सपना अभी भी : धर्मवीर भारती

Sapna Abhi Bhi : Dharamvir Bharati

1. कन-कन तुम्हें जी कर

अतल गहराई तक
तुम्ही में डूब कर मिला हुआ अकेलापन,
अँजुरी भर-भर कर
तुम्हें पाने के असहनीय सुख को सह जाने की थकान,

और शाम गहराती हुई
छाती हुई तन मन पर
कन-कन तुम्हें जी कर
पी कर बूँद-बूँद तुम्हें-गाढ़ी एक तृप्ति की उदासी.....

और तीसरे पहर की तिरछी धूप का सिंकाव
और गहरी तन्मयता का अकारण उचटाव
और अपने ही कन्धे पर टिके इस चेहरे का
रह-रह याद आना
और यह न याद आना
कि चेहरा यह किसका है !

2. उसी ने रचा है

नहीं-वह नहीं जो कुछ मैंने जिया
बल्कि वह सब-वह सब जिसके द्वारा मैं जिया गया

नहीं,
वह नहीं जिसको मैंने ही चाहा, अवगाहा, उगाहा-
जो मेरे ही अनवरत प्रयासों से खिला
बल्कि वह जो अनजाने ही किसी पगडंडी पर अपने-आप
मेरे लिए खिला हुआ मिला

वह भी नहीं
जिसके सिर पंख बाँध-बाँध सूर्य तक उड़ा मैं,
गिरा-गिर गिर कर टूटा हूँ बार-बार
नहीं-बल्कि वह जो अथाह नीले शून्य-सा फैला रहा
मुझसे निरपेक्ष, निज में असम्पृक्त, निर्विकार

नहीं, वह नहीं, जिसे थकान में याद किया, पीड़ा में
पाया, उदासी में गाया
नहीं, बल्कि वह जो सदा गाते समय गले में रुँध गया
भर आया
जिसके समक्ष मैंने अपने हर यत्न को
अधूरा, हर शब्द को झूठा-सा
पड़ता हुआ पाया-

हाय मैं नहीं,
मुझमें एक वही तो है जो हर बार टूटा है
-हर बार बचा है,
मैंने नहीं बल्कि उसने ही मुझे जिया
पीड़ा में, पराजय में, सुख की उदासी में, लक्ष्यहीन भटकन में
मिथ्या की तृप्ति तक में, उसी ने कचोटा है-
-उसी ने रचा है !

3. रवीन्द्र से

(रवीन्द्र जन्मशताब्दी के वर्ष : सोनारतरी (सोने की नाव)
तथा उनकी अन्य कई प्यारी कविताएँ पढ़कर)

नहीं नहीं कभी नहीं थी, कोई नौका सोने की !

सिर्फ दूर तक थी बालू, सिर्फ दूर तक अँधियारा
वह थी क्या अपनी ही प्यास, कहा था जिसे जलधारा ?
नहीं दिखा कोई भी पाल, नहीं उठी कोई पतवार
नहीं तट लगी कोई नाव, हमने हर शाम पुकारा
अर्थहीन निकला वह गीत
शब्दों में हम हुए व्यतीत
हमने भी क्या कीमत दी यों विश्वासी होने की !

नहीं नहीं कभी नहीं थी
कोई नौका सोने की

हमको लेने कब आया कोई भी चन्दन का रथ ?

हमने भी अनमने उदाल धूल में लिखे अपने नाम
हमने भी भेजे सन्देश उड़ते बादल वाली शाम
जाग-जाग वातायन से देखी आगन्तुक की राह
हाय क्या अजब थी वह प्यास, हाय हुआ पर क्या अंजाम
लगते ही जरा कहीं आँच
निकला हर मणि-दाना काँच
शेष रहे लुटे थके हम, शेष वही अन्तहीन पथ
हमको लेने कब आया
कोई भी चन्दन का रथ ?

4. दीदी के धूल भरे पाँव

दीदी के धूल भरे पाँव
बरसों के बाद आज
फिर यह मन लौटा है क्यों अपने गाँव;

अगहन की कोहरीली भोर:
हाय कहीं अब तक क्यों
दूख दूख जाती है मन की कोर!

एक लाख मोती, दो लाख जवाहर
वाला, यह झिलमिल करता महानगर
होते ही शाम कहाँ जाने बुझ जाता है-
उग आता है मन में
जाने कब का छूटा एक पुराना गँवई का कच्चा घर

जब जीवन में केवल इतना ही सच था:
कोकाबेली की लड़, इमली की छाँव!

