समर्पण : माखनलाल चतुर्वेदी

Samarpan : Makhanlal Chaturvedi

1. तुम भी देते हो तोल तोल

तुम भी देते हो तोल-तोल!

नभ से बजली की वह पछाड़,
फिर बूँदें बनना गोल-गोल,
नभ-पति की भारी चकाचौंध,
उस पर बूँदों का मोल-तोल,
बूँदों में विधि के मिला बोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!

भू पर हरितीमा का उभार,
उस पर किसान की काट-छाँट,
हिरनों की उसमें रेल-पेल,
मर्कट-दल की कविता-कुलाँट,
बादल, छवि देते ढोल-ढोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!

टहनी बाहों-सी झूली हो,
हो हवा, किन्तु पथ-भूली हो,
चिडियाँ पंखों से झलती हों,
आँधियाँ कठोर मचलती हों,
मीठे में कड़ुवा घोल-घोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!

(खण्डवा-१९४४)

2. बेटी की बिदा

आज बेटी जा रही है,
मिलन और वियोग की दुनिया नवीन बसा रही है।

मिलन यह जीवन प्रकाश
वियोग यह युग का अँधेरा,
उभय दिशि कादम्बिनी, अपना अमृत बरसा रही है।

यह क्या, कि उस घर में बजे थे, वे तुम्हारे प्रथम पैंजन,
यह क्या, कि इस आँगन सुने थे, वे सजीले मृदुल रुनझुन,
यह क्या, कि इस वीथी तुम्हारे तोतले से बोल फूटे,
यह क्या, कि इस वैभव बने थे, चित्र हँसते और रूठे,

आज यादों का खजाना, याद भर रह जायगा क्या?
यह मधुर प्रत्यक्ष, सपनों के बहाने जायगा क्या?

गोदी के बरसों को धीरे-धीरे भूल चली हो रानी,
बचपन की मधुरीली कूकों के प्रतिकूल चली हो रानी,
छोड़ जाह्नवी कूल, नेहधारा के कूल चली चली हो रानी,
मैंने झूला बाँधा है, अपने घर झूल चली हो रानी,

मेरा गर्व, समय के चरणों पर कितना बेबस लोटा है,
मेरा वैभव, प्रभु की आज्ञा पर कितना, कितना छोटा है?
आज उसाँस मधुर लगती है, और साँस कटु है, भारी है,
तेरे बिदा दिवस पर, हिम्मत ने कैसी हिम्मत हारी है।

कैसा पागलपन है, मैं बेटी को भी कहता हूँ बेटा,
कड़ुवे-मीठे स्वाद विश्व के स्वागत कर, सहता हूँ बेटा,
तुझे बिदाकर एकाकी अपमानित-सा रहता हूँ बेटा,
दो आँसू आ गये, समझता हूँ उनमें बहता हूँ बेटा,

बेटा आज बिदा है तेरी, बेटी आत्मसमर्पण है यह,
जो बेबस है, जो ताड़ित है, उस मानव ही का प्रण है यह।
सावन आवेगा, क्या बोलूँगा हरियाली से कल्याणी?
भाई-बहिन मचल जायेंगे, ला दो घर की, जीजी रानी,
मेंहदी और महावर मानो सिसक सिसक मनुहार करेंगी,
बूढ़ी सिसक रही सपनों में, यादें किसको प्यार करेंगी?

दीवाली आवेगी, होली आवेगी, आवेंगे उत्सव,
’जीजी रानी साथ रहेंगी’ बच्चों के? यह कैसे सम्भव?

भाई के जी में उट्ठेगी कसक, सखी सिसकार उठेगी,
माँ के जी में ज्वार उठेगी, बहिन कहीं पुकार उठेगी!

तब क्या होगा झूमझूम जब बादल बरस उठेंगे रानी?
कौन कहेगा उठो अरुण तुम सुनो, और मैं कहूँ कहानी,

कैसे चाचाजी बहलावें, चाची कैसे बाट निहारें?
कैसे अंडे मिलें लौटकर, चिडियाँ कैसे पंख पसारे?

आज वासन्ती दृगों बरसात जैसे छा रही है।
मिलन और वियोग की दुनियाँ नवीन बसा रही है।
आज बेटी जा रही है।

(श्रीमती ’मंगला देवी’ के विवाह के
अवसर पर), ड्रीमलेण्ड, कानपुर-१९४४)

3. यह बारीक खयाली देखी

यह बारीक खयाली देखी?

पौधे ने सिर उँचा करके, पत्ते दिये, डालि दी, फूला,
और फूलकर, फल बन, पक कर, तरु के सिर चढ़ झूले झूला,
तुमने रस की परख बड़ी की
रस पर रीझे, रस को पाया,
पर फल की मीठी फाँकों में माली की पामाली देखो?
यह बारीक खयाली देखी?

जब नदियों का प्यार समेटे ज्वार एक सागर को धाया,
वहाँ किसी ने नमक, किसी ने मोती, मूँगे; घर भर लाया,
जगे जौहरी बनकर, लाखों
पाये, महल बनाये, भोगे,
पनडुब्बे की पर क्या तुमने सूखी आँतें खाली देखीं?
यह बारीक खयाली देखी?

तुमहीं ने मलार गाया था, बादल घहर-घहर घिर आये,
तुम हँस उठे जब कि धान के खेतों पर वैभव लहराये,
तुम जहाज ले ले कर दौड़े
चावल लूटा, घर ले आये,
पर किसान की क्या भूखे बच्चों वाली घर वाली देखी?
यह बारीक खयाली देखी?

(प्रिंसिपल हीरालालजी खन्ना का निवास,
मनीराम बगिया, कानपुर—१९४२)

4. तुम्हारा मिलन

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

भूलती-सी जवानी नई हो उठी,
भूलती-सी कहानी नई हो उठी,
जिस दिवस प्राण में नेह-बंशी बजी,
बालपन की रवानी नई हो उठी;
कि रसहीन सारे बरस रसभरे हो गये—
जब तुम्हारी छटा भा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

घनों में मधुर स्वर्ण-रेखा मिली
नयन ने नयन रूप देखा, मिली—
पुतलियों में डुबा निज नजर की कलम
नेह के पृष्ठ को चित्रलेखा मिली;
बीतते-से दिवस लौट कर आ गये
बालपन ले जवानी सँभल आ गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई!
चुम्बनों, साँवली-सी घटा छा गई,
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण
पर गगन से उतर चंचला, आ गई!
प्राण का दान दे, दान में प्राण ले,
अर्चना की अधर चाँदनी छा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

(सत्यनारायण कुटीर, प्रयाग-१९४४)

5. लाल टीका

गीत रच कर जब उठा तब स्वप्न बोले—’और बोलो’,
कृष्ण की कालिन्दिनी बोली—’उमड़’ मुझमें डुबो लो!
प्रणय से मीठी मधुर! जब बेड़ियाँ झंकार उट्ठीं
शूलियों ने माँग भर कर कहा, जी में प्यार घोलो।
मैं पथिक युग के जुएँ में दाँव खाकर, स्वप्न धोकर,
आज दिल्ली के किले में तीन जलते दीप बोकर,
सहस अग्नि-स्फुलिंग, बंधन में बँधे, असहाय लख कर,
और चालिस कोटि-वासिनि को निपट वन्ध्या निरख कर—
कह रहा हूँ, हाय तीर--
कमान भी बोझिल हुए!
आज चालिस कोटि के
पशु-प्राण भी बोझिल हुए!
अब न युग से कह सकोगे क्यों लगा दी आग घर में?
गाँव मुर्दों का उजाड़ा, क्यों जगा दी आग घर में?
आज आँखों का नशा चढ़-चढ़, भुजा पर बोलता है,
और अमरों की अखण्ड वसुन्धरा पर डोलता है!
और यह तारुण्य है, ठिठका,--तमाशा देखता है,
जोश में आया कि लिख डाला—“महान विशेषता है!”
प्राण देकर, प्राण लेकर, प्राण का खिलवाड़ सीखें,
हम अपाहिज हैं न, जो माँगें जगत से और भीखें।
पूर्वजों के गीत झूठे
किये प्राणों को बचाकर,
रोटियों के राग गाये,
क्षुधित पुतलों को नचाकर।
बाढ़ आई निम्नगाओं में, न हममें बाढ़ आई;
ग्रीष्म ये लाईं न आँखें, ये फक़त आषाढ़ लाईं!
चल ’सियार किशोर’ सिंहों का ’किले’ में मरण देखें,
तेज भाषा बोल, सब वीरत्व का, आवरण देखें!
और फिर चुपचाप, नौकर हो, भरेगा पेट अपना!
“पीढ़ियाँ बन्धनमयी हैं” भूल वह निःसार सपना!!
प्राण का धन, तू छुपाये रह अमर रंगरेलियों में,
भूल जा माँ बन्दिनी को रोज की अठखेलियों में!
किन्तु अब उस क्षितिज पर
बेमूँछ की सेना निरख तू,
और अपने प्रणय के शव
प्रलय-रथ के तले रख तू।
मातृ-भू के बोझ, जिस दिन सूलियों ने प्राण पाया!
उस दिवस भी क्या तुझे भारत अखण्ड न याद आया?
याद भर आता रहे यह लाल टीका!
तरुण अपनाता रहे यह लाल टीका!!

(खण्डवा-१९४५-
जब दिल्ली के लाल किले में, आज़ाद हिन्द
के सैनिकों पर मुकदमा चल रहा था)

6. युग-ध्वनि

आग उगलती उधर तोप, लेखनी इधर रस-धार उगलती,
प्रलय उधर घर-घर पर उतरा, इधर नज़र है प्यार उगलती!
उधर बुढ़ापा तक बच्चा है, इधर जवानी छन-छन ढलती,
चलती उधर मरण-पथ टोली, ’उनपर’ इधर तबीयत चलती!
भुजदण्डों पर उधर भवानी, इधर जमाना पतित तर्क का,
जग ने ठीका दे रक्खा है, उधर स्वर्ग का, इधर नर्क का!
हाय सूर से सीख न पाये
दो सूजी से आँखें देना
विद्रोहिनी विजयिनी मीरा
कहती किसे? जहर पी लेना?
ओ बेमूछों के बलिपन्थी! आ इस घर में आग लगा चल,
ठोकर दे, कह युग! चलता चल, युग के सर चढ़, तू चलता चल!

(खण्डवा-१९४०)

7. यह लाशों का रखवाला

उनके सपने हरियाता मेरी सूझों का पानी
मुझसे बलि-पन्थ हरा है, मुझ पर दुनियाँ दीवानी!

एकान्त हमारा, विधि से विद्रोहों की मस्ती है,
उन्माद हमारा, शत-शत अरमानों की बस्ती है।

हमने दुनियाँ खो डाली, तब जग ने हमको पाया!
हम अपने पर हँस उट्ठे, तब कहीं जगत रो पाया!

ईंटों, पाषाणों का नर, ईमान न जीने देगा,
यह लाशों का रखवाला, नव-प्राण न जीने देगा!

(ट्रेन में होशंगाबाद-१९४०)

8. उल्लास का क्षण

मैं भावों की पटरानी,
क्या समझेगा मानव गरीब, मेरी यह अटपट बानी?

श्रम के सीकर जब ढुलक चले,
अरमान अभागे झुलस चले,
तुम भूल गये अपनी पीड़ा, जब मेरी धुन पहचानी।

जिस दिन तुम भव पथ डोल चले,
विष का रस जी में घोल चले,
तब मैं निज डोरी खींच उठी, तुममें जग उठी जवानी।

तुमने संकट पथ वरण किये,
कारागृह कण्ठाभरण किये,
मैंने जब मृदु दो चरण दिये, तुमने बन्धन छवि जानी।

जी के हिलकोरों के शिकार
दृग मूँद उठे तुम सहस बार
तब चमका कर पथ के फुहार, मैं बनी रूप की रानी।

तुम थकन आँसुओं घोल-घोल
कर उठे मौत से मोल-तोल
तब लेकर मैं अपना हिंडोल, अमृत झर बनकर मानी।

तुम बन शब्दों के आल-जाल,
आराध उठे गति-हरण-काल
तब मैंने मुरली ले फूँकी, गति-पथ पर प्रगति-कहानी।
मैं भावों की पटरानी।

(खण्डवा-१९४६)

9. स्मृति का वसन्त

स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
शीतल स्पर्श, मंद मदमाती
मोद-सुगंध लिये इठलाती
वह काश्मीर-कुंज सकुचाती
निःश्वासों की पवन प्रचारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!

तरु दिलदार, साधना डाली
लिपटी नेह-लता हरियाली
वे खारी कलिकाएँ उन पर
तोड़ूँगी, ऋतुराज उभारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!

