पांचाली शपथम्/பாஞ்சாலி சபதம் : सुब्रह्मण्य भारती

Panchali Sapatham : Subramania Bharati

(पांचाली शपथम्‌ महाकवि सुब्रमण्यम भारती का खंड काव्य है जो महर्षि व्यास कृत महाभारत के प्रसिद्ध प्रसंग ‘द्यूत क्रीड़ा’ पर आधारित है। किसी भी रचना को समझने के लिए हमारे लिए रचनाकार की मानसिकता को जानना आवश्यक होता है कि वे क्या परिस्थितियाँ थी, वे क्या कारण थे जिसने साहित्यकार की चेतना को उद्वेलित किया और तत्पश्चात उस रचना का जन्म हुआ। क्योंकि शब्दों से परे उसकी मानसिकता और भाव पक्ष की समुचित परख से ही हम उस रचना को सही परिप्रेक्ष्य में समझ पाएँगे और उससे न्याय कर पाएँगे। ध्यातव्य रहे जब भी कोई रचनाकार किसी ऐतिहासिक संदर्भ और पौराणिक कथाओं को आधार बना कर साहित्य सृजन करता है तो इतिहास का पुनर्लेखन उसका अभीष्ट कदापि नहीं होता बल्कि वह उन घटनाओं और प्रसंगों को समसामयिक परिस्थितियों से जोड़कर उनमें अपनी मौलिक उद्भावनाएँ मिलाकर उसे समय सापेक्ष बनाता है और अपनी कृति को सार्थकता प्रदान करता है। तभी वह रचना कालजयी बन जाती है और रचनाकार पाठक के मनोमस्तिष्क में अमिट प्रभाव डालने में सक्षम हो जाता है। इसी पृष्ठभूमि के आलोक में पांचाली शपथम्‌ के रचनात्मक बोध की सौंदर्यता को देखा जाना चाहिए क्योंकि यह काव्य प्रतीकात्मक भाव भूमि को आधार बना कर लिखा गया काव्य है। इसके पीछे कई कारण थे। कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भ को लेकर उसमें युगानुकूल परिवर्तन कर उसे नवीन रूप में प्रस्तुत किया है। इस खंड काव्य का प्रकाशन दो खंडों में हुआ है, प्रथम १९१२ में और द्वितीय कवि के मरणोपरांत १९२४ में हुआ था।-डॉ. पद्मावती)


सरस्वती वंदना

श्वेत कमल पर वह विराजमान रहेगी। वह यशस्विनी रहेगी। हमें वश में करनेवाली, मधुर ध्वनि बरसानेवाली वह वीणा धारणा किए रहेगी। मादकता समुद्री अमृत से सर्वोपरि पुष्पगंध भरी तमिळ में कविताएँ रचने हेतु बचपन से ही मेरी रक्षा करती रही, कृपा प्रदान करती रही। वह वेदाक्षुवाली है, कई भाष्योंवाली काजलयुक्त आँखोंवाली है। शीतप्रद चंद्रकला को माथे पर वह धारण करनेवाली है। चिंतन-कुंतलवाली वह, वाद-विवाद- तर्क श्रुतिवाली वह, धैर्य-कुंडलवाली वह, विद्या - बुद्धि नासिकावाली वह, मंगलप्रद शक्तिमुखवाली वह । वह कल्पना मधु ओष्ठधारिणी है, रसभरी काव्य उन्नत उरोजवाली है वह शिल्प आदि कलाओं के मधुभरे पुष्पकरवाली वह, शब्दमर्मज्ञ, संगीतयुत गीतज्ञ, तमिळ काव्यमर्मज्ञ आदि विद्वत्जन रूपी जिह्वा के चरणकमलवाली वह। वाग्देवी के शरण में आया हूँ, उसका कृपाकांक्षी हूँ। वह तपस्या की साकार देवी है। शाश्वत भूमि सदृश कृपाप्रद यशस्वी है। पंचों को अपने वक्षस्थल में आश्रयप्रद द्रौपदी की कीर्तिप्रद कथा को कांतियुत तमिळ गीतों से, क्रम व सुरुचिपूर्ण ढंग से रचने के लिए मैं देवी सरस्वती की वंदना करता हूँ ।

पांचाली शपथम् प्रथम भाग

ब्रह्म स्तुति

श्रद्धालुजन ओंकार मंत्र की स्तुति करते हैं। सत् कार्य द्रुतगति से चलते रहते हैं। असत् कार्य विनष्ट होते हैं। क्लेश मिट जाते हैं। प्रेयस् की वृद्धि होती है। रूपरेखारहित उस ब्रह्म को पाना सुलभ है। वह बुद्धि से परे है। वही समस्त कारण-कार्यस्वरूप है। वही ज्ञान व आनंद का स्वरूप है। वही स्थूल ब्रह्मस्वरूप है। उस निर्मल ब्रह्म की स्तुति करता हूँ। मंगलकारी तप, योग, शिवज्ञान- भक्ति के स्मरण मात्र से जयसिद्धि होगी। मुझमें शिवशक्ति आ जाने से अज्ञानांधकार विनष्ट हो जाएगा। यश व आनंदप्रद तमिळ सद्ग्रंथ समर्पित है।

ऊँ निमंत्रण सर्ग

अद्वितीय समृद्धिपूर्ण, हस्तिनापुर है नाम नगर का । पृथ्वी पर उसके समान है नहीं कोई स्थल सुंदर - सा ॥ हिम धवल मेरु- से हर्म्य वहाँ हैं पंक्तिबद्ध सरसाते । मणि- मुक्ता मय गृह पद्म तड़ागों से युत शोभा पाते ॥1॥ शंखों से चंचल स्वर हैं पुष्पाच्छादित उपवन में। देवियाँ काम की रति-सी, कांति सुमंगल छवि मोहन में ॥ ऊँचे ब्राह्मण कुल की गलियाँ गूँजे वेदों की ध्वनि से । शोभापति नित यज्ञकुंड प्रज्वलित लाल लपटों से ॥2॥ वीथियाँ शास्त्र चर्चा से मंडित, रहती सत्-पुरुषों की । आनंदित नेत्र कर्ण सुन लहरी, नीति मंत्र गीतों की ॥ तर्कों से मंडित चर्चा में, तप-मंडित थे रीति-रिवाज । परधर्म-अधर्म साथ पलते, करती अनीतियाँ थीं राज ॥ 3 ॥ सत् सृजन तपस्वी लोगों के संग पाखंडी भी रहते। शाश्वत शिव में ही ध्यानमग्न कुछ सत् संतों से रमते ॥ हत्या असत्य आश्रित कुछ ऐसे दंभी मांसाहारी । जो धर्मध्वजी बल पेट पालते दोष दिखा पर भारी ॥ 4 ॥ जिसके हारों की पुष्पगंध पर मँडराते भौरे हारे । जो क्षत्रिय कुल का धीर वीर, जो ललक-ललककर ललकारे ॥ जो मंदराचल-सा भव्य, ठोककर ताल सदा हुंकार करे । जिस शूर वीर के भुज रहते हैं सदा पराक्रम ओज भरे ॥ ऐसे क्षत्रिय कुल वीर उठाकर, शक्ति शूल संधान करें । भीषण भाला, तोमर, मूसल, धनुष-बाण, गदा अभ्यास करे ॥5॥ क्षत्रिय बालक है वही कि जो सौ-सौ वारण को जीतेगा । संध्या पर्यंत समर में चढ़ बस समर - शास्त्र ही सीखेगा ॥ जो आर्य वीर क्षत्रिय नृप-सा है राज्य चलाने में सुदक्ष । जो भार्या के संग विहरेगा, पी प्रेम- मधुर मधु हो प्रमत्त ॥6॥ महि इंद्र भोग करते जिसका, उन राज्यों की पवित्र गलियाँ । झरती जिनसे नित ढोल मुरज भेरी मृदंग दुंदुभि ध्वनियाँ ॥ नाटक नर्तन में निपुण नटी सुंदरियों की है भीड़ सदा । सत् काव्य, पुराण, व्याकरण और रीति ग्रंथों की विपुल छटा ॥ 7 ॥ शिल्प, चित्र संगीत वाद्य का चलता है अनवरत विलास । हय, गज, रोहण का रथचालन का मल्ल युद्ध का नित अभ्यास ॥ इन्हें देखने रसिक दर्शकों का ताँता लग जाता है। नित मोहन शास्त्र कला का गुरु गंभीर सिंधु लहराता है ॥ 8 ॥ अगणित फसलें हैं यहाँ सदा फल-फूलों की रहती भरमार । चंदन कुंकुम वर्ण इत्र, अगरु कस्तूरी गंध अपार ॥ चित्रांकित सद्वस्तु सुशोभित योद्धाओं के सुघर निवास । उत्सव नित्य मनाते जिनमें, करते क्षत्रिय मल्ल विलास ॥ 9॥ शिव महेश का साथी अलकापुरी राज्य का नृपति कुबेर । अपने गुह्य राज्य का अतुलित धन देता है यहाँ बिखेर ॥ शुद्ध मनस व्यापार, वणिज कर्म शुभचिंतन भरपूर । सब रहते हैं तृप्त, उस नगर का है नाम हस्तिनापुर ॥10॥

राजसभा

नाग, गगन, घन, इंद्र नील मणि हार सदृश धुतिवाली । गरलयुक्त शिव कहें, अंब काली के रंग-सी काली ॥ यम की बहिन कलिंद नंदिनी यमुना सतत प्रवाहित । उसके तट पर बसा हस्तिनापुर नित शोभामंडित ॥1॥ उसी नगर का राजा था वह राजाओं का राजा । मुद्रा जिसकी नाग, नाग लोगों से जिसका साथा ॥ दुर्योधन था नाम विनय से काम नहीं कुछ उसका। अंधबली भूपति बन शासन करे हस्तिनापुर का ॥ 2 ॥ आन और अभिमान युक्त वह दंभी अति बलवाला । सहस गजेंद्र शरीर-शक्ति-युत पहलवान मतवाला ॥ आप्तों को विनष्ट कर दे यदि वह वैरी बन बैठे। वही हस्तिनापुर की गुण गद्दी पर बैठा ऐंठे ॥3॥ अंधे थे धृतराष्ट्र, पिता उसके थे, उनकी आज्ञा मान । राज्य किया था प्राप्त और शासन का शासक बना महान ॥ उस गौरव की राजसभा शोभित करते थे कुछ वीर । कृपाचार्य, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, भीष्म से धीर ॥4॥ अग्रगणी जो सत् पुरुषों में गुणवाले उन विदुर समेत । जो असत्य पथ चलें सहोदर दुर्योधन के अन्य अनेक॥ वही झूठ का साथी शकुनी, जो निश्चय झूठा प्रमाण । दानवीर कर्ण था वहीं, था वहीं विकर्ण सूर बलवान ॥5॥

ईर्ष्या

था धन-धान्य और वैभव से पूर्ण सुशासित राज। मंत्रीगण, गणमान्य, अमित सागर-सा सैन्य समाज ॥ स्वर्ण नगर में बैठा वह देता सुरेंद्र जैसा आभास । सब में था अग्रणी सभी कुछ और सभी सुख उसके पास ॥1॥ अंधे कुरु का पुत्र किंतु वह, श्रीमंडित पांडव छवि देख । अंदर ही अंदर जलता था मन में ईर्ष्या भाव विशेष ॥ वंदनीय पांडव समाज को दुख देता निंदित करता । वैरी मान उन्हें उनका प्रतिद्वंद्वी बन चिंतित रहता ॥ 2 ॥

