हिन्दी कविताएँ : सलिल सरोज

Hindi Poetry : Salil Saroj

1. शब्द

शब्द
अगर इतने ही
समझदार होते
तो खुद ही
गीत, कविता,
कहानी, नज़्म,
संस्मरण या यात्रा-वृतांत
बन जाते

शब्द
बच्चों की तरह
नासमझ और मासूम
होते हैं
जिन्हें भावों में
पिरोना पड़ता है
आहसासों में
संजोना पड़ता है
एक अक्षर
के हर-फेर से
पूरी रचना को आँख
भिगोना पड़ता है

जैसी कल्पना मिलती है
शब्द, बच्चे की भाँति
वैसा रूप ले लेता है
जैसी भावना खिलती है
वैसा धूप ले लेता है

शब्द और बच्चे
एक से ही हैं
श्रेष्ठ कृति के लिए
दोनों को
पालना पड़ता है
समय निकाल के
संभालना पड़ता है
तब जाके
एक अदद इंसान
की तरह
एक मुकम्मल
रचना तैयार होती है।

2. जाना कभी उन गलियों में

जाना
कभी उन गलियों में
जहां तुम्हें मनाही है
पर तुम जाना
और सच देखना
जो मनाही की आड़ में
छिप जाता है

उसे
रंडीखाना, वेश्यालय,
कोठा और पता नहीं
क्या-क्या कहते है
तुम नाम में मत फँसना
वरना सच को हरा के
झूठ यहीं जीत जाएगा
यहाँ जिस्म बिकता है
पूरा या हिस्सा
दोनों
ग्राहक और पैसा
बहुत कुछ
तय करता है
जैसे कि
सिर्फ छाती चाहिए
या होंठ
या जांघ
या नितंब
या पूरा
जिस्म का लोथरा
एक घंटा चाहिए
या आधा
या पूरा दिन
अकेला चाहिए
या किसी
और के साथ
अकेली चाहिए
या कई
एक साथ
फर्श पे चाहिए
या पलँग पर
कोठरी में चाहिए
या एयर-कंडीसन में
बत्ती जला के चाहिए
या बुझा के
अधनंगा बदन चाहिए
या नंगा चाहिए

तमाम
समीकरणों में
जिस्म के पीछे
कोई माँ
जिसकी बेटी
खिड़की से
रोज़ माँ को
बिकती देखती है
कोई बहन
जिसकी राखी
किसी भी को नहीं
पहचानती है
कोई बीवी
जो शौहर से
काँपती हो
कोई बेटी
जो बाप के डर से
भागती हो
और
एक औरत
जो समाज
के दायरे में
रिवाज़ के जंजीर
में लिपटी
रोज कलपती है
कलस्ती है
रोटी है
चिंघारती है
और वक़्त-बेवक़्त
बेआबरू होक
मरती है
तुम उससे मिलने
और जानना सच
इस सभ्य समाज का
जो औरतों को
पूजता है
कहीं सावित्री तो
कहीं सीता खोजता है
और देवी की कल्पना में
मूर्तियाँ तराशता है
और शाम ढलते ही
उसी बदनाम गली
में जाता है
जहाँ
तुम्हें जाने की
मनाही है।

3. घर के काम-काज से

घर के काम-काज से
निपट कर
औरतें
दोपहर में
क्या बातें करती होगी
शायद
अपने पतियों की तंगी हालत
बच्चों की पढ़ाई का खर्चा
ससुर का इलाज
सास के ताने
ननद के बहाने
देवर के सताने
के बारे में ही
बातें करती होंगी
पर
जो
नहीं कर पाती होगी
वो है
अपने शरीर का भट्टी होते जाना
अपने सपनों का राख बनते जाना
अपने अरमानों को खाक करते जाना
पर वो ऐसा क्यों नहीं सोच पाती
उन्हें "शिक्षा" दी गयी है
तुम नारी हो
तुम बलिदान हो
तुम्हें भूखी रहना है
हर दुख सहना है
और घुट के
एक दिन मर जाना है
और इस "शिक्षक" समाज की
हेडमास्टर भी नारी है
ये बिडम्बना बहुत भारी है
इसी ऊहापोह में
नन्ही बच्चियों को
एक बार फिर
भट्टी बनाने की तैयारी है।

4. है साहस तो बढ़ना कभी

है साहस तो
बढ़ना कभी
औरत के देह
से भी आगे,
जिसकी अस्थि-मज्जा तक
तुम भींच चुके

देह की पिपासा
के बाहर स्त्रियों
का मन है
जहाँ तुम्हारे कदम
लड़खड़ा जाते हैं
क्योंकि
तुम्हें वहाँ
तुम्हारे खोखले आदर्शों
को चुनौती मिलती है

पर एक बार
जरूर घुसना
उस मन में
तुम्हें वहाँ एक
अँधा, गहरा, कुआँ मिलेगा
जिसमें अनगिनत सपने
अरमान, अहसास
कीड़े-मकोड़े की तरह
कुलबुला रहे होंगे
उनको कभी धूप नहीं मिली
मर्दों के अभिमान के
नीचे कभी
वो पनप नहीं पाए
उग नहीं पाए
खिल नहीं पाए

