हिन्दी में कविता/शायरी : मीर तकी मीर

Poetry/Shayari in Hindi : Mir Taqi Mir

101. छाती जला करे है सोज़-ए-दरूँ बला है

छाती जला करे है सोज़-ए-दरूँ बला है
इक आग सी रहे है क्या जानिए कि क्या है

मैं और तू हैं दोनों मजबूर-ए-तौर अपने
पेशा तिरा जफ़ा है शेवा मिरा वफ़ा है

रू-ए-सुख़न है कीधर अहल-ए-जहाँ का या रब
सब मुत्तफ़िक़ हैं इस पर हर एक का ख़ुदा है

कुछ बे-सबब नहीं है ख़ातिर मिरी परेशाँ
दिल का अलम जुदा है ग़म जान का जुदा है

हुस्न उन भी मोइनों का था आप ही सूरतों में
इस मर्तबे से आगे कोई चले तो क्या है

शादी से ग़म-ए-जहाँ में वो चंद हम ने पाया
है ईद एक दिन तो दस रोज़ याँ दहा है

है ख़सम-जान-ए-आशिक़ वो महव-ए-नाज़ लेकिन
हर लम्हा बे-अदाई ये भी तो इक अदा है

हो जाए यास जिस में सो आशिक़ी है वर्ना
हर रंज को शिफ़ा है हर दर्द को दवा है

नायाब उस गुहर की क्या है तलाश आसाँ
जी डूबता है उस का जो तह से आश्ना है

मुशफ़िक़ मलाज़ ओ क़िबला काबा ख़ुदा पयम्बर
जिस ख़त में शौक़ से मैं क्या क्या उसे लिखा है

तासीर-ए-इश्क़ देखो वो नामा वाँ पहुँच कर
जूँ काग़ज़-ए-हवाई हर सू उड़ा फिरा है

है गरचे तिफ़्ल-ए-मकतब वो शोख़ अभी तो लेकिन
जिस से मिला है उस का उस्ताद हो मिला है

फिरते हो 'मीर' साहब सब से जुदे जुदे तुम
शायद कहीं तुम्हारा दिल इन दिनों लगा है

102. छुटता ही नहीं हो जिसे आज़ार-ए-मोहब्बत

छुटता ही नहीं हो जिसे आज़ार-ए-मोहब्बत
मायूस हूँ मैं भी कि हूँ बीमार-ए-मोहब्बत

इम्काँ नहीं जीते-जी हो इस क़ैद से आज़ाद
मर जाए तभी छूटे गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत

तक़्सीर न ख़ूबाँ की न जल्लाद का कुछ जुर्म
था दुश्मन-ए-जानी मिरा इक़रार-ए-मोहब्बत

हर जिंस के ख़्वाहाँ मिले बाज़ार-ए-जहाँ में
लेकिन न मिला कोई ख़रीदार-ए-मोहब्बत

इस राज़ को रख जी ही में ता जी बचे तेरा
ज़िन्हार जो करता हो तू इज़हार-ए-मोहब्बत

हर नक़्श-ए-क़दम पर तिरे सर बेचे हैं आशिक़
टुक सैर तो कर आज तू बाज़ार-ए-मोहब्बत

कुछ मस्त हैं हम दीदा-ए-पुर-ख़ून-ए-जिगर से
आया यही है साग़र-ए-सरशार-ए-मोहब्बत

बेकार न रह इश्क़ में तू रोने से हरगिज़
ये गिर्या ही है आब-ए-रुख़-ए-कार-ए-मोहब्बत

मुझ सा ही हो मजनूँ भी ये कब माने है आक़िल
हर सर नहीं ऐ 'मीर' सज़ा-वार-ए-मोहब्बत

103. जफ़ाएँ देख लियाँ बेवफ़ाइयाँ देखीं

जफ़ाएँ देख लियाँ बेवफ़ाइयाँ देखीं
भला हुआ कि तिरी सब बुराइयाँ देखीं

तिरी गली से सदा ऐ कशंदा-ए-आलम
हज़ारों आती हुई चारपाइयाँ देखीं

गया नज़र से जो वो गर्म तिफ़्ल-ए-आतिश-बाज़
हम अपने चेहरे पे उड़ती हवाईयाँ देखीं

तिरे विसाल के हम शौक़ में हों आवारा
अज़ीज़ दोस्त सभों की जुदाइयाँ देखीं

हमेशा माइल-ए-आईना ही तुझे पाया
जो देखीं हम ने यही ख़ुद-नुमाईयाँ देखीं

शहाँ कि कोहल-ए-जवाहर थी ख़ाक-ए-पा जिन की
उन्हीं की आँखों में फिरते सलाईयाँ देखीं

बनी न अपनी तो उस जंग-जू से हरगिज़ 'मीर'
लड़ाईं जब से हम आँखें लड़ाइयाँ देखीं

104. जब नाम तिरा लीजिए तब चश्म भर आवे

जब नाम तिरा लीजिए तब चश्म भर आवे
इस ज़िंदगी करने को कहाँ से जिगर आवे

तलवार का भी मारा ख़ुदा रक्खे है ज़ालिम
ये तो हो कोई गोर-ए-ग़रीबाँ में दर आवे

मय-ख़ाना वो मंज़र है कि हर सुब्ह जहाँ शैख़
दीवार पे ख़ुर्शीद का मस्ती से सर आवे

क्या जानें वे मुर्ग़ान-ए-गिरफ़्तार-ए-चमन को
जिन तक कि ब-सद-नाज़ नसीम-ए-सहर आवे

तू सुब्ह क़दम-रंजा करे टुक तो है वर्ना
किस वास्ते आशिक़ की शब-ए-ग़म बसर आवे

हर सू सर-ए-तस्लीम रखे सैद-ए-हरम हैं
वो सैद-फ़गन तेग़-ब-कफ़ ता किधर आवे

दीवारों से सर मारते फिरने का गया वक़्त
अब तू ही मगर आप कभू दर से दर आवे

वाइज़ नहीं कैफ़ियत-ए-मय-ख़ाना से आगाह
यक जुरआ बदल वर्ना मिंदील धर आवे

सन्ना हैं सब ख़्वार अज़ाँ जुमला हूँ मैं भी
है ऐब बड़ा उस में जिसे कुछ हुनर आवे

ऐ वो कि तू बैठा है सर-ए-राह पे ज़िन्हार
कहियो जो कभू 'मीर' बला-कश इधर आवे

मत दश्त-ए-मोहब्बत में क़दम रख कि ख़िज़्र को
हर गाम पे इस रह में सफ़र से हज़र आवे

105. जब रोने बैठता हूँ तब क्या कसर रहे है

जब रोने बैठता हूँ तब क्या कसर रहे है
रूमाल दो दो दिन तक जूँ अब्र-ए-तर रहे है

आह-ए-सहर की मेरी बरछी के वसवसे से
ख़ुर्शीद के मुँह ऊपर अक्सर सिपर रहे है

आगह तो रहिए उस की तर्ज़-ए-रह-ओ-रविश से
आने में उस के लेकिन किस को ख़बर रहे है

उन रोज़ों इतनी ग़फ़लत अच्छी नहीं इधर से
अब इज़्तिराब हम को दो दो पहर रहे है

आब-ए-हयात की सी सारी रविश है उस की
पर जब वो उठ चले है एक आध मर रहे है

तलवार अब लगा है बे-डोल पास रखने
ख़ून आज कल किसू का वो शोख़ कर रहे है

दर से कभू जो आते देखा है मैं ने उस को
तब से उधर ही अक्सर मेरी नज़र रहे है

आख़िर कहाँ तलक हम इक रोज़ हो चुकेंगे
बरसों से वादा-ए-शब हर सुब्ह पर रहे है

'मीर' अब बहार आई सहरा में चल जुनूँ कर
कोई भी फ़स्ल-ए-गुल में नादान घर रहे है

106. जब हम-कलाम हम से होता है पान खा कर

जब हम-कलाम हम से होता है पान खा कर
किस रंग से करे है बातें चबा चबा कर

थी जुम्लातन लताफ़त आलम में जाँ के हम तो
मिट्टी में अट गए हैं इस ख़ाक-दाँ में आ कर

सई ओ तलब बहुत की मतलब के तईं न पहुँचे
नाचार अब जहाँ से बैठे हैं हाथ उठा कर

ग़ैरत ये थी कि आया उस से जो मैं ख़फ़ा हो
मरते मुआ पे हरगिज़ ऊधर फिरा न जा कर

क़ुदरत ख़ुदा की सब में ख़लउल-इज़ार आओ
बैठो जो मुझ कने तो पर्दे में मुँह छुपा कर

अरमान है जिन्हों को वे अब करें मोहब्बत
हम तो हुए पशीमाँ दिल के तईं लगा कर
मैं 'मीर' तर्क ले कर दुनिया से हाथ उठाया
दरवेश तू भी तो है हक़ में मिरे दुआ कर

107. जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं

जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं
इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं

क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे
जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं

मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं

किस का है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे
देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं

गह लोहू टपकता है गह लख़्त-ए-दिल आँखों से
या टुकड़े जिगर ही के हर आन निकलते हैं

करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश
अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं

जागह से भी जाते हो मुँह से भी ख़शिन हो कर
वे हर्फ़ नहीं हैं जो शायान निकलते हैं

सो काहे को अपनी तू जोगी की सी फेरी है
बरसों में कभू ईधर हम आन निकलते हैं

उन आईना-रूयों के क्या 'मीर' भी आशिक़ हैं
जब घर से निकलते हैं हैरान निकलते हैं

108. जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए

जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए

होता नहीं है उस लब-ए-नौ-ख़त पे कोई सब्ज़
ईसा ओ ख़िज़्र क्या सभी यक-बार मर गए

यूँ कानों-कान गुल ने न जाना चमन में आह
सर को पटक के हम पस-ए-दीवार मर गए

सद कारवाँ वफ़ा है कोई पूछता नहीं
गोया मता-ए-दिल के ख़रीदार मर गए

मजनूँ न दश्त में है न फ़रहाद कोह में
था जिन से लुत्फ़-ए-ज़िंदगी वे यार मर गए

गर ज़िंदगी यही है जो करते हैं हम असीर
तो वे ही जी गए जो गिरफ़्तार मर गए

अफ़्सोस वे शहीद कि जो क़त्ल-गाह में
लगते ही उस के हाथ की तलवार मर गए

तुझ से दो-चार होने की हसरत के मुब्तिला
जब जी हुए वबाल तो नाचार मर गए

घबरा न 'मीर' इश्क़ में उस सहल-ए-ज़ीस्त पर
जब बस चला न कुछ तो मिरे यार मर गए

109. जिस जगह दौर-ए-जाम होता है

जिस जगह दौर-ए-जाम होता है
वाँ ये आजिज़ मुदाम होता है

हम तो इक हर्फ़ के नहीं मम्नून
कैसा ख़त ओ पयाम होता है

तेग़ नाकामों पे न हर दम खींच
इक करिश्मे में काम होता है

पूछ मत आह आशिक़ों की मआश
रोज़ उन का भी शाम होता है

ज़ख़्म बिन ग़म बिन और ग़ुस्सा बिन
अपना खाना हराम होता है

शैख़ की सी ही शक्ल है शैतान
जिस पे शब एहतेलाम होता है

क़त्ल को मैं कहा तो उठ बोला
आज कल सुब्ह ओ शाम होता है

आख़िर आऊँगा नाश पर अब आह
कि ये आशिक़ तमाम होता है

'मीर' साहब भी उस के हाँ थे पर
जैसे कोई ग़ुलाम होता है

110. जो कहो तुम सो है बजा साहब

जो कहो तुम सो है बजा साहब
हम बुरे ही सही भला साहब

सादा ज़ेहनी में नुक्ता-चीं थे तुम
अब तो हैं हर्फ़ आश्ना साहब

न दिया रहम टुक बुतों के तईं
क्या किया हाए ये ख़ुदा साहब

बंदगी एक अपनी क्या कम है
और कुछ तुम से कहिए क्या साहब

मेहर अफ़ज़ा है मुँह तुम्हारा ही
कुछ ग़ज़ब तो नहीं हुआ साहब

ख़त के फटने का तुम से क्या शिकवा
अपने ताले का ये लिखा साहब

फिर गईं आँखें तुम न आन फिरे
देखा तुम को भी वाह वा साहब

शौक़-ए-रुख़ याद-ए-लब ग़म-ए-दीदार
जी में क्या क्या मिरे रहा साहब

भूल जाना नहीं ग़ुलाम का ख़ूब
याद ख़ातिर रहे मिरा साहब

किन ने सुन शेर 'मीर' ये न कहा
कहियो फिर हाए क्या कहा साहब

111. जोशिश-ए-अश्क से हूँ आठ पहर पानी में

जोशिश-ए-अश्क से हूँ आठ पहर पानी में
गरचे होते हैं बहुत ख़ौफ़-ओ-ख़तर पानी में

ज़ब्त-ए-गिर्या ने जलाया है दरूना सारा
दिल अचम्भा है कि है सोख़्ता-तर पानी में

आब-ए-शमशीर-ए-क़यामत है बुरिंदा उस की
ये गवाराई नहीं पाते हैं हर पानी में

तब-ए-दरिया जो हो आशुफ़्ता तो फिर तूफ़ाँ है
आह बालों को परागंदा न कर पानी में

ग़र्क़ आब-ए-अश्क से हूँ लेक उड़ा जाता हूँ
जूँ समक गो कि मिरे डूबे हैं पर पानी में