स्वगत कथन

पांडव जब तक इस पृथ्वी पर धारण कर राजमुकुट विचरें। जब तक पाँचों भाई आँखों में पंचदेव बनकर संचरें । जब तक ये राज्य करें उनकी श्रीवृद्धि सँवरती जाए। तब तक मुझको क्यों चैन मिले फिर नींद कहाँ से आए॥1॥ गांडीव धनी वरवीर पार्थ के सुभग सुदीर्घ नयन में। वरधीर भीम के तुंग मेरु-से विस्तृत वक्षस्थल में ॥ अपमान लिखा है मेरा ही, मेरा ही अपयश झलक रहा । है भरी अवज्ञा मेरी ही, प्रतिकार हमारा ललक रहा ॥ 2 ॥ “भारत के नश्वर तनुधारी सब वर क्षत्रिय कुलपतियों के। वीरों के, धीरों के, विस्तृत भू के सब भूपतियों के ॥ आसागर अंबर धरती के, तुम ही अधिपति रे ! धर्मराज । ” नारद बोले थे राजसूय में स्वीकारा भू-सुर समाज ॥ 3 ॥ चोरों के अधिपति यदुवंशी उस श्याम कृष्ण की चालों ने। वरवीर भीम, अर्जुन, सहदेव, नकुल-से भुजबल वालों ने॥ पुरषार्थ-हीन इस धर्म-पुत्र को सार्वभौम है बना दिया। जगती का वैभव लाकर के निज अंतःपुर में सजा दिया ॥4॥ राजे सहस, सहस्र वीरगण, क्षत्रिय सहस शूर वरवीर । दस सहस्र से अधिक मांडलिक राजमुकुटधारी नृप धीर । नानाविध सज-धज करके सब थे मेरे सम्मुख आए । स्मरण करूँ तब तप्त धमनियों में निज रक्त उबल जाए ॥5॥ मणिराशि और मुक्ता - मणियों के सुंदर नभचुंबी पहाड़ । बालाएँ कनक वल्लरी-सी, कुंदन कंचन अरु कनक हार ॥ सैकड़ों रथों में जुते हुए, शत सहस तुरंगों का अंत । जब से देखा है उन्हें तभी से हृदय हो रहा दग्ध हंत ॥6 ॥ सोने के घड़ों स्वर्ण कलशों के, वज्र वैर वैदूर्य ढूह । शुभ चित्र नियंत्रित मुकुट पंक्ति, मरकत मणियों के समूह । । मोती की लड़ियाँ शुद्ध नीलमणि हारों का पर्वत अपार । महेंद्र, इंद्र अरु महानील मणियों के अंदर थे पहाड़ ॥ 7 ॥ चारों वर्णों की कनक ढेर, थे नानाविध धन सहस चार । तोमर, संताग्नि अरु महाशक्ति, गिंडी त्रिशूल भाला अपार ॥ झिलमिल करते थे मुसल, चक्र, हल विविध शस्त्र विद्युत समान। योद्धानुकूल आयुध शोभित सब लाठी-डंडा धनुष-बाण ॥ 8 ॥ होकर नतमस्तक भक्ति भाव श्रद्धा से भर करके भरपूर । हाथ जोड़कर 'कर' करें समर्पित वीर बाँकुरे क्षत्रिय सूर ॥ माथा टेक अवनि पर मांडलीक करते थे नमस्कार । विश्वास शपथ से जय-जय कर देते बधाइयाँ बार-बार ॥9॥ नित बुद्धिजीवियों, तपस्वियों-सा शुभ प्रवचन करने आया। यह धर्मपुत्र जो है तोते-सा कर्म-कर्म रटनेवाला॥ आवृता चतुर्दिक सागर से धरती का बन बैठा भूपति । कायर, भयालु, पुंसत्वहीन, वीरोचित गुण से निपट विरत ॥10॥ बन गया चक्रवर्ती राजा अब धर्मराज यह मुरज केतु । है भोग रहा धरती का, सब सुखी समस्त वैभव समेत ॥ संपूर्ण जगत, सारे राष्ट्रों के सार्वभौम अधिपति समान । वह कुंति - पांडु के पुत्रों में धर्मी पहला पांडव महान॥11॥ पुरुषार्थी अनुजों के भुजबल से वह बन गया महाराजा । जब राजसूय घोषित करके, था भीमसेन मत्वर गाजा ॥ माथा टेके अवनी पर सारे प्राणी नमन करे जिसको । अपनी सारी संपत्ति लुटा दे, कैसे सहन करूँ उसको ॥12॥ कैसे मैं कैसे सहन करूँ, जानते हुए बातें समस्त । कूड़े-कर्कट की तरह पड़ी थी, मुक्ता- मणियाँ यत्र यत्र ॥ वैदूर्य वज्र मोती, मूँगे के, धवल शंख के ढेर पड़े। देकर सब धर्मराज को थे, प्राणी कर जोड़े नमित खड़े ॥13॥ अपने संग ले आए थे, पर्वतवासी कई हिरण सुंदर । कुछ दीर्घाकार गयंछ, मधुर मधु, और पर्वतीय अश्व सुघर ॥ बारहसिंघे सुंदर, शूकर, गजदंत, हरिण विसाण लेकर । शुभ स्तुति करते थे, कबरी चमरी मृग बालधी चर्म देकर ॥14॥ बाघों - चीतों के चित्रित से लगने वाले। कुछ चर्म वहाँ थे, लाल और पीले काले। कुछ चर्म शेर भालू बकरे भैंसे गज के । कुछ बकरी चमरी, रोमिल कस्तूरी मृग के ॥15॥ काले तारंग के हरिण, हिरण के अमित चर्म । सब देनेवाले, पानेवाला मात्र 'धर्म' ॥ चित्रित से लगनेवाले पंख पक्षियों के । उपहार में दिए खाल सींग सब हरिणों के ॥ भूलोक सुघर द्रुपदी के कस्तूरी अंजन । चंदन कपूर कुंकुम अंगराज इत्र अर्पण ॥16 ॥ जावित्री पत्री और लवंग, बहु अगरु चंदन रस भेंट किया। दे कई तरह की शुद्ध सुपारी, मुदित मुबारकवाद दिया ॥ जल-थल मग्न की अतुलित समृद्धि निधि एक-एक कर प्राप्त किया। फिर सभी समक्ष पांडवों के अति विनत भाव लुटा दिया ॥17॥ नहीं-नहीं, मैं भूल नहीं सकता धरती का सारा धन । वहाँ सुशोभित माला कांचन मुक्तामणि अनमोल रतन ॥ सहस साड़ियाँ भाँति-भाँति की, सौ-सौ चित्रों से चित्रित । शोभा देते थे वहाँ सुभट पट, नीले पीले रत्न हरित ॥ 18 ॥ साड़ियाँ विदेशी - देशी, देवस्त्रियाँ भी जिन्हें पहन सकें । नाना अंबर पट वस्त्र नाग- कन्याओं को जो मोह सकें ॥ अनगिन किस्में चीनांशुक की, रंभा मेनका जिन्हें चाहें । कुछ आदि - अंत था नहीं सुभग पट ढेरों का जिनकी थाहें ? ॥19 ॥ वीरों के घंट, किंकिणी, कंकण, करधनियाँ थीं रत्न जड़ित । मौलियाँ सुमुकुट, कटक अंगद हा ! क्वच सकल नवरत्न खचित। केयूर हार मुद्रिका और शोभित अनंत असि वन निर्मित । जगमग जगमग जगमग करते तलवारम्यान माणिकमश्रित ॥20॥ अनगिन अश्व अच्छे-अच्छे थे खड़े वहाँ पर लगातार । हो पंक्तिबद्ध चंचल लहरों जैसे लहराते बार-बार ॥ छाया से शीतलतादायक थे तीक्ष्ण अग्निकण के समान । च्युत, इंदु इंद्रधनु से मोहन, बोलते मोर शुक के समान ॥ 21 ॥ गतिमान हवा से भी ज्यादा, ज्यों स्वयं हवा में उड़ते हों । नव रत्न पुंज के साथ-साथ राहुल के झुंड विचरते हों । । करबद्ध बने सब धर्मराज को ही बधाइयाँ देते थे। धन जैसे धवल सफेद घोड़े अँगड़ाइयाँ लेते थे ॥22॥ उफ ! कौन वहाँ गिन सकता था, गज के समूह जो आए थे। दूरस्थ अरब से वहाँ अनेकों घोड़े ऊँट मँगाए थे ॥ दक्षिण स्थित जावा से लेकर, उत्तर स्थित लोग चीन तक के । रम रहे उपस्थित होकर, अपने साथ अनंत भेंट लेके ॥23॥ थीं लाई गई बकरियाँ, गायें भैंस बैल भी लाए थे। अनगिनत समूह वाहनों के भरपूर अन्न ले आए थे ॥ मिश्री और इक्षुदंड लाए, द्रव्यों पूर्ण सुगंध भरे । बालों के लायक देश- विदेशी, विविध तैल थे वहाँ धरे ॥24॥ योगार्थ वहाँ, समिधा स्वरूप थे कलश स्नेह पूरित सुंदर । वारुणी भरे घट, मदन सरिस राजाओं के निमित्त मनहर ॥ स्वर्णावृत कंबल, शाल, सुपट निर्मित कंचुकियाँ रंग कई । हा! आदि अंत था नहीं वहाँ, आँखें थककर थीं ठहर गईं ॥ 25॥ गजदंत विनिर्मित पलंग कई, आसंदी और खाट निर्मल । गजदंत विनिर्मित ही म्यानें पालकी और तलवार धवल ॥ दाँतों की विविध कलाकृतियाँ, दाँतों के बहु विध शिल्प धरे । बहुविध कांचन, मरकत मणि के पदार्थ सब थे गणना से निपट परे ॥26॥ आकाश टूट पड़ने पर भी जो निर्दय रहता सदा अटल । चिंता में डूबा वही, अग्नि में चिता की जल बन चंचल ॥ पर्वताकार दुर्योधन के वज्र-से हृदय को तोड़-मोड़ लावा बह चला जलन का था, ईर्ष्या का ज्वालामुखी फोड़॥27॥ ज्वालामुख- लावा-सी ईर्ष्या से राजकुमार लगा जलने । बला अबला - सा शक्तिहीन हो, लंबी साँस लगा भरने ॥ धूल में मिलाने के निमित्त ऋद्धियाँ समस्त पांडवों की । मामा शकुनी के ढिग आकर, कह उठा बात अपने मन की ॥ 28 ॥ द्यूत असल साक्षात रूप, मामा शकुनी के पास आकर । यश धर्मराज का वर्णित कर, वह दुष्ट इष्ट निज बतलाकर ॥ था लगा बताने राजसूय को देख स्वयं का जल जाना। पांडवपुत्रों की गणमान्यता, महत्त्व गुरुत्त्व समृद्धि पाना ॥ 29॥

शकुनी-दुर्योधन संवाद

मामा-मामा, मेरे प्यारे शकुनी मामा, बात सुनो मेरी मन कहने पर आ गया। जब से यह भूमि बनी तब से लेकर अब तक, कौन हुआ ऐसा जो इतना यश पा गया कौन बना सार्वभौम राजा इसके जैसा, कौन दुनिया को ऐसी मान्यता दिखा गया॥ कहाँ मिली कीर्ति मांधाता, मनु जैसों को भी, जैसी कीर्ति बरबस ही धर्मराज पा गया। ॥ 1 ॥ कल्पना प्रसूत काव्य सब तुमने पढ़ डाले, सब ढेर सारे शास्त्र और कलाएँ सभी सीखी हैं। पढ़ा है कहीं क्या ऐसा उद्भट विजेता जिसने, सागर-वसना अनंत पृथ्वी यह जीती है। सागर पार स्थित प्रदेशों को भी जीत-जीत, शोभित नरेश की भी छवि कहीं देखी है। सुना है कहीं क्या सार्वभौम था युधिष्ठिर-सा, दुनियाँ में पांडवों-सी कीर्ति कहीं पेखी है ॥2॥ भूल सकता हूँ सभी बातें इस दुनियाँ की मैं, किंतु राजसूय यज्ञ कैसे भूल सकता हूँ। जन्म-जन्मांतरों के बाद भी रहेगा याद, आग ज्यों बुझा उसकी स्मृति मैं भूल सकता हूँ। ऋद्धि-सिद्धि देखी वहाँ, उसकी क्या बात करूँ, चकित बुद्धि से दास वह समृद्धि गुन सकता हूँ। और भी अनेक घटनाएँ वहाँ घटित हुईं, सोच उन्हें मन में विवश जल-भुन सकता हूँ ॥ 3 ॥ जाओ प्यारे मामा, अविलंब तुम पिता के पास, ऐसा कुछ कहो कि मति मेरी ओर ढल जाय । पुत्रवत मानते हैं वे तो सभी पांडवों को, ऐसा कुछ करो कि धर्मराज शत्रु बन जाय । मेरे पिता होकर प्यार पांडवों से करते हाय, करो कुछ उपाय जो अनर्थ महा टल जाय । राजसूय देखा तबसे हृदय जलता है मेरा, ऐसा न हो कहीं कि समग्र मेरा जल जाय ॥ 4 ॥ काम प्रिया रति जैसी सुंदर कन्याओं संग, मणि मरकत माणिक अनंत साथ लाए थे। कांतिमान स्वर्ण-स्वर्ण- युक्ता विद्रुम विविध भाँति, उपहार अनगिन नृपगण लेकर आए थे। बार-बार देकर बधाई पांडु पुत्रों को ही, उनके ही पगों में उपहार सब चढ़ाए थे। उनकी सेवा में सभी ने हाय कोटि कोटि, सुधा जैसे सुंदर नवयुवक भी पठाए थे ॥ 5 ॥ राजसूय था जब प्रारंभ हुआ, अंबर तक, भेरी शंख की विशुद्ध ध्वनि गूँजी थी । वेद पाठ करते थे असंख्य पटु ब्राह्मणगण, वेद व्यास नारद की पवित्र वाणी फूँकी थी। अनगिन ब्रह्मर्षियों, महर्षियों, राजर्षियों की, बहु विध कल्याणी अशीष ध्वनि गूँजी थी । पांडवों का अग्रज हुआ श्रेय-यश मंडित उसके, चंद्र जैसे मुख से मृदु चंद्र प्रभा फूटी थी ॥6॥ सुन-सुनकर वाद और तर्क युत शास्त्र-चर्चा, बार-बार धर्मपुत्र सतत हर्षित थे। तृप्त मन होकर वे सुवेद पाठी ब्राह्मणों को, बार-बार मुक्त हस्त कनक लुटाते थे। विप्र लोग भी थे पूर्ण तृप्त और विस्मित- से, सतत युधिष्ठिर की सुकीर्ति कथा गाते थे। शुभ्र यान वर्णित कर, प्रमुदित होते थे हाय, उस पर ही अमित अशीष बरसाते थे ॥ 7 ॥ चारों वर्णों के ही आगंतुक अतिथियों के, भोग योग्य वहाँ खान-पान की व्यवस्था थी । वर्षा-सी की थी धर्मराज ने अमित धन की, दौलत की मानो वहाँ नदी ही बहा दी थी। दुनियाँ में कहीं नहीं देखा जैसा राजसूय, जैसे राजसूय यज्ञ और और वहाँ प्रतिष्ठा थी। सतत अथक त्याग और फिर अनंत भोग, दोनों की ही छटा धर्मराज ने दिखा दी थी ॥8॥ मैंने स्वयं सुना, राजसूय की प्रशंसा आज, ठौर-ठौर जनता का जन-जन करता है। अतिशय विनम्र बना धर्मराज पुरस्कार, पारिपोषिक बाँट-बाँट, तृप्ति साँस भरता है। मामा, अभी समझाओ अंध पिता को मेरे, कहो उससे जाकर क्यों अनर्थ बड़ा करता है। तेरा पुत्र दुर्योधन निश्चय ही मरता है ॥ 9॥ ज्येष्ठ धृतराष्ट्र का तो ज्येष्ठ पुत्र मैं ही हूँ, दुनियाँ का सारा धन मुझे ही अभीष्ट है। पाँचों पुत्र पांडु के गुलाम जैसे हैं मेरे, सेवा में ही उनका सेवक होना ठीक है। उन्हीं पांडवों ने राजसूय मध्य उच्चपद, ................ सभी लोग भूल गए ऐसी घटनाओं को भी, निश्चय ही उन सबकी धनिकों से प्रीति है। तलवे सब चाटते हैं यहाँ धनवानों के ही, स्वार्थ भरी दुनियाँ की यही एक रीति है ॥14॥ अर्थ है प्रधान सभी मानते हैं दुनियाँ में, अर्थप्राप्ति अपना भी लक्ष्य होना चाहिए। अन्य सभी बातें यहाँ व्यर्थ और झूठी हैं, धर्म और शास्त्र के न पीछे रोना चाहिए । स्वर्ण की पताका चेदि राज लाए संग- बाह्लिक स्वर्ण रथ जिसके स्वर्ण निर्मित पहिए । पांडव ने दिया जो मुक्ताहार, अपघ अनुजों को, सारा किसी भाँति मुझे छीन लेना चाहिए ॥15॥ मगध नरेश भाँति-भाँति के पदार्थ और- विपुल विभव अपने संग लेकर आया था। वीरों में सुमान्य वरवीर एकलव्य ने भी, सोने की खड़ाऊँ लाकर 'धर्म' को पिन्हाया था । राज्याभिषेक निमित्त सभी तीर्थों का, पावन जल साथ में अवंती राज लाया था। मुकुटाभिषेक में अपेक्षित अनगिनत पदार्थ, समवेत होकर नृप समाज ने जुटाया था ॥16॥ स्वयं वेद व्यास ने प्रच्छालन किया पुण्य जल से, वेदपाठी ब्रह्मणों ने वेद कथा गाई । सात्यकी ने छत्र धारण किया अपने हाथों में, व्यजन डुलाए, अर्जुन -भीम जैसे भाई । नकुल सहदेव जुड़वा भाइयों ने सेवा हेतु, चामर ले हाथ, भक्ति भावना बताई । पास में पड़े हुए समुद्र-संभव शंखराज- ने भी राजसूय में अनंत शोभा पाई ॥ 17 ॥ ................ क्षत्रियों को और फिर क्या चाहिए ॥14॥ यज्ञ में करके सतत अवमानता, पांडु सुत उस दिन परम प्रमुदित हुए, पूछने की कुशल चिंता थी किसे । सब ठठाते थे निरख तव पुत्र को॥15॥ पुत्र अग्रज के जिसे हों खो चुके, अनुज की औलाद भोगे वह धरा, सोचकर यह बात उस दिन औरतें भी हँस रही थीं हम सबों पर जान लो ॥16॥ सहस गज-बल युक्त दुर्योधन नृपति, पुत्र तेरा है, स्मरण रखें सदा, पांडु सुत तो मूढ़ बनकर पूजते हैं, जुगनुओं को सूर्य के सम्मुख यहाँ ॥17॥ इसलिए उस दिन दिया था अर्घ्य भी, वेणु वादक कृष्ण को पूजा उसे । मान सबसे बड़ा तेरे पुत्र हित । अर्घ्य कैसा सुनो उनकी धृष्टता ॥ 18 ॥ प्रथम अर्घ्य सुनीलवर्णी कृष्ण को- बाँस की वंशी बजाता विपिन में, देख यह विद्रूप सभी स्तंभित हुए, नृपतिगण भी हो गए थे स्तब्ध से ॥19॥ चक्रवर्ती भी सकल सम्राट भी, जो उपस्थित थे दुखी लज्जित हुए, यूँ लगा जैसे बनाया भृत्य हो— कार्य संपादन निमित्त तव पुत्र को ॥ 20॥ पांडवों की भूमि, राज्य समृद्धि को, छीन लेना चाहता आसक्त यह । कीर्ति विस्तृत कर सकल ब्रह्मांड में। वंश गौरव को बढ़ाना चाहता ॥21॥ क्या बुरा है नृपति ! यह तो धर्म है, क्षत्रियों का और कुरुकुल नीति है। यह नहीं होता तो दुनियाँ हँसेगी- वह नपुंसक वीरवर व्रत पुत्र को॥22॥