5. पुराना क़िला

(भारत के स्वातन्त्र्योत्तर इतिहास का सबसे पहला और सबसे बड़ा हादसा था-अक्तूबर 1962 में चीन का आक्रमण। उसने न केवल सारे देश को हतप्रभ कर दिया था, हमारी दु:खद पराजय ने अब तक पाले हुए सारे सपनों के मोहजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था और मानो एक ही चोट में नेहरू युग की सारी विसंगतियाँ उजागर हो गयी थीं और खुद नेहरू, जिन्हें सारा देश प्यार करता था, पक्षाघात से पीड़ित पड़े थे। विचित्र यह था कि इस भयानक शून्य को किन्हीं नये मूल्यों से या आदर्शों से भरने की चिन्ता करने के बजाय चिन्ता थी ‘नेहरू के बाद कौन?’ और सिसायत के खेल खेले जाने लगे थे। उस सारी भयावह परिस्थितियों में उभरा था यह बिंब-सन् ’63 में। कई महीनों के दौरान लिखी गयी थी यह कविता-‘पुराना क़िला’।)

खा...मो..श !
बोलो मत...
एक भी आवाज़, एक भी सवाल, लबों की हल्की-सी जुम्बिश भी नहीं नहीं,
एक हल्की-सी दबी हुई सिसकी भी नहीं !
हर दीवार के कान हैं
और दीवार के इस पार का हर कान
दीवार के उस पार चुगलखोर मुँह बन जाता है
जहाँ शहंशाह
हकीमों, नजूमियों, खोजों और नक्शानवीसों से घिरे
अपनी ज़िंदगी की आख़िरी रात गुजार रहे हैं !

ख़बरदार !
हिलो मत !
सजदे में झुकने वाला हर धड़ दुआ माँगते हुए
सिर से अलग कर दिया जाएगा
शहंशाह को भरोसा नहीं कि कौन दुआ माँगने वाला
अपने लबादे में खंजर छुपा कर लाया हो !
किले के बाहर रौंदी हुई फसलें, बिछी हुई लाशें, जले हुए गाँव, भुखमरे लोग :
क्या तुम्हारी दुआ उन्हें लगी जो शहंशाह को लगेगी ?

मौत किले के आँगन में आ चुकी है
और शहंशाह के नक्शानवीस अभी तजवीजें पेश कर रहे हैं
कि किले की दीवारें ऊँची कर दी जाएँ
खाइयों में खौलता पानी दौडा दिया जाए
फाटकों पर जहर-बुझे नेजे जड़ दिये जाएँ
अँधेरा, बिल्कुल अँधेरा कर दिया जाए

अँधेरा घुप !
कौन है जो चादर, अगरबत्ती, बेले के फूल और चिराग लाया है
साजिश ! खतरा ! दौड़ो दौड़ो अलमबरदारो
खंजर से टुकड़े-टुकड़े कर दो ये चादर, ये गजरे, ये चिराग
मान लिया कि इस अभागिन के बाप, भाई, प्रेमी और बेटे
शहंशाह की खामख्याली से ऊबड़खाबड़ घाटियों में जाकर खेत रहे
पर इसे क्या हक है कि यह
उनके मजार पर इस अँधेरी रात चिराग रक्खे
उस टिमटिमाती रोशनी में मौत को
शहंशाह के कमरे तक जाती हुई पगडंडी दीख गयी तो ?

न एक चिराग
न एक जुम्बिश
न एक आवाज़

ख़ा मो श !
कौन है जो अँधेरे में मुट्ठियाँ कसे
होठ भींचे एक शब्द के लिए छटपटाता है...
ख़ ब र दा र...

बा अदब...
बा मुलाहिजा...
रास्ता छोड़ो
पीछे हटो
जानते नहीं कौन जा रहे हैं ?
हँसो मत बेअदब !
दु:ख की घड़ी है
दीवाने-खास के खासुलखास विदूषक कतार बाँधे अपने गाँव लौट रहे हैं।
ये हैं जिन्होंने दरबार को हर संकट में राहत दी
कत्लगाह में लुढ़कते हर विद्रोही सिर को
इन्होंने गेंद की तरह उछाल कर दरबार को हँसाया
रियाया के आँसुओं से अभिनन्दन पिरोये
खिंची हुई खालों को ढोलक पर मढ़कर तुकबन्दियाँ बजायीं

अगर मरते वक्त भी ये जहाँपनाह से शिरोपेच और अपनी दक्षिणा लेने गये
तो इन पर खीजो मत-तरस खाओ !
तुम्हें क्या मालूम कि ये बरसों पहले अपने कुटुम्बियों
पड़ोसियों और गाँववालों की फरियाद लेकर आये थे
जहाँपनाह को असलियत बताने !

