प्रस्तावना : कबीर ग्रंथावली, संपादन : श्याम सुंदर दास

Prastavana : Kabir Granthavali Author : Shyam Sundar Das.

ग्रंथ के लिए दो शब्द

यह ग्रंथावली महाकवि संत कबीरदास के विराट काव्य-सर्जना संसार का प्रामाणिक एवं समेकित प्रकाशन है। बल्कि, कहा जाए तो इसमें महाकवि का विद्रोही, सत्य उद्घोषक, जीवन-द्रष्टा तथा सिद्ध संत का स्वरूप बड़े व्यापक तौर पर उद्घाटित हुआ है। इस ग्रंथावली में महाकवि की ज्वलंत एवं बहुआयामी साखियाँ, ललित ‘पदावली’ तथा रागबद्ध मधुर ‘रमैणी’ की त्रिवेणी सुधी पाठकों तथा विज्ञजनों को अपनी अद्भुत प्राणवत्ता एवं विलक्षण उद्घोषणाओं के प्रभापाश में बाँधे रखती है। सच कहा जाए तो इस ग्रंथावली में महाकवि कबीर की सर्जना-प्रतिभा, अन्वेषण-सामर्थ्य, रूढ़ि-भंजक आक्रामकता तथा सिद्ध संत-दृष्टि का एक साथ साक्षात्कार होता है। इस ग्रंथावली से गुजरते हुए ऐसा प्रतीत होता है, मानो महामानव संत कबीर से हम रू-ब-रू हो रहे हैं। सुधी पाठक, विज्ञजन और शोधार्थी इस ग्रंथावली से कबीर के प्राणद जीवन-दर्शन तथा उनके उदात्त काव्य-सर्जना से पूर्णतः परिचित हो सकेंगे।

डॉ. श्यामसुन्दर दास (परिचय)

महान भाषाविद् तथा मूर्द्धन्य साहित्यकार डॉ. श्यामसुन्दर दास का जन्म सन् 1875 ई. में काशी (वाराणसी) में हुआ था। एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी के रूप में सन् 1897 ई. में बी. ए. पास करने के उपरान्त उन्होंने कुछ समय तक काशी के हिंदू स्कूल में अध्यापन का काम किया तथा बाद में लखनऊ के कालीचरण स्कूल में बहुत दिनों तक प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत रहे। आगे चलकर वे सन् 1921 ई. में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित हुए।

उन्होंने सन् 1893 ई. में अपने कुछ साहित्य प्रेमी सहयोगियों से मिलकर ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की। ‘हिंदी शब्द सागर’ का संपादन, ‘आर्य भाषा पुस्तकालय’ की स्थापना, प्राचीन महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन, सभा-भवन का निर्माण, ‘सरस्वती’ पत्रिका संपादन, उच्चस्तरीय शिक्षा-पुस्तकों का लेखन-प्रकाशन जैसे भाषाई रचनात्मक कार्य उनके हिंदी-उन्नयन एवं सर्वतोमुखी विकास में किए गए ऐतिहासिक कार्य थे। वस्तुतः जीवनपर्यंत वे हिंदी साहित्य एवं हिंदी भाषा के उन्नयन एवं विकास में पूरे समर्पण भाव से लगे रहे।

मौलिक कृतियाँ: नागरी वर्णमाला, साहित्यालोचन, भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा का विकास, हिंदी कोविद ग्रंथमाला, गद्यकुसुमावली, भारतेंदु हरिश्चंद्र, हिंदी भाषा और साहित्य, गोस्वामी तुलसीदास, भाषा रहस्य, मेरी आत्मकहानी।
संपादित कृतियाँ: चंद्रावली, छत्रा प्रकाश, रामचरितमानस, पृथ्वीराज रासो, हिंदी वैज्ञानिक कोश, हम्मी रासो, शकुंतला नाटक, रत्नाकर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती।

भूमिका

आज इस बात को पाँच-छह वर्ष हुए होंगे, जब काशी नागरीप्रचारिणी सभा में रक्षित हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों की जाँच की गयी थी और उनकी सूची बनाई गयी थी। उस समय दो ऐसी पुस्तकों का पता चला जो बड़े महत्त्व की थीं पर जिनके विषय में किसी को पहले कोई सूचना नहीं थी। इनमें से एक तो सूरसागर की हस्तलिखित प्रति थी और दूसरी कबीरदासजी के ग्रंथों की दो प्रतियाँ थीं। कबीरदासजी के ग्रंथों की इन दो प्रतियों में से एक तो संवत् 1561 की लिखी है और दूसरी संवत् 1881 की। दोनों प्रतियों को देखने पर यह प्रकट हुआ कि इस समय कबीरदास जी के नाम से जितने ग्रंथ प्रसिद्ध हैं उनका कदाचित् दशमांश भी इन दोनों प्रतियों में नहीं है। यद्यपि इन दोनों प्रतियों के लिपिकाल में 320 वर्ष का अंतर है पर फिर भी दोनों में पाठ भेद बहुत ही कम है। संवत् 1881 की प्रति में संवत् 1561 वाली प्रति की अपेक्षा केवल 131 दोहे और 5 पद अधिक हैं। उस समय यह निश्चित किया गया कि इन दोनों हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर कबीरदासजी के ग्रंथों का एक संग्रह प्रकाशित किया जाए। यह कार्य पहले पंडित अयोध्यासिंह जी उपाध्याय को सौंपा गया और उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। पर पीछे से समयाभाव के कारण वे यह न कर सके। तब यह मुझे सौंपा गया। मैंने यथासमय यह कार्य आरंभ कर दिया। मेरे दो विद्यार्थियों ने इस कार्य में मेरी सहायता करने की तत्परता भी प्रकट की, पर इस तत्परता का अवसान दो ही तीन दिन में हो गया। धीरे-धीरे मैंने इस काम को स्वयं ही करना आरंभ किया। संवत् 1983 के भाद्रपद मास में बहुत बीमार पड़ जाने तथा लगभग दो वर्ष तक निरंतर अस्वस्थ रहने और गृहस्थी संबंधी अनेक दुर्घटनाओं और आपत्तियों के कारण मैं यह कार्य शीघ्रतापूर्वक न कर सका। बीच-बीच में जब-तब अन्य झंझटों से कुछ समय मिला और शरीर ने कुछ कार्य करने में समर्थता प्रकट की तब-तब मैं यह कार्य करता रहा। ईश्वर की कृपा है कि यह कार्य अब समाप्त हो गया।

जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, इस संस्करण का मूल आधार संवत् 1561 की लिखी हस्तलिखित प्रति है। यह प्रति खेमचंद के पढ़ने के लिए मलूकदास ने काशी में लिखी थी। यह पता नहीं लगा कि ये खेमचंद और मलूकदास कौन थे। क्या ये मलूकदास जी कबीरदासजी के वही शिष्य तो नहीं थे जो जगन्नाथपुरी में जाकर बसे और जिनकी प्रसिद्ध खिचड़ी का वहाँ अब तक भोग लगता है तथा जिसके विषय में कबीरदासजी ने स्वयं कहा है ‘मेरा गुरु बनारसी चेला समुंदर तीर’। यदि ये वही मलूकदास हैं तो इस प्रति का महत्व बहुत अधिक है। यदि यह न भी हो, तो भी इस प्रति का मूल्य कम नहीं है। जैसा कि इस संस्करण की प्रस्तावना में सिद्ध किया गया है, कबीरदासजी का निधन संवत् 1575 में हुआ था। यह प्रति उनकी मृत्यु के 14 वर्ष पहले की लिखी हुई है। अंतिम 14 वर्षों में कबीरदासजी ने जो कुछ कहा था यद्यपि वह उसमें सम्मिलित नहीं है, तथापि इसमें संदेह नहीं कि संवत् 1561 तक की कबीरदास जी की समस्त रचनाएँ इसमें संगृहीत हैं। यह प्रति (क) मानी गयी है। इसके प्रथम और अंतिम दोनों पृष्ठों के चित्र इस (पुस्तकीय) संस्करण के साथ प्रकाशित किए जाते हैं।

दूसरी प्रति (ख) मानी गयी है। यह संवत् 1881 की लिखी है अर्थात् इस प्रति के और (क) प्रति के लिपिकाल में 320 वर्षों का अंतर है। पर (क) और (ख) दोनों प्रतियों में पाठभेद बहुत कम है। (ख) प्रति में (क) प्रति की अपेक्षा 131 दोहे और 5 पद अधिक हैं।

यह बात प्रसिद्ध है कि संवत् 1661 में अर्थात् (क) प्रति के लिखे जाने के 100 वर्ष पीछे गुरुग्रंथसाहब का संकलन किया गया। उसमें अनेक भक्तों की वाणी सम्मिलित की गयी है। गुरुग्रंथसाहब में कबीरदासजी की जितनी वाणी सम्मिलित की गयी है, वह सब मैंने अलग करवाई और तब (क) तथा (ख) प्रतियों में सम्मिलित पदों आदि से उसका मिलान कराया। जो दोहे और पद मूल अंश में आ गये थे उनको छोड़कर शेष सब दोहे और पद परिशिष्ट में दे दिए गये हैं। ग्रंथसाहब तथा दोनों हस्तलिखित प्रतियों का मिलान करने पर नीचे लिखे दोहे और पद दोनों प्रतियों में मिले- इन दोहों का क्रम प्रस्तुत संस्करण में निम्नलिखित है-

साखी (1) दोहा 10
साखी (2) दोहा 9, 11-13, 16, 24
साखी (3) दोहा 44
साखी (10) दोहा 3
साखी (11) दोहा 3, 14
साखी (12) दोहा 1, 33, 43, 46, 54
साखी (13) दोहा 7
साखी (19) दोहा 1
साखी (22) दोहा 2, 9
साखी (23) दोहा 7
साखी (24) दोहा 1
साखी (28) दोहा 7
साखी (29) दोहा 2, 6
साखी (31) दोहा, 5, 9, 11
साखी (37) दोहा 9
साखी (38) दोहा 4, 5
साखी (41) दोहा 5, 6, 11, 14
साखी (43) दोहा 5
साखी (45) दोहा 13, 33
साखी (46) दोहा 10
साखी (47) दोहा 7
साखी (48) दोहा 2
साखी (49) दोहा 3
साखी (54) दोहा 6
साखी (56) दोहा 6
तथा पद संख्या 27, 39, 359,362 और 400

इनके अतिरिक्त पादटिप्पणियों में जो (ख) प्रति में अधिक दोहे दिए गये हैं, उनमें से साखी (41) के दोहे 18, 19 और 20तथा साखी (46) का दोहा 38 उस प्रति और गुरुग्रंथसाहब दोनों में समान है। इस प्रकार दोनों हस्तलिखित प्रतियों और गुरुग्रंथसाहब में 48 दोहे और 5 पद ऐसे हैं जो दोनों में समान हैं। इनको छोड़कर ग्रंथसाहब में जो दोहे या पद अधिक मिले हैं वे परिशिष्ट में दे दिए गये हैं। इनमें 192 दोहे और 222 पद हैं। इस प्रकार इस संस्करण में कबीरदासजी के दोहों और पदों का अत्यंत प्रामाणिक संग्रह दिया गया है। यह कहना तो कठिन है कि इस संग्रह में जो कुछ दिया गया है,उसके अतिरिक्त और कुछ कबीरदासजी ने कहा ही नहीं, पर इतना अवश्य है कि इनके अतिरिक्त और जो कुछ कबीरदासजी के नाम पर मिले उसे सहसा उन्हीं का कहा हुआ तब तक स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए जब तक उसके प्रक्षिप्त न होने का कोई दृढ़ प्रमाण न मिल जाए।

इस संबंध में ध्यान रखने योग्य एक और बात यह है कि इस संग्रह में दिए हुए दोहों आदि की भाषा और कबीरदासजी के नाम पर बिकनेवाले ग्रंथों में के पदों आदि की भाषा में अकाशपाताल का अंतर है। इस संग्रह के दोहों आदि की भाषाभाषाविज्ञान की दृष्टि से कबीरदासजी के समय के लिए बहुत उपयुक्त है और वह हिंदी के 16वीं तथा 17वीं शताब्दी के रूप के ठीक अनुरूप है और इसीलिए इन पदों और दोहों को कबीरदासजी रचित मानने में आपत्ति नहीं हो सकती। परंतुकबीरदासजी के नाम पर आजकल जो बड़े ग्रंथ देखने में आते हैं, उनकी भाषा बहुत ही आधुनिक और कहीं-कहीं तो बिलकुल आजकल की खड़ी बोली ही जान पड़ती है। आज के प्रायः तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व कबीरदासजी आजकल की सी भाषा लिखने में किस प्रकार समर्थ हुए होंगे, यह बहुत ही विचारणीय है।

इस संस्करण में कबीरदासजी के जो दोहे और पद सम्मिलित किए गये हैं उन्हें मैंने आजकल की प्रचलित परिपाटी के अनुसार खराद पर चढ़ाकर सुडौल, सुंदर और पिंगल के नियमों से शुद्ध बनाने का कोई उद्योग नहीं किया। वरन् मेराउद्देश्य यही रहा है कि हस्तलिखित प्रतियों या ग्रंथसाहब में जो पाठ मिलता है, वही ज्यों का त्यों प्रकाशित कर दिया जाए। कबीरदासजी के पूर्व के किसी भक्त की वाणी नहीं मिलती। हिंदी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल की समाप्ति पर मध्यकाल का आरंभ कबीरदासजी से होता है, अतएव इस काल के वे आदि कवि हैं। उस समय भाषारूप परिमार्जित और संस्कृत नहीं हुआ था। तिस पर कबीरदासजी स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने जो कुछ कहा है, वह अपनी प्रतिभा तथा भावुकता के वशीभूत होकर कहा है। उनमें कवित्व उतना नहीं था जितनी भक्ति और भावुकता थी। उनकी अटपट वाणी हृदय में चुभने वाली है। अतएव उसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर देना ही उचित जान पड़ा और यही किया भी गयाहै। हाँ, जहाँ मुझे स्पष्ट लिपिदोष देख पड़ा, वहाँ मैंने सुधार दिया है, और वह भी कम से कम उतना ही जितना उचित और नितान्त आवश्यक था।