धृतराष्ट्र का उत्तर

बात सुन उस धूर्त गीदड़ शकुनि की, घन तड़ित सम कड़क नृप कहने लगे- “बन पिशाच बेताल, डाकिन भूत-प्रेत, चपल चंचल दुष्ट रे ! तू आ गया॥1॥ तू करेगा नाश मम प्रिय पुत्र का, दूर हट जा अरे! मम सिर से अभी । पूर्वजन्मों के सकल अधकर्म का- तू समुच्चय है तू सहज पिशाच है ॥2॥ वैर पाँचों पांडवों से घोषणा है- युद्ध की पाँचों समुद्रों से अरे ! निज सहोदर पांडवों से द्रोह है- द्वंद्व तृण का जाह्नवी की धार से ॥3॥ धृतराष्ट्र अटल पराजय जान लो, जूझता यदि युद्ध में उनसे कभी, छि: समर निज बंधु से ही बंधु का, कहा कुत्सित कर्म है यह जगत में ॥4॥ सहोदर से सहोदर का कलह क्या, युद्ध कैसा बंधु-बांधव से हमें— सदा आदरणीय माना उन्होंने- तुम अमित षड्यंत्र पहले कर चुके ॥5॥ पर दया से वे नियंता विष्णु की, और भुजबल से, प्रयास प्रताप से- जीतकर भूधर सदृश सुविराजते, राजते हैं पुण्य परिनव सूर्य से ॥6॥ विकृत गति मम पुत्र शैशव काल से, अनगिनत अपकर्म उनसे कर चुका । पर हुआ क्या लाभ तू ही बता दे । क्या मिला उसको सिवा अपकीर्ति के ॥ 7 ॥ वैर उनसे हो, अनर्गल सोचना यह, पाप है यह कल्पना में, स्वप्न में भी । वे नहीं निर्बल किसी से भी अरे ! कौन पापी है यहाँ तुमसे बड़ा ॥ 8 ॥ दे दुहाई धर्म शास्त्रों, नीति की क्यों गला घोटे तू सच्चे धर्म का क्षात्र धर्म जता रहा जिसको अभी, बीता मुझको साक्ष्य पर किस शास्त्र के ॥9॥ है लिखा किस शास्त्र में कि फोड़ लें- मृत्तिका के अपक घट-सा शीश निज, स्वयं अरि के वज्र सम दृढ़ कवच से । शकुनि रे ! यह धर्म-नीति कहाँ पढ़ी॥10॥ है सुशोभित नभ विहारी सूर्य से, गांधारी को सभी माँ मानते। .............. व्यर्थ की चिंता बढ़ानी हो अगर, हेतु उसका ढूँढ़न आसान है, अरे छोड़ो व्यर्थ की बातें कई- कर्म अच्छे हैं उन्हें जाकर करो ॥18॥ बालपन में ही उन्हें कहता बुरा । करोड़ों-अरबों बुराई कर चुका। तदपि इसको सभापति पद था दिया, भाग में यह सोच मम प्रिय पुत्र है ॥19॥ शुद्ध सोने से भरी थैली इसे, हाथ में देकर कहा था पांडवों ने- "व्यय करो भाई इसे स्वेच्छानुकूल" इस तरह यह सभी में गणमान्य था ॥20 ॥ पांडवों को क्यों करे लांछित प्रथम- अर्घ्य पूजा कृष्ण की ही उचित थी । पूज्य आगंतुक अतिथि होता सदा, सत्य अपना ही सदा बोलो अरे॥21॥ अनुज अग्रज का रहा नाता हमें- पुण्य पांडव पराया क्यों मानते। अतिथि था तब अतिथियों में अग्रणी नील द्युति घनश्याम यों पूजा गया ॥ 22॥ “यशोदा-सुत कृष्ण पूजा-पात्र है, पुत्र है सत्पात्र देवी देवकी का।" जाह्नवी सुत के सुत पितामह भीष्म की यही आज्ञा थी, यही अनुमति स्वीकृति ॥ 23 ॥ शीश कर अवधार्य आज्ञा भीष्म की, पांडवों ने कृष्ण को पूजा, इसे- पाप जो माने स्वयं गुरु पातकी है, कृष्ण को क्या समझता है मूढ़ तू ॥ 24॥ आदि देव परात्पर वह विष्णु जो- क्षीर सागर मध्य गहन विवेक सम- योग निद्रा में करे विश्राम नित, ज्योति फणधारी अनंत सुज्ञान युत॥ 25॥ शुभ्र तन उस नागराज विराट की, शुभ्र शैया पर, वही अवतरित है। सुभग शीतल मृदुल कोमल श्याम तन- कमललोचन कृष्ण बन यह जान लो ॥26॥ कौन तुमसे कहे महिमा कृष्ण की, राजवंशों में समूची धरा के है नहीं कोई कहीं रे! मूर्ख सुन, कृष्ण की पदधूलि के कण के सदृश ॥27॥ जानते हैं बात यह योगी, यती, मुनि, ज्ञानी सत्य मुक्त विशुद्ध नित्य- बुद्ध या फिर भक्तवर ही जानते हैं, नित्य सत् उस तथ्य को, उस तत्त्व को॥28॥ छोड़कर ममता सकल अहमन्यता, मानना अपनी समूची धरा को, व्यक्त मन चुपचाप सबकुछ भोगना- शोभना पर नित त्रिकाल अतीत हो ॥29॥ धर्म-सम्मत कर्म सब करना सदा, दया बरसाना तू जीवों-जंतुओं पर । देह के टुकड़े करे कोई, तदपि, मग्न रखना मन, गहन गुरु कृपा में॥30॥ .................. तप्त ताँबे-सा सुरत हो, कह उठा ॥ "नीम के फल-सा बना मैं तिक्त । और पांडव मधुर शक्कर सिक्त ॥ खूब है मेरे पिता की नीति यह । पुत्र पर निज, अतुल ममता प्रीति यह" ॥ 1 ॥ "अलग ही है नृपतियों की नीति । अलग है सामान्य जन की रीति ॥" यही है सब नीतियों का सार। गुरु वृहस्पति का अमूल्य विचार ॥ वृहस्पति को निपट बुद्ध मान। झाड़ता है महज अपना । धर्म-नीति बता रहा, भाई-भतीजा वाद । कर रहा मुझसे, पिता मेरा बकवाद ॥2॥ यदि बुराई भी सतत करते रहें। पांडु के सुत तो भले इनको लगें। भलाई नित चाहता हूँ मैं यद्यपि । बुराई ही हूँ दृष्टि में इनकी तदपि ॥ समझते मुझको निरा बलहीन है ये। सोचते हैं पाँच ही प्रवीण हैं वे ॥ है दुहाई बुद्धि की इनकी सुनो मामा । फिर सुनो, सुनते रहो मन में गुनो मामा ॥ 3 ॥ इंद्र-सा सुख भोग मेरा भाग्य । और फिर क्या बचा मेरे योग्य ॥ लक्ष्मी को चाहना छोडूं यही । मंत्र देते हैं पिता मुझको सही ॥ ढूँढ़ लो चाहे सकल संसार में। प्राप्त करना कठिन शास्त्र विचार में ॥ तंत्र नीति सुदक्ष मेरे पिता सा कोई । क्यों मिलेगा बंधु मेरे पिता - सा कोई॥4॥ राज्य शासन पांडवों के योग्य है। मुझे रमणी, नृत्य-गायन भोग्य है ॥ भोग, रोटी, शाक, घृत हर्षित यहाँ । पांडु सुत भूपाल बन विलसित वहाँ ॥ इन सरीखा इस मही पर है कहीं। पिता मेरे पिता जैसा है नहीं ॥ तुम पिता, वे पाँच हैं मेरे विमल सहोदर । और फिर क्या चाहिए इससे बड़ा आदर॥5॥ जानता मैं नहीं मीठा बोलना । बात मैं चाहूँ न तुमको तोलना ॥ कौन पत्थर से निकाले सूत्र । पा सकूँ क्या बात कर मैं पुत्र ॥ गला घोंटो भले अपने हाथ से । मैं मुडूंगा नहीं नहीं अपनी बात से ॥ नरक-कीट से पांडु-सुतों की कीर्ति सहूँ कैसे । जीवित उनको देख-देखकर, यहाँ रहूँ कैसे ॥6॥ तर्क करना अब नहीं मैं चाहता। जान लो सारांश मेरी बात का ॥ हानि हमको कुछ नहीं होगी यहाँ । शीघ्र आकांक्षित विषय होगी यहाँ ॥ अब न कोई बात मन में धरो तुम । द्यूत-क्रीड़ा हित निमंत्रित करो तुम ॥ मन की बात बता दी मैंने तुमको सब कोई दूजी बात न मुख से कहना अब ॥7॥

धृतराष्ट्र का उत्तर

कानों में जब पड़ी बात थी, निज सुत की तब डोला । भरतवंश का नृपति, चौंककर शोकग्रस्त हो बोला ॥1॥ क्यों ऐसा अन्याय, तुला क्यों – सर्वनाश पर पापी । बैठा है तू नहीं भूत-बेताल पिशाच-पिशाची ॥2॥ शुद्ध वीर तू रण में लड़ने से इनकार करेगा । धिक कोई यह कायरपन, क्यों अंगीकार करेगा ॥3॥ सिंह समान झपट पड़ने को पाप समझकर टाले। गीदड़ - सा यह द्यूत न्याय - लज्जा पर डाका डाले॥4॥ नहीं आर्य का कर्म-अनार्यों की बर्बरता है रे । कहाँ खून में शौर्य वीरता और धीरता है रे ॥5॥ परधन शोषण अधर्म कार्य है, क्यों नीचता करो तुम, लालच छोड़ो सुत मेरे, मत वंचक क्लीव बनो तुम ॥6॥ कीर्तिवती श्री और भूमि दो स्त्रियाँ जहाँ वीरों की। महासमर में विजयलक्ष्मी- है वरेण्य धीरों की॥7॥ बनकर धीर-वीर लड़कर यदि भूमि और श्री जीती पांडव जैसी कांति मिलेगी – मेरे पुत्र अचीती ॥ 8 ॥ रहना अटल धर्म पर अपने अचल स्वकर्म निभाना । आश्रित पोषण पर धन की रुचि अभी न मन में लाना ॥9॥ इनका ही है नाम विभव क्या, यही नहीं जानते तुम, छोड़ो सहज अधर्म आर्य हो—निज को पहचानो तुम ॥10॥ बालकुमार पाँच पांडव हैं, पाँच भुजा सम तेरे । क्यों तू उन्हें नष्ट करने पर आज तुल गया है रे ॥11॥ दे उपदेश शांति का बोले, “जाओ बेटे, जाओ। इसे छोड़ मुझ पर दूजी बातों में मत उलझाओ ॥12॥

दुर्योधन का उत्तर

पिता न तुमसे तर्क करूँ मैं, मेरी बात सुनो तुम । कितनी बार कह चुका लेकिन इसकी कहाँ गुनो तुम ॥1॥ नहीं आएँगे पांडु पुत्र, यदि तुमने नहीं बुलाया। करूँ आत्महत्या यदि अब प्रस्ताव और ठुकराया ॥ 2 ॥ विद्याएँ अनंत पढ़कर भी लाभ कहाँ क्या पाया । तेरी सारी बातों में- कोरा आदर्श समाया ॥ 3 ॥ छोटी बात न ज्ञानी देते, तत्त्व ज्ञान की शिक्षा । हाथ चाटने से कब मिटती, शहद - पान की इच्छा॥ 4॥ दुष्ट विदुर की सुनो बात जय-आकांक्षा ठुकराकर । वह भी पाँचों पर मोहित मुझसे नफरत जतलाकर ॥ 5 ॥ गृहपति कठपुतली हो तब क्या हाल बंधुओं का हो, कुशल-क्षेम क्या कुरुओं का जब विधि ने तुम्हें जिता हो ॥ 6 ॥ "है सब, कुछ न चाहिए" जा, समझे वह महाभ्रमित है। मूढ़ मूर्ख है जो समझे- निधि उसके पास अमित है ॥ 7॥ धन अनंत इसलिए हाथ पर हाथ धरे हो बैठे। ऐसे राजा को न नष्ट कर दे दूजा नृप कैसे ॥ 8 ॥ करुणा, धर्म खुशामद नहीं नीति है राजपूतों की । विभव जुटाकर भोग नीति- सच क्षत्रिय धर्मच्युतों की ॥ 9 ॥ भूल-चूक है यही क्षात्र की यही पाप अघ कर्म । जीवन में चुप-चाप बैठना, नहीं क्षात्र का धर्म ॥ 10॥ क्षत्रिय का है धर्म दूसरों को नित हेय बनाना । अपना काम साधना, औरों को नीचा दिखलाना ॥ 11॥ विजित करें कुल धर्म यही है, न्याय नीति यह सच्ची । पाप, स्वसृजित बुराई की, परवाह नहीं कुछ अच्छी ॥ 12 ॥ करें समूल विनष्ट शत्रु को, लक्ष्य हमारा एक । आयुध के अतिरिक्त नाश के, साधन अन्य अनेक ॥ 13॥ नहीं बंधु बांधव बनते आजन्म साथ पलने से। शत्रु मित्र होते न रूप से भला-बुरा करने से ॥14॥ एक कर्म करने वालों में सहज बैर होता है। भाई भी दुख दे तो जानो, वह दुश्मन ही होता है ॥ 15॥ नष्ट न हों वैरी तो हमको, धरा निगल जाएगी। दिन-दिन पतन हमारा, पांडव - श्री उन्नति पाएगी ॥ 16॥ वैरी को अवसर देना, संकट का क्रम करना है। धर्म सर्वसम्मत उसको झट-पट विनष्ट करना है ॥ 17 ॥ युद्ध कर्म से विरति अक्ष में है अपकीर्ति तुम्हारी । इससे तो रह जाएगी - लालसा अपूर्ण हमारी ॥ 18 ॥ है असाध्य जीतना पांडु पुत्रों को किसी समर में । बड़े भाग्य से बुद्धिमान मामा है मिला भँवर में ॥ 19 ॥ द्यूत कर्म में निश्चय ही जय हमको दिलवाएगा। धर्मराज भी जूआप्रिय है, खिंचा चला आएगा ॥ 20॥ भरत वंश के अधिपति हो तुम, तेरी जगतप्रसिद्धि । क्यों बरवश खुश होते हो लख पांडु सुतों की वृद्धि ॥ 21 ॥ अनायास क्यों वैरी से मित्रता उकेर रहे हो । मेरे मन की आशाओं पर क्यों पानी फेर रहे हो ॥ 22 ॥ हँसते थे जो आज हमारी, स्वाभाविक चालों पर । होंगे हम भी कल हँसते- मुझपर हँसनेवालों पर ॥ 23 ॥ पांडव पाँच सगे तो इससे, हमें लाभ क्या बोलें। छल से जीतें क्यों न उनको हम, भृत्य बनाकर छोड़ें॥24॥ हो निश्चित रंग मंडप बस, तुम निर्मित करवा दो। फिर हम जीतें अक्ष खेल में, पांडु सुतों को पाँचों ॥25॥ उन्हें बुलाओ तुमने मेरा निश्चय जान लिया है। धुरंधरों को जुए में जीतूं यह ठान लिया है ॥26॥ झट आमंत्रण दो, विलंब तो अब सब नाश करेगा। तीक्ष्ण शस्त्र से शीश काट, तब सुत यह आप मरेगा॥27॥ सुनकर सुत की बात पिता का मन था टूट गया। काँपा उस सद्धर्मी का साहस छूट गया ॥28 ॥ दुराग्रही की बातें सुनकर बल क्षीण हो गया आप । दुःख पूरित मन पिता विवश तब करने लगे विलाप ॥29 ॥