इनके भयभीत देहातीपन ने जहाँपनाह की दिलबस्तगी की
और तब से ये भयभीत बने रहे दिलबस्तगी की खातिर

हँसो मत
इनके जरीदार दुपट्टों और बड़ी पागों पर !
ये बड़े लोग हैं-
छोटा-सा मुँह लेकर अपने गाँवों को लौटते हुए

इनसे इनके कुटुम्बी, पड़ोसी, गाँववाले पूछेंगे
कि क्या तुमने शहंशाह को असलियत बतायी
तो ये किसमें मुँह छिपायेंगे बिना इन पागों और जरीदार दुपट्टों के
पीछे हटो नामसझो
कौन बेदर्द है जो
मखौल में इनके दुपट्टे खींचता है, पगड़ी उछालता है !

बा...अदब
बा...मुलाहिजा !

एक धुपधुपाती हुई बेडौल मोमबत्ती
खुफिया सुरंगों, जमीदोज तहखानों, चोर-दरवाजों और टेढ़े-मेढ़े जीनों पर घुमायी जा रही है
दीवारों पर खुदे ये किसके पुराने नाम फिर से दर्ज किये जा रहे हैं ?

ये उन अमीर उमरावों के नाम हैं जिन्होंने कभी
मुहरें और पुखराज
बच्चों के मुँह से छीने हुए कौर
नीलम और हीरे
औरतों के बदन से खसोटे हुए जेवर
चमड़े की मुहरबन्द थैलियों में भर कर
शहंशाह को पेशेनजर किये थे !

उनसे किले की दीवारें मजबूत की गयीं
उनसे बेगमात के लिए बिल्लौरी हौज बने
उनसे दीवानखानों के लिए फानूस ढलवाये गये
उनसे मरमरी फर्शों पर इत्र का छिड़काव हुआ
उनसे इन्साफ के घंटे के लिए ठोस सोने की जंजीर ढलवायी गयी
और अब उन तमान बदनीयत अमीर उमरा के नाम
कत्ल का परवाना भेजा जा रहा है
ताकि खुदा के सामने पेशी के वक्त
पाक नीयत शहंशाह के जमीर पर
कोई दाग न छूट जाए

एक धुपधुपाती हुई मोमबत्ती
बिल्लौरी हम्मामों, अन्धी सुरंगों, खुशनुमा फानूसों, खौफनाक तहखानों
इत्र धुले फर्शों, चोरदरवाजों में से घुमायी जा रही है
दीवारों पर खुदे पुराने नामों की शिनाख्त के लिए
उनमें शहंशाह के हमप्याला हमनेवाला जिगरी दोस्तों के नाम हैं !

गजर बजेगा मायूस आवाज में
और सहर होते ही महल का मातमकदा खोल दिया जाएगा !
लटके हुए काले परदे, खुली हुई पवित्र पुस्तकें !

लोग मगर ज्यादा मुस्तैद हैं ताजपोशी के सरंजाम में
पायताने बैठे हुए लोगों का मातम में झुका हुआ सिर
ताज पहनने के लिए उठने का अभ्यास करना चाहता है !
मगर बादशाह ने हाथ के इशारे से लुहार बुलवाये हैं
वे ताज को पीट-पीट कर चौड़ा कर रहे हैं

कल सुबह जब ताज पहनने के लिए सिर एक-एक कर आएँगे
तब ताज कहीं बड़ा लगेगा और सिर बहुत छोटे
और एक-एक कर इन सिरों से ताज
और इन धड़ों से सिर उतार दिये जाएँगे

कल सुबह शहंशाह न होगा
पर बाद मदफन उस पुरमजाक बादशाह का
यह आखिरी मजाक अदा होगा
जिसे देख कर
हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएगी वह तमाशबीन रियाया
जो हँसना खिलखिलाना जाने कब का भूल चुकी है !

या मेरे परवरदिगार
मुझ पर रहम कर !
बदनसीब खुसरू की आँखों में दागी गर्म सलाखों से
जियादा तकलीफेदेह है इस बेडौल असलियत को अपनी आँखों देखना
और इसके बाबत कुछ भी न कर पाना !

काश कि मैं भी अपनी निगाहें फेर सकता
मगर मैं क्या करूँ कि तूने मुझे निगाहें दीं कि मैं देखूँ
और मैं तेरे देने को झुठला नहीं पाता !
मौत किले के आँगन में घूम रही है
और वे हैं कि अभी किले की दीवारें ऊँची कर रहे हैं
खाइयों के पास कँटीले झाड़ बोये जा रहे हैं जिनकी जड़े
कब्र में दफन नौजवानों की पसलियों में फूटेंगी

ओ !
तूने मुझे क्यों भेज दिया इस पुराने किले में इस अँधेरी रात :
जहाँ मैं छटपटा रहा हूँ
उस बेचैन चश्मदीदी पुकार की तरह जिसे एक-एक शब्द के लिए
मोहताज कर दिया गया हो !

खा...मो..श !
खबरदा...र !!

6. मुनादी

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !

शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय !

जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?

आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं...
तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की !

