प्रेम-फुलवारी : भारतेंदु हरिश्चंद्र

Prem Phulwari : Bharatendu Harishchandra

1. अहो हरि बस अब बहुत भई

अहो हरि बस अब बहुत भई ।
अपनी दिसि बिलोकि करुना-निधि कीजै नाहि नई ।।
जौ हमरे दोसन को देखौ तो न निबाह हमारी ।
करिकै सुरत अजामिल-गज की हमरे करम बिसारौ ।।
अब नहि सही जात कोऊ बिधि धीर सकत नहि धारी ।
'हरीचन्द' को बेगि धाइकै भुज भरि लेहु उबारी ।।

2. हम तो लोक-भेद सब छोड़यौ

हम तो लोक-भेद सब छोड़यौ ।
जग को सब नाता तिनका सो तुम्हरे कारन तोड़यौ ।।
छाँड़ि सबै अपुनो अरु दूजेन नेह तुम्हहिं सों जोड़यौ ।
हरिचंद' पै केहि हित हम सों तुम अपुनो मुख मोड़यौ ।।

3. प्यारे, अब तौ सही न जात

प्यारे, अब तौ सही न जात ।
कहा करैं कछु बनि नहिं आवत, निसिदिन जिय पछितात ।।
जैसे छोटे पिंजरा में कोउ, पंछी परि तड़पात ।
त्योंही प्रान परे यह मेरे, छूटन को अकुलात ।।
कछु न उपाय चलत अति व्याकुल मुरि मुरि पछरा खात ।
'हरिचंद' खींचौ अब कोउ बिधि छाँड़ि पाँच अरु सात ।।

4. न जानों गोविन्द कासों रीझैं

न जानों गोविन्द कासों रीझैं ।
जपसों, तपसों, ग्यान-ध्यान सों, कासों रिसि करि खीझैं ।।
वेद-पुरान भेद नहिं पायौ कह्यौ आन की आन ।
कह जप तप कीन्हों गनिका ने, गीध कियौ कह दान ।।
नेमी ज्ञानी दूर होत हैं नहिं पावत कहुं ठाम ।
ढीठ लोक वेदहु ते निन्दित घुसि घुसि करत कलाम ।।
कहुँ उलटी कहुं सीधी चालैं कहुँ दोहुन तें न्यारी ।
'हरीचंद' काहू नहिं जान्यौ मन की रीति निकारी ।।

5. टरौ इन अंखियनि सों अब नाहिं

टरौ इन अंखियनि सों अब नाहिं ।
निबसौ सदा, सोहागिन राधा, पुतरी-सी दृग माहिं ।।
नील निचोल, तरकुली काननि सिर सिंदूर मुख पान ।
काजर नैन, सहजहीं भोरी, मन-मोहिनि मुसुकान ।।
सदा राजराजौ वृन्दाबन, सुबस बसौ ब्रज-देस ।
बरसौ प्रेम-अमृत प्रेमिन पै, नितहिं स्यामघन भेस ।।
देखि यहै अब दूजौ देखन परे न जबलौं प्रान ।
'हरिचंद' निबहौ, स्वांसा लगि, यहै प्रेम की बान ।।

6. प्रीति की रीति ही अति न्यारी

प्रीति की रीति ही अति न्यारी।
लोक-वेद सबसों कछु उलटी केवल प्रेमिन प्यारी ।।
को जानै, समझे को याकों, बिरली जाननहारी ।
'हरिचंद' अनुभव ही लखिए, जामै गिरिवरधारी ।।

7. जय जय करुनानिधि पिय प्यारे

जय जय करुनानिधि पिय प्यारे ।
सुंदर स्याम मनोहर मूरति ब्रज-जन लोचन-तारे ।।
अगिनित गुन-गन गनू न आवत माया नर-बपु धारे ।
'हरीचंद' श्रीराधा-वल्लभ जसुदा-नंद-दुलारे ।।

8. हमहुं कबहूँ सुख सों रहते

हमहुं कबहूँ सुख सों रहते ।
छाँड़ि जाल सब निसि-दिन मुख सों, केवल कृष्णहिं कहते ।।
सदा मगन लीला-अनुभव में, दृग दोउ अविचल बहते ।
'हरीचंद' घनस्याम बिरह इक, जग-दुख तृन-सम दहते ।।

9. भौंरा रे, रस के लोभी तेरो का परमान

भौंरा रे, रस के लोभी तेरो का परमान ।
तू रस मस्त फिरत फूलन पर, करि अपने मुख गान ।।
इत सों उत डोलत बौरानो, किये मधुर मधु-पान ।
'हरिचंद' तेरे फंद न भूलूँ, बात परी पहिचान ।।

10. प्रिय प्राननाथ ! मनमोहन ! सुंदर प्यारे

प्रिय प्राननाथ ! मनमोहन ! सुंदर प्यारे ।
छिन हूँ मत मेरे होहु दृगन तें न्यारे ।।
घनस्याम, गोप-गोपीपति, गोकुलराई ।
वृन्दाबन-रच्छक, ब्रज-सरबस, बलभाई ।।
प्रानहुँ ते प्यारे ! प्रियतम, मीत कन्हाई ।
श्रीराधा-नायक जसुदा-नंद दुलारे ।
छिनहूँ मत मेरे होहु दृगन तें न्यारे ।।

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