धृतराष्ट्र की सम्मति

स्वयं न विधि के वश में विधि की बातों का प्रतिकार । सत्य कहा मतिमान विदुर ने- तेरा जन्म विचार ॥ 1॥ अति कठोरता उपज क्षत्रियों का कुल-नाश करेगी। तेरे सुत के नाम नाश का कारण धरा मढ़ेगी ॥ 2॥ बात विदुर की सच निकली, तूं गाने लगा कुराग । विधि तो विध है और न कुछ क्या और कहूँ हतभाग ॥ 3 ॥ काल तुम्हें खींचता सभी की नियत अधोगति होगी । विधि शकुनी बन तुम्हें मिला है तेरी गति क्या होगी॥ 4 ॥ मनस्ताप, चिंता अब छोड़ो अपना महल गहो तुम । अभी निमंत्रण दूँगा पाँचों को आश्वस्त रहो तुम ॥ 5 ॥ ............... इंद्रप्रस्थ शुभ नगर वहाँ जा पांडु सुतों से मिलना । और हस्तिनापुर आने का मेरा आग्रह कहना ॥ 3 ॥ चर्चा करना नव मंडप की सुंदर शिल्प-कला की । कहना राजसूय के बाद मिलना भी तो है बाकी ॥4॥ वृद्ध पिता का कर स्मरण वे मिलने को आ जाएँ । अब तक चुप था मैं इसलिए कि उनके शुभ दिन आएँ ॥5॥ अब अच्छे दिन मिले तुरत मेरे पुत्रो आ जाओ। पाँचों मुझसे मिलो, द्रौपदी को भी संग ले आओ॥6 ॥ यदि प्रसंग मिल जाए तो समझाना उन्हें तुरंत । यह है शकुनि जाल में फँसे दुर्योधन का षड्यंत्र ॥7 ॥ सुन भाई की बात विदुर चीखे - हा ! अब क्या होगा, निश्चित सत्यानाश देश का और धर्म का होगा ॥ 8 ॥ मिट्टी में मिल जाएगा। सब धर्म नाश पाएगा। मेरा भारत अंधकार में हाय ! डूब जाएगा ॥9 ॥ और करूँ क्या हमको रोको, बुरी घड़ी यह आई। सर्वनाश से पहले, दुर्योधन को रोको भाई ॥10॥ "चिंता करना व्यर्थ विदुर ! विधि मुझे ढकेल रहा है। उन्हें बुलाओ, विधि ही मुझ बेबस को ठेल रहा है"॥11॥ सिर धुनने लग गए विदुर को ऐसी बात सुनाकर । मुर्छित हो गिर पड़े तुरंत निज रंगमहल में जाकर ॥12॥

विदुर का दूत बनकर जाना

भाई की आज्ञा पाकर चल पड़े विदुर तत्काल । बनकर दूत, जिधर था पांडु-सुतों का नगर विशाल ॥1॥ चलते जाते, मन में दुःख की लहर जागती जाती । अंतरात्मा नाश देश का लख कराहती जाती ॥2॥ बोले, "हा ! “हा ! यह देश नीलगिरि - मुकुट पहननेवाला । सुंदर सुगठित जग का चूड़ा-मणि बन रहनेवाला ॥ 3 ॥ बागों, उद्यानों, वन, उपवन से शोभित यह देश । भरतवंशियों का सुमधुर फल - पुण्य नदी युत देश ॥4॥ कितने गेहूँ, धान, बाजरा और ज्वार के खेत । शीतल मंद वायु चलती है, सदा सुगंध समेत ॥ 5 ॥ लाखों करें निवास न कोई, भूख न चीख-पुकार । सदा मुदित मन प्रजा यहाँ, है लक्ष्मी सदाबहार ॥6 ॥ श्याम नेत्र युवती दल नित-कंदुक-क्रीड़ा में भूले। शिशु सब गुणसंपन्न फूल-से फिरते फूले-फूले ॥ 7 ॥ इस धरती की छटा स्वर्ग की छटा सरीखी झरती । अगणित धीरों-वीरों की टोली निर्बाध विचरती ॥8॥ कर्म-धर्म समेत सब, कारीगरी कलाएँ सोहें। सच्चे मन से काम करें सब, सुघर नारियाँ मोहें॥9 ॥ सर्व गुणी भारत, समकक्ष न कोई जग में जिसके । मैं भी सहयोगी बन आया हूँ, विनाश में उसके ॥10॥ हा विधि ! हा विधि ! यह कुकर्म भी मुझको ही करना था। इस बेबस को देशनाश का माध्यम भी बनना था ॥11॥ मन ही मन विचारते रोते विदुर पहुँच पाए थे। इंद्रप्रस्थ में पांडु-सुतों के चाचाजी आए थे ॥12 ॥ ................... अट्टहास कर कहा, मानते हैं भाई की बात। अच्छा ही है वहाँ चलेंगे, हम सेना के साथ ॥ 3 ॥ बहुत दिनों की चाह, हिला दूँ मैं कुरुकुल की नींव । मौका अच्छा मिला, उठा लो निज कर में गांडीव ॥ 4 ॥ हम चलते हैं अभी कौरवों से लोहा लेने को । पिता-पुत्र दोनों ढोंगी निज ढोंग दिखाते किसको ॥ 5 ॥ बुद्धिमान खुद को, हमको निर्बुद्धि सदा वे मानें। धनुष-बाण ला हाथ धनंजय, आज समर हम ठानें ॥ 6 ॥ या तो कौरव या पांडव ही शेष रहेंगे भू पर । दो ज्वालाएँ नहीं जलेंगी मात्र एक लकड़ी पर ॥ 7॥ वैसे भी उनके जीते जी शांति न हमें मिलेगी। आओ उठो, चलो रण में धन्वा की प्यास बुझेगी ॥ 8 ॥

धर्मराज का निश्चित उत्तर

सुन धर्मज की बातें अर्जुन को भी आया ताव । सहज समर्थित हुआ भीम का वह रण का प्रस्ताव॥ 1॥ काम - श्याम से सुभग नकुल-सहदेव सरीखे भोले- भाई भी मिल उनसे अग्रज के विरोध में बोले ॥ 2॥ सदा उपेक्षित होते नीति-नियम जब दिल जलता है। दोष नहीं यह गुण है, वीर इसी पथ पर चलता है ॥ 3 ॥ इसीलिए वे चारों ही अग्रज की बात न मान । विनय प्रेम से 'धर्मज' का कर बैठे प्रत्याख्यान ॥ 4 ॥ देख तमतमाते अस्वीकृति देते शीश हिलाकर । प्रेम पगे स्वर में बोले तब धर्म क्वचित मुस्काकर ॥ 5 ॥ मूर्ख नहीं रे! मैं मुझको, है सब बातों का ध्यान । मुझको ‘कुरु' के दुर्गुण, कुप्रकृति का है अनुमान ॥ 6 ॥ आज उपस्थित है जो विपदा उसे खूब पहचानूँ । क्या होगा परिणाम इसे भी भली-भाँति मैं जानूँ ॥ 7 ॥ चक्र घूमता है कुम्हार की इच्छा से ही जैसे । सब विधि के हाथों में चक्र बने चकराते वैसे ॥ 8 ॥ भाई रे ! ज्यों नहीं चक्र में क्षमता स्वघूर्णन की । वैसे ही विधि के हाथों में है गति हम सब जन की ॥ 9 ॥ मायामय यह विश्व बंधु रे ! सबकुछ यहाँ क्षणिक है। जन शृखंलाबद्ध, विधि खींचे, यह न प्रस्ताव तनिक है ॥10॥ क्षणभंगुर इस कर्मभूमि पर सब, हम भी विधि हाथ । नहीं हमारा जीवन भी इस विधना का अपवाद ॥ 11॥ जीवन सुख सापेक्ष कभी है, कभी दुःख सापेक्ष । और कभी खो जाता सुख-दुख दोनों से निरपेक्ष ॥12॥ इन्हीं तीन कड़ियों में बँधकर जगत बहा जाता है। तीनों में जो मिले, धैर्य से उसे सहा जाता है ॥13॥ अनुचित है डरना विपत्तियों का करके अनुमान । डरते नहीं विपद की आशंका से मनुज महान ॥14॥ घटना विधि इच्छा से अपने आप विपत्ति प्रवाह । इसे जान ज्ञानी करते निर्भीक कर्म निर्वाह ॥15॥ ज्ञानी राजा रंक कीट जो कीचड़ में पलता है। सबका क्षण-क्षण अलग, अलग कर्तव्य हुआ करता है॥16॥ विपदा की शंका से है कर्तव्य छोड़ना पाप । कहा न मैंने राम कथा आदर्श हमारा आप ॥17॥ मेरे प्रिय भाइयो, बड़ों की बात मानकर चलना । सबका धर्म विशेष रूप से क्षत्रिय कुल का अपना ॥ 18 ॥ श्रेष्ठ क्षत्रियों में होकर करते प्रतिकार हमारा । चारों सुन लो, करो वही जो है कर्तव्य तुम्हारा ॥19॥

चारों भाइयों की सम्मति

सुन उपदेश 'धर्म' का चारों बंधु एकस्वर बोले । धर्मराज, हम पांडु-सुतों के, प्राण तुम्हीं तो हो रे ॥ 1 ॥ गिरि चोटी पर धरे दीप-सा नित तू शोभा पाए । धर्मराज, तुम इस धरती को धर्म सिखाने आए ॥2॥ इस आसन्न विपद की आशंका से डरें नहीं हम। प्रेम-भाव से विनती करते लो अन्यथा नहीं तुम ॥ 3 ॥ तव आज्ञा है शिरोधार्य जो कहो वही हम मानें। विदा हुए कह अपने को तेरे अधीन हम जानें ॥ 4 ॥

पांडवों का प्रस्थान

चले तीसरे दिन वे सभी हस्तिनापुर की ओर । धूम-धाम से, परिजन संग, सेना का ओर न छोर ॥1॥ साथ चली पांचाल देश की नृप-कन्या पांचाली इंद्रप्रस्थ तज सभा हस्तिनापुर को जानेवाली ॥2॥ ज्यों शृगाल के जाल मध्य जा सिंह सहज फँसता है। अपने तन-कृमियों से जैसे बाघ स्वयं मरता है ॥ 3 ॥ गज मर जाता छोटी चींटी के दंशों से जैसे । पांडव चले दुष्ट की नगरी में, दुख पाने वैसे ॥4 ॥ ................. वह गोलक ऐ दवि ! देखो, घूमता तारा दिखलाता है। दूसरा घूमता साथ-साथ, रश्मियाँ सुभग बिखराता है ॥9॥ सुंदरि सचेत हो देख एक यह चक्र बना ज्यों विद्युत का । दूसरा हरित रंग दिखाता है, अनुमान कठिन इनकी गति का ॥10॥ इसकी हरियाली की समता कर सकती नहीं कभी धरती । उठ अब इसका वंदन कर ले, यह स्वयं उमा कविता करती ॥11॥ लाली कितने प्रकार की है, नीलेपन के कितने प्रकार, हरियाली की कितनी किस्में हैं, एक-दूसरे से अपार ॥ 12 ॥ एक ही रंग में विविध रंग, कितने रंगों में प्रकृति जगी । देखो जहाज स्वर्णिम रंग के, नौकाएँ नीले रंग - रंगी ॥13॥ हैं चित्र-विचित्रित महामत्स्य कितने स्वर्णिम रंग के देखो । है सहज प्रकाशित प्रभासिंधु, आँखों में, भले जहाँ देखो॥14॥ कर उठे वंदना दोनों सूर्य देव की गायत्री पढ़कर । ॐ भू भूर्व: स्व: मंत्र पाठ कर उठे विचारमग्न होकर ॥15॥ रश्मियाँ सूर्य की करें हमारी, सहज बुद्धि का परिष्कार । ऐसा कह कहकर हाथ जोड़, दोनों करते थे नमस्कार ॥16॥ तदनंतर दोनों लौट पड़े आए निज शिविर मध्य प्रमुदित । देखकर पार्थ- पांचाली को थे सभी हो उठे आनंदित ॥ 17॥ काटकर वह रात किसी तरह, चल पड़े थे पांडु सुत गंतव्य पर । शाम तक सब पहुँच पाए थे, बहुत कठिनता से पापियों के राज्य पर ॥18॥ सूर्य छिपने के पूर्व ही सदल बल, आ गए थे हस्तिनापुर में सभी । उत्तमोत्तम पाँच पांडव सहज ही उस अधम के नगर में थे अभी ॥19॥

दूसरा भाग द्यूतक्रीड़ा सर्ग

निर्मल, स्वच्छंद, सुंदर रूप धारण करनेवाली, वाणी ! मेरी वाणी में निवास आज कर तू । सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन की अधिष्ठात्री ज्ञान और दर्शन मेरे अंतर में भर तू माता री ! महत् प्रकाश अपनी अंतरात्मा का- कृपा कर मेरी अंतरात्मा में कर तू। मधुर मोहन छंदों में, सुकाव्य नित रचने की- देवि, मेरे मन में अनंत शक्ति भर तू॥1 ॥

पांडवों का स्वागत

जनसमूह था उमड़ पड़ा, सुन पांडवगण हैं आए। लोग उपवनों, जलाशयों मार्गों पर आ आ छाए ॥2॥ "सागर जैसा जनसमूह यह, अब तक कहाँ छिपा था, सभी दर्शकों के चेहरों पर विस्मय यही लिखा था ॥3॥ पावन जल ले कनक कुंभ में थी सुहागिनें आईं विप्र वेदपाठी क्षत्रिय संग देने लगे बधाई ॥4 ॥ गायन नृत्य वाद्य ध्वनियों से, गूँज उठा आकाश । स्वागत करने पांडो - सुतों का उमड़ा नगर समाज ॥ 5 ॥ पाँचों पांडव, वाहलीक के कंचन रथ चढ़ आए। नारि सुसुंदर पांचाली उनके संग शोभा पाए॥6॥ धूम-धाम से चला कारवाँ, जनता उमड़ पड़ी। मंगल पुष्प आदि बरसाती अविरल खड़ी खड़ी ॥7॥ धीरे-धीरे पांडव पहुँचे, कुरु के कनक भवन में। मिलें तात कुरुपति से सत्वर, उत्कंठा थी मन में ॥ 8 ॥ उनसे मिलकर भीष्म द्रोण फिर कृपाचार्य यह आए । अश्वत्थामा आदि बुजुर्गों से मिल सब सुख पाए ॥9 ॥ कर्ण, शकुनि, दुर्योधन आए मिलने उत्कंठा से। गांधारी को कर प्रणाम कुंती मिल आई सबसे ॥10 ॥ पांचाली भी सबका वंदन करके थी हर्षाई । साँझ पड़े संध्यावंदन पर बैठे पाँचों भाई ॥11॥ भजन किया, व्यायाम किया, फिर सबने भोग लगाया। हार पहन, चंदन चर्चित हो - वीणा सुन सुख पाया ॥12॥ होकर चिंतारहित, स्वस्थ मन सबने वादन किया तब । सुजनों का मन अविचल रहता है विपदा आती जब ॥13॥

पाँचों पांडवों का सभा में पधारना

सूर्योदय से पूर्व जगे, हो नित्य कर्म से निवृत्त । भूषित आभूषण से हो, होकर रेशम से आवृत ॥ 1 ॥ पाँचों भाई सज-धजकर फिर राजसभा में आए। जहाँ प्रथम ही लाजरहित कुरुकुल वंशज थे छाए ॥2॥ भीष्म द्रोण के साथ वहाँ थे, क्षत्रिय विप्र सुशोभित । दुष्ट बुद्धि दुर्योधन निज अनुजों के संग था मंडित ॥ 3 ॥ देश-देश के नृप, मंत्रीगण, वहाँ विराज रहे थे। सुहृद बंधु-बांधव सब मंडप में छवि छाज रहे थे ॥4॥

द्यूतक्रीड़ा का निमंत्रण

चित्रसेन विविंचति आदि अन्य लोगों के संग में। अक्ष खेल में दक्ष शकुनि बैठा था अपने रंग में ॥ 1 ॥ मिलकर पांडु-सुतों से, धर्मराज से बोला शकुनि । राह तुम्हारी देख रहे हम सभी देर से कितनी ॥ 2॥ क्षत्रिय सब हैं राह देखते तेरी आतुर होकर । आओ-आओ जूआ खेलने, बोला वह बल देकर ॥ 3 ॥ वीर धनुर्धर होकर तो दिग्विजय किया तुम सबने । अब देखें तुम अक्ष-युद्ध में पारंगत हो कितने ॥ 4॥

धर्मराज की असहमति

द्यूत पाप है, इसमें कैसे शक्ति-परीक्षा होगी, इसमें क्या यश, शौर्य, शूरता और वीरता होगी ॥ 1॥ आमंत्रण के पीछे मन में कुटिल चाल है तेरी । फूटी आँखों नहीं सुहाती, तुम्हें भलाई मेरी ॥ 2 ॥