तोड़ूँगी? ना, खिलने दूँगी
दो छिन हिलने-मिलने दूँगी
हिला-डुला दूँगी शाखाएँ
चुने विश्व-परिवार उचारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!

आते हो? वह छबि दरसा दो
रूठा हृदय-चोर हरषा दो
तोड़-तोड़ मुकता बरसा दो
डूबूँ-तैरूँ, सुध न बिसारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!

दोनों भुजा पकड़ ले पापी!
कलपा मत घनश्याम! कलापी,
कर दो दशों दिशा पागलिनी
ज्ञान-जरा-जर्जरता टारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!

भीजे अम्बर वाले ख्याली
चढ़ तरुवर की डाली डाली
उड़े चलो मेरे वनमाली!
पागलिनी कह, वहाँ पुकारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!

नहीं चलो हिल-मिलकर झूलें
बने विहंग, झूलने झूलें
भूलें आप, भुला दें घातक!
भू-मंडल पर स्वर्ग उतारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!

नहीं, चलो हम हों दो कलियाँ
मुसक-सिसक होवे रंगरलियाँ
राष्ट्रदेव रँग-रँगी सँभालो
कृष्णार्पण के प्रथम पधारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!

(सिवनी मालवा—१९२२)

10. वृक्ष और वल्लरी

वृक्ष, वल्लरि के गले मत—
मिल, कि सिर चढ़ जायगी यह,
और तेरी मित भुजाओं—
पर अमित हो छायगी यह।

हरी-सी, मनभरी-सी, मत—
जान, रुख लख, राह लख तू
मधुर तेरे पुष्प-दल हों,
कटु स्वफल लटकायगी यह।

भूल है, पागल, गिरी तो
यह न चरणों पर रहेगी
निकट के नव वृक्ष पर,
नव रंगिणी बल खायगी यह।

वृक्ष, तेरे शीश पर के
वृक्ष से लाचार है तू?
किन्तु तेरे शीश से, उस
शीश पर भी जायगी यह।

यह समर्पण-ऋण चुकाना—
दूर, मानेगी न छन भर
तव चरण से खींच कर—
रस और को मँहकायगी यह।

मत कहो इसको अभागिन,
यह कभी न सुहाग खोती,
लिपटना इसकी विवशता—
है लिपटती जायगी यह।

बस निकट भर ही पड़े
कि न बेर या कि बबूल देखे
आम्र छोड़ करील पर
आगे बढ़ी ही जायगी यह।

तू झुका दे डालियाँ चढ़ पाय
फिर क्यों शीश पर यह;
फलित अरमानों भरी
तेरे चरण आजायगी यह।

फेंक दे तू भूमि पर सब
फूल अपने और इसके
हुआ कृष्णार्पण कि तेरी
बाँसुरी बन जायगी यह!

प्यार पाकर सिर चढ़ी, तो
प्यार पाकर सूखती है,
कलम कर दे लिपटना
फिर सौ गुनी लिपटायगी यह।

नदी का गिरना पतन है
वल्लरी का शीश चढ़ना,
पतन की महिमा बनी तब
शीश पर हरियायगी यह।

मत चढ़ा चंदन चरण पर
मत इसे व्यंजन परोसे
कुंभिपाकों ऊगती आई;
वहीं फल लायगी यह।

सहम मत, तेरे फलों का
कौन-सा आलम्ब बेली?
तू भले, फल दे, न दे,
अपनी बहारों आयगी यह।

किस जवानी की अँधेरी--
में बढ़े जा रहे दोनों
बन्द कलियाँ, बन्द अँखियाँ
कौन-सा दिन लायगी यह।

फेंक कर फूलों इरादे,
भूमि पर होना समर्पित,
सिर उठाकर पुण्य भू का
पुण्य-पथ समझायगी यह।

एक तेरी डालि छूटे,
दूसरी गह ले गरब से
डालि जो टूटी, कि अबला--
सिद्ध कर दिखलायगी यह।

मेह की झर है न तू, जो--
मौसमों में बरस बीते,
नेह की झर सूखकर
तुझको अवश्य सुखायगी यह।

तू तरुणता का सँदेशा
भूमि का विद्रोह प्यारे,
शीश पर तू फूल ला, बस
चरण में बस जायगी यह।

या कि इसको हृदय से
ऐसी लपेट की दाँव भूले
सूर्य की संगिनि दुपहरी-
सी स्वयं ढल जायगी यह।

रे नभोगामी, न लख तू
रूप इसका, रंग इसका,
तू स्वयं पुरुषार्थ दिखला
तब कला बन जायगी यह।

लता से जब लता लिपटे?
गर्व हो? किस बात का हो?
तू अचल रह, स्वयं चल कर
ही चरण पर आयगी यह।

भूमि की इच्छा, मिलन की-
साध, मिटने की प्रतीक्षा-
तब अमित बलशालिनी है
जब तुझे पा जायगी यह!

चढ़न है विश्वास इसका,
लिपटना इसकी परमता,
जो न चढ़ पाई कहीं तो
नष्ट मुरझा जायगी यह।

पहिन कर बंधन, न बंधन
में इसे तू जान गाफ़िल,
जिस तरफ फैली कि नव-
बन्धन बनाती जायगी यह।

डालियाँ संकेत विभु के
वल्लरी उन्माद भाषा,
लिपटने के तुक मिलाते
छन्द गढ़ती जायगी यह।

और जो होना समर्पण है,
इसी की साध बनकर
शीश ले इसके फलों को
तब बहारों आयगी यह।

(व्योहार निवास, जबलपुर-१९३९)

11. न्याय तुम्हारा कैसा

प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,
अन्याय तुम्हारा कैसा?
यह इधर साधु की कुटिया जो तप कर प्राण सुखाता,
तेरी वीणा के स्वर पर दीनों में मिल-मिल जाता।

मल धोता, जीवन बोता, छोड़े आँसू का सोता,
जब जग हरियाला होता, तब वह हरियाला होता।
उसके पड़ोस में ही हा! यह हत्यारे का घर है,
जो रक्तमयी तपड़न पर करता दिन-रात गुजर है!

फिर इधर खेत गेहूँ के हँसते हैं लह-लह करते,
क्या जाने इस हँसने पर कितने किसान हैं मरते?
हरियाली के ब्रह्मापर कितनी गाली बरसेंगी?
छोटी-छोटी सन्तानें रट ’अन्न-अन्न’ तरसेंगी,

होंगे पक्वान्न किसी के उसकी इस रखवाली में
उसका यह रक्त सजेगा कुछ धनिकों की थाली में
वह भी देखेगा इस को जब आयेगा त्योहार,
उस दिन किसान की मेहनत, वह हरियाला संसार।

उसके आँसू की दुनियाँ, उसके जीवन का भार,
पंडित हो या कि कसाई, राजा हो या कि चमार,
सबकी थाली का होगा उसका गेहूँ श्रृंगार।
प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,
अन्याय तुम्हारा कैसा?

फिर नभ की ये चमकी-सी छोटी-छोटी लटकनियाँ
निशि की साड़ी की कनियाँ प्रभु की ये बिखरी मनियाँ।
अपने प्रकाश का प्यारा ये खोले हुए खजाना,
बह पड़े कहीं इनको तो जीवन भर है बिखराना।

झाँको वे देख पड़ेंगे, ग्वालों की झोपड़ियों पर,
ताको, वे देख पड़ेंगे, विद्वानों की मढ़ियों पर!
उनके दर्शन होते हैं, देवालय द्वारों पर भी,
पर हा वे लटक रहे हैं इन कारागारों पर भी!

फिर वे दाखों की बेलें जिनसे पंछी दल खेलें
जी में मधुराई लाने, वर्षा हिम आतप झेलें!
इनकी गोदी के धन हैं मणियों से होड़ लगाते
ये रस से पूरे मोती, किसका जी नहीं चुराते!

किसकी जागीरी है यह, इनकी मीठी तरुणाई
किसका गुण गाने इनमें चिड़ियों की सेना आई?
बीमारों की तश्तरियों में ये जीवन देते हैं,
चूसे जाते हैं ये, पर नव अपनापन देते हैं!

वैद्यों के आसव बन कर धमनी में गति पहुँचाते,
पर हा, उनको ही घातक मदिरा बनवाकर पाते!
या धन लोलुप ऐयाशों के, भोगों की थाली को
दाखों से भरते पाते धन के लोभी माली को!
प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,
अन्याय तुम्हारा कैसा?

(जबलपुर सेन्ट्रल जेल--१९३०)

12. तान की मरोर

तू न तान की मरोर
देख, एक साथ चल,
तू न ज्ञान-गर्व-मत्त--
शोर, देख साथ चल।

सूझ की हिलोर की
हिलोरबाज़ियाँ न खोज,
तू न ध्येय की धरा--
गुंजा, न तू जगा मनोज।

तू न कर घमंड, अग्नि,
जल, पवन, अनंग संग
भूमि आसमान का चढ़े
न अर्थ-हीन रंग।

बात वह नहीं मनुष्य
देवता बना फिरे,
था कि राग-रंगियों--
घिरा, बना-ठना फिरे।

बात वह नहीं कि--
बात का निचोड़ वेद हो,
बात वह नहीं कि-
बात में हज़ार भेद हो।

स्वर्ग की तलाश में
न भूमि-लोक भूल देख,
खींच रक्त-बिंदुओं--
भरी, हज़ार स्वर्ण-रेख।

बुद्धि यन्त्र है, चला;
न बुद्धि का गुलाम हो।
सूझ अश्व है, चढ़े--
चलो, कभी न शाम हो।

शीश की लहर उठे--
फसल कि, एक शीश दे।
पीढ़ियाँ बरस उठें
हज़ार शीश शीश ले।

भारतीय नीलिमा
जगे कि टूट-टूट बंद
स्वप्न सत्य हों, बहार--
गा उठे अमंद छन्द।

(सत्यनारायण कुटीर, प्रयाग--१९४८)

13. युग और तुम

युग तुम में, तुम युग में कैसे झाँक रहे हो बोलो?
उथल-पुथल तब हो कि समय में जब तुम जीवन घोलो।
तुम कहते हो बलि से पहले अपना हृदय टटोलो,
युग कहता है क्रान्ति-प्राण! पहिले बन्धन तो खोलो।
तेरी अँगुली हिली, हिल पड़ा
भावोन्मत्त जमाना
अमर शान्ति ने अमर
क्रान्ति अवतार तुझे पहचाना।
तू कपास के तार-तार में अपनापन जब बोता,
राष्ट्र-हृदय के तार-तार में पर वह प्रतिबिम्बित होता,
झोपड़ियों का रुदन बदल देता तू मुसकाहट में,
करती है श्रृंगार क्रान्ति तेरी इस उलट-पुलट में।
उस-सा उज्ज्वल, उस-सा
गुणमय, लाज बचाने वाला
है कपास-सा परम-मुक्ति का
तेरा ताना-बाना।
अरे गरीब-निवाज, दलित जी उठे सहारा पाया,
उनकी आँखों से गंगा का सोता बह कर आया,
तू उनमें चल पड़ा राष्ट्र का गौरव पर्व-मनाकर
उन आँखों में पैठ गया तू अपनी कुटी बनाकर।
तुझे मनाने कोटि-कोटि
कंठों ने क्या-क्या गाया
जो तुझको पा सका--
गरीबों के जी में ही पाया।
है तेरा विश्वास गरीबों का धन, अमर कहानी--
तो है तेरा श्वास, क्रान्ति की प्रलय लहर मस्तानी।
कंठ भले हों कोटि-कोटि, तेरा स्वर उनमें गूँजा
हथकड़ियों को पहन राष्ट्र ने पढ़ी क्रान्ति की पूजा।
बहिनों के हाथों जगमग है
प्रलय-दीप की थाली;
और हमारे हाथों है--
माँ के गौरव की लाली।

(श्री बेनीपुरी को, गाँधी-जयंती
के लिए, पटना-१९३५)

14. दूध की बूँदों का अवतरण

गो-स्तनों पर घूमने वाली
अँगुलियाँ कह रही थीं!
दूध में मीठा न डालो
उसे अपमानित न कर दो,
प्राण ’थर’ बन तैरते हैं
उन्हें निष्प्राणित न कर दो।

ले मलाई से दृगों के पोर,
गो-स्तन खींच लाये,
बँधे धेनु-किशोर का
अधिकार लूट, उलीच लाये।

दूध की धारा मृदंगिनि
जन्म का स्वर रुदन बोली
कंकणों की मधुर ध्वनि ने
वलय-मयी मिठास घोली।

विवश उनकी रात की
बाँधी, उसाँसें छूटती थीं
दूध की हर बूँद पर, तड़पन
लिये थी, टूटती थी।

और माटी की मटकिया
गोद पर ’घन’ सी बनी थी,
मधुर उजले प्राण भर कर
प्रणय के मन-सी बनी थी।

वन्य-टेकड़ियाँ छहर
दुग्धायमान गुँजार करतीं,
विश्व-बालक को पिलाने
दुग्ध-पारावार भरतीं।

उषा का उजला अँधेरा
तारकों का रूप लेकर
दूध की हर बूँद पर
कुर्बान था, तारुण्य देकर।

दूर पर ठहरे बिना वह
विन्ध्य झरना झर रहा था,
मथनियों के बिन्दु-शिशु-मुख
बोल अपने भर रहा था।

गगन से भूलोक तक यह
अमृत-धारा बह रही थी।
गो-स्तनों पर घूमने वाली
अँगुलियाँ कह रही थीं!

