युग चरण : माखनलाल चतुर्वेदी

Yug Charan : Makhanlal Chaturvedi

1. उन्मूलित वृक्ष

भला किया, जो इस उपवन के सारे पुष्प तोड़ डाले,
भला किया, मीठे फल वाले ये तरुवर मरोड़ डाले,
भला किया, सींचो, पनपाओ, लगा चुके हो जो कलमें,
भला किया, दुनिया पलटा दी प्रबल उमंगों के बल में ।

लो हम तो चल दिये,
नये पौधो, प्यारो, आराम करो ।
दो दिन की दुनिया में आये,
हिलो-मिलो कुछ काम करो।

पथरीले ऊँचे टीले हैं, रोज नही सींचे जाते,
वे नागर न यहां आते हैं, जो थे बागीचे आते,
झुकी टहनियाँ तोड़-तोड़कर, वनचर भी खा जाते हैं,
शाखा-मृग कंधों पर चढ़कर भीषण शोर मचाते हैं ।

दीन बन्धु की कृपा
बन्धु, जीवित हैं, हां, हरियाले हैं ।
भूले भटके कभी गुजरना
हम वे ही फल वाले हैं।
(सिवनी, मालवा-1923)

2. आ गये ऋतुराज

आ गये ऋतुराज !
कौन- से स्वर पर उठेंगे आज रंगिणि बोल ?
कौन-मा सम साध गाओगी सजनि हिंडोल ?
देवि, केसरिया सुहागन का बने फिर साज,
अश्रु का पानी चढ़े करवाल दल पर आज,
सुमुखि हिमनग पर सुदृढ़ हाथों चढ़े नव साज,
और जैजैवन्तियों से यों सधे अन्दाज,
प्राण पर, प्रण पर, कि जैसे छा गये ऋतुराज ?
आ गये ऋतुराज !

द्वारका का कृष्ण जब बंगाल पर छा जाय !
तब न क्यों कोचीन को काश्मीर की सुधि आय ?
जब कि दिल्ली के इरादों पर मुदित नेपाल,
अब तिलक हो एशिया की गोपियों के भाल,
ओ चरम सुन्दर ! दृगों में भा गये ऋतुराज !
आ गये ऋतुराज !

गेहुँओं के गर्व पर, सरसों उठी है झूम,
प्रकृति के सुकपोल रवि-किरणें रही हैं चूम,
आज ताण्डव पर बजे रस रुप राग धमार,
और उस पर हो गुलाबी रंग की बौछार ।
कौन-सी धुन तुम कसक में गा गये ऋतुराज ?
आ गये ऋतुराज !

आज किसके द्वार है शहनाइयों की धूम ?
और किसके खेत में किरणें रही हैं घूम ?
भारती की वेणि में गूंथा हुआ काश्मीर,
कर रहा है विश्व के संदेह सौ-सौ दूर ।
सखि वितस्ता के स्वरों 'बलि' गा गये ऋतुराज ।
आ गये ऋतुराज !

फूल से कलियाँ लगाये हैं मिलन की होड़,
हँस रहे हैं प्रकृति-मालिनि के सहस्रों मोड़,
रंग पर मधु-गन्ध की छबि छा रही अनमोल,
तरु लतायों झूल पंछी बोलते हैं बोल ।
ग्राम-वधुयों की ललक मुसुका गये ऋतुराज ।
आ गये ऋतुराज !

रागिनी पर, नृत्य पर, 'छुम' गा उठे ऋतुराज,
प्यार पर, साहित्य पर, इतरा उठे ऋतुराज,
चित्र पर आ मूर्ति को पिघला उठे ऋतुराज,
रूप पर रतनार वे गदरा उठे ऋतुराज,
भ्रमर में, मधु में, परस बरसा गये ऋतुराज ।
आ गये ऋतुराज !
(खण्डवा-1953)

3. सेनानी से

क्या देता है, अपनी डगमगिया भर की पतवार;
यह तो तट की हठ पर; इठलाने भर की है यार;

लहरें चीर अदृश्य तीर का, आँका आज मुकाम;
मैं तो घर से निकल पड़ा हूँ, अब तट से क्या काम ?

दे जहाज जो रखे बखेड़े में बेड़े की लाज;
हिम की चट्टानें चूरे-हिमगिरि का ढूंढ़े ताज ।
(खण्डवा-1933)

4. चाँदी की रात

सोने का दिन, चाँदी की रात, बना दी क्यों तुमने आकर ?