शकुनि की अवहेलना

अट्टहास कर उठा शकुनि बोला यह क्या करते हो । होकर विश्वविजेता, द्यूत नाम से यों डरते हो ॥ 1 ॥ वृहद राज्य के अधिपति वीर व्यक्ति हो, यही सुना था । क्षत्रिय हो यह समझ अक्ष- आमंत्रण तुम्हें दिया था ॥ 2॥ महाकृपण हो, व्यय से डरते हो यह मान गया मैं। मक्खीचूस बना भारत अधिपति है जान गया मैं ॥3 ॥ जुआ खेलना पाप नहीं है, है क्षत्रिय कुल धर्म । वीर नृपति क्यों डरते यह भी है सेवा का कर्म ॥ 4 ॥ इतने जहाँ सभासद हैं, बैठे क्षत्रियगण ऐसे । वहाँ तुम्हारी जायदाद सब हम हड़पेंगे कैसे ॥ 5 ॥ कब से अक्ष पड़ा है, द्यूत फलक तो देखो यह तुम । जीत तुम्हारी होगी, धर्मराज निश्चित खेलो तुम ॥ 6 ॥

धर्मराज का उत्तर

बध करें जो चर्महित गोवत्स का, उस बधिक के सदृश बनकर निर्दयी । धर्मराज न रोक पाए स्वयं को, व्यथित मन उद्विग्न हो कहने लगे ॥ 1 ॥ असित देवता प्रभृत मुनिवर कह चुके, अक्ष क्षत्रिय हेतु जहर विशेष है। युद्ध कर सब जीतना है धर्म उसका, जूआ निश्चित कपटपूर्ण अधर्म है॥2॥ मानते हैं मरण श्रेष्ठ अधर्म से, सदा से यह आर्यों की रीति है। सुजन धर्मी लोग जुआ न खेलते, अधर्मी जन के लिए वह प्रीति है ॥3 ॥ इसलिए इस खेल में मुझको हिचक है, और कोई भय न मन में है अरे ! राज्य भी करता नहीं हूँ मैं सुनो, किसी धन की या विभव की आस में॥4॥ धर्म और सुभिक्ष के हित ही सदा, या कलाओं के अनंत विकास हित । राज्य करता हूँ शकुनि रे ! मैं यहाँ, सहज से इस सत्य को तुम जान लो॥ 5 ॥ नाश ही वह करेगा इस देश का, जो कपट से हड़प लेगा राज्य मम । वह न कुछ मेरा बिगाड़ेगा कभी, यह सहज-सी बात है तुम समझ लो ॥6॥ कलाकौशल का गला घुट जाएगा, निमंत्रण मिल जाएगा कलिकाल को । धर्म का स्वयमेव सत्यानाश होगा, और होगा बीज वपन अधर्म का ॥ 7 ॥ सर्वनाश दिखाएगा ऐसा पुरुष देश भारत में मेरे प्रिय देश में। समझ लो वह सत्य को धकिया रहा, निमंत्रित कर रहा सहज असत्य को ॥ 8 ॥ इसलिए रे शकुनि ! तुमसे बार-बार, कर रहा हूँ प्रार्थना यह सुनो तुम । छोड़ दो यह द्यूतक्रीड़ा अभी से, एक छोटी बात मेरी मान लो ॥9॥

शकुनि का आग्रह

उत्तेजित हो उठा शकुनि धर्मज की बातें सुनकर । बोला, अपने शास्त्रज्ञान की डींग हाँकते क्योंकर ॥ 1 ॥ आत्म-प्रशंसा अपने आप किए जाते हो क्यों तुम, छोटी-सी यह बात शास्त्र की नहीं जानते हो तुम ॥2॥ तुमको विपुल ज्ञान है शास्त्रों का यह खुद कहते हो । हो करके शास्त्रज्ञ निमंत्रण अस्वीकृत करते हो ॥3॥ सुनते जब ललकार वीर क्षत्रिय आगे बढ़ते हैं। या तुम सदृश आके रण पर पग पीछे धरते हैं ॥ 4 ॥ असि - कौशल में निपुण जीतता, अन्य हार जाता है। जैसे विजयी होता तार्किक, अन्य मात खाता है ॥5॥ वैसे ही निपुणता जूए में जो भी दिखलाएगा। विजयी होगा और दूसरा स्वयं हार जाएगा ॥6॥ इसमें क्या षड्यंत्र, योग्य यदि जीता दूजा हारा, तुमको क्षत्रिय समझ सामने सबने है ललकारा॥ 7 ॥ आमंत्रण स्वीकार अगर तो हाँ बोलो, आ जाओ । धैर्य न जुटा सको, डरते हो, तो वह भी बतलाओ ॥ 8 ॥

धर्मराज की सम्मति

धर्मज ने कुखेल को सच्चा धर्म विचार लिया तब । कुजन रीति को फर्ज मानकर खुद को फँसा लिया तब ॥1॥ कितने सज्जन पुरुष इस तरह पीड़ा पाते हैं। परंपरा के कीच-कुंड में खुद ही गिर जाते हैं ॥2॥ ................ विधना है बलवान नहीं तो धर्मराज-सा ज्ञाता । कुटिल शकुनि की बातों में बरबस ही क्यों आ जाता॥14॥ होनी के आगे मानव की बुद्धि सदा सोती है। विधना से बलवान दूसरी शक्ति कहाँ होती है ॥15॥ कभी कर्म कोई करता है, मरता कोई जैसे । गिरा शकुनि के नीचकर्म का फल धर्मज पर वैसे ॥16॥

जुआ खेलना

धर्मराज ने धर्म मानकर किया द्यूत प्रारंभ । अट्टहास के साथ शकुनि ने फेंका अक्ष सदंभ ॥ 1 ॥ किंकर्तव्यविमूढ़ विदुर-से सुजन रहे चुप-चाप । विधि के सम्मुख अवश युधिष्ठिर उलझे अपने आप ॥ 2 ॥ बोले धर्मज, शकुनि, ठहर जा बाजी क्या धरते हो, सोच-समझ लो एक चक्रवर्ती से तुम भिड़ते हो ॥3 ॥ दंभी दुर्योधन झट बोला, उनकी बातें सुनकर । खेल-खेल दस गुनी लगाऊँगा बाजी में गिन-गिनकर ॥14॥ "शकुनि प्रतिस्पर्धी है, बाजी तुम बोलोगे कैसे, खेले एक दूसरा बाजी बोले नियम न ऐसे॥5॥ अनुज, नहीं यह उचित न तोड़ो स्वयं द्यूत का फर्ज ।" "मामा खेले, भांजा बाजी बोले तो क्या हर्ज ॥6॥ मामा शकुनि जुआ खेलें, मैं बाजी अगर लगाऊँ । इसमें अनीति गुनाह नहीं, क्यों गुनहगार कहलाऊँ" ॥ 7 ॥ हँसकर बोला कर्ण, "धर्म, क्यों परेशान होते हो, समय बिताने हित हम खेल रहे हैं, क्यों रोते हो" ॥ 8 ॥ “सुनो क्षित्रियो, उचित नहीं यह पहले सीख दिए देता हूँ। इसका होगा अंत न अच्छा, मैं आगाह किए देता हूँ"॥9॥ इतना कह धर्मज ने रत्न-हार की बाजी बोली। दुर्योधन ने तुरंत अपरिमित धन की थैली खोली ॥10॥ पहले पासे में ही विजयी हुआ शकुनि तत्काल । धर्मराज फिर बाजी बोले, समझ न पाया चाल ॥11॥ कनक भरे घट सहस दाँव पर लगे, शकुनि फिर जीता । ऊष्ट्र अश्व युत रथ का दाँव जीतते समय न बीता ॥12॥ परिचर्या में निपुण रमणियाँ, अति सुंदर तन वाली । पांडु-सुतों की परिचर्या में रत जो शोभाशाली ॥13॥ ऐसी सहस युवतियों का धर्मज ने दाँव लगाया। फिर भी जीता शकुनि, धर्म के हाथ नहीं कुछ आया॥14॥ शत-शत दास-दासियाँ रेशम पट आभूषण भूषित । दाँव दिए धर्मज ने जीता चोर शकुनि अभियंत्रित ॥15 ॥ युद्ध कला में निपुण मेघ-से काले घन गंभीर । हाथी एक हजार, दाँव में जीता शकुनि अधीर ॥16॥ हय, गज, रथ, सब लगे दाँव पर जीता शकुनि पलक में। हारे 'धर्म' सैन्य परिजन, सब बाजी बोल ललक में ॥17॥ रथ, गज, तुरंग, पदाति सैन्य, जब हार चुके तब बढ़कर। कनक भरे घट कोटि दाँव-पर रखे, हारे सत्वर ॥ 18 ॥ भेंड़-बकरियों, गायों, भैंसों को सब हारे । बचा राज्य केवल उसकी भी बाजी क्यों न विचारें ॥19॥ क्या अधर्म था कुमति शकुनि बोला, अब राज्य लगाओ। जो पदार्थ हो राज्य, जुए में उसकी भेंट चढ़ाओ॥20॥

बाजी में देश को लगाना

राजाओं के लिए हाय करणीय नहीं है जैसा । दुख होता है सोच कि, धर्मज ने कर डाला वैसा ॥ 1 ॥ बाजी लगी राज्य की तब पृथ्वी क्यों फट न गई, टूटा क्यों न गगन, धर्मज की निंदा क्यों न भई ॥2॥ "उफ ! यह अच्छा नहीं कौरवो" बोले विदुर विचार । जो कुछ है हो रहा तुम्हारे लिए कहा धिक्कार ॥ 3 ॥ शायद पांडवगण, इस विपदा को भी सह पाएँगे। जो निश्चित है इस घटना से कृष्ण क्रुद्ध हो जाएँगे ॥ 4 ॥ भड़क उठेगा द्रुपद और फिर कृष्ण द्रुपद सँग मिलकर । नाश करेंगे कुरुकुल का जब कलह बढ़ेगा सत्वर ॥ 5 ॥ इसमें कुछ संदेह नहीं है, मैं पुकार कहता हूँ। यहाँ हुए समवेत सभी को सावधान करता हूँ॥6॥ क्यों मरने पर तुले, मरेंगे रण में हम सब नीच । विधि का भेजा दुर्योधन है, आया अपने बीच ॥7 ॥ जब था पैदा हुआ तभी गीदड़-सा रुदन किया था। “कलह बढ़ेगा विपुल" ज्योतिषी ने निष्कर्ष दिया था ॥ 8 ॥ जैसे लोभी भील शहद के छत्ते को तकता है। नहीं सोचता आगे गहरा खड्डा हो सकता है॥9 ॥ वैसे ही निज सुत को, द्यूत कर्म में विजयी देख । चुप बैठे हो, मन में बार-बार प्रसन्न विशेष ॥10॥ ................. धर्म छोड़ करके अधर्म जग में जीवित रह जाना । बहुत कठिन है, कठिन पाप करके शुभ जीवन पाना॥22॥ पुण्य पांडवों पर ज्यों-ज्यों, तव अत्याचार बढ़ेगा। त्यों-त्यों जीवन दूभर होगा, सिर पर पाप चढ़ेगा ॥23 ॥ सर्वनाश ही कमा सकेगा इस जग में अन्यायी । यह अन्याय न रुका अगर तो मिटना निश्चय भाई ॥24 ॥ सारी दुनियाँ थूकेगी तेरे कर्मों पर देखो। अपयश मात्र मिलेगा द्यूत कर्म को रोको-रोको ॥ 25॥ Page 139 is not part of this book preview.

पाँचों पांडवों का गुलाम होना

कुरुवंशी जल उठा, विदुर के सुनकर वे उद्गार । नीच, सुजन के नीति वचन पर करते कहाँ विचार ॥1॥ करके आँखें लाल क्रुद्ध हो, नीच लगा चिल्लाने । तत्क्षण लगा विदुर को गालीमय कटुवचन सुनाने ॥ 2 ॥ "वफादार तू नहीं विदुर, निर्लज्ज बोलता कैसे, नमकहराम मतलबी मेरी अनभल चाहे जैसे ॥3॥ मंदबुद्धि हैं पिता, सभासद अपना तुझे बनाया। कपटी ढोंगी पापी मुझसे, तर्क बढ़ाने आया ॥ 4 ॥ जिस थाली में खाया उसी में छेद कर रहा है तू । मेरे घर में रह उनकी तारीफ कर रहा है तू ॥ 5 ॥ मेरे राजमहल में रहकर दुष्ट पेट भरता है। और हृदय से प्रेम पांडु के पुत्रों से करता है ॥6॥ देख, नृपतियों के समक्ष ही द्यूत खेलते हैं हम । इसमें कहाँ अधर्म जो हमको धर्म सिखाते हो तुम ॥7॥ चोरी और डकैती से क्या हड़पे धन हमने हैं। झूठे हैं क्या, क्या झूठों के कुल में ही जन्मे हैं ॥8 ॥ मान अधर्मी हमें ज्ञान की शिक्षा यदि तू देगा । धर्माचरण करेंगे तो फिर सुजनों का क्या होगा ॥9 ॥ जैसे कोई प्रेमरहित पत्नी घर में आती है। और देखकर समय, कपटपूर्वक खुद भग जाती है ॥10॥ वैसे ही कपटी हो तुम भी और न देर लगाओ। राजसभा के योग्य नहीं तुम भागो, जाओ - जाओ ॥11॥ तुम्हें जहाँ अच्छा लगता हो अभी चले जाओ तुम । क्यों अधर्म हम सबका सहकर, विदुर कष्ट पाओ तुम ॥12 ॥ जाओ जाओ, अभी चले जाओ आँखों से दूर । दुर्योधन ने कहा सभा में चिल्लाकर भरपूर ॥13 ॥ अन्य अनेकों कटु वचनों से किया घोर अपमान। तदपि विवेकी विदुर सभा में बैठे रहे समान ॥14॥ उठ सबको संबोधित करके, अविचल चट्टान समान । शाँत भाव से बोले धर्म- न्याय युत वचन प्रमाण ॥15॥ कुछ तो क्रोध भी हुआ, मीठी मंजुल वाणी तजकर । तरजे- गरजे किंतु अंत में बोले स्वयं सँभल कर ॥16॥