एक और बात विशेष ध्यान देने योग्य है। कबीरदासजी की भाषा में पंजाबीपन बहुत मिलता है। कबीरदास ने स्वयं कहा है कि मेरी बोली बनारसी है। इस अवस्था में पंजाबीपन कहाँ से आया? ग्रंथसाहब में कबीरदासजी की वाणी का जो संग्रह किया गया है, उसमें जो पंजाबीपन देख पड़ता है, उसका कारण तो स्पष्ट रूप से समझ में आ सकता है, पर मूल भाग में अथवा दोनों हस्तलिखित प्रतियों में जो पंजाबीपन देख पड़ता है, उसका कुछ कारण समझ में नहीं आता। या तो यह लिपिकर्ता की कृपा का फल है अथवा पंजाबी साधुओं की संगति का प्रभाव है। कहीं-कहीं तो स्पष्ट पंजाबी प्रयोग और मुहावरे आ गये हैं जिनको बदल देने से भाव तथा शैली में परिवर्तन हो जाता है। यह विषय विचारणीय है। मेरी समझ में कबीरदासजी की वाणी में जो पंजाबीपन देख पड़ता है उसका कारण उनका पंजाबी साधुओं से संसर्ग ही मानना समीचीन होगा।

इस संस्करण के साथ कबीरदासजी के दो चित्र प्रकाशित किए जाते हैं, एक तो कलकत्ता म्यूजियम से प्राप्त हुआ है और दूसरा कबीरपंथी स्वामी युगलानंदजी से मिला है। दोनों में से किसी चित्र का कोई ऐसा प्रामाणिक इतिहास नहीं मिला जिसकी कुछ जाँच की जा सकती पर जहाँ तक मैं समझता हूँ, वृद्धावस्था का चित्र ही जो कबीरपंथी साधु युगलानंदजी से प्राप्त हुआ है अधिक प्रामाणिक जान पड़ता है।

इस ग्रंथ का परिशिष्ट प्रस्तुत करने में मेरे छात्रा पंडित अयोध्यानाथ शर्मा एम. ए. ने बड़ा परिश्रम किया है। यदि वे यह कार्य न करते तो मुझे बहुत कुछ कठिनता का सामना करना पड़ता। इसी प्रसार प्रस्तावना के लिए सामग्री एकत्रा करने और उसे व्यवस्थित रूप देने में मेरे दूसरे छात्रा पंडित पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल एम.ए. ने मेरी जो सहायता की है वह बहुत ही अमूल्य है। सच बात तो यह है कि यदि मेरे ये दोनों प्रिय छात्रा इस प्रकार मेरी सहायता न करते, तो अभी इस संस्करण के प्रकाशित होने में और भी अधिक समय लग जाता। इस सहायता के लिए मैं इन दोनों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। इनके अतिरिक्त और भी दो- तीन विद्यार्थियों ने मेरी सहायता करने में कुछ-कुछ तत्परता दिखाई पर किसी का तो काम ही पूरा न उतरा, किसी ने टालमटूल कर दी और किसी ने कुछ कर-कराकर अपने सिर से बला टाली। अस्तु, सभी ने कुछ न कुछ करने का उद्योग किया और मैं उन सबके प्रति कृतज्ञता प्रगट करता हूँ।

(श्यामसुंदरदास)

काशी -
ज्येष्ठ कृष्ण 13, 1985

आविर्भाव काल

काल की कठोर आवश्यकताएँ महात्माओं को जन्म देती हैं। कबीर का जन्म भी समय की विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था। अवसर के उचित उपयोग अनभिज्ञ और कर्मठता के उदासीन रहने वाली हिंदू जाति को धर्मजन्य दयालुता ने उसे दासता के गर्त में ढकेल दिया था। उसका शूरवीरत्व उसके किसी काम न आया। वीरता के साथ-साथ वीरगाथाओं और वीरगीतों की अंतिम प्रतिध्वनि भी रणथंभौर के पतन के साथ ही विलीन हो गयी।

शहाबुद्दीन गोरी (मृत्यु सं. 1263) के समय से ही इस देश में मुसलमानों के पाँव जमने लग गये थे, उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक (सं. 1263-1273) ने गुलाम वंश की स्थापना कर पठानी सल्तनत और भी दृढ़ कर दी। भारत की लक्ष्मी पर लुब्ध मुसलमानों का विकराल स्वरूप, जिसे उनकी धर्मांधता ने और भी अधिक विकराल बना दिया था,अलाउद्दीन खिलजी (सं. 1352-1372) के समय में भलीभाँति प्रकट हुआ। खेतों में खून और पसीना एक करने वाले किसानों की कमाई का आधे से अधिक अंश भूमिकर के रूप में राजकोष में जाने लगा। प्रजा दाने-दाने को तरसने लगी। सोने-चाँदी की तो बात ही क्या, हिन्दुओं के घरों में ताँबे, पीतल की थाली, लोटों तक का रहना मुलतान कोखटकने लगा। उनका घोड़े की सवारी करना और अच्छे कपड़े पहनना महान् अपराधों में गिना जाने लगा। नाममात्रा के अपराध के लिए भी किसी की खाल खिंचवाकर उसमें भूसा भरवा देना एक साधारण बात थी।

अलाउद्दीन खिलजी के लड़के कुतुबुद्दीन मुबारक (सं. 1373-1377) के शासनकाल में जब देवगिरि का राजा हरपाल बन्दी करके दिल्ली लाया गया, तब उसकी यही दशा हुई। मन्दिरों को गिराकर उसके स्थान पर मस्जिदें बनाने का लग्गा तो बहुत पहले ही लग चुका था, अब स्त्रियों के मान और पतिव्रता की रक्षा करना भी कठिन हो गया। चित्तौड़ पर अलाउद्दीन की दो चढ़ाइयाँ केवल अतुल सुंदरी पद्मिनी की ही प्राप्ति के लिए हुईं, अंत में गढ़ के टूट जाने और अपने पति भीमसी के वीरगति पाने पर पुण्यप्रतिमा महाराणी पद्मिनी ने अन्य वीर क्षत्राणियों के साथ अपने मान की रक्षा के लिए अग्निदेव के क्रोड़ में शरण ली और जौहर करके हिंदू जाति का मस्तक ऊँचा किया।