रवि का आना तप कर जाना, किसने जाना, किसने माना ?
सोने की लूट लुटाने में, रवि का कौशल भर पहिचाना ।

मैं थकी न स्वर्ण समेट सकी, रोई सुहाग पर पछताकर ।
सोने का दिन, चाँदी की रात, बना दी क्यों तुमने आकर ?

जब रात हुई पद-आहट से, बाहर न किसी की याद रही,
तारे गिन-गिनकर- भूल तुम्हें- यादें आबाद रहीं,

ला विरह दिया बाहर रहकर, बेहोशी दी घर में आकर ।
सोने का दिन, चाँदी की रात, बना दी क्यों तुमने आकर ?

निशि कटती, तारे बढ़ते थे, योगी कहते हों भला-भला,
तारों का तम्बू ढले भले, अपना पन्थी तो चला-चला,

उस बिछुड़न की बेहोशी में, रोदन को खोया गा गा-कर ।
सोने का दिन, चाँदी की रात, बना दी क्यों तुमने आकर ?

तुम थे मैंने कब पहचाना, गो अन्धकार चमकीला था।
तुम थे नभ का मुँह पीला था कलियों का आँचल गीला था।

तुमको खोकर खोते-खोते, खो डाला आज तुम्हें पाकर ।
सोने का दिन, चाँदी की रात, बना दी क्यों तुमने आकर ?

(इटारसी का डाकबंगला-1934)

5. लूँगी दर्पण छीन

(कविता की पृष्ठभूमि यों है- एक सामान्य पत्नी का
असामान्य सुन्दर पति है । पत्नी को भय है कि कहीं
दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखकर उसका प्रिय
नारसिसस की तरह अपने ही स्वरूप पर आसक्त
न हो उठे । उसे भय है कि जिस प्रिय की पलकों
पर अगणित ह्रदय रीझ-रीझ कर मर मिटे हैं, कहीं
उन्हीं पर वह स्वयं भी तबाह न हो ले । भय है
बिना द्वैत (पति व पत्नी) के ही वह अद्वैत न
हो उठे; और यह भी कि अपने रूप-ऐश्वर्य को
देखकर वह कहीं पत्नी को अपने ह्रदयासन से
न उतार दे...।)

लूँगी दर्पण छीन, देख मत ले, मतवाला चल जाये,
जिन पलकों पर मिटे कई, मत उन पर चढ़े फिसल जाये ।

लूँगी दर्पण छीन, द्वैत दोनों बिन एक न हो जाये,
और निगोड़ी जीभ ओंठ को कहीं न श्रीहत कर पाये ।

लूँगी दर्पण छीन, न छलके नयनामृत गालों पर,
मत खारा पानी पड़ जाये, यौवन के छालों पर ।

लूँगी दर्पण छीन, शरण जाने पर ढीठ गरुर करे,
अंतस्तल को चंगुल से फिसला दे, चकनाचूर करे ।

लूँगी दर्पण छीन-कुटी का एकमात्र श्रृंगार,
सूरत की कीमत ?-हँस खोले मधुर अन्त का द्वार ।

अरे विलम जाने वाले जीवन, कैसी है मीन?
कृष्णार्पणा चलने से पहले लूँगी दर्पण छीन ।
(1934)

6. मूरख कहानी

श्याम पुतली और उसमें खूब पानी ।
श्याम केशों पर फली है तब जवानी ।

लटक कर लट चूम बैठी ओठ उनके,
मुँहलगों की है बड़ी मूरख कहानी ।

श्याम लट हैं, श्याम पुतली, श्याम की छवि,
रूप पर थी क्या यही स्याही गिरानी ?

स्वर्ग में भुज-बाहु के चुप्पी कहाँ की?
जिन्दगी को मौत में गूँथो न रानी !
(खण्डवा-1935)

7. क्रन्दन

खा रहे हो अन्न ? मरनासन्न,-
मेरी हहिडयों का स्वाद कैसा लग रहा है ?
सुलgना चाहा ? नहीं मेरे हृदय का क्रोध आज सुलग रहा है ।

चूसते हो फल संभालो-
रक्त मेरा भर रहा है सब फलों में,
और वह भी झर रहा है, जो झरा करता अभागे दृगजलों में ।

कंद मत कोदो, हमारे-
हैं गड़े बच्चे उन्हीं के पास भगवान,
वायु का स्वर है ? सिसकियाँ हैं हमारी और क्रन्दन ।

तुम बड़े हो रहो,
छोटापन हमारा पर न छीनो !
रोटियाँ छोड़ो -भले ही ले चुको दुर्भाग्य ! तुम, ये लोक तीनों ।
(खण्डवा-1940)

8. मूर्छित सौरभ

जग जग में हेमन्त विहरता, तब मुझ में वसन्त क्यों आया ?