विदुर की वाणी

इसमें कोई फर्क नहीं, मैं यहाँ रहूँ या जाऊँ । विधिप्रेरित चाहा कि नष्ट होने से तुम्हें बचाऊँ ॥ 1 ॥ सहन करें क्यों कान तुम्हारे कड़वे सत्य वचन को, नहीं सँभाल सकोगे तुम अपने विषव्याप्त हृदय को॥2 ॥ ऐसे लोगों का ही जग में सहज नाश होता है। रोक रहा था तुझे कि सबका सर्वनाश होता है ॥3॥ तेरे सम्मुख चिकनी-चुपड़ी बातें जो बोलेंगे। चापलूस वे तुझे नाश के पथ पर ही मोड़ेंगे॥4 ॥ पर इसके विपरीत व्यक्ति जो सत्य बात बोलेगा। कड़वा होगा, पर सुमार्ग पर ही लाकर छोड़ेगा ॥5॥ तुम्हें किसी ने अब तक इतना भी है नहीं सिखाया बढ़ा पेड़ की तरह, किंतु इतना भी समझ न पाया॥6 ॥ मत रखना निज राजसभा में पंडित व्यक्ति महान । ज्ञानवान या अन्य यहाँ क्यों पाएँगे सम्मान ॥ 7 ॥ चापलूस निर्लज्ज निकम्मे पापी धोखेबाज । चोर आदि को ही अपना राजाश्रय देना 'राज्य' ॥ 8 ॥ घुँघरू पहन नाचनेवाली गणिकाएँ हैं सच्ची । या फिर रमण योग्य सुंदर तन सुघर नारियाँ अच्छी ॥9॥ दुष्ट बुद्धि से मंद अंध विकलांग प्रपंची नीच । ओछे ही रखने लायक हैं राजसभा के बीच ॥10॥ ये सब ही तेरे लायक हैं, मंत्री इन्हें बनाओ। मैं जाऊँ या रहूँ फर्क क्या, मुझको क्यों अपनाओ ॥11॥ मात्र तुम्हारे लिए ही नहीं मैंने बात कही यह । समुपस्थित जो यहाँ सभासद, सबके लिए सही यह ॥12॥ भरी सभा ब्राह्मणों क्षत्रियों से भी मैं कहता हूँ। मंदबुद्धि निज भाई को भी संबोधित करता हूँ ॥13॥ जो हो जाय समाप्त अभी, यह ऐसा नहीं कुकर्म । आनेवाली विपदा को बतलाना था निज धर्म ॥ ॥14॥ अरे भीम क्यों चुप है जा जब ये सारी बातें जानें, मेरे सँग-सँग भीष्म, द्रोण सब होनहार को मानें॥15॥ चाहा तुम्हें बचा लूँ, लेकिन मैं खुद हार गया। और कहूँ क्या होनहार ही तुमको मार गया ॥16 ॥ सतत गर्त की ओर नाश के तुम बढ़ते जाओगे। पहले ही कह दिया कि तुम शुभ अंत नहीं पाओगे ॥17 ॥ कहने का कुछ लाभ नहीं जो चाहो कर लो और । सिर धुनकर चुप हुए विदुर, कलि हँसा लगाकर जोर ॥ 18 ॥ हुए प्रसन्न दैवी सब मन में निश्चित जान । महायुद्ध भड़केगा कुरु-कुल का होगा अवसान ॥19॥ द्यूत हुआ प्रारंभ पुनः फिर लगे फेंकने पासा । दुष्ट शकुनि बोला, "धर्म ! जीतोगे व्यर्थ निराशा ॥20॥ जो कुछ हार चुके हो, सबकुछ अभी जीत लौटा लो। आओ आओ फिर खेलें हम, आओ पासा डालो " ॥ 21 ॥

जूआ फिर प्रारंभ

मंदिर की प्रतिमा को स्वयं पुजारी बेचे जैसे । या घर को बेचे घर का रखवाला ही खुद जैसे ॥ 1 ॥ जो नीतिज्ञ अनंत उसी युधिष्ठिर ने क्या कर डाला, बाजी लगा देश की नीचों-सा कुकर्म कर डाला॥2 ॥ नृपगण ने अपनी जनता को है बस पशुवत जाना। धर्म- न्याय विपरीत सदा व्यवहार करें मनमाना ॥3॥ अनगिन शास्त्र रचे हैं जग ने राजनीति के, पर सब । हैं त्रुटिपूर्ण, प्रजा पालन में अक्षम लगते हैं अब ॥4 ॥ उचित कर्म सच्चे विधान से धर्म- न्याय से जग में। होता कहाँ प्रजा का पालन- व्यर्थ बकूँ क्यों अब मैं ॥5॥ करुण कथा आगे की सुन लो लगा दाँव पर देश । हारे धर्मज और शकुनि ही जीता मुदित विशेष ॥6 ॥

शकुनि की सलाह

धन-दौलत सब हार चुके धर्मज, हारे तुम राज्य विराट । हारे देश प्रजा भी अब तुम, नहीं चक्रवर्ती सम्राट ॥ 1 ॥ फिर भी राय मान लो, खेलो अब की बाजी तेरे हाथ । जो कुछ हारे सब लौटा लो-अब है भाग्य तुम्हारे साथ ॥2॥ सबकुछ हार चुके हो अब यदि बाजी नहीं लगाओगे । तो जीवनयापन निमित्त क्या भिक्षाटन अपनाओगे ॥3॥ दुख पाओ तुम नहीं चाहते हैं हम ऐसा भी तो । इसलिए अनुजों की बाजी बोलो, सबकुछ जीतो ॥ 4 ॥ लगा दाँव पर निज अनुजों को किंचित दुखित न होना । विहँसा कर्म, किंतु सब सभासदों को आया रोना ॥ 5 ॥

दुर्योधन का कथन

"धर्मराज, निज राज दाँव पर रखता हूँ मैं आओ । तुम भी सब अपने चारों अनुजों का दाँव लगाओ ॥ 1 ॥ जो हारे सब लौटा लो, अनुजों का दाँव लगाकर । तुम दिवालिए हुए नहीं तो हम समझते क्योंकर ॥2॥ करो शीघ्रता अनुजों को बाजी में रखकर खेलो। हार चुके जो राज्य उसे, तुम फिर से वापस ले लो ॥3 ॥ क्या समझेगी तुम्हें द्रौपदी, यदि भिक्षा माँगेगा । नीलकंठ भी क्यों तुमसे बातें करना चाहेगा ॥4॥ इसलिए मेरी सम्मति है, फिर से दाँव लगाओ। अनुजों को बोलो बाजी में खेलो जल्दी आओ ॥ 5 ॥ ................... हम पाँचों हैं एक, व्यर्थ क्यों फूट डालते हो तुम । भीमार्जुन सहदेव-नकुल में, भेद मानते हो तुम ॥ 5 ॥

अर्जुन को दाँव पर लगाकर हारना

वीरों में वरवीर धीर पटु शूर सुभग तन वाला। सबमें श्रेष्ठ वरिष्ठ हृष्ट और पुष्ट, तुष्ट मन वाला॥ 1 ॥ मेरी आँखों का प्रकाश जो देव तुल्य पुरुषार्थी । उस अर्जुन का दाँव लगाता हूँ, खेलो खेलार्थी ॥2॥ लेकर पासा हाथ, शकुनि ने निर्भय उसे चलाया, उसी स्थान पर गिरा शकुनि ने प्रथम जहाँ बतलाया ॥ 3 ॥ जग में व्यक्ति अनेक बना दें, जो सीसे को सोना । जीता शकुनि पड़ा धर्मज को अनुज पार्थ सम खोना ॥4॥ बोला शकुनि कि आठ दिशाओं को है जिसने जीता। उसी धनंजय को हमने अब यहाँ जुएँ में जीता ॥ 5 ॥

भीम को हारना

अट्टहास कर कहा शकुनि ने - बोलो बाजी आगे । भूले खुद को दुखी क्रुद्ध अपमानित धर्म अभागे ॥1॥ किंकर्तव्यविमूढ़ संतुलन निज का वे खो बैठे। घबराहट में अनुज भीम की बाजी भी दे बैठे॥2॥ जो हम सबमें पटु-पराक्रमी और धुरंधर धीर । देवों का कर सके सामना रण में, ऐसा वीर ॥3॥ जो समान है दस सहस्र वारण का बल है जिसमें । पांडु राज्य की ज्योति भीम को रखता हूँ बाजी में ॥4 ॥ यह बाजी भी अधम शकुनि ही जीता, धर्मज हारे । इस प्रकार खो बैठे वे भीमादि अनुज निज सारे ॥5॥ रण में हत गज को कोंचें गीदड़ नीचे, नीचे ज्यों । नाच रहे थे कौरव सारे नीच खुशी में तब त्यों ॥6 ॥ हार चुके हैं बली भीम को भी धर्मज जब देखा । लगे उछलने नीच सभी करके सबकुछ अनदेखा॥7॥

धर्मपुत्र का अपने आपको हारना

"और लगाओ दाँव युधिष्ठिर" - बोला शकुनि विहँस कर । खुद 'की बाजी बोल युधिष्ठिर हारे, लगा न क्षण भर ॥1॥ जीत पांडवों को बाजी में कौरव लगे उछलने । दुर्योधन विष तुल्य कटु वचन उठ कर लगा उछलने ॥2॥ मिट्टी में मिल गए पांडु-सुत-उनका राज्य हमारा है अब । हम राजा हैं और हमारा ही उनका धन सारा है अब ॥3॥ करवा दो बस अभी मुनादी शीघ्र नगर में सारे । नाच रहा था सत्वर कौरव अधम खुशी के मारे ॥4॥

शकुनी का कथन

छिड़क रहे हो घाव पर नमक क्या विध है अपनाई उचित नहीं यह पांडु पुत्र हैं, आखिर तेरे भाई ॥ 1 ॥ चाहे जो हो जाय रहेंगे ये सब सगे तुम्हारे । और तुम्हारे पूज्य पिता के हैं ये सब अति प्यारे ॥2॥ अभी नहीं कुछ बिगड़ा, धर्मराज, तुम बाजी बोलो। सारा खोया हुआ राज्य- लौटा लो आगे खेलो॥3॥ ................

चतुर्थ भाग : चौथा सर्ग (द्रौपदी की बाजी लगाकर हारना और उसका अपमानित होना)

द्रुपद की दुहिता, महत पांचाल - कुल-कन्या, सती, साध्वी, परम सुंदर और अमृत-सा मधुर था रूप, कमल-से मोहक नयन वाली, सुवाग्विलासिनी वृहद सागर-सी कृपामय परम सुंदर ज्योतिमंडित विचरती थी जो- श्रेष्ठ द्युतिमंडित महिषि थी, पद्मिनी थी जो- जो बनी थी प्राण का आधार पाँचों पांडवों के, विमल विद्युतप्रभा से मंडित सुशोभित देह जिसकी, विश्व का कल्याण करने में सुसक्षम नाम, रूप जिसका कल्पना के परे लगता था- पामरों से भरी कुरु की उस सभा में- द्यूत-क्रीड़ा में लगी थी दाँव पर। विमल ज्योतिर्लता जैसी लसित तन की कांति चपल विद्युतप्रभा फीकी थी सुछवि के सामने, मानिनी, सौभाग्य मंडित थी, सकल मनमोहिनी थी जो- चक्रवर्तिनि के सुलक्षण से सुशोभित कंबु ग्रीवा, मधुर कोमलभाषिणी थी जो- वही द्रुपदा अति अमंगल द्यूतक्रीड़ा में, युधिष्ठिर द्वारा लगी थी दाँव पर । यज्ञ की समिधा पवित्रित पूर्ण मंत्रों से, स्वान के सम्मुख सहज ही फेंक दे कोई, या कि कोई स्वर्ण-रत्नाभूषणों को, किसी उल्लू-बंदर के गले में डाल आए ज्यों, ठीक वैसे ही युधिष्ठिर ने सहज ही- द्रुपद-तनया को लगाया दाँव पर । पूछनेवाला न था कोई वहाँ पर आखिर क्यों किया ऐसा जूआ में पांडु-सुत ने? द्रौपदी को द्यूत में बाजी लगाना, ज्यों किसी ने- गला घोंटा हो स्वयं ही स्वयं की संतान का- अकारण ही मात्र अति अपदार्थ पग की पादुक के हेतु । शकुनि ने 'दो' कहा, फेंका अक्ष निपट बनावटी, अंक दो ही आ गिरा सम्मुख सभी के, हार बैठे, द्रौपदी को भी जूए में धर्मराज ॥

कौरवों की प्रसन्नता

द्यूतमंडप से उछलकर आ गए नीचे- अधम कौरवगण खुशी से नाचते, जबकि देखा युधिष्ठिर को हारते, दाँव जूए में प्रिया निज द्रौपदी का । लगे चिल्लाने परस्पर गले मिल-मिल "शकुनि की जय" घोष सत्वर बढ़ चला, पुष्पहारों से शकुनि था लद गया, “गले मेरे तुरंत लग जाओ सुयोधन” सभी बन उन्मत्त चिल्लाने लगे। "अश्व, करि, संपत्ति जीती, राज्य जीता- यह नहीं थी महत्तम उपलब्धि कोई, द्रौपदी को भी गिराया पक्ष में अपने- यह हमारी महत्तम उपलब्धि है।” कह उठे कौरव कि- "यह माना नहीं साक्षात ईश्वर हैं हमारे लिए।" प्रशंसा के पात्र परवश बन गए दोनों- शकुनि-दुर्योधन परम कपटी -छली ।

दुर्योधन की प्रसन्नता

गले लगकर शकुनि के बोला सुयोधन, "पूज्य मातुल ! धो दिए प्रतिशोध भी अपमान का मेरे, ले लिया प्रतिशोध भी अपमान का मेरे, पांडुसुत के राज्य के अभिषेक के दिन- द्रौपदी ने उड़ाई थी हँसी मेरी, यही अब है विवश बनने के लिए दासी हमारी । भूल सकता मैं नहीं उपकार तेरा यह कभी भी । ” भाँति-भाँति की बातें करते, उछल-कूद करते थे कुरुगण, पीट-पीटकर ताली । लगकर गले परस्पर, नाच-नाच उठते थे। उनकी प्रसन्नता का कोई अंत नहीं था। कुरुओं के मन में जो खुशी उमड़ती थी उस काल- उसका वर्णन सक्य नहीं है, पाता हूँ असमर्थ लेखनी को ऐसे वर्णन में ॥ ..........................

दुर्योधन, विदुर से

मूर्ख दुर्योधन विदुर से कह उठा- जबकि देखा विदुर को अति दुखित मन- " व्यर्थ की चिंता करो मत तात तुम, शीघ्र जाओ और कह दो यह सकल वृत्तांत द्रुपदा से, सुपुत्री थी जो महाराज द्रुपद की- या कि जो थी आज तक- सहज परिणीता अकेली, पांडु के इन पाँच पुत्रों की, आज बनकर रह गई है सेविका मेरी । आज से वह वार- वनिता के सदृश है। स्पष्ट समझाना उसे है तात ! यहाँ जो कुछ हुआ है इस द्यूतक्रीड़ा में घटित, और कहना - नहीं है वह ब्याहता अब पांडु पुत्रों की, नहीं है अब द्रुपद-तनया द्रौपदी । द्यूत में जीती हुई बस सेविका है वह, सुयोधन मैं सहज स्वामी आज से उसका। इसलिए सेवार्थ अपने इसी देवर की— चल पड़ो हे द्रौपदी तत्काल ।”