तुगलक वंश के अधिकार रूढ़ होने पर भी ये कष्ट कम नहीं हुए वरन् मुहम्मद तुगलक (सं. 1382-1408) की ऊटपटाँग व्यवस्थाओं से और भी बढ़ गये। समस्त राजधानी, जिसमे नवजात शिशु से लेकर मरणोन्मुख वृद्ध तक थे, दिल्ली से लाकर दौलताबाद में बसाई गयी। परंतु जब वहाँ आने से अधिक लोग मर गये तब सबको फिरदिल्ली लौट जाने की आज्ञा दी गयी। हिंदू जाति के लिए जीवन धीरे-धीरे एक भार-सा होने लगा, कहीं से आशा की झलक तक न दिखाई देती थी। चारों ओर निराशा और निरवलम्बता का अंधकार छाया हुआ था।

हिंदू रक्त ने खुसरो की नसों में उबलकर हिंदू राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया तो था (वि. सं. 1308) पर वहसफल न हो सका। इसके अनंतर सारी आशाएँ बहुत दिनों के लिए मिट्टी में मिल गयीं। तैमूर के आक्रमण ने देश को जहाँ-तहाँ उजाड़ कर नैराश्य की चरम सीमा तक पहुँचा दिया। हिंदू जाति में से जीवन शक्ति के सब लक्षण मिट गये। विपत्ति की चरम सीमा तक पहुँचकर मनुष्य पहले तो परमात्मा की ओर ध्यान लगाता है औरअनेक कष्टों से त्राण पाने की आशा करता है, पर जब स्थिति में सुधार नहीं होता, तब परमात्मा की भी उपेक्षा करने लगता है, उसके अस्तित्व पर उसका विश्वास ही नहीं रह जाता।

कबीर के जन्म के समय हिंदू जाति की यही दशा हो रही थी। वह समय और परिस्थिति अनीश्वरवाद के लिए बहुत ही अनुकूल थी, यदि उसकी लहर चल पड़ती तो उसे रोकना बहुत ही कठिन हो जाता। परंतु कबीर ने बड़े हीकौशल से इस अवसर से लाभ उठाकर जनता को भक्तिमार्ग की ओर प्रवृत्त किया और भक्तिभाव का प्रचार किया। प्रत्येक प्रकार की भक्ति के लिए जनता इस समय तैयार नहीं थी।

मूर्तियों की अशक्तता वि.सं. 1081 में बड़ी स्पष्टता से प्रगट हो चुकी थी जब कि मुहम्मद गजनवी ने आत्मरक्षा से विरत, हाथ पर हाथ रखकर बैठे हुए श्रद्धालुओं को देखते-देखते सोमनाथ का मंदिर नष्ट करके उनमें से हजारों को तलवार के घाट उतारा था। गजेंद्र की एक ही टेर सुनकर दौड़ आने वाले और ग्राह से उसकी रक्षा करने वाले सगुण भगवान जनता के घोर संकटकाल में भी उसकी रक्षा के लिए आते हुए न दिखाई दिए। अतएव उनकी ओर जनता को सहसा प्रवृत्त कर सकना असंभव था। पंढरपुर के भक्तशिरोमणि नामदेव की सगुण भक्ति जनता को आकृष्ट न कर सकी, लोगों ने उनका वैसा अनुकरण न किया जैसा आगे चलकर कबीर का किया; और अंत में उन्हें भी ज्ञानाश्रित निर्गुण भक्ति की ओर झुकना पड़ा।

उस समय परिस्थिति केवल निराकार और निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के ही अनुकूल थी, यद्यपि निर्गुण शक्ति का भलीभाँति अनुभव नहीं किया जा सकता था, उसका आभास मात्र मिल सकता था। पर प्रबल जलधार में बहते हुए मनुष्य के लिए यह कूलस्थ मनुष्य या चट्टान किस काम की है जो उसकी रक्षा के लिए तत्परता न दिखलाए। पर उसकी ओर बहकर आता हुआ एक तिनका भी उसके हृदय में जीवन की आशा पुनरुद्दीप्त कर देता है और उसी का सहारा पाने के लिए वह अनायास हाथ बढ़ा देता है। कबीर ने अपनी निर्गुण भक्ति के द्वारा यही आशा भारतीय जनता के हृदय में उत्पन्न की और उसे कुछ अधिक समय तक विपत्ति की इस अथाह जलराशि के ऊपर बने रहने की उत्तेजना दी, यद्यपि सहायता की आशा से आगे बढ़े हुए हाथ को वास्तविक सहारा सगुण भक्ति से ही मिला और केवल रामभक्ति ही उसे किनारे पर लाकर सर्वथा निरापद कर सकी।

रामभक्ति ने न केवल सगुण कृष्णभक्ति के समान जनता की दृष्टि जीवन के आनन्दोल्लासपूर्ण पक्ष की ओर ही लगाई, प्रत्युत आनंदविरोधिनी मांगलिक शक्तियों के संहार का विधान कर दूसरे पक्ष में भी आनंद की प्राणप्रतिष्ठा की। पर इससे जनता पर होने वाले कबीर के उपकार का महत्व कम नहीं हो जाता। कबीर यदि जनता को भक्ति की ओर न प्रवृत्त करते तो क्या यह संभव था कि लोग इस प्रकार सूर की कृष्णभक्ति अथवा तुलसी की रामभक्ति आँखें मूँदकर ग्रहण कर लेते?

सारांश यह है कि कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ जब कि मुसलमानों के अत्याचारों से पीड़ित भारतीय जनता को अपने जीवित रहने की आशा नहीं रह गयी थी और न उसमें अपने आपको जीवित रखने की इच्छा ही शेष रह गयी थी। उसे मृत्यु या धर्मपरिवर्तन के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं देख पड़ता था। यद्यपि धर्मज्ञ तत्वज्ञों ने सगुण उपासना से आगे बढ़ते चढ़ते निर्गुण उपासना तक पहुँचने का सुगम मार्ग बतलाया है और वास्तव में यह तत्व बुद्धिसंगत भी जान पड़ता है, पर उस समय सगुण उपासना की निःसारता का जनता को परिचय मिल चुका था और उस पर से उनका विश्वास भी हट चुका था। अतएव कबीर को अपनी व्यवस्था उलटनी पड़ी। मुसलमान भी निर्गुण उपासक थे। अतएव उनसे मिलते-जुलते पथ पर लगाकर कबीर ने हिंदू जनता को संतोष और शांति प्रदान करने का उद्योग किया। यद्यपि उस उद्योग में उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हुई, तथापि यह स्पष्ट है कि कबीर के निर्गुणवाद में तुलसी और सूर के सगुणवाद के लिए मार्ग परिष्कृत कर दिया और उत्तरी भारत के भावी धर्ममय जीवन के लिए उसे बहुत कुछ संस्कृत और परिष्कृत बना दिया।