मर्दुम-ए-दीदा-ए-तर मर्दुम-ए-आबी हैं मगर
रहते हैं रोज़ ओ शब ओ शाम-ओ-सहर पानी में

हैअत आँखों की नहीं वो रही रोते रोते
अब तो गिर्दाब से आते हैं नज़र पानी में

गिर्या-ए-शब से बहुत आँख डरे है मेरी
पाँव रुकते ही नहीं बार-ए-दिगर पानी में

फ़र्त-ए-गिर्या से हुआ 'मीर' तबाह अपना जहाज़
तख़्ता पारे गए क्या जानूँ किधर पानी में

112. ता-ब मक़्दूर इंतिज़ार किया

ता-ब मक़्दूर इंतिज़ार किया
दिल ने अब ज़ोर बे-क़रार किया

दुश्मनी हम से की ज़माने ने
कि जफ़ाकार तुझ सा यार किया

ये तवहहुम का कार-ख़ाना है
याँ वही है जो ए'तिबार किया

एक नावक ने उस की मिज़्गाँ के
ताएर-ए-सिदरा तक शिकार किया

सद-रग-ए-जाँ को ताब दे बाहम
तेरी ज़ुल्फ़ों का एक तार किया

हम फ़क़ीरों से बे-अदाई क्या
आन बैठे जो तुम ने प्यार किया

सख़्त काफ़िर था जिन ने पहले 'मीर'
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया

113. ताब-ए-दिल सर्फ़-ए-जुदाई हो चुकी

ताब-ए-दिल सर्फ़-ए-जुदाई हो चुकी
यानी ताक़त आज़माई हो चुकी

छूटता कब है असीर-ए-ख़ुश-ज़बाँ
जीते जी अपनी रिहाई हो चुकी

आगे हो मस्जिद के निकली उस की राह
शैख़ से अब पारसाई हो चुकी

दरमियाँ ऐसा नहीं अब आईना
मेरे उस के अब सफ़ाई हो चुकी

एक बोसा माँगते लड़ने लगे
इतने ही में आश्नाई हो चुकी

बीच में हम ही न हों तो लुत्फ़ क्या
रहम कर अब बेवफ़ाई हो चुकी

आज फिर था बे-हमीयत 'मीर' वाँ
कल लड़ाई सी लड़ाई हो चुकी

114. तेरा रुख़-ए-मुख़त्तत क़ुरआन है हमारा

तेरा रुख़-ए-मुख़त्तत क़ुरआन है हमारा
बोसा भी लें तो क्या है ईमान है हमारा

गर है ये बे-क़रारी तो रह चुका बग़ल में
दो रोज़ दिल हमारा मेहमान है हमारा

हैं इस ख़राब दिल से मशहूर शहर-ए-ख़ूबाँ
इस सारी बस्ती में घर वीरान है हमारा

मुश्किल बहुत है हम सा फिर कोई हाथ आना
यूँ मारना तो प्यारे आसान है हमारा

इदरीस ओ ख़िज़्र ओ ईसा क़ातिल से हम छुड़ाए
उन ख़ूँ-गिरफ़्तगाँ पर एहसान है हमारा

हम वे हैं सुन रखो तुम मर जाएँ रुक के यकजा
क्या कूचा कूचा फिरना उनवान है हमारा

हैं सैद-गह के मेरी सय्याद क्या न धड़के
कहते हैं सैद जो है बे-जान है हमारा

करते हैं बातें किस किस हंगामे की ये ज़ाहिद
दीवान-ए-हश्र गोया दीवान है हमारा

ख़ुर्शीद-रू का परतव आँखों में रोज़ हैगा
यानी कि शर्क़-रूया दालान है हमारा

माहिय्यत-ए-दो-आलम खाती फिरे है ग़ोते
यक क़तरा ख़ून ये दिल तूफ़ान है हमारा

नाले में अपने हर शब आते हैं हम भी पिन्हाँ
ग़ाफ़िल तिरी गली में मिंदान है हमारा

क्या ख़ानदाँ का अपने तुझ से कहें तक़द्दुस
रूहुल-क़ुदूस इक अदना दरबान है हमारा

करता है काम वो दिल जो अक़्ल में न आवे
घर का मुशीर कितना नादान है हमारा

जी जा न आह ज़ालिम तेरा ही तो है सब कुछ
किस मुँह से फिर कहें जी क़ुर्बान है हमारा

बंजर ज़मीन दिल की है 'मीर' मिल्क अपनी
पुर-दाग़ सीना मोहर-ए-फ़रमान है हमारा

115. दामन वसीअ था तो काहे को चश्म तरसा

दामन वसीअ था तो काहे को चश्म तरसा
रहमत ख़ुदा की तुझ को ऐ अब्र ज़ोर बरसा

शायद कबाब कर कर खाया कबूतर उन ने
नामा उड़ा फिरे है उस की गली में पर सा

वहशी मिज़ाज अज़-बस मानूस बादया हैं
उन के जुनूँ में जंगल अपना हुआ है घर सा

जिस हाथ में रहा की उस की कमर हमेशा
उस हाथ मारने का सर पर बंधा है कर सा

सब पेच की ये बातें हैं शाइरों की वर्ना
बारीक और नाज़ुक मू कब है उस कमर सा

तर्ज़-ए-निगाह उस की दिल ले गई सभों के
क्या मोमिन ओ बरहमन क्या गब्र और तरसा

तुम वाकि़फ़-ए-तरीक़-ए-बेताक़ती नहीं हो
याँ राह-ए-दो-क़दम है अब दूर का सफ़र सा

कुछ भी मआश है ये की उन ने एक चश्मक
जब मुद्दतों हमारा जी देखने को तरसा

टुक तर्क-ए-इश्क़ करिए लाग़र बहुत हुए हम
आधा नहीं रहा है अब जिस्म-ए-रंज-फ़र्सा

वाइज़ को ये जलन है शायद कि फ़रबही से
रहता है हौज़ ही में अक्सर पड़ा मगर सा

अंदाज़ से है पैदा सब कुछ ख़बर है उस को
गो 'मीर' बे-सर-ओ-पा ज़ाहिर है बे-ख़बर सा

116. दिल गए आफ़त आई जानों पर

दिल गए आफ़त आई जानों पर
ये फ़साना रहा ज़बानों पर

इश्क़ में होश ओ सब्र सुनते थे
रख गए हाथ सो तो कानों पर

गरचे इंसान हैं ज़मीं से वले
हैं दिमाग़ उन के आसमानों पर

शहर के शोख़ सादा-रू लड़के
ज़ुल्म करते हैं क्या जवानों पर

अर्श ओ दिल दोनों का है पाया बुलंद
सैर रहती है उन मकानों पर

जब से बाज़ार में है तुझ सी मता
भीड़ ही रहती है दुकानों पर

लोग सर देने जाते हैं कब से
यार के पाँव के निशानों पर

कजी ओबाश की है वो दर-बंद
डाले फिरता है बंद शानों पर

कोई बोला न क़त्ल में मेरे
मोहर की थी मगर दहानों पर

याद में उस के साक़-ए-सीमीं की
दे दे मारूँ हूँ हाथ रानों पर

थे ज़माने में ख़र्ची जिन की रूपे
फाँसा करते हैं उन को आनों पर

ग़म ओ ग़ुस्सा है हिस्से में मेरे
अब मईशत है उन ही खानों पर

क़िस्से दुनिया में 'मीर' बहुत सुने
न रखो गोश उन फ़सानों पर

117. दिल बहम पहुँचा बदन में तब से सारा तन जला

दिल बहम पहुँचा बदन में तब से सारा तन जला
आ पड़ी ये ऐसी चिंगारी कि पैराहन जला

सरकशी ही है जो दिखलाती है इस मज्लिस में दाग़
हो सके तो शम्अ साँ दीजे रग-ए-गर्दन जला