विदुर की धर्मगर्जना

सुने अनुचित वचन जब लंपट सुयोधन के, हो उठे तब परम उत्तेजित विदुर । गरजकर कह उठे वे अति परुष शब्दों में- “मंदमति रे! रोक ले अपनी कुवाणी कर रहा है क्या जरा खुद सोच तो रे मूर्ख ? विमल गुणमंडित सती का, विवश अबला का- कर रहा अपमान सबके सामने; निमंत्रण ज्यों दे रहा तू स्वयं सत्यानाश को । “सिंह को ललकारता ज्यों अबुध मृगशावक, मंदमति दादुर चले ज्यों सामना करने किसी गजराज का, ठीक वैसे ही बहादुर पंच पांडव को- व्यर्थ ही क्यों आज यों ललकारता है तू ! यों न मारो फूँक, उत्तेजित करो मत- पांडवों की अति विकट क्रोधाग्नि को । मैं नहीं उपदेश कोई दे रहा तुमको, यह तुम्हारे ही हितार्थ सलाह है, ताकि आगे बच सको तुम एक वृहद अनर्थ से। " मूर्ख रे ! यदि हुए उत्तेजित किसी विधि, वीर पांडव- लगेंगे लेने तुरंत प्रतिशोध । तुम्हें भूलुंठित करेंगे समर में तत्काल, बच न पाएगा, मरेगा मौत कुत्ते की । क्यों निमंत्रित कर रहा है- स्वयं अपने नाश को? समझ में आती नहीं यदि आज नेक सलाह मेरी, तो अधर्माश्रित किए सब कर्म तेरे- विवश कर देंगे तुम्हें भी सहज मरने के लिए- था विवश ज्यों हुआ पापी राजा बेन (बेणन्) था। "व्यंग्य वचनों से अगर तूने किया अपमान, हृदय में चुभ जाएँगे वे बाण बनकर । जानता हूँ सहन कर लेंगे अभी कुटु वचन तेरे, ज्यों सहन करता सहज मन साधु, कटुवचन दुष्टात्मा के; किंतु कर पाता नहीं विस्मृत हृदय से । इसलिए समझा रहा हूँ वत्स ! है नहीं अच्छा अशोभन वचन कहना, नरक के भागी बनोगे व्यर्थ ही । पाप करते हो सुयोधन ! निहित स्वार्थ के लिए, विषम विपदा में स्वयं घिर जाओगे। "इस सभा में आज समुपस्थित सभी क्षत्रिय सुनें- विजय विपदा आ खड़ी होगी तुम्हारे द्वार पर, किसी विधि करके सभी समवेत यत्न रोक लो इस अधम हठी को, क्षमा मांगो पांडवों से, करो उनको दंडवत । पापियो ? दो तुरंत ही लौटा सकल संपत्ति उनकी, लौट जाने दो उन्हें, उनके नगर । "कर रहा हूँ तुम्हें अब मैं सावधान, द्यूतक्रीड़ा में कपट से प्राप्त की संपत्ति- पांडवों की, दो उन्हें लौटा अभी तत्काल, और कर लो सब क्षमा की याचना उनसे, अन्यथा सब देखते रह जाओगे- जब महाभारत छिड़ेगा धरणि पर। " चीख उठा अधम दुर्योधन अचानक- "विदुर ! अब चुप रहो, छिः छिः बको मत, कौरवों को कोसना है, सदा से आदत तुम्हारी, कौन पर सुनता तुम्हारी नीति- वाणी? ॥ " है ? यहाँ कोई । अरे ? आ सूत तू आ, शीघ्र जा तू द्रौपदी के कक्ष में- और उसको बुला लाओ साथ ही ।" सूत पहुँचा द्रौपदी के महल में, अति दुखित मन निवेदन करने लगा- "बात मेरी ध्यान देकर सुनें देवी ! द्यूतक्रीड़ा में सभी में- हो गया है एक परम अनर्थ । । "बिन विचारे ही युधिष्ठिर, शकुनि के संग- द्यूतक्रीड़ा में लगे बाजी लगाने। प्रथम हारे राज्य, फिर संपत्ति सारी, फिर लगाया भाइयों को दाँव पर, उन्हें हारे तब लगा हारे स्वयं को भी जूए में । जब न कुछ था शेष- तब विचलित युधिष्ठिर ने- किया घोर अपराध, माता ! क्या कहूँ, तुम्हें बाजी में लगाया और बैठे हार, हा! हा! हार" ॥ संकुचित आते हो उठा था सूत, इतनी सूचना दे, हो गई असमर्थ वाणी- यह बताने में कि आगे क्या हुआ ? पर किसी विधि जुटाकर साहस- पुनः उसने द्रौपदी से यों कहा- "राजमाता ! अब पधारें सभा में तत्काल, सुयोधन ने आप तक संदेश भेजा है यही, उस आदेश से मैं यहाँ समुपस्थित हुआ हूँ।" द्रौपदी कहने लगी हो व्यग्र- “तुम यहाँ ले आए हो संदेश कैसा ? नारियाँ तो जा नहीं सकती कभी- नारियाँ तो जा नहीं सकती कभी- बुद्धिहीन जुआरियों की सभा में ॥ " सूत तुम जाओ वहीं तत्काल, और पूछो सभी से यह बात- 'धर्म' ने हारा किसे पहले जूए में- स्वयं को या कि स्वपत्नी को ? ज्ञात कर लो तुम सभा से पूछकर - अस्मिता अपनी गँवाई धर्म ने पहले कि मेरे बाद ? और फिर सूचित करो मुझको - वहाँ से लौटकर " ॥ सूत को ज्यों-त्यों विदा कर द्रौपदी, शोकविह्वल हो अकेले में- लगी थी आँसू बहाने अनवरत । लगा जलने कांत तन उसका अचानक - वेदना की आग में, निज हृदय की । मुखकमल कुम्हला गया भय से अमंगल के- म्लान होता यथा, तपती धूप में विकसित गुलाब ॥ सभा में जाकर कहा था सूत ने- "शांत मन हो सुनें राजा लोग सारे, दंडवत कर महादेवी के पगों में- दे दिया संदेश अति शालीनता से- कह दिया वे हों उपस्थित सभा में तत्काल । पूछने भेजा उन्होंने सभा से कि- 'धर्म' ने हारा किसे पहले- स्वयं को या कि स्वपत्नी को " ॥ ........................

द्रौपदी का कथन

सूत से सुन वहाँ का वृत्तांत द्रौपदी बोली बनी प्रकृतस्थ किसी कीमत पर न जाऊँगी वहाँ, इसलिए हे बंधु, मुझको बुलाना है व्यर्थ । हार अपने को जूए में किस तरह लगा सकते ‘धर्म' मुझको दाँव पर ? कौन दारा? कौन सुत उसका ? कि जो खुद खो चुका है अस्मिता अपनी। प्रतिष्ठित हैं जो हमारे धर्मशास्त्र, नहीं देते वे युधिष्ठिर को सहज अधिकार- मुझको लगाने का दाँव पर ॥ "द्यूतक्रीड़ा में बिके हैं पांडुसुत, हार बैठे पांडु की संपत्ति सारी, किंतु मैं तो द्रुपद-पुत्री हूँ, मुझे रखकर दाँव पर, खेलें जूआ, बंधु ! वे हैं नहीं, ऐसी अधम बाजी के लिए स्वतंत्र । कौरवों की सभा में सज्जन नहीं कोई बचा क्या ? नीति भी क्या मर गई है- वीरता के मरण के पहले वहाँ ? ॥ " श्रेष्ठजन या विप्र या फिर सिद्ध मुनिजन- नहीं शोभा बढ़ाते क्या, सभा की कौरवों की ? हारते देखा सभी ने पांडवों का राज-पाट, रह गई है प्यास अब क्या शेष- देखने की, विवश अबला का सभा में मानभंग ? दुख-सुख हैं ईश अनुमोदित नियति के खेल, भोगने को इन्हें जग में हैं विवश सब जीव, दुख जो आए सहज स्वीकार कर लूँगी उसे मैं, किंतु क्षत्रिय छोड़कर निज क्षात्र-धर्म- जुआ खेलें, दैव ! यह कैसी नियति ॥ "सभी क्षत्रिय जुआ खेलें, छोड़कर निज धर्म, और ब्राह्मण मुदित मन देखा करें- द्यूत-क्रीड़ा में किसी को हारते या जीतते, हे विधाता ! हुआ प्रगटित कहाँ का दुर्दिन धरा पर ? सूत जाएँ सभा में फिर शीघ्र आप करें उत्तर प्राप्त मेरे सहज प्रश्नों का। द्रौपदी की बात सुनकर चल पड़ा- सूत होकर खिन्न मन में सोचता- 'यदि न मिलता है' सभा में उचित उत्तर, द्रौपदी के सहज प्रश्नों का, मैं न आऊँगा पुनः अब लौटकर इस महल में ॥ सूत ने जाकर सभा में कह सुनाया वह सकल वृत्तांत। सहज मन से रख दिए सम्मुख सभी के- प्रश्न वे, जो सहज उपजे थे हृदय में द्रौपदी के । पांडवों ने भी सुना पर चुप रहे, ज्यों हुए सब किंकर्तव्यविमूढ़ थे, अन्य सब भी मौन ही थे, जुटा पाए थे न साहस रोकने का 'सूत' को, किंतु चुप्पी पांडवों की कर गई अति मुखर दुर्योधन हठी को ॥ लगा चिल्लाने अचानक और धमकाने लगा था 'सूत' को- "मार डालूँगा तुझे मैं, रौंद डालूँगा तुझे मैं पैर से, यदि नहीं जाते वहाँ तत्काल- और लाते द्रौपदी को शीघ्र ही । यदि नहीं लाए उसे तुम सात पल में- खैरियत समझो न अपने प्राण की।" निडर था, तब सूत ने भी की नहीं परवाह चीख-चिल्लाहट भरी उस गर्जना की। वहाँ समुपस्थित सभी को सुनाकर लगा कहने बात, सच्ची बात ॥ "कुरु कुँवर हैं डाँटते मुझको अकारण, दोष मेरा कुछ नहीं है यहाँ सकल प्रसंग में। अगर मैं जाऊँ वहाँ सौ बार भी नहीं होगा इस तरह कुछ लाभ, प्रश्न पूछेंगी द्रुपद - तनया वही हर बार । नहीं कोई दे रहा है उचित उत्तर- जिसे सुनकर सांत्वना कुछ पा सकें देवी । एकवस्त्रा और सद्यः रजस्वला हैं वे, इस दशा में हैं नहीं आती यहाँ, तो क्षत्रियाँ ! है कहाँ मेरा तनिक अपराध ? जानकर भी यह कि, द्रुपदा एकवस्त्रा है, नहीं पिघला हृदय दुर्योधन अधम का। लगा फिर से बड़बड़ाने- "द्रौपदी है कर रही अवमानना मेरी, 'सूत' जाता है मगर आती नहीं, 'सूत' तो है अत्यधिक भयभीत- पांडवों, अतिबली उस 'भीम' से। बाद में मिटा दूँगा, वृथा भय उसका कभी। अभी आगे बढ़ो प्यारे बंधु दुःशासन- बुला लाओ द्रौपदी को एक क्षण में। "

पाँचवा भाग शपथ सर्ग (द्रौपदी को सभा में घसीट लाना)

सुना जब आह्वान दुर्योधन अधम का- हो उठा तत्काल ही सन्नद्ध दुःशासन अधम । क्या करूँ वर्णन यहाँ उसकी प्रकृति का ? अधमतर था, अधम दुर्योधन हठी से, दूर का भी था नहीं नाता विनय से, क्योंकि था वह निपट अपढ़ गँवार । बिना विद्या के विनय पाता कहाँ से? अनवरत सेवन पिशाची मांस-मदिरा का- और पापाचार करना हर तरह के- बन गया था यही सहज स्वभाव उसका ॥1॥ बंधु-बांधव मानते थे उसे पैशाचिक प्रकृति का जीव । यथासंभव दूर रहते थे, सभी उससे । अति अहंकारी घमंडी, जानता ही नहीं था वह नाम करुणा का दया का । था महाबलवान- लेकिन उसी के अनुपात में महाकटु-भाषी प्रकृति भी मिली थी उसको। दृष्टि में उसकी- जगत में श्रेष्ठ था तो मात्र दुर्योधन, और उसके बाद खुद को मानता था- स्वयंभू, स्वतंत्र स्वामी जगत का ॥2॥ वही दुःशासन अधम, कर तुरत अंगीकार आज्ञा, दुष्ट दुर्योधन हठी की— चल पड़ा तत्काल उस रनिवास को, थी जहाँ बैठी अकेली द्रौपदी- अश्रु ढुलकाती सहज दुर्भाग्य पर अपने । जानती थी, अधम देवर दुराचारी है, शीघ्रता में सोच भी पाई न किंकर्तव्य, और भय से काँपते पग चल पड़े- सोचकर कि - बहुत अच्छा अधम से दूर हट जाना, किंतु हा दुर्दैव । दुष्ट दुःशासन त्वरित गति से बढ़ा उस ओर, और बोला अति अशोभन शब्द- "कहाँ जाती री? द्रुपद - तनया कुलक्षिणि ? ॥3॥ द्रौपदी ने कर लिया तत्काल ही निश्चय, कि, क्या कर्तव्य है उसका। प्रकृति से है नीच अविवेकी प्रबल जो, भाग जाना दूर उससे सहज ही संभव नहीं है। सामना करना जुटाकर धर्म ही बस रास्ता है। मुड़ पड़ी तत्काल बोली सहज बढ़कर- “मैं सहज अर्धांगिनि हूँ- देवता के तुल्य पांडव बंधुओं की, मैं सुकन्या हूँ, महाराजा द्रुपद की, आज तक कोई नहीं झुठला सका- सत्य यह स्पष्ट मेरे सामने । अतिक्रमण कर नियम- रखकर ताक पर सहज मर्यादा उसे तुम महल में, और बोले जा रहे हो- अनवरत अपशब्द, बोल- कुबोल । क्यों पधारे महल में, मुझको बताकर - बस, तुम्हारा लौट जाना ही उचित है" ॥4॥ सहन कर पाया न पापी बात सच्ची, क्रुद्ध होकर चीखने- कहने लगा- "तुम न परणीता किसी भी पांडु-सुत की, द्रुपद - तनया भी नहीं हो, इस नये परिदृश्य में - मात्र दासी हो महाराजा सुयोधन की- मात्र दासी जूए में जीती हुई, क्योंकि बाजी में लगाकर दाँव पर तुमको- हार बैठा है शकुनि से धर्मराज ॥5॥ चलो सत्वर, तुम्हें दुर्योधन बुलाता है सभा में, क्योंकि तुम बस अनुचरी हो- जुए में जीती हुई उसकी । तर्क जो तुमने किए थे सूत के संग- वे न सुनना चाहता हूँ मैं, वे नहीं चल पाएँगे वैसे हमारे सामने । जब बुलाता तुम्हें दुर्योधन वहीं तो- तुम्हें जाना ही पड़ेगा सभा में "॥6॥ “ऋतुवती हूँ, एकवस्त्रा हूँ अभी मैं, हूँ नहीं इस योग्य, उठकर जा सकूँ- कक्ष में बाहर सुपुरुषों की सभा में । जा कहो यह भेद समुपस्थित सभा में, और सुन लो एक विनती भी हमारी- जीतकर परवश जूए में- भंग करना मान निज की भावजों का- कभी भी शोभा नहीं देगा, श्रेष्ठ कुरु-कुल में पले तुम आर्यों को " ॥7॥ अविवेकी था, अधम था, कहाँ था अवकाश- सुनने का महत उपदेश उसको । कर उठा विक्षिप्त सा वह अट्टहास और बढ़ आगे त्वरित गति से - लिए कर में पकड़ द्रुपद सुकुन्या के केश, केश, लंबे केश, काले केश । "हाय रे भगवान” निकले सहज ही ये शब्द मुख से द्रौपदी के, छटपटाने लगी अबला विवश हो- और पापी वह, पकड़कर केश लगा घसीटने । ले चला रनिवास से बाहर सभा की ओर॥8॥ मार्ग में थी सज्जनों की भीड़, लेकिन सब विवश थे। देखते ही रहे अत्याचार जो- हो रहा था द्रौपदी के साथ। जुटा पाया था न साहस एक भी उनमें- कि, आगे बढ़े, देने साथ पांचाली सती का । मर गई संवेदना की शक्ति सबकी ज्यों, हो गए थे सभी जड़ पत्थर सरीखे, मार दुःशासन सरीखे नीच को- मुक्त करवा सके देवी द्रौपदी को, नहीं था ऐसा पुरुष अब शेष, शायद लोक में ॥9॥ पतिव्रता उस रूपसी के बाल पकड़े- खींचता ले गया दुःशासन सभा के बीच, सभा, जो थी नीतिरहित सभा, विवश, संवेदना से शून्य, जड़ थे हो गए- सारे सभासद। पहुँच कौरव-पांडवों के मध्य लगी विलाप करने द्रुपद की तनया अभागी द्रौपदी और दुःशासन लगा था हाँकने निज डींग, बड़बड़ाने लगा बोल-कुबोल ॥10॥

