोछाड़ का देखा है बरसते तुमने
इसी अंदाज़ से थी अश्क-फ़िशानी उस की

बात की तर्ज़ को देखो तो कोई जदू था
पर मिली ख़ाक में सब सहर बयानी उस की

मर्सि-ए-दिल के कई कह के दिये लोगों ने
शहर-ए-दिल्ली में है सब पास निशानी उस की

अब गये उस के जो अफ़सोस नहीं कुछ हासिल
हैफ़ सद हैफ़ कि कुछ क़द्र न जानी उस की

44. यार बिन तल्ख़ जिंदगानी थी

यार बिन तल्ख़ जिंदगानी थी
दोस्ती मुद्दई-ए-जानी थी

शेब में फ़ायदा त'म्मुल का
सोचना तब था जब जवानी थी

मेरे क़िस्से से सब की नींदें गईं
कुछ अजब तौर की कहानी थी

कू-ए-क़ातिल से बच के निकला ख़िज़्र
इसी में उस की ज़िंदगनी थी

फ़ित्र पर भी था 'मीर' के इक रंग
कफ़नी पहनी तो ज़ाफ़रानी थी

45. शिकवा करूँ मैं कब तक उस अपने मेहरबाँ का

शिकवा करूँ मैं कब तक उस अपने मेहरबाँ का
अल-क़िस्सा रफ़्ता रफ़्ता दुश्मन हुआ है जाँ का

दी आग रंग-ए-गुल ने वाँ ऐ सबा चमन को
याँ हम जले क़फ़स में सुन हाल आशियाँ का

हर सुबह मेरे सर पर इक हादिसा नया है
पैवंद हो ज़मीं का, शेवा इस आसमाँ का

कम-फ़ुर्सती जहाँ के मज्मा की कुछ न पूछो
अहवाल क्या कहूँ मैं, इस मज्लिस-ए-रवाँ का

या रोये, या रुलाये, अपनी तो यूँ ही गुज़री
क्या ज़िक्र हम सफ़ीरान याराँ-ए-शादमाँ का

क़ैद-ए-क़फ़स में हैं तो ख़िदमत है नालिगी की
गुलशन में थे तो हम को मंसब था रौज़ाख़वाँ का

पूछो तो 'मीर' से क्या कोई नज़र पड़ा है
चेहरा उतर रहा है कुछ आज उस जवाँ का

46. अब जो इक हसरत-ए-जवानी है

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है।

ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में, और
हम को धोखा ये था के पानी है।

गिरिया हर वक़्त का नहीं बेहेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है।

हम क़फ़स ज़ाद क़ैदी हैं वरना
ता चमन परफ़शानी है।

याँ हुये 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक
वाँ वही नाज़-ओ-सर्गिरानी है।

47. शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत

शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत
मर्सिये ने दिल को मेरे भी रुलाया है बहुत

वादी-ओ-कोहसर में रोता हूँ धाड़े मार-मार
दिलबरान-ए-शहर ने मुझ को सताया है बहुत

वा नहीं होता किसी से दिल गिरिफ़्ता इश्क़ का
ज़ाहिरा ग़म-गीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत

48. चलते हो तो चमन को चलिये

चलते हो तो चमन को चलिये
कहतए हैं कि बहाराँ है

पात हरे हैं फूल खिले हैं
कम कम बाद-ओ-बाराँ है

आगे मैख़ाने को निकलो
अहद-ए-बादा गुज़ाराँ है

लोहु-पानी एक करे ये
इश्क़-ए-लालाअज़ाराँ है

इश्क़ में हमको "मीर" निहायत
पास-ए-इज़्ज़त-दाताँ है

49. दुश्मनी हमसे की ज़माने ने

दुश्मनी हमसे की ज़माने ने
जो जफ़ाकार तुझसा यार किया

ये तवाहुम का कारख़ाना है
याँ वही है जो ऐतबार किया

हम फ़क़ीरों से बे-अदाई क्या
आन बैठे जो तुमने प्यार किया

सद रग-ए-जाँ को ताब दे बाहम
तेरी ज़ुल्फ़ों का एक तार किया

सख़त काफ़िर था जिसने पहले "मीर"
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया

50. यारो मुझे मुआफ़ करो मैं नशे में हूँ

यारो मुझे मु'आफ़ रखो मैं नशे में हूँ
अब दो तो जाम खाली ही दो मैं नशे में हूँ

माज़ूर हूँ जो पाओं मेरा बेतरह पड़े
तुम सर-गराँ तो मुझ से न हो मैं नशे में हूँ

या हाथों हाथ लो मुझे मानिंद-ए-जाम-ए-मय
या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ

मस्ती से दरहमी है मेरी गुफ्तगू के बीच
जो चाहो तुम भी मुझको को कहो में नशे में हूँ

नाजुक मिजाज आप क़यामत है मीर जी
ज्यों शीशा मेरे मुंह न लगो में नशे में हूँ

  • शायरी मीर तकी मीर (2)
  • मुख्य पृष्ठ : शायरी/काव्य रचनाएँ : मीर तक़ी मीर
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