तुम्हें कुछ देर
शर्म तो आएगी
ज्यादा संवेदनशील हो
तो ग्लानि भी आएगी
और गर इंसान हो
तो शायद रोना भी आएगा
पर कुछ ही देर बाद
जब तुम्हारा
पौरुष हावी होगा
तुम मुँह फेर कर
चल दोगे
और
स्त्रियों के मन की
जिस यात्रा पे तुम निकले थे
हमेशा की तरह
अधूरी ही रह जाएगी।

5. कभी देखना मेरी नज़र से

कभी देखना
मेरी नज़र से
उन अँधेरे-बंद
कमरों को
जहाँ तुम
मुझे कैद करते हो
मेरे स्तनों को
रौंदते हो
मेरी योनि को
चीरते हो
और
अपनी मर्दानगी का
दम्भ भरते हो

कभी करना
महसूस
उन घावों को
जो मैंने
अपने अधिकार माँगने
और तुम्हारे न दिए जाने
के संघर्ष में बने
वो घाव जब निर्वस्त्र
होकर तुम्हारे जाँघों
के नीचे दबते हैं
तो बहुत चीखते हैं
चिंघाड़ते है
और फिर नासूड़
बन जाते हैं

कभी सूँघना
मेरी जिस्म को
जो फूल होता है
तुम्हारे मर्दन से पहले
जब तुम्हारी
क्रूर भुजाओं में
मसला जाता है
तो सड़े हुए
पानी की तरह ही
बदबू देता है

कभी घुसना
मेरे वस्त्रों में
ब्लाउज़ और पेटीकोट में
तुम्हारी नसें फट जाएँगी
वहाँ सिर्फ कुछ अंग नहीं
शर्म, सम्मान और पीड़ा
सब छिपा रहता है
जिसे तुम रोज़
कभी रात, कभी दिन
तो कभी
भारी दोपहर
उघेड़ दिया करते हो

कभी बनो
तुम भी किसी दिन
स्त्री, नारी, महिला
और सहो
पुरुष, समाज, दुनिया के
खोखली आदर्श
थोड़ा घुटो
थोड़ा तड़पो
थोड़ा सिसको
और थोड़ा
रोज़ ही मरो

और फिर
कोशिश करना
दाँत निपोर कर
कहने कि
वो
"बस औरत ही तो है"।

6. क्यों न मृत्यु का भी उत्सव किया जाए

एक मात्र शाश्वत सत्य यही,
शिव के त्रिनेत्र का रहस्य यही,
चंडी का नैसर्गिक रौद्र नृत्य यही,
कृष्णा सा श्यामला, राधा सा शस्य यही।
तो क्यों न मीरा सा इसका भी विषपान किया जाए।

ये अनादि है, ये अनंत है,
ये गजानन का त्रिशूली दंत है,
यही है गोचर, यही अगोचर,
यही तीनों लोकों का महंत है।
तो क्यों न देवों की तरह इसका भी रसपान किया जाए।

यही अनल है, यही अटल है,
यही शांत है, यही विकल है,
यही है भूत, यही भविष्यत,
ब्रह्मांडों का अस्तित्व सकल है।
तो क्यों न भीष्म सा इसको भी जीवन दान दिया जाए।

यही है हर्ता, यही है कर्ता,
यही है दाता, यही है ज्ञाता,
समय के व्यूह पर अनवरत सवार,
यही है माता, यही विधाता।
तो क्यों न जननी की तरह इसका भी सम्मान किया जाए।

7. स्त्री मात्र शून्य है

जिस्मों की हिस्सेदारी में
मेरा और उसका
ये अनुपात था कि
उसको
मेरे बाल, होंठ, गाल, स्तन, पेट, नितम्ब, जाँघ, योनि और टाँगों से
खेलने और उनको खोलने की पूरी आज़ादी थी
और मेरे हिस्से में थी
उसके किए प्यार के उपरान्त की
थकान, पीड़ा, कष्ट, दर्द और निशब्द लाचारी

क्योंकि
अनुपात के गणित को
मर्द और औरत का फर्क
पता नहीं होता
और यह गणित हमेशा से ही
पुरुष प्रधान समाज द्वारा तय किया जाता रहा है
जिसमें स्त्री मात्र शून्य है
या है कुछ भी नहीं
जिसमें कुछ भी गुना या भाग कर लो
उसकी पीड़ा में
या उसके स्त्री होने में
कोई फर्क नहीं पड़ता है

8. तुमने अभी हठधर्मिता देखी ही कहाँ है

तुमने अभी हठधर्मिता देखी ही कहाँ है
अंतर्मन को शून्य करने का व्याकरण मुझे भी आता है
अल्पविराम, अर्धविराम, पूर्णविराम की राजनीति मैं भी जानती हूँ

यूँ भावनाशून्य आँकलन के सिक्के अब और नहीं चलेंगे
स्त्रियों का बाजारवाद अब समझदार हो चुका है
खुदरे बाजार से लेकर शेयर मार्किट तक में इनको अपनी कीमत पता है

तुम्हारी इच्छाओं का बहिष्कार कोई पाप नहीं
सीता, सावित्री, दमयंती का अब कोई शाप नहीं
हमें काठ का बना के रखोगे तो जलती हुई राख ही मिलेगी
प्रताड़नाओं, पीड़ाओं से झुलसी अहसासों की साख मिलेगी

वक़्त को पिघलकर हम हथियार बना ले
इससे पहले अपनी पुरूषप्रधानता की जाँच कराओ
और हमें बराबर होने का सही अहसास दिलाओ

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