भक्त संतों की परंपरा

जिस समय कबीर आविर्भूत हुए थे, वह समय ही भक्ति की लहर का था। उस लहर को बढ़ाने के प्रबल कारण भी प्रस्तुत थे। मुसलमानों के भारत में आ बसने से परिस्थिति में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया। हिंदू जनता का नैराश्य दूर करने के लिए भक्ति का आश्रय ग्रहण करना आवश्यक था। इसके अतिरिक्त कुछ लोगों ने हिंदू और मुसलमान भक्त संतों की परंपरा विरोधी जातियों को एक करने की आवश्यकता का भी अनुभव किया। इस अनुभव के मूल में एक ऐसे सामान्य भक्तिमार्ग का विकास गर्भित था जिससे परमात्मा की एकता के आधार पर मनुष्यों की एकता का प्रतिपादन हो सकता था और जिसका मूलाधार भारतीय अद्वैतवाद और मुसलमानीएकेश्वरवाद के सूक्ष्मभेद की ओर ध्यान नहीं दिया गया और दोनों के एक विचित्र मिश्रण के रूप में निर्गुण भक्तिमार्ग चल पड़ा। रामानंदजी के बारह शिष्यों में से कुछ इस मार्ग के प्रवर्तन में प्रवृत्त हुए जिनमें से कबीरप्रमुख थे। शेष में सेना, धना, भवानंद, पीपा और रैदास थे, परंतु उनका उतना प्रभाव न पड़ा जितना कबीर का। नरहर्यानंदजी ने अपने शिष्य गोस्वामी तुलसीदास को प्रेरित करके उनके कर्तृत्व से सगुण रामभक्ति का एक और ही स्रोत प्रवाहित कराया।

मुसलमानों के आगमन से हिंदू समाज पर एक और प्रभाव पड़ा। पददलित शूद्रों की दृष्टि में उन्मेष हो गया। उन्होंने देखा कि मुसलमानों में द्विजों और शूद्रों का भेद नहीं है। सधर्मी होने के कारण वे सब एक हैं, उनके व्यवसाय ने उनमें कोई भेद नहीं डाला है; न उनमें कोई छोटा है और न कोई बड़ा। अतएव इन ठुकराए हुए शूद्रों में से ही कुछ ऐसे महात्मा निकले जिन्होंने मनुष्यों की एकता को उद्घोषित करना चाहा। इस नवोत्थित भक्तिरंग में सम्मिलित होकर हिंदू समाज में प्रचलित इस भेदभाव के विरुद्ध भी आवाज उठाई गयी। रामानंदजी ने सबके लिए भक्ति का मार्ग खोलकर उनको प्रोत्साहित किया। नामदेव दरजी, रैदास चमार, दादू धुनिया, कबीर जुलाहा आदि समाज की नीची श्रेणी के ही थे, परंतु उनका नाम आज तक आदर से लिया जाता है।

वर्णभेद से उत्पन्न उच्चता और नीचता को ही नहीं, वर्गभेद से उत्पन्न उच्चता- नीचता को भी दूर करने का इस निर्गुण भक्ति से प्रयत्न किया। स्त्रियों का पद स्त्री होने के कारण नीचा न रह पाया। पुरुषों के ही समान वे भी भक्ति की अधिकारिणी हुईं। रामानंदजी के शिष्यों में से दो स्त्रियाँ थीं, एक पद्मावती और दूसरी सुरसरी। आगे चलकर सहजोबाई और दयाबाई भी भक्तसंतों में से हुईं। स्त्रियों की स्वतंत्रता के परम विरोधी, उनको घर की चहारदीवारी के अन्दर ही कैद रखने के कट्टर पक्षपाती तुलसीदासजी भी जो मीराबाई को 'राम विमुख तजिय कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही' का उपदेश दे सके, वह निर्गुण भक्ति के ही अनिवार्य और अलक्ष्य प्रभाव के प्रसाद से समझना चाहिए। ज्ञानी संतों ने स्त्री की जो निंदा की है, वह दूसरी ही दृष्टि से है। स्त्री से उनका अभिप्राय स्त्री-पुरुष के कामवासनापूर्ण संसर्ग से है। स्त्री की निंदा कबीर से बढ़कर कदाचित् ही किसी ने की हो, परंतु पति-पत्नी की भाँति न रहते हुए भी लोई का आजन्म उनके साथ रहना प्रसिद्ध है।

कबीर इस निर्गुण भक्तिप्रवाह के प्रवर्तक हैं, परंतु भक्त नामदेव इनसे भी पहले हो गये थे। नामदेव का नाम कबीर ने शुक, उद्धव, शंकर आदि ज्ञानियों के साथ लिया है-

जागे सुक ऊधव अकूर हणवंत जागे लै लँगूर।

संकर जागे चरन सेव, कलि जागे नामाँ जैदेव॥

अक्रूर, हनुमान और जयदेव की गिनती ज्ञानियों (जाग्रतों) में कैसे हुई, यह नहीं कह सकते। नामदेव जी जाति के दर्जी थे और दक्षिण के सतारा जिले के नरसी बमनी नामक स्थान में उत्पन्न हुए थे। पंढरपुर में विठोबाजी का मंदिर है। ये उनके बड़े भक्त थे। पहले ये सगुणोपासक थे, परंतु आगे चलकर इनका झुकाव निर्गुणभक्ति की ओर हो गया, जैसा उनके गायनों के नीचे दिए उदाहरणों से पता चलेगा-

(क) दशरथ राय नंद राजा मेरा रामचन्द्र,

प्रणवै नामा तत्व रस अमृत पीजै॥

'धनि धनि मेघा रोमावली। धनि धनि कृष्णा औढ़े काँवली॥

धनि धनि तू माता देवकी। जिह घर रमैया कमलापति॥

धनि धनि बनखंड बृंदावना। जहँ खेलै श्रीनारायना॥

बेनु बजावै गोधन चारैं। नामे का स्वामी आनंद करै॥

(ख) 'पांडे तुम्हारी गायत्री लोधे का खेत खाती थी॥

लैकरि ठेंगा टँगरी तोरी लंगत लंगत जाती थी॥

पांडे तुम्हारा महादेव धौले बलद चढ़ा आवत देखा था॥

रावन सेंती सरवर होई घर की जोय गँवाई थी॥

कबीर के पीछे तो संतों की मानो बाढ़ सी आ गयी और अनेक मत चल पड़े। पर सब पर कबीर का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। नानक, दादू, शिवनारायण, जगजीवनदास आदि जितने प्रमुख संत हुए, सबने कबीर का अनुकरण किया और अपना-अपना अलग मत चलाया। इनके विषय की मुख्य बातें ऊपर आ गयी हैं, फिर भी कुछ बातों पर ध्यान दिलाना आवश्यक है।

सबने नाम, शब्द, सद्गुरु आदि की महिमा गाई है और मूर्तिपूजा, अवतारवाद तथा कर्मकांड का विरोध किया है, तथा जाति-पाँति का भेदभाव मिटाने का प्रयत्न किया है, परंतु हिंदू जीवन में व्याप्त सगुण भक्ति और कर्मकांड के प्रभाव से इनके परिवर्तित मतों के अनुयायियों द्वारा वे स्वयं परमात्मा के अवतार माने जाने लगे हैं और उनके मतों में भी कर्मकांड का पाखंड घुस गया है। कई मतों में केवल द्विज लिये जाते हैं। केवल नानक देवजी का चलाया सिक्ख संप्रदाय ही ऐसा है जिसमें जाति-पाँति का भेद नहीं आने पाया, परंतु उसमें भी कर्मकांड की प्रधानता हो गयी है और ग्रंथसाहब का प्रायः वैसा ही पूजन किया जाता है जैसा मूर्तिपूजक मूर्ति का करते हैं। कबीरदास के मनगढ़ंत चित्र बनाकर उनकी पूजा कबीरपंथी मठों में भी होने लग गयी है और सुमिरनी आदि का प्रचार हो गया है।