क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें

अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए !

नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।

ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो

इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप !
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए !

बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुँछ जाए !

बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !

(तानाशाही का असली रूप सामने आते देर नहीं लगी। नवम्बर की शुरूआत में ही हुआ वह भयानक हादसा। जे.पी.ने पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी। हर उपाय पर भी लाखों लोग सरकारी शिकंजा तोड़ कर आये। उन निहत्थों पर निर्मम लाठी-चार्ज का आदेश दिया गया। अखबारों में धक्का खा कर नीचे गिरे हुए बूढ़े जे.पी.उन पर तनी पुलिस की लाठी, बेहोश जे.पी.और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ा कर चलते हुए जे.पी.। दो-तीन दिन भयंकर बेचैनी रही, बेहद गुस्सा और दुख...9 नवम्बर रात 10 बजे यह कविता अनायास फूट पड़ी)

7. क्योंकि

...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो

और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!

8. अनाम

सख्त रेशम के नरम स्पर्श की वह धार
उसको नाम क्या दूँ?

एक गदराया हुआ सुख, एक विस्मृति, एक डूबापन
काँपती आतुर हथेली के तले वह फूल सा तन
हर छुवन जिसको बनाती और ज्यादा अनछुआ
नशा तन का, किंतु तन से दूर-तन के पार
अँधेरे में दीखता तो नहीं पर जो फेंकता है दूर तक-
लदबदायी खिली खुशबू का नशीला ज्वार
हरसिंगार सा वह प्यार
उसको क्या नाम दूँ?

वह अजब, बेनाम, बे-पहचान, बे-आकार
उसको नाम क्या दूँ?

9. गंगा-लहरी

सदियों से जमी भावनाशून्य बर्फ को बूँद-बूँद गलाती
अड़ियल ठस चट्टानों को कण-कण बालू बनाती
काल के अनंत प्रवाह को हराती
लहर-लहर आगे ही आगे बहती जाने वाली गंगा
अपनी एक लहर, सिर्फ एक छोटी-सी लहर मुझे लौटा दो!
सही कहती हो माँ, कि तुम लहर-लहर
आगे सिर्फ आगे ही बढ़ती हो
लौटना-लौटाना तुम्हारी प्रकृति में नहीं
पर कभी ध्यान से देखना-लौटी हैं लहरें
बीच के हहराते जलप्रवाह के दोनों किनारों पर
चुपके लौटती हैं छोटी-छोटी लहरें-
उलटे थपेड़ों से
तट पर विसर्जित फूलों की झालर बनाती हुई-
उन्हीं में से एक लहर, सिर्फ एक लहर ही तो
माँग रहा हूँ माँ!
जलधार के टूटने-बनने के इस अनंत क्रम में
अभी भी कहीं वह एक लहर होगी
जिस पर तिरछी होकर पड़ रही होगी
परछाँही एक दुबली गोरी लड़की की
जिसके हाथों में है एक ताजा गुच्छा लाल कनेर के फूलों का
पानी के काँपने से लड़की के बदन की छाया
कभी दूर चली जाती है लाल फूलों से, कभी आती है पास
कभी-कभी एकमेक हो जाते हैं फूल और बदन और नदी-
नदी रे! दे दे
वह एक लहर मुझे चाहिए ही चाहिए!

जब वह लड़की पहली बार
मेरे घर आई, बैठी
घुटने सिकोड़े, चारों ओर से बदन को दाबे-ढाँके
खुले दीखते थे सिर्फ दो ललछौहें पाँव
और तुम्हारी धूप में तैरती झिलमिली सरीखी
उसके गुलाबी नखों की कटीली आभा

एक पूरी उम्र के बाद
इस पूजावेला में उन पाँवों को अंजुरी भर-भरकर
तुम्हारे जल से धोना चाहता हूँ
इतने लंबे सफर मे इतनी दृढ़ता से अनवरत चले
उन पाँवों पर बैठ गई होगी
सफर की धूल, राह की थकान, कसक और कभी-कभी भटकन-
इन सबको तुम्हारी लहर का जल नहीं हरेगा तो कौन हरेगा भला?

तुम्हारे जिस रेतीले तट पर उसके पाँवों की छापें छूट गई हैं
उसी रेत पर बैठा हूँ अंजुरी फैलाए...
अगर मुझे वह लहर, एक छोटी-सी लहर
भी तुम न लौटा सकीं ओ अनंत प्रवाहिनी
तो भी मैं हारूँगा नहीं
रेत में पड़ा धीरे-धीरे रेत भी हो गया
तो तुम्हारे इस रेतीले कछार में
लौटूँगा बनकर वसंत
और खिलेंगे पीली सरसों की मेड़ पर
कहीं एक गुच्छा लाल कनेर के लाल-लाल फूल!

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