बदर साँ अब आख़िर आख़िर छा गई मुझ पर ये आग
वर्ना पहले था मिरा जूँ माह नौ दामन जला

कब तलक धूनी लगाए जोगियों की सी रहूँ
बैठे बैठे दर पे तेरे तो मिरा आसन जला

गर्मी उस आतिश के पर काले से रखे चश्म तब
जब कोई मेरी तरह से देवे सब तन मन जला

हो जो मिन्नत से तो क्या वो शब नशीनी बाग़ की
काट अपनी रात को ख़ार-ओ-ख़स-ए-गुल ख़न जला

सूखते ही आँसुओं के नूर आँखों का गया
बुझ ही जाते हैं दिए जिस वक़्त सब रोग़न जला

शोला अफ़्शानी नहीं ये कुछ नई इस आह से
दूँ लगी है ऐसी ऐसी भी कि सारा बन जला

आग सी इक दिल में सुलगे है कभू भड़की तो 'मीर'
देगी मेरी हड्डियों का ढेर जूँ ईंधन जला

118. दिल-ए-बेताब आफ़त है बला है

दिल-ए-बेताब आफ़त है बला है
जिगर सब खा गया अब क्या रहा है

हमारा तो है अस्ल-ए-मुद्दआ तू
ख़ुदा जाने तिरा क्या मुद्दआ है

मोहब्बत-कुश्ता हैं हम याँ किसू पास
हमारे दर्द की भी कुछ दवा है

हरम से दैर उठ जाना नहीं ऐब
अगर याँ है ख़ुदा वाँ भी ख़ुदा है

नहीं मिलता सुख़न अपना किसू से
हमारा गुफ़्तुगू का ढब जुदा है

कोई है दिल खिंचे जाते हैं ऊधर
फ़ुज़ूली है तजस्सुस ये कि क्या है

मरूँ मैं इस में या रह जाऊँ जीता
यही शेवा मिरा मेहर-ओ-वफ़ा है

सबा ऊधर गुल ऊधर सर्व ऊधर
उसी की बाग़ में अब तो हवा है

तमाशा-कर्दनी है दाग़-ए-सीना
ये फूल इस तख़्ते में ताज़ा खिला है

हज़ारों उन ने ऐसी कीं अदाएँ
क़यामत जैसे इक उस की अदा है

जगह अफ़्सोस की है बाद चंदे
अभी तो दिल हमारा भी बजा है

जो चुपके हूँ कहे चुपके हो क्यूँ तुम
कहो जो कुछ तुम्हारा मुद्दआ है

सुख़न करिए तो होवे हर्फ़-ज़न यूँ
बस अब मुँह मूँद ले मैं ने सुना है

कब उस बेगाना-ख़ू को समझे आलम
अगरचे यार आलम-आश्ना है

न आलम में है ने आलम से बाहर
प सब आलम से आलम ही जुदा है

लगा मैं गिर्द सर फिरने तो बोला
तुम्हारा 'मीर' साहिब सर-फिरा है

119. दो दिन से कुछ बनी थी सो फिर शब बिगड़ गई

दो दिन से कुछ बनी थी सो फिर शब बिगड़ गई
सोहबत हमारी यार से बेढब बिगड़ गई

वाशुद कुछ आगे आह सी होती थी दिल के तईं
इक़्लीम-ए-आशिक़ी की हवा अब बिगड़ गई

गर्मी ने दिल की हिज्र में उस के जला दिया
शायद कि एहतियात से ये तब बिगड़ गई

ख़त ने निकल के नक़्श दिलों के उठा दिए
सूरत बुतों की अच्छी जो थी सब बिगड़ गई

बाहम सुलूक था तो उठाते थे नर्म गर्म
काहे को 'मीर' कोई दबे जब बिगड़ गई

120. फ़लक करने के क़ाबिल आसमाँ है

फ़लक करने के क़ाबिल आसमाँ है
कि ये पीराना-सर जाहिल जवाँ है

गए उन क़ाफ़िलों से भी उठी गर्द
हमारी ख़ाक क्या जानें कहाँ है

बहुत ना-मेहरबाँ रहता है यानी
हमारे हाल पर कुछ मेहरबाँ है

हमें जिस जाए कल ग़श आ गया था
वहीं शायद कि उस का आस्ताँ है

मिज़ा हर इक है उस की तेज़ नावक
ख़मीदा भौं जो है ज़ोरीं कमाँ है

उसे जब तक है तीर-अंदाज़ी का शौक़
ज़बूनी पर मिरी ख़ातिर निशाँ है

चली जाती है धड़कों ही में जाँ भी
यहीं से कहते हैं जाँ को रवाँ है

उसी का दम भरा करते रहेंगे
बदन में अपने जब तक नीम-जाँ है

पड़ा है फूल घर में काहे को 'मीर'
झमक है गुल की बर्क़-ए-आशियाँ है

121. फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में सैर जो की हम ने जा-ए-गुल

फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में सैर जो की हम ने जा-ए-गुल
छानी चमन की ख़ाक न था नक़्श-ए-पा-ए-गुल

अल्लाह रे अंदलीब की आवाज़-ए-दिल-ख़राश
जी ही निकल गया जो कहा उन ने हाए गुल

मक़्दूर तक शराब से रख अँखड़ियों में रंग
ये चश्मक-ए-प्याला है साक़ी हवा-ए-गुल

ये देख सीना दाग़ से रश्क-ए-चमन है याँ
बुलबुल सितम हुआ न जो तू ने भी खाए गुल

बुलबुल हज़ार जी से ख़रीदार उस की है
ऐ गुलफ़रोश करियो समझ कर बहा-ए-गुल

निकला है ऐसी ख़ाक से किस सादा-रू की ये
क़ाबिल दुरूद भेजने के है सफ़ा-ए-गुल

बारे सरिश्क-ए-सुर्ख़ के दाग़ों से रात को
बिस्तर पर अपने सोते थे हम भी बिछाए गुल

आ अंदलीब सुल्ह करें जंग हो चुकी
ले ऐ ज़बाँ-दराज़ तू सब कुछ सिवाए गुल

गुलचीं समझ के चुनियो कि गुलशन में 'मीर' के
लख़्त-ए-जिगर पड़े हैं नहीं बर्ग-हा-ए-गुल

122. बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा

बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा
पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा

सई ओ तलाश बहुत सी रहेगी इस अंदाज़ के कहने की
सोहबत में उलमा फ़ुज़ला की जा कर पढ़िए गिनयेगा

दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की
आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा

गर्म अशआर 'मीर' दरूना दाग़ों से ये भर देंगे
ज़र्द-रू शहर में फिरिएगा गलियों में ने गुल चुनिएगा

123. बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो

बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो

इश्क़-पेचे की तरह हुस्न गिरफ़्तारी है
लुत्फ़ क्या सर्व की मानिंद गर आज़ाद रहो

हम को दीवानगी शहरों ही में ख़ुश आती है
दश्त में क़ैस रहो कोह में फ़रहाद रहो

वो गिराँ ख़्वाब जो है नाज़ का अपने सो है
दाद बे-दाद रहो शब को कि फ़रियाद रहो

'मीर' हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो

124. बे-यार शहर दिल का वीरान हो रहा है

बे-यार शहर दिल का वीरान हो रहा है
दिखलाई दे जहाँ तक मैदान हो रहा है

इस मंज़िल-ए-जहाँ के बाशिंदे रफ़तनी हैं
हर इक के हाँ सफ़र का सामान हो रहा है

अच्छा लगा है शायद आँखों में यार अपनी
आईना देख कर कुछ हैरान हो रहा है

गुल देख कर चमन में तुझ को खिला ही जा है
यानी हज़ार जी से क़ुर्बान हो रहा है

हाल-ए-ज़बून अपना पोशीदा कुछ न था तो
सुनता न था कि ये सैद बे-जान हो रहा है

ज़ालिम इधर की सुध ले जूँ शम-ए-सुब्ह-गाही
एक आध दम का आशिक़ मेहमान हो रहा है

क़ुर्बां-गह-ए-मोहब्बत वो जा है जिस में हर सू
दुश्वार जान देना आसान हो रहा है

हर शब गली में उस की रोते तो रहते हो तुम
इक रोज़ 'मीर' साहब तूफ़ान हो रहा है

125. मक्का गया मदीना गया कर्बला गया

मक्का गया मदीना गया कर्बला गया
जैसा गया था वैसा ही चल फिर के आ गया

देखा हो कुछ उस आमद-ओ-शुद में तो मैं कहूँ
ख़ुद गुम हुआ हूँ बात की तह अब जो पा गया

कपड़े गले के मेरे न हों आब-दीदा क्यूँ
मानिंद-ए-अब्र-ए-दीदा-ए-तर अब तो छा गया

जाँ-सोज़ आह ओ नाला समझता नहीं हूँ मैं
यक शोला मेरे दिल से उठा था जला गया

वो मुझ से भागता ही फिरा किब्र-ओ-नाज़ से
जूँ जूँ नियाज़ कर के मैं उस से लगा गया

जोर-ए-सिपहर-ए-दूँ से बुरा हाल था बहुत
मैं शर्म-ए-ना-कसी से ज़मीं में समा गया

देखा जो राह जाते तबख़्तुर के साथ उसे
फिर मुझ शिकस्ता-पा से न इक-दम रहा गया

बैठा तो बोरिए के तईं सर पे रख के 'मीर'
सफ़ किस अदब से हम फ़ुक़रा की उठा गया

126. मर मर गए नज़र कर उस के बरहना तन में

मर मर गए नज़र कर उस के बरहना तन में
कपड़े उतारे उन ने सर खींचे हम कफ़न में

गुल फूल से कब उस बिन लगती हैं अपनी आँखें
लाई बहार हम को ज़ोर-आवरी चमन में

अब लाल-ए-नौ-ख़त उस के कम बख़्शते हैं फ़रहत
क़ुव्वत कहाँ रहे है याक़ूती-ए-कुहन में

यूसुफ़ अज़ीज़-ए-दिला जा मिस्र में हुआ था
पाकीज़ा गौहरों की इज़्ज़त नहीं वतन में

दैर ओ हरम से तू तो टुक गर्म-ए-नाज़ निकला
हंगामा हो रहा है अब शैख़ ओ बरहमन में

आ जाते शहर में तू जैसे कि आँधी आई
क्या वहशतें किया हैं हम ने दिवानपन में

हैं घाव दिल पर अपने तेग़-ए-ज़बाँ से सब की
तब दर्द है हमारे ऐ 'मीर' हर सुख़न में

127. मर रहते जो गुल बिन तो सारा ये ख़लल जाता

मर रहते जो गुल बिन तो सारा ये ख़लल जाता
निकला ही न जी वर्ना काँटा सा निकल जाता

पैदा है कि पिन्हाँ थी आतिश-नफ़्सी मेरी
मैं ज़ब्त न करता तो सब शहर ये जल जाता

मैं गिर्या-ए-ख़ूनीं को रोके ही रहा वर्ना
इक दम में ज़माने का याँ रंग बदल जाता

बिन पूछे करम से वो जो बख़्श न देता तो
पुर्सिश में हमारी ही दिन हश्र का ढल जाता

इस्तादा जहाँ में था मैदान-ए-मोहब्बत में
वाँ रुस्तम अगर आता तो देख के टल जाता

वो सैर का वादी के माइल न हुआ वर्ना
आँखों को ग़ज़ालों की पाँव तले मल जाता

बे-ताब-ओ-तवाँ यूँ मैं काहे को तलफ़ होता
याक़ूती तिरे लब की मिलती तो सँभल जाता

उस सीम-बदन को थी कब ताब-ए-ताब इतनी
वो चाँदनी में शब की होता तो पिघल जाता

मारा गया तब गुज़रा बोसे से तिरे लब के
क्या 'मीर' भी लड़का था बातों में बहल जाता

128. मौसम-ए-गुल आया है यारो कुछ मेरी तदबीर करो

मौसम-ए-गुल आया है यारो कुछ मेरी तदबीर करो
यानी साया-ए-सर्व-ओ-गुल में अब मुझ को ज़ंजीर करो

पेश-ए-सआयत क्या जाए है हक़ है मेरी तरफ़ सो है
मैं तो चुप बैठा हूँ यकसू गर कोई तक़रीर करो

कान लगा रहता है ग़ैर उस शोख़ कमाँ अबरू के बहुत
इस तो गुनाह-ए-अज़ीम पे यारो नाक में उस की तीर करो

फेर दिए हैं दिल लोगों के मालिक ने कुछ मेरी तरफ़
तुम भी टुक ऐ आह-ओ-नाला क़ल्बों में तासीर करो