यद्यपि आगे चलकर निर्गुण संत मतों का वैष्णव संप्रदायों से बहुत भेद हो गया, तथापि इसमें संदेह नहीं की संतधारा का उद्गम भी वैष्णव भक्ति रूपी स्रोत से ही हुआ है। श्रीरामानुज ने संवत् 1144 में यादवाचल पर नारायण की मूर्ति स्थापित करके दक्षिण में वैष्णव धर्म का प्रवाह चलाया था पर उनका भक्ति का आधार ज्ञानमार्गी अद्वैतवाद था उनका अद्वैत विशिष्टाद्वैत हुआ। गुजरात में माधवाचार्य ने द्वैतमूलक वैष्णव धर्म का प्रवर्तन किया। जो कुछ कहा जा चुका है, उससे पता लगेगा कि संत धारा अधिकतर ज्ञानमार्ग के ही मेल में रही। पर उधर बंगाल में महाप्रभु चैतन्यदेव और उत्तर भारत में वल्लभाचार्यजी के प्रभाव से भक्ति के लिए परमात्मा के सगुण रूप कीप्रतिष्ठा की गयी यद्यपि सिद्धांत रूप में ज्ञानमार्ग का त्याग नहीं किया गया और तो और तुलसीदासजी तक ने ज्ञानमार्ग की बातों का निरूपण किया है, यद्यपि उन्होंने उन्हें गौणस्थान दिया है।

संतों में भी कहीं-कहीं अनजान में सगुणवाद आ गया है और विशेषकर कबीर में क्योंकि भक्ति गुणों का आश्रयपाकर ही हो सकती है। शुद्ध ज्ञानाश्रयी उपनिषदों तक में उपासना के लिए ब्रह्म में गुणों का आरोप किया गया है। फिर भी तथ्य की बात यह जान पड़ती है कि वैष्णव संप्रदाय ने आगे चलकर व्यवहार में सगुण भक्ति का आश्रय लिया, तब भी संत मतों ने ज्ञानाश्रयी निर्गुण भक्ति ही से अपना संबंध रखा।

यहाँ पर यह कह देना उचित जँचता है कि कबीर सारतः वैष्णव थे। अपने आपको उन्होंने वैष्णव तो कहीं नहीं कहा है, परंतु वैष्णव की जितनी प्रशंसा की है, उससे उनकी वैष्णवता का बहुत पुष्ट प्रमाण मिलता है-

मेरे संगी द्वै जणा एक वैष्णव एक राम।

वो है दाता मुक्ति का वो सुमिरावै नाम॥

कबीर धनि ते सुंदरी जिनि जाया वैसनौं पूत।

राम सुमिरि निरभै हुआ सब जग गया अऊत॥

साकत बाभँण मति मिलै बेसनौं मिलै चँडाल।

अंकमाल दे भेंटिए मानौ मिलै गोपाल॥

शाक्तों की निंदा के लिए यह तत्परता उनकी वैष्णवता का ही फल है। शाक्त को उन्होंने कुत्ता तक कह डाला है-

साकत सुनहा दूनो भाई, एक नीदै एक भौंकत जाई।

जो कुछ संदेह उनकी वैष्णवता में रह जाता है, वह रामानंद जी को गुरु बनाने की उनकी आकुलता से दूर हो जाना चाहिए। अन्य वैष्णवों में और उनमें जो भेद दिखाई देता है उसका कारण, जैसा कि हम आगे चलकर बतावेंगे,उनके सिद्धांत और व्यवहार में भेद न रखने का फल है।

कबीरदास के जीवन चरित्र के संबंध में तथ्य की बातें बहुत कम ज्ञात हैं; यहाँ तक कि उनके जन्म और मरण के संवतों के विषय में भी अब तक कोई निश्चित बातें नहीं ज्ञात हुई हैं। कबीरदास के विषय में कालनिर्णय लोगों ने जो कुछ लिखा है, सब जनश्रुति के आधार पर हैं। इनका समय भी अनुमान के आधार पर निश्चित किया गया है। डॉ. हंटर ने इनका जन्म संवत् 1437 में और विल्सन साहब ने मृत्यु सं. 1505 में मानी है। रेवरेंड वेस्टकाट के अनुसार इनका जन्म 1497 में और मृत्यु संवत् 1575 में हुई। कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है-

चौदह सौ पचपन साल भए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।

जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥

घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गये।

लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥

यह पद्य कबीरदास के प्रधान शिष्य और उत्तराधिकारी धर्मदास का कहा हुआ बताया जाता है। इसके अनुसार कबीरदास का जन्म लोगों ने संवत् 1455 ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा चन्द्रवार को माना है, परंतु गणना करने से संवत्1455 में ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा चन्द्रवार को नहीं पड़ती। पद्य को ध्यान से पढ़ने पर संवत् 1456 निकलता है, क्योंकि उसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा है 'चौदह सौ पचपन साल गये, अर्थात् उस समय तक संवत् 1455 बीत गया था।

ज्येष्ठ मास वर्ष के आरंभिक मासों में है, अतएव उसके लिए चौदह सौ पचपन साल गये लिखना स्वाभाविक भी है,क्योंकि वर्षारंभ में नवीन संवत् लिखने का उतना अभ्यास नहीं रहता। संवत् 1456 में ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा चन्द्रवार को ही पड़ती है। अतएव यही संवत् कबीर के जन्म का ठीक संवत् जान पड़ता है।

इनके निधन के संबंध में दो तिथियाँ प्रसिद्ध हैं-

1. संवत् पन्द्रह सौ और पाँच मौ मगहर कियो गमन।

अगहन सुदी एकादशी, मिले पवन में पवन॥

2. संवत् पन्द्रह सौ पछत्तरा, कियो मगहर को गवन।

माघ सुदी एकादशी, रलो पवन में पवन॥

एक के अनुसार इनका परलोकवास संवत् 1505 में और दूसरे के अनुसार 1575 में ठहरता है। दोनों तिथियों में 70वर्ष का अंतर है। वार न दिए रहने के कारण ज्योतिष की गणना से तिथियों की जाँच नहीं की जा सकती।