न्यायार्थ द्रौपदी की पुकार

“वाह रे ? पाँचों सुपुत्रो पांडु के, तनिक मुँह खोलो हुए क्यों मौन ? हो रहा है क्या यहाँ इस काल ? क्या रचाया था इसी दिन के लिए बस ब्याह मुझसे ? क्या रहा अब अर्थ पाणि-ग्रहण क्रिया का- जो कि तुमने किया था सोल्लास अरुंधती नक्षत्र की पावना प्रभा के मध्य ? पापियों के हाथ में पड़- विवश बन बस रुदन करना ही रहा क्या शेष ? " ॥11॥ द्रौपदी के व्यंग वाणों से हुए आहत तनिक तब- हो उठे उद्विग्न अर्जुन भीम । लगे तकने पुष्ट और सुडौल निज भुजंड । किंतु साधे मौन, बाँध हाथ- गुमसुम खड़े ही रह गए। युधिष्ठिर ने सिर झुका - भर लिया, भारी ग्लानि से । द्रौपदी ने फिर उछाले प्रश्न- "क्यों सभी ने मौन धारण कर लिया है- सभा में कुरुराज की ? क्या नहीं होता यहाँ पर कभी तर्क-वितर्क, ज्ञानी पार्षदों के मध्य किंचित न्याय या अन्याय पर ? ॥12॥ “श्रेष्ठ पंडित, वीर क्षत्रिय, सभी बैठे यहाँ साधे मौन । हो गए क्या लुप्त जग से, है नहीं क्या शेष कोई सुजन अब- सभा में कुरु-राज अति न्यायी नृपति की ? पाँच पांडव भी बने बंधक खड़े हैं, क्या करूँ मैं हाय? बतलाए मुझे कोई?" बिलखती ही रही देवी द्रौपदी, और पार्षद उसे रोता देखकर भी- मौन थे, ज्यों किंकर्तव्यविमूढ़ थे ॥13॥ देखकर चुप, विवश पाँचों पांडवों को, हुआ मुखरित पुनः दुःशासन अधम- "मात्र तू दासी, अरी दासी" मचाता शोर- लगा फिर से खींचने नोचने वह केश देवी द्रौपदी के । खिलखिलाकर हँस उठा था कर्ण आत्मश्लाघा में निरत था शकुनि दुष्ट, सभा चुप थी। मौन सबसे पूर्व टूटा भीष्म का उस काल, बोले द्रौपदी से- "शुभे ! अब तुम सुनो मेरी बात, न्याय विचार ॥14॥ "द्यूत-क्रीड़ में लगाकर दाँव पर- हार बैठा है तुम्हें भी धर्मराज । द्युत-क्रीड़ा में निपुण है शकुनि उसने- जीत ली बाजी हराकर धर्म को । सभी कुछ हारा युधिष्ठिर, स्वयं को भी- किंतु फिर भी पति तुम्हारा है। इसलिए पुत्री ! तुम्हारा तर्क और वितर्क करना व्यर्थ है ॥15॥ “पूछती हो तुम कि खुद को हारने के बाद भी क्या- है उसे अधिकार बाजी में लगाने का तुझे ? मैं समझता हूँ कि इस अधिकार से- है नहीं वंचित युधिष्ठिर कभी भी । स्वयं वह बंधक बने तब भी तुम्हें- ..................... यह बताओ- क्या अब शक्ति नहीं है बाकी किसी सुजन में- रोक सके जो साहसपूर्वक इस अधर्म को ? ॥20॥ "मेरी विनती है- सब मिलकर न्याय करो हे ! किसी तरह तो रोको यह अन्याय अशोभन । समुदायिक जो माता-पुत्री वाले सद्गृहस्थजन वे सब देखें आज दुर्दशा मुझ अबला की । " इतना कह करबद्ध द्रौपदी रोती रही निरंतर, विनती करती रही कि उसके साथ- नीति-न्याय से पूर्ण किया जाए व्यवहार सभा में ॥21॥ काले-काले केश खुले विखरे थे द्रुपदसुता के, खड़ी रही करबद्ध बहाती आँसू झर-झर, वाण-बिद्ध हरिणी जैसी छटपटा रही थी, बेबस फँसी दुष्ट दुःशासन के चंगुल में । दुःशासन को तनिक दया भी कब आई थी, लगा खींचने केश पुनः “दासी-दासी” चिल्लाकर। रोक न पाया बली भीम अब और स्वयं को, देख लिया परिणाम आचरण का धर्मज के। भड़क उठी कोपाग्नि, सहज गर्जन कर बोल उठा - ॥22॥ "जुआरियों के घर में भी स्त्रियाँ रहा करती हैं, किसी जुआरी ने पत्नी की बाजी बोली- और लगाकर दाँव उसे जूए में हारा- ऐसा पहले सुना न देखा । अरे! युधिष्ठिर, तुमने ऐसा क्यों कर डाला? करने के पहले ऐसा अपकर्म, जरा तो सोचा होता- क्या करने जा रहे और- परिणामस्वरूप मिलेगा क्या? भला मिला परिणाम द्यूत-क्रीड़ा का तुमको- नारी कुल की तिलक द्रौपदी को खो बैठे॥ 23 ॥ "द्रुपदराज तो है रे भाई ! नृपकुल- भूषण । उनकी कन्या को बाजी में लगा खो दिया! धर्मराज होकर अधर्म कर डाला तुमने, स्वयं कर्म ने सहज कर्म का गला घोंट डाला हो जैसे। उचित न यह आचरण तुम्हारा, तुमने सचमुच आज घोर अपराध किया है॥24॥ "जुआ खेल न जीती हमने प्रिया द्रौपदी, चोरी भी की नहीं, हरण भी नहीं किया है उसका। शौर्य-शक्ति से ही पाया है- इस कृष्णा को प्राण-प्रिया को । बने चक्रवर्ती नृप हम सब राज रहे थे, देवराज-से, खोया तुमने यह राजत्व सभी अनुजों का- पर हम चुप थे॥25॥ “खोई सारी राज्य-संपदा पर हम चुप थे। हमें बनाया दास किसी का, पर हम चुप थे। किंतु न है सहनीय तुम्हारी यह अधमाई, द्रुपदराज की पुत्री, भगिनी दृष्टद्युम्न की, प्राण-प्रिया हम सबकी कृष्णा रूपमयी को- क्यों बाजी में लगा बैठे तुम ऐसे ? उसे बनाया दासी बस 'दो' उच्चारित कर ॥26॥ “असहनीय यह आगे बढ़ सहदेव अनुज तुम, आग कहीं से शीघ्र मँगाओ, हमें जलाना है धर्मज के उन पापी हाथों को- जिनसे इसने दाँव लगाया द्रुपदसुता का— और उसे भी, ............... यह निश्चय है, यह अधर्म का सिर काटेगा। लगता अपराजेय अभी जो उस अधर्म का नाश करेगा " ॥29॥ सुनकर गर्जना पार्थ की, शांत हो गए बली भीम भी, चुप होकर के बैठ गए सब, पर विकर्ण उत्तेजित होकर बोल उठा था- "नहीं मान्य हो सकती है तब बात, भीष्म ने कही अभी जो, जिन्हें मानते हैं कुरु-पांडव और उसे भी, जनपूज्य पितामह, वे कहते हैं कैसे 'पति- कुछ भी कर सकता है पत्नी का'? पत्नी क्या बस छुद्र जंतु है ? उसे बेचने या कुछ भी कर सकने- का अधिकार, मिला कब-कैसे उसके पति को ? ॥30॥ "कहीं सुना क्या कभी किसी ने- लगा दाँव पर निज पत्नी को खोया किसी वीर क्षत्रिय ने ? नहीं मात्र नारी द्रुपदा औरों जैसी, कभी किसी ने देखा है क्या ऐसा अचरज- रानी को रख बाजी में खो दिया नृपति ने ? हम सबके पुरुषों में भी, कब किसने की ऐसी नादानी ? नहीं वेद समझ भी है यह कृत्य, इसलिए आज भीष्म ने यहाँ गलत निर्णय दे डाला॥31॥ “जुआरियों के घर में भी, नारियाँ नहीं लगतीं बाजी में । जो स्वतंत्र खुद नहीं, गँवा बैठा है जो खुद निज स्वतंत्रता- वह पत्नी का दाँव लगाने को स्वतंत्र क्यों? क्या हक है उसको, परतंत्र बनाए अपनी पत्नी को भी- जो खुद ही परतंत्र बन गया है जूए में? .......................... "उत्तरीय धारण करना है रीति नहीं दासों की, अब गुलाम हैं पांडुपुत्र भी- उत्तरीय है अच्छा नहीं लग रहा तन पर कोई आगे बढ़े उतारे, इनके सारे ऊर्ध्व वस्त्र ये पांचाली की साड़ी उसके तन से दूर करे सत्वर ।" सुनकर ऐसी बात कर्ण की— पांडु-सुतों को बोध हो गया दास-धर्म का, सबने स्वतः उतारे अपने उत्तरीय तत्काल॥36॥ डर जाते हैं शत्रु देखकर बरबस जिनको, जिन्हें देखना है अरिकुल के लिए कष्टकर, उन भुजदंडों को नंगा कर दिया पांडु पुत्रों ने तत्क्षण, किंतु द्रौपदी ? - वह क्या करे, न कुछ भी समझ सकी बेचारी, लगी छटपटाने, संकट आसन्न देखकर। सोच न पाई, अब होगा उद्धार किस तरह, डूब गई भावी विपदा के महागर्त में। एक तरफ थे पांडु-सुतों संग अन्य सभासद, पर बेबस थे, और दूसरी तरफ दुष्ट दुर्योधन के हामी थे। देखी दोनों ओर द्रुपदतनया ने विपदा, चीख निकल आई उसके मुँह से बरबस ही । 137॥ ..................... तुम थे प्रकटे, बने महाहरि, नरहरि, हे हरि ! फाड़ दिया वक्षस्थल दुष्ट हिरण्यकश्यपु का, ऐसे वीरशिरोमणि तुमने- रक्षा की प्रह्लाद भक्त की । भक्तनाथ हे ! वैसे ही अब मुक्ति दिलाओ- मुझको कुरुकुल के इन दुष्टों के पंजे से। आज मान मेरा भी रक्षण मांग रहा हरि ॥42॥ तेरा वशीभूत वाचस्पति, तेरी आज्ञा का पालन करता है प्रतिक्षण आज्ञाचक्र प्रवर्तित होता है तेरा ही- तीन लोक में, पद्मनाभ हे ! पद्मनयन हे ! गोपीनाथ गोप बालाओं के घर से मक्खन चुरा-चुराकर खानेवाले हे! प्रभु, मुझे मुक्ति दिलवाओ इन पापी कुरुओं से। मुक्ति दिलाकर अधम कौरवों के बंधन से- मुझ अबला के सहज मान की रक्षा कर लो। शीघ्र पधारो हे हरि ! मेरी लज्जा रख लो, लज्जा रख लो, आन बचा लो, मान बचा लो, मुझे बचा लो हे हरि ! श्रीहरि ! ध्यानमग्न हो गई द्रौपदी, प्रभु चिंतन में, "श्रीहरि ! श्रीहरि ! "श्रीहरि ! श्रीहरि !! हे हरि ! हे हरि !!" सतत निकलते रहे शब्द ये उसके मुख से॥43॥ हे हरि! हे हरि !! टेर लगाई द्रुपदसुता ने, हुआ अचंभा प्रकट, देखते रहे जिसे सब, द्रुपदसुता की साड़ी बढ़ने लगी निरंतर । तीव्र वेग से दुःशासन खींचता रहा, पर और तीव्रतर गति से पट बढ़ता जाता था। दुःख जैसे बढ़ते जाते हैं पामर जन के, ................. लगे वंदना करने बढ़कर विह्वल होकर पाँवों में पड़कर तत्क्षण द्रौपदी सती के ॥46॥ "जय हो महासती की, जय हो द्रुपदसुता की" जयध्वनि लगी गूँजने चारों ओर निरंतर । समुपस्थित सब जन कुरुपति की राजसभा के— बोल उठे समवेत स्वरों में- "जय हो महासती की, जय हो द्रुपदसुता की ।" ज्ञानी ब्राह्मण और वीर क्षत्रिय भी बोले- "जय हो महासती की, जय हो द्रुपदसुता की ।" गूँज उठी जय-जय ध्वनि- विस्तृत गगन भेदकर । पापी दुःशासन थककर गिर पड़ा धरणि पर, दुष्ट सुयोधन का सिर था झुक गया सहज ही, क्योंकि अचंभा एक उपस्थित खुला आज उसके आगे । लगे शपथ लेने पांडवगण, पांचाली भी और सभा कुरुपति की थी स्तब्ध भ्रमित-सी, सुनती रही शपथ की बातें चकितमन बनी॥ 47॥

भीम की प्रतिज्ञा

सिंह समान गर्जना करता बोल उठा था बली भीम यों- शपथ चतुर्मुखधारी ब्रह्मा की सब सुन लें। शपथ पांडुपुत्रों के मित्र महान कृष्ण की, शपथ काम को जला भस्म कर देनेवाले शिवशंकर की, सुन लें यहाँ उपस्थित हैं जो, सभी सभासद, दुर्योधन निर्लज्ज अधम ने- किए उच्चरित थे ऐसे अपशब्द कि 'आओ द्रुपदसुता, आ बैठो गोदी में मेरी' मैं ऐसे निर्लज्ज अधम को, निश्चित ही मारूँगा रण में, नहीं होगा कोई उसे बचानेवाला यह ध्रुव सच है ॥1॥ "है चरित्र उज्ज्वल जिसका साक्षात अग्नि-सा, महासाध्वी है, जो है प्रियतमा हमारी उस द्रुपदा को- गोद में बिठा लेने की इच्छा रखनेवाले को- मैं अवश्य मारूँगा रण में । इन कायर क्षत्रिय लोगों के सम्मुख ही मैं- समरभूमि में द्वंद्वयुद्ध में- जंघा तोड़ मार डालूँगा दुर्योधन को, यह ध्रुव सच है। आज शपथ लेकर कहता हूँ- इस दंभी दुःशासन के दोनों भुजदंड उखाडूंगा मैं और रक्त जो होगा सहज प्रवाहित उनसे उसे पान कर जाऊँगा मैं आनंदित हो । दोनों सगे भाइयों का कर वध मैं उऋण बनूँगा रण में । यही आज है शपथ, भीम की यही प्रतिज्ञा, देवगणों के सम्मुख मेरी यही प्रार्थना मिलकर सब देवता शपथ यह पूर्ण करें। "॥2॥ उत्तेजित हो उठा पार्थ भी, लगा बोलने- “साक्षी रख गोपाल कृष्ण को, और प्रियतमा कृष्णा की काली आँखों की लेकर मैं सौगंध, आज कहता हूँ, सुन लें सभी- समरभूमि में अधम कर्ण को मैं मारूँगा- यह ध्रुव सच है। है अब भी गांडीव सुशोभित मेरे कर में, समरांगण में वीर-वृंद सब देखेंगे वीरता पार्थ की, देखेंगे कौतुक अर्जुन के इन हाथों का। यह मेरी शपथ, यही है निश्चित प्रण भी लेकर प्राण कर्ण के मैं उत्तीर्ण बनूँगा अपने प्रण में- यह ध्रुव सच है।" अर्जुन के उपरांत- नकुल सहदेव शपथ लेने उठ बैठे। "शेष कौरवों के हर लेंगे प्राण" - शपथ यह ली दोनों ने। तदनंतर पांचाली ने की सहज घोषणा अपने प्रण की ॥3॥

पांचाली प्रतिज्ञा

“पराशक्ति शंकरी, पार्वती देवी को साक्षी रख करके, मैं लेती हूँ आज शपथ यह- मैं रखूँगी खुले केश ये तब तक, जब तक- रक्त नीच इस दुःशासन का और अधम इस दुर्योधन का होता नहीं सुलभ है मुझको । मिश्रित करके रक्त दुष्ट दोनों कुरुओं का जब चुपडूंगी अपने सिर पर - तभी केश बाँधूंगी अपने यह ध्रुव सच है ॥1॥ “सुन लें सभी सभासद पापी दुःशासन के जिन अपवित्र हाथों ने छुए केश ये, खुले रहेंगे तब तक, जब तक- दोनों पापी कुरुवंशी हैं, जीवित जग में, और नहीं मर जाते मेरे पति के हाथों ।" सभा स्तब्ध हो सुनती रही प्रतिज्ञा उसकी, और द्रुपदतनया इतना कह मौन हो गई ॥2॥ देवगणों ने किया उच्चरित “ॐ" "ॐ" ध्वनि धरती से आकाश तलक थी व्याप्त हो गई, “ॐ ॐ" कह उठा सतत संसार समूचा, ॐ, ॐ के भीषण रव से पृथ्वी काँप उठी थी । "धर्मराज है स्वामी सबका" लगा शब्द ये दुहराने साक्षात पवन भी । यहाँ समापन करता हूँ मैं- द्रुपदसुता की शपथकथा का, और शुभाशंशा करता हूँ परमेश्वर सबका कल्याण करें जगती में ॥3॥ (इति) (रूपांतरकार: नागेश्वर सुंदरम्, विश्वनाथ सिंह विश्वासी) (यह रचना अभी अधूरी है)