आगे ही आज़ुर्दा हैं हम दिल हैं शिकस्ता हमारे सब
हर्फ़-ए-रंजिश बीच में ला कर और न अब दिल-गीर करो

शेर किए मौज़ूँ तो ऐसे जिन से ख़ुश हैं साहिब-ए-दिल
रोवें कुढ़ें जो याद करें अब ऐसा तुम कुछ 'मीर' करो

129. यार ने हम से बे-अदाई की

यार ने हम से बे-अदाई की
वस्ल की रात में लड़ाई की

बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ
अब तवक़्क़ो नहीं रिहाई की

कुल्फ़त-ए-रंज-ए-इश्क़ कम न हुई
मैं दवा की बहुत शिफ़ाई की

तुर्फ़ा रफ़्तार के हैं रफ़्ता सब
धूम है उस की रहगिराई की

ख़ंदा-ए-यार से तरफ़ हो कर
बर्क़ ने अपनी जग-हँसाई की

कुछ मुरव्वत न थी उन आँखों में
देख कर क्या ये आश्नाई की

वस्ल के दिन को कार-ए-जाँ न खिंचा
शब न आख़िर हुई जुदाई की

मुँह लगाया न दुख़्तर-ए-रज़ को
मैं जवानी में पारसाई की

जौर उस संग-दिल के सब न खिंचे
उम्र ने सख़्त बेवफ़ाई की

कोहकन क्या पहाड़ तोड़ेगा
इश्क़ ने ज़ोर-आज़माई की

चुपके उस की गली में फिरते रहे
देर वाँ हम ने बे-नवाई की

इक निगह में हज़ार जी मारे
साहिरी की कि दिलरुबाई की

निस्बत उस आस्ताँ से कुछ न हुई
बरसों तक हम ने जब्हा-साई की

'मीर' की बंदगी में जाँ-बाज़ी
सैर सी हो गई ख़ुदाई की

130. यार मेरा बहुत है यार-फ़रेब

यार मेरा बहुत है यार-फ़रेब
मक्र है अहद सब क़रार-फ़रेब

राह रखते हैं उस के दाम से सैद
है बला कोई वो शिकार-फ़रेब

ओहदे से निकलें किस तरह आशिक़
एक अदा उस की है हज़ार-फ़रेब

इल्तिफ़ात-ए-ज़माना पर मत जा
'मीर' देता है रोज़गार-फ़रेब

131. ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था

ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था
अंदाज़-ए-सुख़न का सबब शोर ओ फ़ुग़ाँ था

जादू की पुड़ी पर्चा-ए-अबयात था उस का
मुँह तकिए ग़ज़ल पढ़ते अजब सेहर-बयाँ था

जिस राह से वो दिल-ज़दा दिल्ली में निकलता
साथ उस के क़यामत का सा हंगामा रवाँ था

अफ़्सुर्दा न था ऐसा कि जूँ आब-ज़दा ख़ाक
आँधी थी बला था कोई आशोब-ए-जहाँ था

किस मर्तबा थी हसरत-ए-दीदार मिरे साथ
जो फूल मिरी ख़ाक से निकला निगराँ था

मजनूँ को अबस दावा-ए-वहशत है मुझी से
जिस दिन कि जुनूँ मुझ को हुआ था वो कहाँ था

ग़ाफ़िल थे हम अहवाल-ए-दिल-ए-ख़स्ता से अपने
वो गंज उसी कुंज-ए-ख़राबी में निहाँ था

किस ज़ोर से फ़रहाद ने ख़ारा-शिकनी की
हर-चंद कि वो बेकस ओ बे-ताब-ओ-तवाँ था

गो 'मीर' जहाँ में किन्हों ने तुझ को न जाना
मौजूद न था तू तो कहाँ नाम-ओ-निशाँ था

132. रंज खींचे थे दाग़ खाए थे

रंज खींचे थे दाग़ खाए थे
दिल ने सदमे बड़े उठाए थे

पास-ए-नामूस-ए-इश्क़ था वर्ना
कितने आँसू पलक तक आए थे

वही समझा न वर्ना हम ने तो
ज़ख़्म छाती के सब दिखाए थे

अब जहाँ आफ़्ताब में हम हैं
याँ कभू सर्व ओ गुल के साए थे

कुछ न समझे कि तुझ से यारों ने
किस तवक़्क़ो पे दिल लगाए थे

फ़ुर्सत-ए-ज़िंदगी से मत पूछो
साँस भी हम न लेने पाए थे

'मीर' साहब रुला गए सब को
कल वे तशरीफ़ याँ भी लाए थे

133. रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं

रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं
साथ उस कारवाँ के हम भी हैं

शम्अ ही सर न दे गई बर्बाद
कुश्ता अपनी ज़बाँ के हम भी हैं

हम को मजनूँ को इश्क़ में मत बूझ
नंग उस ख़ानदाँ के हम भी हैं

जिस चमन-ज़ार का है तू गुल-ए-तर
बुलबुल इस गुलसिताँ के हम भी हैं

नहीं मजनूँ से दिल क़वी लेकिन
यार उस ना-तवाँ के हम भी हैं

बोसा मत दे किसू के दर पे नसीम
ख़ाक उस आस्ताँ के हम भी हैं

गो शब उस दर से दूर पहरों फिरें
पास तो पासबाँ के हम भी हैं

वजह-ए-बेगानगी नहीं मालूम
तुम जहाँ के हो वाँ के हम भी हैं

मर गए मर गए नहीं तो नहीं
ख़ाक से मुँह को ढाँके हम भी हैं

अपना शेवा नहीं कजी यूँ तो
यार जी टेढ़े बाँके हम भी हैं

इस सिरे की है पारसाई 'मीर'
मो'तक़िद उस जवाँ के हम भी हैं

134. रात गुज़रे है मुझे नज़अ में रोते रोते

रात गुज़रे है मुझे नज़अ में रोते रोते
आँखें फिर जाएँगी अब सुब्ह के होते होते

खोल कर आँख उड़ा दीद जहाँ का ग़ाफ़िल
ख़्वाब हो जाएगा फिर जागना सोते सोते

दाग़ उगते रहे दिल में मिरी नौमीदी से
हारा मैं तुख़्म-ए-तमन्ना को भी बोते बोते

जी चला था कि तिरे होंठ मुझे याद आए
लाल पाएँ हैं मैं इस जी ही के खोते खोते

जम गया ख़ूँ कफ़-ए-क़ातिल पे तिरा 'मीर' ज़ि-बस
उन ने रो रो दिया कल हाथ को धोते धोते

135. लज़्ज़त से नहीं ख़ाली जानों का खपा जाना

लज़्ज़त से नहीं ख़ाली जानों का खपा जाना
कब ख़िज़्र ओ मसीहा ने मरने का मज़ा जाना

हम जाह-ओ-हशम याँ का क्या कहिए कि क्या जाना
ख़ातिम को सुलैमाँ की अंगुश्तर-ए-पा जाना