(पातलपानी, विन्ध्य-निवास में-१९४४)

15. यह बरसगाँठ

किस तरुणी के प्रथम-हृदय-अर्पण के साहस-सी ये साँसें,
और तरुण के प्रथम-प्रेम-सी जमुहाती, अटपटी उसाँसें,
गई साँस के लौट-लौट आने का यह
करोड़वाँ-सा क्षण
वह क्षण जो बनने आया है
परम याद के कर का कंकण।
टेढ़े पल,
उलझी घड़ियाँ,
काले दिन, ये--
मट्मैली रातें;
बन्दन, बलि, बन्दीगृह जिन पर
बोते रहे विषम सौगातें।
उन साँसों की एक डोर का
एक छोर,
बरस-गाँठ
तेरी यह बरस-गाँठ

(बुरहानपुर--४ अप्रैल, १९३६)

16. किनकी ध्वनियों को दुहराऊँ

ऐ मेरी प्रेरणा-बीन के वादक!
बे जाने जब जब, बजा चुके हो,
जगा चुके हो, सोते फितनों को जब-तब,

किन चरणों में आज उन्हें रक्खूँ?
किसका अपमान करूँ?
किसकी ध्वनियों को दुहराऊँ
हृदय हलाहल-दान करूँ?

आया हूँ मैं नाथ, तुम्हारे कण्ठ कालिमा देने को!
और तुम्हारा वैभव लेकर गीत तुम्हारा होने को।

(श्री मनोहर पन्त जी का निवास, जबलपुर-१९३२)

17. झरना

पर्वतमालाओं में उस दिन तुमको गाते छोड़ा,
हरियाली दुनिया पर अश्रु-तुषार उड़ाते छोड़ा,
इस घाटी से उस घाटी पर चक्कर खात छोड़ा,
तरु-कुंजों, लतिका-पुंजों में छुप-छुप जाते छोड़ा,
निर्झरिनी की गोदी के
श्रृंगार, दूध की धारा,--
फेंकते चले जाते हो
किस ओर स्वदेश तुम्हारा?
लतिकाओं की बाहों में रह-रह कर यह गिर जाना!
पाषाणों के प्रभुओं में बह-बह कर चक्कर खाना,
फिर कोकिल का रुख रख कर कल-कल का स्वर मिल जाना
आमों की मंजरियों का तुम पर अमृत बरसाना।
छोटे पौधों से जिस दिन
उस लड़ने की सुधि आती
तप कर तुषार की बूँदें
उस दिन आँखों पर छातीं।
किस आशा से, गिरि-गह्वर में तुम मलार हो गाते,
किस आशा से, पाषाणों पर हो तुषार बरसाते,
इस घाटी से उस घाटी में क्यों हो दौड़ लगाते,
क्यों नीरस तरुवर-प्रभुओं के रह-रह चक्कर खाते?
किस भय से हो, वन--
मालाओं से रह-रह छुप जाते,
क्या बीती है, करुण-कंठ से
कौन गीत हो गाते?

(जबलपुर सेन्ट्रल जेल-१९३१)

18. आँसू से

अरे निवासी अन्तरतर के
हृदय-खण्ड जीवन के लाल
त्रास और उपहास सभी में
रहा पुतलियाँ किये निहाल।

संकट में वह गोद, मोद कर
जहाँ टपकता धन्य रहा,
मार-मार में गिर न हठीले
निर्जन है, मैं वन्य रहा।

ठहर जरा तुझ से प्यारे के
चरण कमल धुल जाने दे
और जोर से सिसक सकूँ
वे मंजुल घड़ियाँ आने दे।

(प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४)

19. गति-दाता

जागृति के प्रलय-पुंज
गति के गति-दाता।
ऐ गुणेश ऐ गणेश
ऐ महेश के निदेश
श्वेत केश श्वेत वेश
हिमगिरि-सा श्वेत देश,
झर झर निर्झर,
नगाधिराज के अशेष लेष!
ऐ महान, ऐ सुजान,
तांडव-पति-दिव्य-दान,
तारक-त्रैलोक्य,
क्रान्ति कारिणि मति-दाता।
जागृति के प्रलय-पुंज
गति के गति-दाता।
तू ’तुलसी’ तु ही ’सूर’
हर ले क्षिति का गुरूर,
तुझ में बोला ’रवीन्द्र’
’तुकाराम’ के हुजूर
’मीरा’ के मनमोहन
सहजो के नाथ-नाथ
पायें तेरा ’प्रसाद’
कर ’कबीर, को सनाथ
’मैथिलि’ तेरी जबान
’हरि’ का तू मधुर गान
तीर तू कमान तू
मैं "लक्ष्य-बेध" गाता।
जागृति के प्रलय-पुंज
गति के गति-दाता।

(हिरनखेड़ा-१९२६)

20. पास बैठे हो

चट जग जाता हूँ, चिराग को जलाता हूँ,
हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूँ कि पैठे हो;
पास नहीं आते, हो पुकार मचवाते,
तकसीर बतलाओ क्यों यों बदन उमैठे हो?
दरश दिवाना, जिसे नाम को ही बाना,
उसे शरण विलोकते भी देव-देव ऐंठे हो;
सींखचों में घूमता हूँ, चरणों को चूमता हूँ,
सोचता हूँ, मेरे इष्टदेव पास बैठे हो।

(बिलासपुर जेल-१९२१)

21. अधिकार नहीं दोगे मुझको

आते-आते रह जाते हो--जाते-जाते दीख रहे,
आँखे लाल दिखाते जाते, चित्त लुभाते दीख रहे,
दीख रहे, पावनतर बनने की धुन के मतवाले-से,
दीख रहे, करुणा-मन्दिर-से प्यारे देश निकाले-से,
दोषी हूँ, क्या जीने का
अधिकार नहीं दोगे मुझको,
होने को बलिहार
पदों का प्यार नहीं दोगे मुझको?

(प्रताप प्रेस, कानपुर-१९२३)

22. दाईं बाजू

ये साधन के बाँट साफ हैं, ये पल्ले कुटिया के,
श्रम, चिन्तन, गुन-गुन के ये गुन बँधे हुए हैं बाँके,
जितने मन पर मनमोहन अपना दर्शन दिखलाता
कितनी बार चढ़ा जाता हूँ, उतना हो नहिं पाता।
वे बोले जीवन दाँवों से
मैली दाईं बाजू,
अन्धे पूरा भार तुले कब
कानी लिये तराजू।

(बिलासपुर जेल-१९२२)

23. अमर-अमर

कलम चल पड़ी, और आज लिखने बैठी हैं युग का जीवन,
विहँस अमरता आ बैठी त्योहार मनाने मेरे आँगन।

पानी-सा कोमल जीवन
बादल-सा बलशाली हो आया,
भू पर मेरी तरुणाई का
हँस-हँस कर अमरत्व सजाया।

जगत ललक कर दौड़ा मेरी
अंगुलियों पर चक्कर खाने,
मेरी साँसों, समय आ गया
युग-प्रभु का अभिमान सजाने।

अमर-अमर कह, झर-झर झरते, बादल ने अभिषेक सजाया,
अमर हो पड़ीं साधें, अमर, अमर जीवन का रस चढ़ आया।

(खण्डवा-१९३२)

24. फूल की मनुहार

बिन छेड़े, जी खोल सुगन्धों को जग में बिखरा दूँगा;
उषा-राग पर, दे पराग की भेंट, रागिनी गा दूँगा;
छेड़ोगे, तो पत्ती-पत्ती चरणों पर बिखरा दूँगा;
संचित जीवन साध कलंकित न हो, कि उसे लुटा दूँगा;
किन्तु मसल कर सखे! क्रूरता--
की कटुता तू मत जतला;
मेरे पन को दफना कर
अपनापन तू मुझ पर मत ला।

(नागपुर-१९३४)

25. हरियालेपन की साध

गौरव-शिखरों! नहीं, समय की मिट्टी में मिलवाओ,
फिर विन्ध्या के मस्तक से करुणा-घन हो झरलाओ,
पृथिवी के आकर्षण के प्रतिकूल उठूँ, दिन लाओ,
जल से प्रथम मुझे आतप की किरणों में नहलाओ!
कई गुना होकर अर्पित
यह मिट्टी में मिल जाना;
हरियाला मस्ताना दाना
कहे कि तुझको जाना।

(उज्जैन-१९३१)

26. पर्वत की अभिलाषा

तू चाहे मुझको हरि, सोने का मढ़ा सुमेरु बनाना मत,
तू चाहे मेरी गोद खोद कर मणि-माणिक प्रकटाना मत,
तू मिट जाने तक भी मुझमें से ज्वालाएँ बरसाना मत,
लावण्य-लाड़िली वन-देवी का लीला क्षेत्र बनाना मत,
जगती-तल का मल धोने को
भू हरी-हरी कर देने को
गंगा-जमुनाएँ बहा सकूँ
यह देना, देर लगाना मत।

(जबलपुर सेंट्रल जेल-१९२२)

27. गोधूली है

अन्धकार की अगवानिन हँस कर प्रभात सी फूली है,
यह दासी धनश्याम काल की ले चादर बूटों वाली
उढ़ा नाथ को, यह अनाथ होने के पथ में भूली है!
गोधूली है।
टुन-टुन क्वणित, कदम्ब लोक से, ले गायें धीमे-धीमे
रज-पथ-भूषित जग-मुख कर, केसर आँखों जब झूली है।
गोधूली है।
नभ चकचौंधों से घबड़ाती, रवि से कुछ रूठी-रूठी;
नभ-नरेश को उढ़ा, स्वयं ही आत्म-घात-पथ भूली है
डाह भरी के कर में दे दी, तम की सूली है।
गोधूली है।

28. दृग-जल-जमुना

वे दिन भला किया जो भूले।
दृग-जल-जमुना बढ़ी किन्तु श्यामल वे चरण न पाये,
कोटि-तरंग-बाँह के पंथी, तट-मूर्च्छित फिर आये,
अब न अमित! विभ्रम दे, चल--
चल सखि कालिन्दी कूलें,
वे दिन भला किया जो भूले।
गति ने आकर कभी निहोरा, कभी प्रगति ने पाया,
पंथी! तुम उल्लास भर उठे, विकल नियति ने गाया।
तुमने हृदय निहाल कर दिया
दे सूली के झूले,
वे दिन भला किया जो भूले।
विश्वासों के विष-प्याले दे मधुर! प्रणय-घन पाले,
क्यों ढूँढो हो लाल, पुतलियों पर, निज छबि के छाले!
अब राधा से कहो न माटी
की मूरत पर फूले!
वे दिन भला किया जो भूले।

(इटारसी-१९२७)

29. बोल नये सपने

कहानी बोल नये सपने!
अरी अभागिन, पहिले ही
क्यों ओंठ लगे कँपने?
कहानी बोल नये सपने!
देख तो, प्राण में एक तूफान-सा
लोटता-सा चला जा रहा है कहाँ?
व्यक्ति-वामन, उठा आ रहा पैर ले
एक रक्खे यहाँ, एक रक्खे वहाँ;
श्रृंखला सागरों को पिन्हाता हुआ-सा
गगन खेल-घर-सा बनाता हुआ,
हर लहर में नया स्वाद लाता हुआ
हर बहर में नया जग बनाता हुआ-
पंख खोल अपने
कहानी बोल नये सपने!

(खण्डवा-१९४५)

30. उलहना

यह लाली है,
सरकार आपकी कृपा-पूर्ण जंजीरों के घर्षण से, निकले मोती हैं।
रखवाली है,
हर सिसक और चीत्कारों पर तस्वीर तुम्हारी होती है।
मत खड़े रहो,
ऐ ढीठ रुकावट होती है साँसों के आने-जाने में,
तुम में अरमाँ,
अरमानों में तुम गुँथो नहीं, क्या सुख है धोखा खाने में?
चुम्बन में नहीं, पधारो तुम
हर रोज उदार! प्रहारों में;
त्योहार? सदा सूली के दिन
मनते आये त्योहारों में।

(खण्डवा-१९३३)

31. नन्हे मेहमान

महमान मेरे नन्हे से ओ महमान!