डॉक्टर फ्यूर्र ने अपने 'मानुमेंटल एंटीक्विटीज ऑफ दि नार्थ-वेस्टर्न प्रोविंसेज' नामक ग्रंथ में लिखा है कि बस्ती जिले के मगहर ग्राम में, आमी नदी के दक्षिण तट पर, कबीरदासजी का रौजा है जिसे सन् 1450 (संवत्1507) में बिजली खाँ ने बनवाया और जिसका जीर्णोद्धार सन् 1567 (संवत् 1624) में नवाब फिदाई खाँ ने कराया। यदि ये संवत् ठीक हैं तो कबीर की मृत्यु संवत् 1507 के पहले ही हो चुकी थी। इस बात को ध्यान में रखकर देखने से 1505 ही इनका निधन संवत् ठहरता है और इनका जन्म संवत् 1456 मान लेने से इनकी आयु केवल 49वर्ष की ठहरती है। मेरा अनुमान था कि डॉक्टर फ्यूर्र ने मगहर के रौजे के बनने तथा जीर्णोद्धार के संवत् उसमें खुदे किसी शिलालेख के आधार पर दिए होंगे। इस अनुमान से मैं बहुत प्रसन्न था कि इस शिलालेख के आधार पर कबीरजी का समय निश्चित हो जायेगा, पर पूछताछ करने पर पता लगा कि वहाँ कोई शिलालेख नहीं है। डॉक्टर साहब ने जिस ढंग से संवत् दिए हैं, उससे तो यही जान पड़ता है कि उनके पास कोई आधार अवश्य था। परंतु जब तक उस आधार का पता नहीं लगता, तब तक मैं पुष्ट प्रमाणों के अभाव में इन संवतों को निश्चित मानने में असमर्थ हूँ। और भी कई बातें हैं जिनसे इन संवतों को अप्रामाणिक मानने को ही जी चाहता है। इन पर आगे विचार किया जाता है।

यह बात प्रसिद्ध है कि कबीरदास सिकंदर लोदी के समय में हुए थे और उसके कोप के कारण ही उन्हें काशी छोड़कर जाना पड़ा था। सिकंदर लोदी का राजत्वकाल सन् 1517 (संवत् 1574) से सन् 1526 (संवत् 1583) तक माना जाता है। इस अवस्था में यदि कबीर का निधन संवत् 1505 मान लिया जाए तो उनका सिकंदर लोदी के समय में वर्तमान रहना असंभव सिद्ध होता है।

गुरु नानकदेवजी ने कबीर की अनेक साखियों पर पदों को आदि-ग्रंथ में उद्धृत किया है गुरु नानकजी का जन्म संवत् 1526 में और मृत्यु संवत् 1596 में हुई रेवरंड वेस्टकाट लिखते हैं कि जब नानक 27 वर्ष के थे, तब कबीरदासजी से उनकी भेंट हुई थी। नानकदेवजी पर कबीरदास का इतना स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है कि इस घटना को सत्य मानने की प्रवृत्ति होती है, जिससे कबीर का संवत् 1556 में वर्तमान रहना मानना पड़ता है। परंतु संवत्1505 में कबीर की मृत्यु मानने से यह घटना असंभव हो जाती है।

जिन दो हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर इस ग्रंथावली का संपादन हुआ है, उनमें से एक संवत् 1561 की लिखी है। यदि कबीरदास की मृत्यु 1505 में हुई तो यह प्रतिलिपि उनकी मृत्यु के 56 वर्ष पीछे तैयार की गयी होगी। ऐसा प्रसिद्ध है कि कबीरदासजी के प्रधान शिष्य और उत्तराधिकारी धर्मदासजी ने संवत् 1521 में जब कि कबीरदासजी की आयु 65 वर्ष की थी, अपने गुरु के वचनों का संग्रह किया था। जिस ढंग से कबीरदासजी की वाणी का संग्रह इस प्रति में किया गया है उसे देखकर यह मानना पड़ेगा कि यह पहला संकलन नहीं था, वरन् अन्य संकलनों केआधार पर पीछे से किया गया था, अथवा कोई आश्चर्य नहीं कि धर्मदास के संग्रह के ही आधार पर इसका संकलन किया गया हो।

[टिप्पणी: ग्रंथसाहब में कबीरदास की बहुत सी साखियाँ और पद दिए हैं। उनमें से बहुत से ऐसे हैं जो सं. 1561की हस्तलिखित प्रति में नहीं हैं। इससे यह मानना पड़ेगा कि या तो यह संवत् 1591 वाली प्रति अधूरी है अथवा इस प्रति के लिखे जाने के 100 वर्ष के अन्दर बहुत सी साखियाँ आदि कबीरदासजी के नाम से प्रचलित हो गयी थीं, जो कि वास्तव में उनकी न थीं। यदि कबीरदास का निधन संवत् 1505 में मान लिया जाता है तो यह बात असंगत नहीं जान पड़ती कि इस प्रति के लिखे जाने के अनन्तर 14 वर्ष तक कबीरदासजी जीवित रहे हों और इसबीच में उन्होंने और बहुत से पद बनाए हों जो ग्रंथसाहब में सम्मिलित कर लिए गये हों।]

इस ग्रंथावली (पुस्तक संस्करण) में कबीरदासजी के दो चित्र दिए गये हैं-एक युवावस्था का और दूसरा वृद्धावस्था का। पहला चित्र कलकत्ता म्यूजियम से प्राप्त हुआ है और दूसरा मुझे कबीरपंथी स्वामी युगलानंदजी से मिला है। मिलान कराने से दोनों चित्र एक ही व्यक्ति के नहीं मालूम पड़ते, दोनों की आकृतियों में बड़ा अंतर है। यदि दोनों नहीं तो इनमें से कोई एक अवश्य अप्रामाणिक होगा, दोनों ही अप्रामाणिक हो सकते हैं, परंतु श्रीयुत युगलानंदजी वृद्धावस्थावाले चित्र के लिए अत्यंत प्रामाणिकता का दावा करते हैं, जो 49 वर्ष से अधिक अवस्थावाले व्यक्ति का ही हो सकता है। नहीं कह सकते कि यह दावा कहाँ तक साधार और सत्य है, परंतु यह ठीक है तो मानना पड़ेगा कि कबीरदासजी की मृत्यु 1505 के बहुत पीछे हुई।

इन सब बातों पर एक साथ विचार करने से यही संभव जान पड़ता है कि कबीरदासजी का जन्म 1456 में और मृत्यु संवत् 1575 में हुई होगी। इस हिसाब से उनकी आयु 119 वर्ष की होती है, जिस पर बहुत लोगों को विश्वास करने की प्रवृत्ति न होगी, परंतु जो इस युग में भी असंभव नहीं हैं।

माता-पिता

यह कहा जा चुका है कि कबीरदासजी के जीवन की घटनाओं के संबंध में कोई निश्चित बात ज्ञात नहीं होती,क्योंकि उन सबका आधार जनसाधारण और विशेषकर कबीरपंथियों में प्रचलित दंतकथाएँ हैं। कहते हैं कि काशी में एक सात्विक ब्राह्मण रहते थे जो स्वामी रामानंदजी के बड़े भक्त थे। उनकी एक विधवा कन्या थी। उसे साथ लेकर एक दिन वे स्वामीजी के आश्रम पर गये। प्रणाम करने पर स्वामीजी ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। ब्राह्मण देवता ने चौंककर जब पुत्री का वैधव्य निवेदन किया तब स्वामीजी ने सखेद कहा कि मेरा वचन तो अन्यथा नहीं हो सकता है, परंतु इतने से संतोष करो कि इससे उत्पन्न पुत्र बड़ा प्रतापी होगा।