ये भी है अदा कोई ख़ुर्शीद नमत प्यारे
मुँह सुब्ह दिखा जाना फिर शाम छुपा जाना

कब बंदगी मेरी सी बंदा करेगा कोई
जाने है ख़ुदा उस को मैं तुझ को ख़ुदा जाना

था नाज़ बहुत हम को दानिस्त पर अपनी भी
आख़िर वो बुरा निकला हम जिस को भला जाना

गर्दन-कशी क्या हासिल मानिंद बगूले की
इस दश्त में सर गाड़े जूँ सैल चला जाना

इस गिर्या-ए-ख़ूनीं का हो ज़ब्त तो बेहतर है
अच्छा नहीं चेहरे पर लोहू का बहा जाना

ये नक़्श दिलों पर से जाने का नहीं उस को
आशिक़ के हुक़ूक़ आ कर नाहक़ भी मिटा जाना

ढब देखने का ईधर ऐसा ही तुम्हारा था
जाते तो हो पर हम से टुक आँख मिला जाना

उस शम्अ की मज्लिस में जाना हमें फिर वाँ से
इक ज़ख़्म-ए-ज़बाँ ताज़ा हर रोज़ उठा जाना

ऐ शोर-ए-क़यामत हम सोते ही न रह जावें
इस राह से निकले तो हम को भी जगा जाना

क्या पानी के मोल आ कर मालिक ने गुहर बेचा
है सख़्त गिराँ सस्ता यूसुफ़ का बिका जाना

है मेरी तिरी निस्बत रूह और जसद की सी
कब आप से मैं तुझ को ऐ जान जुदा जाना

जाती है गुज़र जी पर उस वक़्त क़यामत सी
याद आवे है जब तेरा यक-बारगी आ जाना

बरसों से मिरे उस की रहती है यही सोहबत
तेग़ उस को उठाना तो सर मुझ को झुका जाना

कब 'मीर' बसर आए तुम वैसे फ़रेबी से
दिल को तो लगा बैठे लेकिन न लगा जाना

136. लड़ के फिर आए डर गए शायद

लड़ के फिर आए डर गए शायद
बिगड़े थे कुछ सँवर गए शायद

सब परेशाँ दिली में शब गुज़री
बाल उस के बिखर गए शायद

कुछ ख़बर होती तो न होती ख़बर
सूफि़याँ बे-ख़बर गए शायद

हैं मकान ओ सरा ओ जा ख़ाली
यार सब कूच कर गए शायद

आँख आईना-रू छुपाते हैं
दिल को ले कर मुकर गए शायद

लोहू आँखों में अब नहीं आता
ज़ख़्म अब दिल के भर गए शायद

अब कहीं जंगलों में मिलते नहीं
हज़रत-ए-ख़िज़्र मर गए शायद

बे-कली भी क़फ़स में है दुश्वार
काम से बाल ओ पर गए शायद

शोर बाज़ार से नहीं उठता
रात को 'मीर' घर गए शायद

137. वहशत थी हमें भी वही घर-बार से अब तक

वहशत थी हमें भी वही घर-बार से अब तक
सर मारे हैं अपने दर ओ दीवार से अब तक

मरते ही सुना उन को जिन्हें दिल-लगी कुछ थी
अच्छा हुआ कोई इस आज़ार से अब तक

जब से लगी हैं आँखें खुली राह तके हैं
सोए नहीं साथ उस के कभू प्यार से अब तक

आया था कभू यार सो मामूल हम उस के
बिस्तर पे गिरे रहते हैं बीमार से अब तक

बद-अहदियों में वक़्त-ए-वफ़ात आन भी पहुँचा
वादा न हुआ एक वफ़ा यार से अब तक

है क़हर ओ ग़ज़ब देख तरफ़ कुश्ते के ज़ालिम
करता है इशारत भी तू तलवार से अब तक

कुछ रंज-ए-दिली 'मीर' जवानी में खिंचा था
ज़र्दी नहीं जाती मिरे रुख़्सार से अब तक

138. वाँ वो तो घर से अपने पी कर शराब निकला

वाँ वो तो घर से अपने पी कर शराब निकला
याँ शर्म से अरक़ में डूब आफ़्ताब निकला

आया जो वाक़िए में दरपेश आलम-ए-मर्ग
ये जागना हमारा देखा तो ख़्वाब निकला

देखा जो ओस पड़ते गुलशन में हम तो आख़िर
गुल का वो रू-ए-ख़ंदाँ चश्म-ए-पुर-आब निकला

पर्दे ही में चला जा ख़ुर्शीद तो है बेहतर
इक हश्र है जो घर से वो बे-हिजाब निकला

कुछ देर ही लगी न दिल को तो तीर लगते
उस सैद-ए-नातवाँ का क्या जी शिताब निकला

हर हर्फ़-ए-ग़म ने मेरे मज्लिस के तईं रुलाया
गोया ग़ुबार दिल का पढ़ता किताब निकला

रू-ए-अरक़-फ़िशाँ को बस पोंछ गर्म मत हो
उस गुल में क्या रहेगा जिस का गुलाब निकला

मुतलक़ न ए'तिना की अहवाल पर हमारे
नामे का नामे ही में सब पेच-ओ-ताब निकला

शान-ए-तग़ाफ़ुल अपने नौ-ख़त की क्या लिखें हम
क़ासिद मुआ तब उस के मुँह से जवाब निकला

किस की निगह की गर्दिश थी 'मीर' रू-ब-मस्जिद
मेहराब में से ज़ाहिद मस्त-ओ-ख़राब निकला

139. वो देखने हमें टुक बीमारी में न आया

वो देखने हमें टुक बीमारी में न आया
सौ बार आँखें खोलीं बालीं से सर उठाया

गुलशन के ताएरों ने क्या बे-मुरव्वती की
यक बर्ग-ए-गुल क़फ़स में हम तक न कोई लाया

बे-हेच उस का ग़ुस्सा यारो बला-ए-जाँ है
हरगिज़ मना न हम से बहतेरा ही मनाया

क़द्द-ए-बुलंद अगरचे बे-लुत्फ़ भी नहीं है
सर्व-ए-चमन में लेकिन अंदाज़ा वो न पाया

नक़्शा अजब है उस का नक़्क़ाश ने अज़ल के
मतबू ऐसा चेहरा कोई न फिर बनाया

शब को नशे में बाहम थी गुफ़्तुगू-ए-दरहम
उस मस्त ने झँकाया यानी बहुत झुकाया

दिल-बस्तगी में खुलना उस का न उस से देखा
बख़्त-ए-निगूँ को हम ने सौ बार आज़माया

आशिक़ जहाँ हुआ है बे-ढंगियाँ ही की हैं
इस मीर-ए-बे-ख़िरद ने कब ढब से दिल लगाया

140. शहर से यार सवार हुआ जो सवाद में ख़ूब ग़ुबार है आज

शहर से यार सवार हुआ जो सवाद में ख़ूब ग़ुबार है आज
दश्ती वहश ओ तैर उस के सर तेज़ी ही में शिकार है आज