हम दोनों का मेल है तू ही,
जग का जीवन-खेल है तू ही,
नेह सींखचों जेल है तू ही,
ओ अम्मा के राजदुलारे
साजन की मुसकान।
महमान मेरे नन्हे-से ओ महमान!

माँ की सब तरुणाई वारी,
’उनकी’ लापरवाही वारी,
नाना की धन-दौलत वारी,
ओ गरीब के अमीर छोरे
दुख सुख की पहचान।
महमान मेरे नन्हे-से ओ महमान!

हरियाले दो मन पर फूला,
हम दो खम्भों पर तू झूला,
अरे कौन-सा रस्ता भूला,
नाना-सा धनवान, पिता-सा--
या होगा नादान!
महमान मेरे नन्हे-से ओ महमान!

(खण्डवा-१९४०)

32. क्या सावन, क्या फागन

क्यों स्वर से ध्वनियाँ उधार लूँ?
क्यों वाचा के हाथ पसारूँ?
मेरी कसक पुतलियों के स्वर,
बोलो तो क्यों चरण दुलारूँ?
स्वर से माँगूँ भीख--
कि हिलकोरों में हूक उठे,
वाचा से गुहार करता हूँ
देवि, कलेजा दूख उठे।
बिना जीभ के श्यामा मेरी
उभय पुतलियाँ बोल रही हैं,
बोलों से जो रूठ चुके
ऐसे रहस्य ये खोल रहीं हैं।
क्यों ऊँचे उड़ने को माँगूँ,
मैं कोयल के पर अनमोले?
जब कि वायु में मेरे सपने
अग-जग भूमण्डल पर डोले।
कौन आसरा ले कि सुरभि के--
स्तन से उतरे अमृत-धारा,
जब कि फुदक उट्ठे बछड़ा वह
कामधेनु का राज-दुलारा।
भले ओंठ हों बन्द किन्तु--
अन्तर की गाँठें खुल जाती हैं,
क्या सावन, क्या फागन--
जब सूझें बारह-मासा गाती हैं!

(खण्डवा-१९५२)

33. कैदी की भावना

धूल लिपटे हुए हँस-हँस के गजब ढाते हुए,
नंद का मोद यशोदा का दिल बढ़ाते हुए,
दोनों को देखता, दोनों की सुध भुलाते हुए,
बाल घुँघरालों को मटका कर सिर नचाते हुए।
नंद जसोदा, जो वहाँ बैठे थे बतलाते हुए,
साँवला दीख पड़ा हँसता हुआ, आते हुए।
नन्द ने सोचा,--जरा पास तो आजाने दूँ,
जाने वह और न यशोदा चट चुम्मा लूँ,
खींच यशोदा ने लिया, नाथ मुझसे बातें करें,
चूम लूँ कान्ह को चुपचाप कि जब वह गुजरे।
श्याम ने, अपनी तरफ देख ली दोनों की नजर
कुछ गुनगुनाते हुए आने लगा वह नटवर।
दोनों तैयार हैं, किस ओर को पहले झपटूँ?
बाप के कन्धे, या मैय्या के हिये से लपटूँ!
पाया नजदीक, चूमने को बढ़ पड़े दोनों,
प्यार का जोर था ऐसे उमड़ पड़े दोनों--
कान्ह ने धोखा दिया, ताली बजा, पीछे खिंचा
जोर से बढ़ते हुए सर से लड़ पड़े दोनों।

(बिलासपुर जेल की जन्माष्टमी-१९२१)

34. युग-पुरुष

उठ-उठ तू, ओ तपी, तपोमय जग उज्ज्वल कर
गूँजे तेरी गिरा कोटि भवनों में घर-घर
गौरव का तू मुकुट पहिन
युग के कर-पल्लव
तेरा पौरुष जगे, राष्ट्र--
हो, उन्नत अभिनव।
तेरे कन्धों लहरावे, प्रतिभा की खेती,
तेरे हाथों चले नाव, जग-संकट खेती।
तुझ पर पागल बने आज उन्मत्त जमाना,
तेरे हाथों बुने सफलता ताना-बाना।
तू युग की हुंकार,
अमर जीवन की वाणी,
तेरी साँसें अमर हो उठें,
युग-कल्याणी।
तेरा पहरेदार, विन्ध्य का दक्षिण उत्तर,
तेरी ही गर्जना, नर्मदा का कोमल स्वर।
तेरी जीवित साँस आज तुलसी की भाषा,
तेरा पौरुष सतत अमर जीवन की आशा।
जाग-जाग उठ तपी तुझे
जग का आमंत्रण
विभु दे तुझको उठा
सौंप कर अमृत के कण।
तेरी कृति पर सजे हिमालय रजत-मुकुट-सा,
सिन्धु, इरावति बने सुहावन वैभव घट-सा,
गंगा-जमुना बहें तुम्हारी उर-माला-सी,
विहरित हरित स्वदेश करें, कृषि-जन-कमला-सी।
कमर-बन्द नर्मदा बने
उठ सेना-नायक।
शस्त्र-सज्जिता तरल तापती
बने सहायक।
तेरी असि-सी लटक चलें कृष्णा कावेरी,
आज सृजन में होड़ लगे विधना से तेरी।
लिख-लिख तू ओ तपी जगा उन्मत्त जमाना
जिसने ऊँचा शीश किये जग को पहचाना।
तू हिमगिरि से उठा
कुमारी तक लहराया,
रतनाकर ले आज
चरण धोने को आया।
उठ ओ युग की अमर-साँस, कृति की नव-आशा,
उठ ओ यशोविभूति, प्रेरणा की अभिलाषा,
तेरी आँखों सजे विश्व की सीमा-रेखा,
अंगुलियों पर रहे, जगत की गति का लेखा।

(खण्डवा-१९२९)

35. गीत (१)

मेरे युग-स्वर! प्रभु वर दे, तू धीरे-धीरे गाये।
चुप कि मलय मारुत के जी में शोर नहीं भर जाये,
चुप कि चाँदनी के डोरों को शोर नहीं उलझाये,
मेरे युग-स्वर! प्रभु वर दे, तू धीरे-धीरे गाये।
चुप कि तारकों की समाधि में दूख उठेगा जय-रव,
चुप कि चाँद में बिदा क्षणों की दर्शन-भूख न संभव।
उठो मधुर! दरवाजे खोलो, वातायन खुल जाये,
सदियों की उजड़ी साँसों में आज प्राण-प्रभु आये,
मेरे युग-स्वर! प्रभु वर दे, तू धीरे-धीरे गाये।

(खण्डवा-१९४५)

36. यौवन का पागलपन

हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।

सपना है, जादू है, छल है ऐसा
पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा,
मिट-मिटकर दुनियाँ देखे रोज़ तमाशा।
यह गुदगुदी, यही बीमारी,
मन हुलसावे, छीजे काया।
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।

वह आया आँखों में, दिल में, छुपकर,
वह आया सपने में, मन में, उठकर,
वह आया साँसों में से रुक-रुककर।
हो न पुरानी, नई उठे फिर
कैसी कठिन मोहनी माया!
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।

(खण्डवा-१९४०)

37. हृदय

वीर सा, गंभीर-सा है यह खड़ा,
धीर होकर यों अड़ा मैदान में,
देखता हूँ मैं जिसे तन-दान में,
जन-दान में, सानंद जीवन-दान में।

हट रहा है दंभ आदर-प्यार से,
बढ़ रहा जो आप अपनों के लिए,
डट रहा है जो प्रहारों के लिए,
विश्व की भरपूर मारों के लिए।

देवताओं को यहाँ पर बलि करो
दानवों का छोड़ दो सब दु:ख भय;
"कौन है?" यह है महान मनुष्य़ता
और, है संसार का सच्चा हृदय।

क्यों पड़ीं परतंत्रता की बेड़ियाँ?
दासता की हाय हथकड़ियाँ पड़ीं
न्याय के मुँह बन्द फाँसी के लिए,--
कंठ पर जंजीर की लड़ियाँ पड़ीं।

दास्य-भावों के हलाहल से हरे!
भर रहा प्यारा हमारा देश क्यों?
यह पिशाची उच्च-शिक्षा-सर्पिणी
कर रही वर वीरता निःशेष क्यों?

वह सुनो आकाश वाणी हो रही--
"नाश पाता जायगा तब तक विजय"--
वीर?--’ना’, धार्मिक? ’नहीं’ सत्कवि? ’नहीं’--
"देश में पैदा न हों जब तक ’हृदय’"।

देश में बलवान भी भरपूर हैं
और पुस्तक-कीट भी थोड़े नहीं,
हैं अमित धार्मिक ढले टकसाल के
पर किसी ने भी हृदय जोड़े नहीं।

ठोकरें खाती मनों की शक्तियाँ
’राम मूर्ति’ बने खुशामद कर रहे,
पूजते हैं,--देवता द्रवते नहीं,
दीन-दब्बू बन करोड़ों मर रहे।

’हे हरे! रक्षा करो’--यह मत कहो
चाहते हो इस दशा पर जो विजय,
तो उठो, ढूँढो, छुपा होगा वहीं
राष्ट्र का बलि, देश का ऊँचा ’हृदय’।

फूल से कोमल, छबीला रत्न से,
वज्र से दृढ़, शुचि-सुगंधी यज्ञ से,
अग्नि से जाज्वल्य, हिम से शीत भी,
सूर्य से देदीप्यमान, मनोज्ञ से।

वायु से पतला, पहाड़ों से बड़ा
भूमि से बढ़कर क्षमा की मूर्ति है;
कर्म का अवतार-रूप-शरीर जो-
श्वास क्या, संसार की वह स्फूर्ति है;

मन महोदधि है, वचन पीयूष है
परम निर्दय है, बड़ा भारी सदय;
कौन है? है देश का जीवन यही,--
और है वह जो कहाता है ’हृदय’।

सृष्टि पर अति कष्ट जब होते रहे,
विश्व में फैली भयानक भ्रान्तियाँ
दण्ड, अत्याचार, बढ़ते ही गये,
कट गये लाखों मिटी विश्रान्तियाँ,

गद्दियाँ टूटीं असुर मारे गये
किस तरह? होकर करोड़ों क्रान्तियाँ,
तब कहीं है पा सकी मातामही
मृदुल-जीवन में मनोहर शान्तियाँ।

बज उठीं संसार भर की तालियाँ
गालियाँ पलटीं, हुई ध्वनि, जयति जय,
पर हुआ यह कब? जहाँ दीखा कभी
विश्व का प्यारा कहीं कोई ’हृदय’।

(प्रताप साप्ताहिक(विजयदशमी विशेषांक),
कानपुर-१९१४)

38. युग-धनी

युग-धनी, निश्वल खड़ा रह!
जब तुम्हारा मान, प्राणों
तक चढ़ा, युग प्राण लेकर,
यज्ञ-वेदी फल उठी जब
अग्नि के अभिमान लेकर।
आज जागा, कोटि कण्ठों का--
बटोही मान लेकर,
ढूँढने आ गई बन्धन-मुक्ति--
पथ-पहचान लेकर।
जब कि ऊर्मि उठी, हृदय-हृद
मस्त होकर लहलहाया,
रात जाने से बहुत पहले
सबेरा कसमसाया।
किन्तु हम भूले तुझे ही
जब हमें रण ज्वार आया,
एक हमने शंख फूँका।
एक हमने गीत गाया।
गान तेरा है कि बस अभिमान मेरा,
रूप तेरा है कि है दृग-दान मेरा,
तू महान प्रहार ही सह,
युग-धनी, निश्चल खड़ा रह।

(नागपुर-१९४०)

39. ध्वनि बिखर उठी

हास्य का प्रपात, प्राण मेरु से गिरा
कि ध्वनि बिखर उठी!
और एक कान पर रखे
करारविन्द
छबि निखर उठी।
हास्य-तंत्र हो गया जहान,
यों कि उग उठा खेत-खेत!
यों प्रवाहमान, नेह हो उठा
कि भीग बही रेत-रेत!
कनखियाँ मचल उठीं कि चुटकियाँ मरोर दें।
हों उबासियाँ, उदासियाँ कि चुहुल जोर दें।
खीझ, रीझ से हजार
यों बिगड़-बिगड़ उठी।
हास्य का प्रपात, प्राण-मेरु से गिरा--
कि ध्वनि बिखर उठी।

(खण्डवा-१९५३)

40. ओ तृण-तरु गामी

सिर से पाँव, धूलि से लिपटा, सभ्यों में लाचार दिगम्बर,
बहते हुए पसीने से बनती गंगा के ओ गंगाधर;
ओ बीहड़ जंगल के वासी, अधनंगे ओ तृण-तरु गामी
एक-एक दाने को रोते, ओ सारी वसुधा के स्वामी!
दो आँखों से मरण देखते
लाल नेत्र तीजा बिन खोले
ओ साँपों के भूषणधारी
धूर्त जगत में ओ बंभोले!
गिरि-पति गिरि-जा को संग लेकर, बजा प्रलय डमरू प्रलयंकर,
तेरा प्रलय देखने आया, दिखा मधुर-ताण्डव ओ नटवर!