चली कम्पकपी, सी सी, सिहरन, पहन लिया कोकिल ने मम मन,
अन्तराल का अति सौरभ वन, बौर उठा बन आया मधुवन,
बौरा गीत निठुर, आँधी बन, मेरा ढेलों पर विखराया ?
जग जग में हेमन्त विहरता, तब मुझ में वसन्त क्यों आया ?

गिरते गान फिसलता यौवन, मूर्छित सौरभ का यह कन-कन,
कौन भैरवी में भरता है, मेरी सोरठ का सूनापन?
फिर मेरे सोये गीतों को, क्यों नभ-विहंगों ने दुहराया ?
जग जग में हेमन्त विहरता, तब मुझ में वसन्त क्यों आया ?

यह बैरन, मेरे गीतों को-लेकर, कौन चली गति-शीला ?
साँस ? समीरन ? यह खतरों पर मेरा लाड़, कि तेरी लीला ?
जी की कलियां कुचल-कुचल, किसने मधुवन वीरान बनाया ?
जग जग में हेमन्त विहरता, तब मुझ में वसन्त क्यों आया ?

इस बहार के मस्ताने पर, बिखरन में यह किसकी बू है?
मेरे चढ़ने में भी तू था ? मेरे गिरने में भी तू है ?
कलिकाएँ लौटा दे मेरी, तेरे फूलों से भर पाया ।
जग जग में हेमन्त विहरता, तब मुझ में वसन्त क्यों आया ?

फूलों की, साँसों की, सौरभ की, संकट की, स्वर की माला;
कसकों की, सिसकों की, घबड़ाहट की, आंसू की वनमाला-
वनमाली ! किसको पहनाऊं, जब तुझको अपराधी पाया?
जग जग में हेमन्त विहरता, तब मुझ में वसन्त क्यों आया ?

बेकलियों में चटख चटख, मैंने कलियों में ज्वार लिखे थे,
तुम्हें सुनाई पड़ जाने को, मैंने मधु-चीत्कार लिखे थे,
फुला-फुला कर तुमने मेरा मिट्टी में संसार मिलाया ।
जग जग में हेमन्त विहरता, तब मुझ में वसन्त क्यों आया ?

मिट कर ऊग उठूंगा मोहन, वह निशि आई, वह दिन छाये ?
काली मिट्टी पर हरियाली? लो, रोको, वे अंकुर आये !
तुम क्या रोकोगे मनमोहन, अमर- ऊगना मैंने पाया ।
जग जग में हेमन्त विहरता, तब मुझ में वसन्त क्यों आया ?
(1940)

9. मृदंग

कसी-तनी जकड़ी-सी देखी, लगा मृदंग बजाने मैं ।
जीवित जोश जगाने में, ये रूठे हदय मनाने में,

तान छेड़ देता था--क्षण में होता था लाखों का मोल,
पता नहीं था, -बाहर बजती है -भीतर है भारी पोल ।

धीरे धीरे देखा-भाला, एक एक मुन टूट गये,
थोथों पर कुरबान हुए !-हा भाग हमारे फूट गये ।

(1912-एक बहुत …बड़ा आशा-घट फूट जाने पर)

10. हाय

मुझे ध्यान यह रहा तुम्हारा वीरों को अभिमान रहे,
बालकपन हो भले, चकित कर देने वाला ज्ञान रहे;

पढ़े-लिखे पशु न हो, गुणों की शान रहे, ईमान रहे,
मजदूरी पर मिटो, तुम्हारे काबू में भगवान् रहे ।

तुम पर विजयी किन्तु हाय ! किन्तु दुनियाँ के सुख सामान रहे;
श्री हरि बल दें, तुम्हे कभी उस अपनेपन का ध्यान रहे ।

(1918-एक पत्र में लिखकर कानपुर भेजा)

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