बरफ़रोख़्ता रुख़ है उस का किस ख़ूबी से मस्ती में
पी के शराब शगुफ़्ता हुआ है उस नौ-गुल पे बहार है आज

उस का बहर-ए-हुस्न सरासर औज ओ मौज ओ तलातुम है
शौक़ की अपने निगाह जहाँ तक जावे बोस-ओ-कनार है आज

आँखें उस की लाल हुईं हैं और चले जाते हैं सर
रात को दारू पी सोया था उस का सुब्ह ख़ुमार है आज

घर आए हो फ़क़ीरों के तो आओ बैठो लुत्फ़ करो
क्या है जान बिन अपने कने सो इन क़दमों पे निसार है आज

क्या पूछो हो साँझ तलक पहलू में क्या क्या तड़पा है
कल की निस्बत दिल को हमारे बारे कुछ तो क़रार है आज

ख़ूब जो आँखें खोल के देखा शाख़-ए-गुल सा नज़र आया
उन रंगों फूलों में मिला कुछ महव-ए-जल्वा-ए-यार है आज

जज़्ब-ए-इश्क़ जिधर चाहे ले जाए है महमिल लैला का
यानी हाथ में मजनूँ के नाक़े की उस के महार है आज

रात का पहना हार जो अब तक दिन को उतारा उन ने नहीं
शायद 'मीर' जमाल-ए-गुल भी उस के गले का हार है आज

141. शायद उस सादा ने रखा है ख़त

शायद उस सादा ने रखा है ख़त
कि हमें मुत्तसिल लिक्खा है ख़त

शौक़ से बात बढ़ गई थी बहुत
दफ़्तर उस को लिखें हैं क्या है ख़त

नामा कब यार ने पढ़ा सारा
न कहा ये भी आश्ना है ख़त

साथ हम भी गए हैं दूर तलक
जब उधर के तईं चला है ख़त

कुछ ख़लल राह में हुआ ऐ 'मीर'
नामा-बर कब से ले गया है ख़त

142. सुख़न मुश्ताक़ है आलम हमारा

सुख़न मुश्ताक़ है आलम हमारा
बहुत आलम करेगा ग़म हमारा

पढ़ेंगे शेर रो रो लोग बैठे
रहेगा देर तक मातम हमारा

नहीं है मर्जा-ए-आदम अगर ख़ाक
किधर जाता है क़द्द-ए-ख़म हमारा

ज़मीन ओ आसमाँ ज़ेर-ओ-ज़बर है
नहीं कम हश्र से ऊधम हमारा

किसू के बाल दरहम देखते 'मीर'
हुआ है काम-ए-दिल बरहम हमारा

143. है ग़ज़ल 'मीर' ये 'शिफ़ाई' की

है ग़ज़ल 'मीर' ये 'शिफ़ाई' की
हम ने भी तब्अ-आज़माई की

उस के ईफ़ा-ए-अहद तक न जिए
उम्र ने हम से बेवफ़ाई की

वस्ल के दिन की आरज़ू ही रही
शब न आख़िर हुई जुदाई की

इसी तक़रीब उस गली में रहे
मिन्नतें हैं शिकस्ता-पाई की

दिल में उस शोख़ के न की तासीर
आह ने आह ना-रसाई की

कासा-ए-चश्म ले के जूँ नर्गिस
हम ने दीदार की गदाई की

ज़ोर ओ ज़र कुछ न था तो बार-ए-'मीर'
किस भरोसे पर आश्नाई की

144. हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं

हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं
अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं

इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा
इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मसजूद जानते हैं

सूरत-पज़ीर हम बिन हरगिज़ नहीं वे माने
अहल-ए-नज़र हमीं को माबूद जानते हैं

इश्क़ उन की अक़्ल को है जो मा-सिवा हमारे
नाचीज़ जानते हैं ना-बूद जानते हैं

अपनी ही सैर करने हम जल्वा-गर हुए थे
इस रम्ज़ को व-लेकिन मादूद जानते हैं

यारब कसे है नाक़ा हर ग़ुंचा इस चमन का
राह-ए-वफ़ा को हम तो मसदूद जानते हैं

ये ज़ुल्म-ए-बे-निहायत दुश्वार-तर कि ख़ूबाँ
बद-वज़इयों को अपनी महमूद जानते हैं

क्या जाने दाब सोहबत अज़ ख़्वेश रफ़्तगाँ का
मज्लिस में शैख़-साहिब कुछ कूद जानते हैं

मर कर भी हाथ आवे तो 'मीर' मुफ़्त है वो
जी के ज़ियान को भी हम सूद जानते हैं

145. हो गई शहर शहर रुस्वाई

हो गई शहर शहर रुस्वाई
ऐ मिरी मौत तू भली आई

यक बयाबाँ ब-रंग सौत-ए-जरस
मुझ पे है बेकसी ओ तन्हाई

न खिंचे तुझ से एक जा नक़्क़ाश
उस की तस्वीर वो है हरजाई

सर रखूँ उस के पाँव पर लेकिन
दस्त-ए-क़ुदरत ये मैं कहाँ पाई

'मीर' जब से गया है दिल तब से
मैं तो कुछ हो गया हूँ सौदाई

146. ऐ हुबे-जाह वालो जो आज ताजवर है

ऐ हुबे-जाह वालो जो आज ताजवर है
कल उसको देखीयो तुम न ताज है न सर है

अब के हवा-ए-गुल में सेराबी है निहायत
जू-ए-चमन पे सबज़ा मिज़गाने-चशमेतर है

शमए-अख़ीरे-शब हूं सुन सरगुज़शत मेरी
फिर सुबह होने तक तो किस्सा ही मुख़तसर है

अब फिर हमारा उसका महशर में माजिरा है
देखें तो उस जगह क्या इनसाफ़े-दादगर है

आफ़त-रसीद हम क्या सर खेंचें इस चमन में
जूं-नख़ले-ख़ुशक हमको न साया न समर है



(हुबे-जा =धन मान, ताजवर=ताज पहने हुए,
सेराबी=नमी, निहायत=बहुत, जू-ए-चमन=बाग
वाली नहर, मिज़गाने-चशमेतर=भीगी आंखों
की पलकें, सरगुज़शत=कहानी, महशर,कयामत,
माजिरा=मामला, इनसाफ़े-दादगर=जज्ज का
न्याय, आफ़त-रसीद=मुसीबत में, सर खेंचे=
सिर उठाएँ, जूँ-नख़ले-ख़ुष्क=सूखे वृक्ष की तरह,
समर=फल)

  • शायरी मीर तकी मीर (2)
  • मुख्य पृष्ठ : शायरी/काव्य रचनाएँ : मीर तक़ी मीर
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