(खण्डवा-१९४०)

41. एक तुम हो

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।

कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।

तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।

तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा

तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
रहे मन-भेद तेरा और मेरा,
अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा;
कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।

(खण्डवा-१९४०)

42. मन की साख

मन, मन की न कहीं साख गिर जाये,
क्यूँ शिकायत है?-भाई हर मन में जलन है।
दृग जलधार को निहारने का रोज़गार--
कैसे करें?-हर पुतली में प्राणधन है।
व्यथा कि मिठास का दिवाला कैसे काढ़े उर?
कान कहाँ जायें? लगी प्राणों से लगन है।
प्यार है दिवाना उसे कुछ भी न पाना
वह तेरे द्वार धूनियाँ रमाने में मगन है।

(खण्डवा-१९४५)

43. उधार के सपने

बहुत बोल क्या बोलूँ ये सब सपने हैं उधार के राजा।
बहुत भले लगते हैं; गहने अपने हैं उधार के राजा!
तुझे जोश आता है, देखा;
तुझे क्रोध आता है, माना।
पर ’हमने’ अपने दाता की
हरी पुतलियों को पहिचाना?
तू उनका युग-युग का दुश्मन, तू उनकी है आज जरूरत,
एक साथ रख देख, सलोने, उनकी सूरत और जरूरत।
तब फिर जोड़ लगाओ प्रहरी, क्या खो-खोकर, क्या-क्या पाया,
जीता कौन? पछाड़ा किसने! किसका अर्पण किसकी, माया।
तेरी एक-एक बोली पर,
सौ-सौ सिर न्यौछावर राजा।
दिल्ली के सिंहासन से टुक,
जी के सिंहासन पर आजा।
वह नेपाल प्रलय का प्रहरी, वहाँ क्रान्ति की स्फूर्ति जगी है?
जल न उठे एशिया, वहाँ के हिम-खण्डों में आग लगी है।
भारत माँ का वह सिंगार काश्मीर, कि जिस पर जग ललचाया,
धन्य भाल, नव मुण्डमाल दे, जिसे देश ने आज बचाया।
केशर के बागों में क्या,
अमरीका अंगारे बोवेगा?
क्या स्वर्गोपम धराधीश काश्मीर,
पीढ़ियों तक रोवेगा?
फिर क्या होंगे तीस कोटि नरमुण्डों के दुनियाँ में मानी?
क्यों कोई मानेगा भारत माँ के कोंखों फली जवानी?
बधिक न जीने देगा क्या काश्मीरी कस्तूरी के वे मृग?
क्या जंजीरों से जकड़े दीखेंगे देव! वितस्ता के मग?
क्या डालर के हाथ बिकेंगे
रूप-राग-अस्मत ओ मानी?
क्या नागासाकी बनने का
भय दे अणु छीनेगा पानी?
डालर, हँसिया और हथौड़ा—दो चक्की के पाटों पिसकर,
क्या एशिया चूर्ण कर देगा, कोटि-कोटि शिर कोटि-कोटि कर?
री छब्बिस जनवरी! याद की आजादी की सप्तम सीढ़ी
फलने दे स्वातंत्रय-देश में सौ-सौ बरसों सौ-सौ पीढ़ी।
वेदों से मंत्रित ओ बहना!
तेरी माँग भरी रहने दे;
बापू के व्रत पर वे शपथें--
तेरी, देवि खरी रहने दे।
हिमगिरि की अभिषेक-धार निशि-दिन क्षण-पलक झरी रहने दे!
शस्य श्यामला माँ की गोदें बन्धन-मुक्त हरी रहने दे।
तेरे चरण धुलें सागर से हो तेरा ललाट हेमांचल,
होता हो अभिषेक कल्प तक, झरता रहे अमर गंगाजल!
हाँ मणिपुरी लिये ताण्डव तक
प्रणय-प्रलय नर्तन-ध्वनि गूँजे!
रागों में अनुराग बाँध, संगीत—
तुम्हारे स्वर-पद पूजे।
वंशी-वीणा वाद्य-मंत्र हों, तलवारें हो भाषा टीका
शिर उट्ठें, शिरदान-शपथ लें, अपना रहे लाल ही टीका।
अर्ध-रात्रि में सोरठ गूँजे, उषः ’भैरवी’ पर दृग खोलें
प्रातः शस्त्र-शास्त्र-अभिमंत्रित हों तब ’भैरव’ के स्वर बोलें।
मीरा के वे गिरिधर नागर
धन्य कर दिया विष का प्याला,
सूर श्याम तू धन्य कि आँखें
खोकर भी जग किया उजाला!
मिला राम को देश-निकाला
सीता सागर पार लुटी जब
तब हमने एशिया-खण्ड में
रामराज्य का डेरा डाला!
इधर राम ने दे दी ठोकर, उधर भरत ने भी ठुकराया।
तभी ’अवध’ के सिंहासन पर विजयी रामराज्य हरषाया!
इक-इक पद पर सौ-सौ टूटें, ’कहैं कबीर सुनो भाई साधो’
अपनी इक अनमोल अकल पर रामराज्य का स्वाँग न बाँधो।
देख विनोबा के स्वर में
गरबीली माता बोल रही हैं,
कोटि हृदय मिल-मिल उठते हैं
कैसा अमृत घोल रही हैं?
भूमिदान की इस वाणी से आज हमारा केन्द्र सुरक्षित,
बापू की यादें, योद्धा की गति, अपना राष्ट्रेन्द्र सुरक्षित;
भारतीय संस्कृति के स्वर को, प्रिय सन्देहों से मत घूरो,
जले ’योजना दीप’ सतत, तो उसमें ’स्नेह-भावना’ पूरो!

(खण्डवा-१९५३)

44. गीत (२)

चरण चलें, ईमान अचल हो!

जब बलि रक्त-बिन्दु-निधि माँगे
पीछे पलक, शीश कर आगे
सौ-सौ युग अँगुली पर जागे
चुम्बन सूली को अनुरागे,
जय काश्मीर हमारा बल हो,
चरण चलें, ईमान अचल हो।

स्मरण वरण का हिमगिरि का रथ,
तुम्हें पुकार रहा सागर-पथ,
अणु से कहो, अमर है निर्भय,
बोल मूर्ख, मानवता की जय,
झण्डा है नेपाल, सबल हो,
चरण चलें, ईमान अचल हो।

अन्न और असि दो से न्यारा
गर्वित है भूदान हमारा
सुन उस पंथी की स्वर धारा
जिसने भारतवर्ष सँवारा
’गोली’--राजघाट का बल हो,
चरण चलें, ईमान अचल हो।

बलि-कृति-कला ’त्रिवेणी’ की छबि,
गूँथ रहा, अपनी किरणों रबि
उठती तरुणाई का वैभव,
उतरे, बने सन्त, योद्धा, कवि।
भारत! लोक अमर उज्जवल हो,
चरण चलें, ईमान अचल हो!

(खण्डवा-१९५०)

45. जोड़ी टूट गई

तरुणाई के प्रथम चरण में जोड़ी टूट गई,
फूली हुई रात की रानी, प्रातः रूठ गई!

गन्ध बनी, साँसों भर आई
छन्द बनी फूलों पर छाई
बन आनन्द धूलि पर बिखरी
यौवन के तुतलाते वैभव, सन्ध्या लूट गई!
फूलों भरी रात की रानी सहसा रूठ गई।

मुसुकों भरी मनोरम बेली
यादों की डालों पर खेली
गिरी सभी साधें अलबेली
ऊँचे पर उठती अभिनवता पथ में छूट गई
फूली हुई रात की रानी, कैसे रूठ गई?

(पातल पानी रेलवे स्टेशन-१९५२)

46. अटल

हटा न सकता हृदय-देश से तुझे मूर्खतापूर्ण प्रबोध,
हटा न सकता पगडंडी से उन हिंसक पशुओं का क्रोध,
होगा कठिन विरोध करूँगा मैं निश्वय-निष्क्रिय-प्रतिरोध
तोड़ पहाड़ों को लाऊँगा उस टूटी कुटिया का बोध।
चूकेंगें आगे आने पर सारे दाँव विधाता के,
धोऊँगा पद-कंज आँसुओं से मैं जीवन-दाता के।

(प्रताप प्रेस, कानपुर-१९१९)

47. हिमालय पर उजाला

लिपट कर गईं बलवान चाहें,
घिसी-सी हो गईं निर्माल्य आहें,
भृकुटियाँ किन्तु हैं निज तीर ताने
हुए जड़ पर सफल कोमल निशाने।

लटें लटकें, भले ही ओठ चूमें,
पुतलियाँ प्राण पर सौ साँस झूमें।
यहाँ है किन्तु अठखेली नवेली,
हिमालय के चढ़ी सिर एक बेली।

नगाधिप में हवा कुछ छन रही है,
नगाधिप में हवा कुछ बन रही है।
किरन का एक भाला कह रहा है,
हिमालय पर उजाला हो रहा है।

(खण्डवा-१९५२)

48. कुलवधू का चरखा

चरखे, गा दे जी के गान!

इक डोरा-सा उठता जी पर,
इक डोरा उठता पूनी पर,
दोनों कहते बल दे, बल दे,
टूट न जाये तार बीच में,
टूट न जाये तान,
चरखे, गा दे जी के गान!

उजली पूनी, उजले जीवन,
है रंगीन नहीं उनका मन,
यह सितार-सा तारों का धन,
तार-तार भावी का स्वर-धन,
चिर-सुहाग पहचान।
चरखे, गा दे जी के गान!

तार बने, तारों की उलझन,
तार बने जीवन की पहरन,
ढाँके इज्जत, ढाँके दो मन,
दो डोरों के गठबन्धन से,
बँधे हृदय-महमान,
चरखे, गा दे जी के गान!

(खण्डवा-१९४०)

49. लक्ष्य-भेद के उतावले तीर से

"तू धीर धर हे वीर वर"--उस तीर से मैंने कहा!
"बस छूट पड़ने दो अजी, मुझसे नहीं जाता रहा"।
-जाता रहा, तो काम से ही जान ले जाता रहा,
छूटा कि छूटा, और हो होकर टूक ठुकराता रहा।
मैदान में है सीख तू
बाजी लड़ाना सूर का।
पीछे खिचा भरपूर, बस मारा निशाना दूर का।

(श्री चन्द्रगोपाल जी मिश्र का स्थान, हरदा-१९२०)

50. वीणा का तार

विवश मैं तो वीणा का तार।

जहाँ उठी अंगुली तुम्हारी,
मुझे गूँजना है लाचारी,
मुझको कम्पन दिया, तुम्हीं ने,
खुद सह लिया प्रहार।
दिखाऊँ किसे कसक सरकार!
अभागा मैं वीणा का तार।
विवश मैं तो वीणा का तार।

टूक-टूक स्वर ही क्या कम था!
जो उस को बेड़ी पहनादी?
क्या बन्दी स्वर के चढ़ने को,
बन्धन की सीढियाँ बना दीं?
मधुरिमा पर यह अत्याचार,
तुम्हारी ध्वनि-वीणा का तार।
विवश मैं तो वीणा का तार।

तारों में यों कस-कस रखना,
फिर सीढियाँ बनाना कैसा?
ठोकर से गिरता स्वर-बन्दी,
ठोकर मार चढ़ाना कैसा?
धन्य यह जग का स्वर-सत्कार!
कैद हूँ मैं वीणा का तार।
विवश मैं तो वीणा का तार।

तुम्हारे इंगित पर इतिहास,
चढ़ा जाता हूँ मैं दृग मींच,
खींच दी तुमने क्यों फिर हाय,
कलेजे पर खूँटी की खींच?
मधुरिमा दूँ? फाँसी पर? प्यार,
व्यथित, बेबस, वीणा का तार।
विवश मैं तो वीणा का तार।

तुम्हारे छू जाने से दुःख
दे चला कौन ज्वार, चीत्कार,
फाँसियों पर बन कर यह कौन,
आ गया निठुर चढ़ाव, उतार!
मधुर यह मौत, मधुर यह भार।
अभागा मैं वीणा का तार!
विवश मैं तो वीणा का तार।

चढ़े जाते हो गूँजों पर,
उतरते हो झंकारों में,
फूट जायेंगे कोमल अंग,
तुम्हारी धुन के तारों में।
न सह स्वर मेरे संग प्रहार,
सहेगा सब वीणा का तार।
विवश मैं तो वीणा का तार।

न मुझमें रंग, न मुझमें रूप,
न दीखे मेरा कहीं शरीर।
किन्तु मेरे प्राणों पर हाय,
टूटते हो तुम आलमगीर!
मधुरिमे! तू कितनी लाचार,
अभागा मैं वीणा का तार।
विवश मैं तो वीणा का तार।

(जबलपुर, व्योहारजी का निवास-१९२६)

51. गीत (३)

बदरिया थम-थम कर झर री!
सागर पर मत भरे अभागन,
गागर को भर री!
बदरिया थम-थम कर झर री!

एक-एक, दो-दो, बूँदों में,
बँधा सिन्धु का मेला,
सहस-सहस बन विहँस उठा है,
यह बूँदों का रेला।
तू खोने से नहीं बावरी
पाने से डर री!
बदरिया थम-थम कर झर री!

जग आये घनश्याम देख तो,
देख गगन पर आगी,
तूने बूँद, नींद खितिहर ने,
साथ-साथ ही त्यागी।
रही कजलियों की कोमलता,
झंझा को वर री!
बदरिया थम-थम कर झर री!

(खण्डवा-१९५३)

52. चले समर्पण आगे-आगे

यों मरमर मत करो आम्र--वन गरबीले युग बीत न जाएँ,
रहने दो वसन्त को बन्दी, कोकिल के स्वर रीत न जाएँ।
उठीं एशिया की गूजरियाँ, मोहन के वृत, मोहन में रत,
दानव का बल बढ़ न जाय, वे इस घर से भयभीत न जाएँ।
लो इस बार सुलग उट्ठी है ज्वाला हिम के वरदानों पर,
सँभल-सँभल सपने लिख गाफिल गलती हिम की चट्टानों पर।
गंगा, जमना, सिन्धु, ब्रह्मपुत्रा का वैभव देने वाला,
वही नगाधिप आज हो रहा, भीख प्राण की लेने वाला।
वे कश्मीरी कस्तूरी के मृग भागे-भागे फिरते हैं,
केसर के सुहाग-खेतों में अरि के अंगारे घिरते हैं।
आज वितस्ता के पानी में लग न उठे आगी लो घाओ,
गर्व न करो उच्च शिखरों का केसरिया बन उन्हें बचाओ।
गंगा के पानी से मीठा हो शिर दान नगर का पानी,
कथाकली से पहले होवे, शिव के ताण्डव की अगवानी।
मोहन के स्वर, मोहन के वृत, मोहन का वृन्दावन जागे,
सिद्धिदासियाँ पीछे-पीछे चले समर्पण आगे-आगे।

(खण्डवा-१९५३)

53. अंधड़ और मानव

अंधड़ था, अंधा नहीं, उसे था दीख रहा,
वह तोड़-फोड़ मनमाना हँस-हँस सीख रहा,
पीपल की डाल हिली, फटी, चिंघाड़ उठी,
आँधी के स्वर में वह अपना मुँह फाड़ उठी।
उड़ गये परिन्दे कहीं,
साँप कोटर तज भागा,
लो, दलक उठा संसार,
नाश का दानव जागा।
कोयल बोल रही भय से जल्दी-जल्दी,
पत्तों की खड़-खड़ से शान्ति वनों से चल दी,

युगों युगों बूढ़े, इस अन्धड़ में देखो तो,
कितनी दौड, लगन कितनी, कितना साहस है,
इसे रोक ले, कहो कि किस साहस का वश है?
तिसपर भी मानव जीवित है,
हँसता है मनचाहा,
भाषा ने धिक्कारा हो,
पर गति ने उसे सराहा!
बन्दर-सा करने में रत है, वह लो हाई जम्प!
यह निर्माता हँसा और वह निकल गया भूकम्प।

(खण्डवा-१९५६)

54. झूला झूलै री

संपूरन कै संग अपूरन झूला झूलै री,

दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री।
गड़े हिंडोले, वे अनबोले मन में वृन्दावन में,
निकल पड़ेंगे डोले सखि अब भू में और गगन में,
ऋतु में और ऋचा में कसके रिमझिम-रिमझिम बरसन,
झांकी ऐसी सजी झूलना भी जी भूलै री,
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।

रूठन में पुतली पर जी की जूठन डोलै री,
अनमोली साधों में मुरली मोहन बोलै री,
करतालन में बँध्यो न रसिया, वह तालन में दीख्यो,
भागूँ कहाँ कलेजौ कालिंदी मैं हूलै री।
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।

नभ के नखत उतर बूँदों में बागों फूल उठे री,
हरी-हरी डालन राधा माधव से झूल उठे री,
आज प्रणव ने प्रणय भीख से कहा कि नैन उठा तो,
साजन दीख न जाय संभालो जरा दुकूलै री,
दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री,
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।

55. आराधना की बेली

अमर आराधना की बेल, फूल जा, तू फूल जा!
श्याम नभ के नेह के जी का सलौना खेत पाकर
चमकते उन ज्योति-कुसुमों का बगीचा-सा लगाकर
चार चाँद लगा प्रलय में,
एक शशि को भूल जा।
अमर आराधना की बेल, फूल जा, तू फूल जा!

खुले ये छोड़ रक्खे हैं, कि कितना साहसी अम्बर
जगत तो बँट चुका सीमा नगर में द्वार में घर-घर!
बेकलेजे बेसहारा तारकों को झूल जा।
अमर आराधना की बेल, फूल जा, तू फूल जा!

गगन का गान मत गा तू धरा की जीत पर हँस री,
अमर की तू हँसी है तो सजग हो मौत को डँस री,
तू भले ही विश्व के अनुकूल जा,
प्रतिकूल जा।
अमर आराधना की बेल, फूल जा, तू फूल जा!

चमक की हाट नभ है? हो; न तू रख हाट में अपने,
न ये आँसू, न ये कसकें, न ये बलियाँ, न ये सपने,
गगन तो प्रतिबिम्ब है तेरे हृदय-भावों सजा।
अमर आराधना की बेल, फूल जा, तू फूल जा!

जग में गलियाँ, नभ में गलियाँ, बँधा जगत, पथ से चलने को,
सूरज की सौ-सौ किरनों में, विवश, प्रकाशोन्मुख जलने को,
तू अपना प्रकाश पाले, जी की जमना के कूल जा।
अमर आराधना की बेल, फूल जा,
तू फूल जा!

(खण्डवा-१९४२)

56. पतित

ममता के मीठे आमिष पर रहा टूटता भूखा-सा,
भावों का सोता कर डाला, तीव्र ताप से रूखा-सा।
कैसे? कहाँ? बता, चढ़ पाए जीवन-पंकज सूखा-सा,
आवे क्यों दिलदार, जहाँ दिल हो, दावों से दूखा-सा?
गिरने को जी चाह रहा है आगे और रसातल से,
ऊँचा शीश उठाकर देखूँ? पर, देखूँ किसके बल से?

(सिवनी-मालवा-१९२४)

57. मुक्ति का द्वार

मेरे गो-कुल की काली रातों के ऐ काले सन्देश,
रे आ-नन्द-अजिर के मीठे, प्यारे घुँघराले सन्देश।
कृष-प्राय, कृषकों के, आ राधे लख हरियाले सन्देश,
माखन की रिश्वत के नर्तक, मेरे मतवाले सन्देश,
जरा गुद-गुदा दे पगथलियाँ, किलक दतुलियाँ दीखें तो।
चुटकी ले लेने दे, चिढ़े अहीरी-तू कुछ चीखे तो।
अरे कंस के बन्दी-गृह की,
उन्मादक किलकार!
तीस करोड़ बन्दियों का भी
खुल जाने दे द्वार।

(चार सितम्बर, खण्डवा-१९२६)

58. आने दो

मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!
सौ उसाँस पर एक साँस की नागन बार-बार आने दो।

गोदी में लो, कान उमेठो,
गले लगाओ, शत शिर डोलें,
पर वीणा में आँसू-सा असहाय न तुम उतार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!

वे कहते हैं, मिजराबों की
मारों में उतरो गीर्वाणी,
मैं कहता हूँ लय से ध्वनि तक झंकृति का उभार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!

सूजी से सिर छेद-छेद कर,
गूँथो फूल, हार दो रानी,
तुम इतना दो घना कि घन यह कह न पाय खुमार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!

तेरी उनकी प्रीत पुरातन,
युग-युग, बोल-बोल कर डोले,
घनश्याम उतरे गोकुल में, जमुना में बहार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!

तोड़ चलो ’नवघा’ की कारा
शतघा उतर उठो ओ रामा!
गायें, ग्वाल, नंद, नँदरानी सबको एक बार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!

(खण्डवा-१९५३)

59. तेरा पता

तेरा पता सुना था उन दुखियों की चीत्कारों में,
तुझे खेलते देखा था, पगलों की मनुहारों में,
अरे मृदुलता की नौका के माँझी, कैसे भूला,
मीठे सपने देख रहा काग़ज की पतवारों में?
सागर ने खोला सदियों से,
देख बधिक का द्वार,
रे अन्तरतम के स्वामी उठ, तेरी हुई पुकार।

(खण्डवा-१९२६)

60. टूटती जंजीर

एक कहता है कि जीवन की कहानी बेगुनाह,
एक बोला चल रही साँसें-सधीं, पर बेगुनाह,
एक ने दोनो पलक यों धर दिये,
एक ने पुतली झपक ली, वर दिये,
एक ने आलिंगनों को आस दी,
एक ने निर्माण को बनवास दी,
आज तारों से नये अम्बर भरे,
टूटती जंजीर से नव-स्वर झरे।

(खण्डवा, १५ अगस्त-१९५१)

61. दूर या पास

यौवन के छल की तरह दूर, कलिका से फल की तरह दूर,
सीपी की खुली पंखुड़ियों से, स्वाती के जल की तरह दूर,
ताड़ित तरंग की तरह पास, अधकटे अंग की तरह पास,
उल्लास-श्वास की तरह? नहीं, पागल उलास की तरह पास,
मत रहे नजर की तरह की दूर,
रहे अरे पलक की तरह पास,
मत रह तारों की तरह दूर, ठुकरा तर्जनि की तरह पास।

(खण्डवा-१९२६)

62. तर्पण का स्वर

ना, ना, ना, रे फूल, वायु के झोंको पर मत डोल सलोने,
सोने सी सूरज-किरनों से, पंखड़ियों से बोल सलोने,
सावन की पुरवैया जैसे भ्रंग--कृषक तेरे तेरे पथ जोहें,
तेरे उर की एक चटख पर हो न जाय भू-डोल सलोने!

शिर का और शिराओं को युग, रक्त-वहन-कारी रहने दो,
मस्तक की रोली अहिवातिन, लाल-लाल प्यारी रहने दो,
मत्था चढ़े कि मत्था उतरे,
चक्र-सुदर्शन-छवि मुरलीधर, दुनिया से न्यारी रहने दो।

वह नेपाल, प्रलय का प्रहरी, भारत का बल, भारत का शिर!
वह कश्मीर कि जिस पर काले-पीले-उजले मेघ रहे घिर!
आज अचानक अमरनाथ के शिर से उतर रही युग-गंगा,
उठो देश, दे दो परिक्रमा, कहती है भैरवी कि फिर-फिर-

माथे की बिन्दी-हिन्दी को-चलो गोरखाली में बोलें,
वीरों को निर्वीर बनाया-उठो आज यह पातक धोलें,
तेवर, तीर, तलवार, ताज से ऊपर तर्पण का स्वर गूँजे,
भू-मण्डल भूदान-पथी उस जादूगर की थैली खोलें!

(खण्डवा-१९५४)

63. बेचैनी

जिसके पापों के ज्ञाता हो, जिसमें क्षुद्रत्व दिखाता हो,
जिसको न बोलना आता हो, जो केवल अश्रु बहाता हो,
जो अपनों से वनवासी हो, जो सेहत का उपवासी हो,
सहते-सहते, सहते-सहते, जो होता गया उदासी हो।
यह हाथ जुड़े, यह शीश झुका,
यह देह थकी, यह बैठ गया,
कुमुदिनि की कलियों पर प्यारे चढ़कर आवे मुख-चन्द नया।

(कानपुर से लौटते हुए रेल में--१९२३)

64. दूर गई हरियाली

एक मौत पर, दूजे दिल पर, और तीसरे ’उन पर’ आली,
मेरा बस न चलाये चलता, साधें रीतीं, आँखें खाली!
अब तो दूर गई हरियाली

बिजली का सिर चढ़ चढ़ जाना,
श्याम घनों का गल-गल गिरना,
कैसे दो वरदान, मिले हैं,
उन्हें गरजना, मेरा झरना।

ज्वारों से बेकाबू वे सखि,
आहों-सी लाचारी मेरी;
आह और आँसू जैसी है,
प्रणय विवशता उनकी मेरी।

काले नभ में खेल रहे हैं,
सूरज, चन्दा, झिलमिल तारे;
कैसे सुन्दरता खोएँगे,
वे पुतली के वासी प्यारे!

चिडियाँ चहक-चहक उठती हैं, ऊषा की लख आली आली,
किन्तु लाल की लाली से यह जी की डाल नहीं मतवाली।
अब तो दूर गई हरियाली

(खण्डवा-१९५१)

65. धरती तुझसे बोल रही है

धरती बोल रही है--धीरे धीरे धीरे मेरे राजा,
मेरा छेद कलेजा हल से फिर दाना बन स्वयं समा जा।
माटी में मिल जा ओ मालिक,
माँद बना ले गिरि गह्वर में,
एक दहाड़, करोड़ गुनी हो,
गूँजे नभ की लहर लहर में।
हरी हरी दुनियाँ के स्वामी, लाल अँगारों के कमलापति,
मुट्ठी भर हड्डियाँ? नहीं, यह जग की हल-चल तेरी सम्पति।
रे इतिहास, फेंक सत्तावन वाली वह तलवार पुरानी,
आज गरीबी की ज्वालामय साँसों पर चढ़ने दे पानी।

उत्सव क्या? सूली पर चढ़ना; क्या त्योहार? मौत की बेला!
खेला कौन? अरे प्रलयंकर, तू अपने परिजन से खेला।
नेता-अनुयायी का रौरव,
वक्ता-श्रोता का यह रोना।
ओ युग! तेरे हाथों देने,
आये मूरख चन्द्र-खिलौना।
तेरे घिसते दाँतों की मचमची, गठानें खोल रही है,
धीरे-धीरे मेरे राजा, तुझसे धरती बोल रही है।

(खण्डवा-१९४०)

66. रोटियों की जय

राम की जय पर खड़ी है रोटियों की जय?
त्याग कि कहने लग गया लँगोटियों की जय?
हाथ के तज ’काम’ हों आदर्श के बस ’काम’
राम के बस काम क्यों? हों काम के बस राम।

अन्ध-भाषा अन्ध-भावों से भरा हो देश,
ईश का सिर झुक रहा हो रूढ़ि के आदेश!
प्रेम का वध ही जहाँ हो धर्म का व्यवसाय,
जब हिमायत ही बनी हो श्रेष्ठता का न्याय,

भूत कुछ पचता न हो, भावी न रुचता हाय!
क्यों न वह युग वर्तमानों में पड़ा मर जाय?
जब कलम रचने लगी नव-नवल-कुंभीपाक,
तीन से अनगिनित पत्ते जन रहा जब ढाक!

जब कि वाणी-कामिनी, नित पहिन घुँघुरू यार,
गूँजती मेले लगा कर अन्नदाता-द्वार।
उस दिवस, क्या कह उठे तुम--साधना? क्या मोह!
माँगने दो आज पीढ़ी को सखे विद्रोह।

आज मीठे कीच में ऊगे प्रलय की बेल,
कलम कर कर उठे, फूलें, सिर चढों का खेल,
प्रणय-पथ मिलने लगें अब प्रलय-पथ से दौड़,
सूलियों पर ऊगने में युग लगाये होड़,

ज्वार से? ना ना किसी तलवार से सिर जाय,
प्यार से सिर आय तो ललकार दो सिर जाय।

(खण्डवा-१९५३)

67. जबलपुर जेल से छूटते समय,
दरवाजे पर, आम के नीचे

ये जयति-जय घोष के काँटे गड़े,
लोटने ये हार सर्पों से लगे,
छोड़ कर आदर्श देव-उपासना,
बन्धु, तुम किस तुच्छ पूजा को जगे?

बँध चली ममता कसी जंजीर-सी,
यह परिस्थिति का गुनह-खाना बना,
घिर गये आत्मीय, मैं बेबस हुआ,
भोग की सहमार दीवाना बना।

कठिन शिष्टाचार का लंगर लगा,
मोह का, प्रतिकूल ताला पड़ गया,
वासना के संतरी-दल का सबल,
इन दृगों के द्वार पहरा अड़ गया।

था वहाँ सन, अब सदैव विकर्म की,
कह रहे हैं, रस्सियाँ बुनने लगो,
थी छटाकें चार, अब मनभर हुए,
हृदय कहता है कि सर धुनने लगो।

दूर था,--अब और भी सौ कोस पर,
हाय वह आराध्य जीवन-धन हुआ,
छोड़ दो मुझको दया होगी बड़ी,
मुक्ति क्या, यह तो महाबन्धन हुआ।

(४ मार्च--१९२२
गुनह-खाना=मध्य-प्रदेश की जेलों में सोलिटरी जेल को
गुनह-खाना कहते हैं। पहली सजा के कुछ महीने
अफसरों की नाराजी से वहीं काटने पड़े थे)

68. पथ में

यौवन की पुकार करते हो, जीने दो दरकार नहीं,
रूप-राशि का दम भरते हो, मुझे किन्तु एतबार नहीं,
नहीं सीपियों पर ललचूँगी, मुझे चाहिए वे मोती,
भूतल हीतल अंतरतल में जगमग हो जिनकी जोती,

चाँदी-सोने मकराने की व्यर्थ झोलियाँ ले आये,
चमक और कीमत पर भूले, निष्ठुरता पर ललचाये,
जो हीतल को शीतल कर दे, जहाँ पुकारूँ मिल जाये,
मीठे जलवाली मिट्टी की कलशी कहाँ छोड़ आये!
सूरत देखी, मूरत देखी,
देखे शान मान एहसान,
प्राण-प्रतिष्ठा करूँ बताओ पाऊँ कहाँ प्रेम-भगवान!

(खण्डवा-१९२१)

69. जलियाँ वाला की बेदी

नहीं लिया हथियार हाथ में, नहीं किया कोई प्रतिकार,
’अत्याचार न होने देंगे’ बस इतनी ही थी मनुहार,
सत्याग्रह के सैनिक थे ये, सब सह कर रह कर उपवास,
वास बन्दियों मे स्वीकृत था, हृदय-देश पर था विश्वास,
मुरझा तन था, निश्वल मन था,
जीवन ही केवल धन था,
मुसलमान हिन्दूपन छोड़ा,
बस निर्मल अपनापन था।
मंदिर में था चाँद चमकता, मसजिद में मुरली की तान,
मक्का हो चाहे वृन्दावन होते आपस में कुर्बान,
सूखी रोटी दोनों खाते, पीते थे रावी का जल,
मानो मल धोने को पाया, उसने अहा उसी दिन बल,
गुरु गोविन्द तुम्हारे बच्चे,
अब भी तन चुनवाते हैं,
पथ से विचलित न हों, मुदित,
गोली से मारे जाते हैं।
गली-गली में अली-अली की गूँज मचाते हिल-मिलकर,
मारे जाते,--कर न उठाते, हृदय चढ़ाते खिल-खिल कर,
कहो करें क्या, बैठे हैं हम, सुनें मस्त आवाजों को,
धो लेवें रावी के जल से, हम इन ताजे घावों को।
रामचन्द्र मुखचन्द्र तुम्हारा,
घातक से कब कुम्हलाया?
तुमको मारा नहीं वीर,
अपने को उसने मरवाया।
जाओ, जाओ, जाओ प्रभु को, पहुँचाओ स्वदेश-संदेश,
“गोली से मारे जाते हैं भारतवासी, हे सर्वेश”!
रामचन्द्र तुम कर्मचन्द्र सुत बनकर आ जाना सानन्द,
जिससे माता के संकट के बंधन तोड़ सको स्वच्छन्द।
चिन्ता है होवे न कलंकित,
हिन्दू धर्म, पाक इसलाम,
गावें दोनों सुध-बुध खोकर,
या अल्ला, जय जय घनश्याम।
स्वागत है सब जगतीतल का, उसके अत्याचारों का,
अपनापन रख कर स्वागत है, उसकी दुर्बल मारो का,
हिन्दू-मुसलिम-ऐक्य बनाया स्वागत उन उपहारों का,
पर मिटने के दिवस रूप धर आवेंगे त्योहारों का।
गोली को सह जाओ, जाओ—
प्रिय अब्दुल करीम जाओ,
अपनी बीती हुई खुदा तक,
अपने बन कर पहुँचाओ।

(सिमरिया वाली रानी की कोठी, कर्मवीर प्रेस,
जबलपुर-१९२०)

70. नज़रों की नज़र उतारूँगा

माँ—लल्ला, तू बाहर जा न कहीं,
तू खेल यहीं, रमना न कहीं।
बेटा—क्यों माँ?
माँ—डायन लख पाएगी,
लाड़ले! नजर लग जाएगी।
बेटा—अम्मा, ये नभ के तारे हैं,
किस माँ के राज-दुलारे हैं?
अम्मा, ये खड़े उघारे हैं,
देखो ये कितने प्यारे हैं,
क्यों इन्हें न इनकी माँ ढकती?
क्या इनको नजर नहीं लगती?
माँ—बेटा, डायन है क्रूर बहुत,
लेकिन तारे हैं दूर बहुत,
उन तक जाने में थक जाती,
यों उनको नजर न लग पाती,
बेटा—माता ये माला के मोती,
जगमग होती जिनकी जोती,
क्या नजरें इनसे डरती हैं,
जो इनपर नहीं उतरती हैं?
माँ—हाँ, जब ये नन्हें थे जल में,
गहरी लहरों के आँचल में,
तब नज़र न लगा सकी डुबकी,
छाया भी छू न सकी उनकी।
बेटा—अम्मा, ये फूल सलोने से,
हरियाली माँ के छौने से,
क्यों बेली इन्हें नहीं ढकती?
क्या इनको नज़र नहीं लगती?
माँ—नजरों के पैर फिसल जाएँ,
फूलों पर नहीं ठहर पाएँ।
बेटा—ना, ना, माँ, मैं क्यों हारूँगा,
माँ, मैं किससे क्यों हारूँगा?
मैं दृढ़ हूँ, तन-मन वारूँगा,
मैं हँस-हँसकर किलकारूँगा,
नजरों की नजर उतारूँगा।

(खण्डवा-१९२४)

71. समय की चट्टान

मत दबा समय की चट्टानों के नीचे,
दोनों हाथों तेरी मूरत को खींचे,
चरणों को धोते, आधे से दृग मींचे,
मैं पड़ा रहूँगा तरु-छाया के नीचे,
स्वागत, जग चाहे कितना कीच उलीचे।
मत दबा समय की चट्टानों के नीचे।

(जबलपुर जेल-१९३०)

72. गीत (४)

नयनों पर सुख, नयनों पर दुख,
सुख में दुख, दुख में सुख जोड़ा।
खुले अन्ध-नीलम पर तारे,
रच-रच तोड़े कौन निगोड़ा?
संग चलो संग-संग री डोलो,
मन की मोट सम्भालो संग-संग,
हरी-हरी होवे वसुन्धरा,
इस पर अमृत ढालो संग-संग।
इन कसकों में कितनी सूझें?
इन सूझों में कितना सुख है,
गिर न जाय ओठों तक आकर,
दे अनन्त! तू थोड़ा-थोड़ा।
नयनों पर सुख, नयनों पर दुख,
दुख में सुख, सुख में दुख जोड़ा।

(खण्डवा, फरवरी-१९५६)

73. झंकार कर दो

वह मरा कश्मीर के हिम-शिखर पर जाकर सिपाही,
बिस्तरे की लाश तेरा और उसका साम्य क्या?
पीढ़ियों पर पीढ़ियाँ उठ आज उसका गान करतीं,
घाटियों पगडंडियों से निज नई पहचान करतीं,
खाइयाँ हैं, खंदकें हैं, जोर है, बल है भुजा में,
पाँव हैं मेरे, नई राहें बनाते जा रहे हैं।
यह पताका है,
उलझती है, सुलझती जा रही है,
जिन्दगी है यह,
कि अपना मार्ग आप बना रही है।
मौत लेकर मुट्ठियों में, राक्षसों पर टूटता हूँ,
मैं, स्वयं मैं, आज यमुना की सलोनी बाँसुरी हूँ,
पीढ़ियाँ मेरी भुजाओं कर रहीं विश्राम साथी,
कृषक मेरे भुज-बलों पर कर रहे हैं काम साथी,
कारखाने चल रहे हैं रक्षिणी मेरी भुजा है,
कला-संस्कृति-रक्षिता, लड़ती हुई मेरी भुजा है।
उठो बहिना,
आज राखी बाँध दो श्रृंगार कर दो,
उठो तलवारों,
कि राखी बँध गई झंकार कर दो।

(खण्डवा, अप्रैल-१९५६)

74. क्या-क्या बीत रही है

मैंने मारा, हाँ मैंने ही मारा है, मारा है,
पथ से जारा बहकते युग को ललकारा है मैंने।
तुम क्या जानो, मेरे युग पर क्या-क्या बीत रही है,
सब इल्जाम मुझे स्वीकृत हैं,
किन्तु न ठहरूँगा मैं।
मुझको स्वाँग बनाने का अवकाश नहीं है साथी।
क्या साजूँ श्रृंगार कि उसमें अब कुछ स्वाद नहीं है।
परम सभ्य-सा,
सिर्फ सभ्य-सा,
या असभ्य-सा जो हूँ,
मैं न खड़ा रहा पाऊँगा, पथ जोते आँसू बोते।
मेरा ही युग है, वह कब से मुझे पुकार रहा है;
छनक दुलार रहा है, क्षण में उठ ललकार रहा है।
मेरा युग है, उसकी बातों का भी भला बुरा क्या,
वह पहरा क्यों न दे, कि जब है मेरी अग्नि परीक्षा;
जाओ उससे कहो कि मु झको
जी भर-भर कर कोसे,
उथल पुथल में किन्तु मौज से बैठे ताली देवे।
मिट्टी में रोटी ऊगी है, मिट्टी में से कपड़ा,
मिट्टी से संकल्प उठे हैं, मिट्टी से मानवता,
मिट्टी है निर्माणक तरणी, मिट्टी है बलशाली,
मिट्टी शीश चढ़ाओ, मिट्टी से बलिदान उठेंगे,
मिट्टी से हरियाते, मिट्टी के ईमान उठेंगे।
मिट्टी के वृत पर प्राणाधिक अगणित गान उठेंगे,
"मैया मैं नहिं माटी खाई" कह भगवान उठेंगे।

(खण्डवा, अप्रैल--१९५६)

75. तुम न हँसो

तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है,
मैं हँसने की जड़ खोजूँ तो वह हँसने का फल होता है,

हँसते हो जाने कैसा सा,
बिखर-बिखर पारा झरता है।
स्वयं हार जाता हूँ, देखा,
मुँह से अंगारा झरता है।
तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है,

हँसने से मेरे शापित बन्द हरे होते हैं,
ज्यों ज्यों मैं खाली करता हूँ,
त्यों त्यों छन्द भरे होते हैं।
हँसो नहीं मुँह कहीं तुम्हारा,
क्रूर चाँदनी लूट न लेवे।
जिसे मिलन देने आये हो,
वह बिछड़न की छूट न लेवे।
हँसते हो वर्षा होती है;
हँसते शरद लौट आती है,
हँसते थर-थर शिशिर पनपता,
हँसने पर वसन्त गाती है।
अब न हँसो ग्रीष्म दौड़ेगा,
सुनने, ओ वाणी कल्याणी,
युगों-युगों हँसती आई हो,
हरी-हरी होकर गीर्वाणी।
तुम हँसती हो मेरा गिरि पर चढ़ना ही निष्फल होता है।
तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है,

(खण्डवा, फरवरी-१९५६)

76. नीलिमा के घर

यह अँगूठी सखि निरख एकान्त की,
जड़ चलो हीरा उपस्थिति का, सुहागन जड़ चलो।
दामिनी भुज की--सयम की--अँगुली छिगुनी,
पहिन कर बैठे जरा नीलम भरे जल-खेत में,
साढ़साती हो, पहिन लो समय,
नग जड़ी, नीलम लगी है यह अँगूठी!
नील तुम, फिर नील नग, फिर नील नभ,

फिर नील सागर, नीलिमा के घर
अनोखी नीलिमा की छवि
सलोनी नीलिमा के घर
पधारे आज
नीतोत्पल सदृश भगवान मेरे!
और पानी हों बरसते गान मेरे!
लुट गये नभ के दिये वरदान मेरे!
अब हँसा तो, बिजलियाँ चमकें,
कि हीरक हार दीखे,
फिर यशोदा को कि माटी भरे मुख में
प्यार दीखे, ज्वार दीखे!
और नव संसार दीखे।

(खण्डवा, फरवरी-१९५६)

77. यह आवाज

और यह आई मधुर आवाज-सी
जब प्रलय ने नेत्र खोला
किन्तु मानव था, न डोला
बादलों ने घुमड़ कर जब
बिजलियों का ज्वार खोला।

कुछ गिरे पाषाण
कुछ आये बवन्डर
थरथराए कुछ बदन
कुछ गिर गये घर,

कुछ अँधेरा बढ़ा
दृग छाई अँधेरी
कुछ कलेजा कँपा
पथ में लगी देरी,

किन्तु सहसा टूट कर, पानी हुआ अभिमान उनका,
और मस्ती से हरा ऊगा धरा पर आज तिनका।
मैं बड़ों का पतन चित्रित कर उठा,
और यह आई मधुर आवाज-सी।

78. ऊषा

यह बूँद-बूँद क्या? यह आँखों का पानी,
यह बूँद-बूँद क्या? ओसों की मेहमानी,
यह बूँद-बूँद क्या? नभ पर अमृत उँड़ेला,
इस बूँद-बूँद में कौन प्राण पर खेला!
लाओ युग पर प्रलयंकरि
वर्षा ढा दें,
सद्य-स्नाता भू-रानी को लहरा दें।
ऊषा बोली, दृग-द्वार खोल दे अपने,
मैं लाई हूँ कुछ मीठे-मीठे सपने,
सपनों की साँकल से, रवि का रथ जकड़ो,
युग उठा चलो अंगुलियों पर गति पकड़ो।
मत बाँट कि ये औरों के
ये अपने,
गति के गुनाह, ये मीठे मीठे सपने।
यह उषा निशा के जाने की अंगड़ाई,
तम को उज्जवल कर जब आँखों पर आई!
मैं बोला, चल समेट, तारों की ढेरी!
यह काल-कोठरी खाली कर दे मेरी!
मैं आहों में अंगार लिये
आता हूँ,
जग-जागृति का व्यापार लिये आता हूँ।
निशि ने शरमा कर पहला शशि-मुख चूमा,
तब शशि का यह अस्तित्ववान रथ घूमा,
गलबहियाँ दे, जब निशि-शशि छाये-छाये,
जब लाख-लाख तारे निज पर शरमाये।
कलियों की आँखें द्रुम-दल ने तब खोलीं,
जग का नव-जय हो गया कि चिड़ियाँ बोलीं!
इस श्याम-लता में तब-
प्रकाश के फूल-सा
सूरज आया, विद्रोही उथल-पुथल-सा।

(नागपुर-१९३४)

79. कुछ पतले पतले धागे

कुछ पतले-पतले धागे
मन की आँखों के आगे!
वे बोले गीतों का स्वर,
गीतों की बातों का घर,
हौले-हौले साँसों में
टूटा है, जी जगती पर,
प्राणों पर सावन छाया,
जिस दिन श्यामल घन जागे।
द्रव पतले-पतले धागे,
मन की आँखों के आगे।
अपनी कीमत दो कौड़ी--
कर, मैं उनके पथ दौड़ी,
दृग-पथ-गति से घबराकर,
प्रभु-माया हुई कनौड़ी,
ज्यों-ज्यों सूझों ने पकड़ा,
त्यों-त्यों स्मृतियों से भागे।
मन की आँखों के अपने,
वे सपने वाले धागे।
किस देश-निवासी हो तुम,
किस काल-श्याम की भाषा,
कब उतरोगी अन्तर में,
कवि की गरबीली आशा।
मैं सह लूँगा आँखों के।
ये उल्कापात अभागे,
जो पा जाऊँ सूझों के,
मैं पतले-पतले धागे!
क्यों नभ में ये चमकीले,
दाने बिखेर डाले हैं,
किस-दुनियाँ के दृग-मोती,
किस श्यामा के छाले हैं।
ये इतनी टीसों य घन,
मिल गये किसे मुँह माँगे?
मधु-याद-वधू के स्वर के
नव पतले-पतले धागे!

(अगस्त-१९४५)

80. तरुणई का ज्वार

तरुणई ज्वार बन कर आई।

वे कहते मुझसे गई उतर,
मैंने देखा वह चढ़ छाई।
जीवन का प्यार खोलती है,
माँ का उभार खोलती है,
विष-घट खाली कर अमृत से
घट भर कर मस्त डोलती है।
आशा के ऊषा द्वार खोल,
सूरज का सोना ले आई।
तरुणई ज्वार बन कर आई।

तुझको लख युग मुख खोल उठा,
बेबस तब स्वर में बोल उठा,
तेरा जब दिव्य गान निकला,
लख, कोटि-कोटि सिर डोल उठा।
युग चला सजाने आरतियाँ,
युग बाला पुष्प-माल लाई।
तरुणई ज्वार बन कर आई।

तू बल दे गिरतों को उबार,
तू बल दे उठतों को सँवार,
तू बल दे मस्तक वालों को,
मस्तक देने का स्वर उचार।
जगमग-जगमग उल्लास उठा,
अनहोनी साध उतर आई।
तरुणई ज्वार बन कर आई।

ये तार और वे गान? कि चल,
गति के गहने, अमरत्व सबल,
तू पहिन, और चल, सुधी अमर,
तू नया-नया पहुँचे घर-घर,
केहरि काँपे, हरि तेरा पथ,
चमका दें, तरुणाई आई।
तरुणई ज्वार बन कर आई।

स्वर तेरा उसमें प्रभु लहरे,
स्वर तेरे में, सुहाग ठहरे,
स्वर तेरे हों गहरे-गहरे,
स्वर तेरे, युग गर्वित थहरे,
तू युग-सा अमर उठा बंसी,
अमरता फूँक वह घर आई।
तरुणई ज्वार बन कर आई।

तेरे स्वर में, युग भाग जगे,
तरुणों में मादक आग जगे,
जग उठें, ज्वाल मालाएँ वे,
जिनसे माँ का अनुराग जगे।
उठ उठ प्रकाश के साथ वायु,
तव अमृत-ध्वनि गाने आई।
तरुणई ज्वार बन कर आई।

(खण्डवा-१९३३)

81. सखि कौन

श्यामल प्रभु से, भू की गाँठ बाँधती, जोरा-जोरी,
सूर्य किरण ये, यह मन-भावनि, यह सोने की डोरी,
छनक बाँधती, छनक छोड़ती, प्रभु के नव-पद-प्यार
पल-पल बहे पटल पृथिवी के दिव्य-रूप सुकुमार!

कलियों में रस-संपुट बनकर, बँधी मूठ बनमाली,
खुली पँखड़ियाँ, श्याम सलोने भौंरों से शरमाती!
कली-पंख, किरणों से लगकर, खिल मनमाने होते,
किरन नित नई, फूल किन्तु गिर रोज पुराने होते।

सो जाता है जगत किन्तु तारे देते हैं पहरा,
इस छाया में जाग्रति का गहरा गुमान है ठहरा।
कैसे मापूँ किरनों के चरणों, ऊँची गहराई,
कैसे ढूँढूँ, कहाँ गुम गई, तारक सेना पाई,

सपनों से ये तारे श्यामल पुतली पर भर आते,
छोड़े बिना निशान पाँव के प्रातः ये खो जाते।
लाख-लाख किरणों की आँखों बैठा ऊपर मौन,
नीचे मेरे खिलवाड़ों को निरख रहा सखि कौन?

साँस-साँस में भर आता-सा फिर आता-सा मौन,
स्वर में गूँथ इरादे, जी में गा उठता है कौन?
स्वर-स्वर पर पहरा देता कुछ लिख लेता-सा मौन,
मेरे कानों में वंशी-रव लाता है सखि कौन?

सुन्दरता पर बिकने से, करता क्षण-क्षण इनकार,
मेरी नासा पर सुगन्ध बन आता किसका प्यार?
दो से एक, एक से दो होने की दे लाचारी,
कौन नेह के खग-जोड़े की करता है रखवाली?

82. हौले-हौले, धीरे-धीरे

तुम ठहरे, पर समय न ठहरा,
विधि की अंगुलियों की रचना, तोड़ चला यह गूंगा, बहरा।
घनश्याम के रूप पधारे हौले-हौले, धीरे-धीरे,
मन में भर आई कालिन्दी झरती बहती गहरे-गहरे।
तुम बोले, तुम खीझे रीझे, तुम दीखे अनदीखे भाये,
आँखें झपक-झपक अनुरागीं, लगा कि जैसे तुम कब आये?
स्वर की धारा से लिपटी जब गगन-गामिनी शशि की धारा,
उलझ गया मैं उन बोलों में, मैंने तुझको नहीं सँवारा।
चन्दन, चरण, आरती, पूजा,
कुछ भी हाय न कर पाया मैं,
तुम किरणों पर बैठ चल दिये,
किरणों में ही भरमाया मैं!
पा कर खो देने का मन पर कितना लिखा विस्मरण गहरा!
विधि की अंगुलियों की रचना, तोड़ चला यह गूंगा बहरा।
तुम ठहरे, पर समय न ठहरा,

(खण्डवा, अप्रैल-१९५६)

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