आशीर्वाद के फलस्वरूप जब इस ब्राह्मण कन्या को पुत्र उत्पन्न हुआ तो लोकलज्जा और लोकापवाद के भय से उसने उसे लहर तालाब के किनारे डाल दिया। भाग्यवश कुछ ही क्षण के पश्चात् नीरू नाम का एक जुलाहा अपनी स्त्री नीमा के साथ उधर से आ निकला। इस दम्पति के कोई पुत्र न था। बालक का रूप पुत्र के लिए लालायित दम्पति के हृदय में चुभ गया और वे इसी बालक का भरण-पोषण कर पुत्र वाले हुए। आगे चलकर यही बालक परम भगवद्भक्त कबीर हुआ।

कबीर का विधवा ब्राह्मण कन्या का पुत्र होना असंभव नहीं किंतु स्वामी रामानंदजी के आशीर्वाद की बात ब्राह्मण कन्या का कलंक मिटाने के उद्देश्य से ही पीछे से जोड़ी गयी जान पड़ती है, जैसे कि अन्य प्रतिभाशाली व्यक्तियों के संबंध में जोड़ी गयी है। मुसलमान घर में पालित होने पर भी कबीर हिंदू विचारों में सराबोर होना उनके शरीर में प्रवाहित होने वाले ब्राह्मण अथवा कम से कम हिंदू रक्त की ही ओर संकेत करता है। स्वयं कबीरदास ने अपनेमाता-पिता का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है और जहाँ कहीं उन्होंने अपने संबंध में कुछ कहा भी है वहाँ अपने को जुलाहा और बनारस का रहने वाला बताया है-

'जाति जुलाहा मति को धीर। हरषि हरषि गुण रमै कबीर'॥

'मेरे राम की अभैपद नगरी, कहै कबीर जुलाहा।'

'तू ब्राह्मन मैं काशी का जुलाहा।'

परंतु जान पड़ता है कि उनकी हार्दिक इच्छा थी कि यदि मेरा ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ होता तो अच्छा होता। वे पूर्व जन्म के अपने ब्राह्मण होने की कल्पना कर अपना परितोष कर लेते हैं। एक पद में वे कहते हैं-

'पूरब जनम हम ब्राह्मन होते वोछे करम तप हीना।

रामदेव की सेवा चूका पकरि जुलाहा कीना॥'

ग्रंथसाहब में कबीरदास का एक पद दिया है जिसमें कबीरदास कहते हैं- 'पहले दर्शन मगहर पायो पुनि काशी बसे आयी।' एक दूसरे पद में कबीरदास कहते हैं- 'तोरे भरोसे मगहर बसियो मेरे मन की तपन बुझाई।' यह तो प्रसिद्ध ही है कि कबीरदास अंत में मगहर में जाकर बसे और वहीं उनका परलोकवास हुआ। पर 'पहले दर्शन मगहर पायो पुनि काशी बसे आयी' से तो यह ध्वनि निकलती है कि उनका जन्म ही मगहर में हुआ था और फिर ये काशी में आकर बस गये और अंत में फिर मगहर में जाकर परलोक सिधारे। तो क्या विधवा ब्राह्मणी के गर्भ में जन्म पाने और नीरू तथा नीमा से पालित-पोषित होने की समस्त कथा केवल मनगढ़ंत है और उसमें कुछ भी सार नहीं। यह विषय विशेष रूप से विचारणीय है।

कुछ लोग कबीर को नीरू और नीमा का औरस पुत्र मानते हैं, परंतु इस मत के पक्ष में कोई साधार प्रमाण अब तक किसी ने नहीं दिया। स्वयं कबीर की एक उक्ति हम ऊपर दे चुके हैं जिसमें उनका जन्म से मुसलमान न होना प्रकट होता है, परंतु 'जौ रे खुदाई तुरक मोहि करता आपै कटि किन जाई' से यह ध्वनित होता है कि वेमुसलमान माता-पिता की संतति थे। सब बातों पर विचार करने से इसी मत के ठीक होने की अधिक संभावना है कि कबीर ब्राह्मणी या किसी हिंदू स्त्री के गर्भ से उत्पन्न और मुसलमान परिवार में लालित-पालित हुए थे। कदाचित् उनका बालकपन मगहर में बीता हो और पीछे से आकर काशी में बसे हों, जहाँ से अंतकाल के कुछ पूर्व उन्हें पुनः मगहर में जाना पड़ा हो।

गुरु

किंवदंती है कि जब कबीर भजन गा-गा कर उपदेश देने लगे तब उन्हें पता चला कि बिना किसी गुरु से दीक्षा लिये हमारे उपदेश मान्य नहीं होंगे क्योंकि लोग उन्हें 'निगुरा' कहकर चिढ़ाते थे। लोगों का कहना था कि जिसने किसी गुरु से उपदेश नहीं ग्रहण किया, वह औरों को क्या उपदेश देगा! अतएव कबीर को किसी को गुरु बनाने की चिंता हुई। कहते हैं, उस समय स्वामी रामानंदजी काशी में सबसे प्रसिद्ध महात्मा थे। अतएव कबीर उन्हीं की सेवा में पहुँचे। परंतु उन्होंने कबीर के मुसलमान होने के कारण उनको अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। इस पर कबीर ने एक चाल चली जो अपना काम कर गयी। रामानंदजी पंचगंगा घाट पर नित्य प्रति प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में ही स्नान करने जाया करते थे उस घाट की सीढ़ियों पर कबीर पहले से ही जाकर लेट रहे। स्वामीजी जब स्नान करके लौटे तो उन्होंने अँधेरे में इन्हें न देखा, उनका पाँव इनके सिर पर पड़ गया जिस पर स्वामीजी के मुँह से 'राम राम' निकल पड़ा। कबीर ने चट उठकर उनके पैर पकड़ लिये और कहा कि आप राम राम का मंत्र देकर आज मेरे गुरु हुए हैं। रामानंदजी से कोई उत्तर देते न बना। तभी से कबीर ने अपने को रामानंद का शिष्य प्रसिद्ध कर दिया।

'कासी में हम प्रकट भये हैं रामानंद चेताए' कबीर का यह वाक्य इस बात के प्रमाण में प्रस्तुत किया जाता है कि रामानंदजी उनके गुरु थे। जिन प्रतियों के आधार पर इस ग्रंथावली का संपादन किया गया है उसमें यह वाक्य नहीं है और न ग्रंथसाहब ही में यह मिलता है। अतएव इसको प्रमाण मानकर इसके आधार पर कोई मत स्थिर करना उचित नहीं जँचता। केवल किंवदंती के आधार पर रामानंदजी को उनका गुरु मान लेना ठीक नहीं। यह किंवदंती भी ऐतिहासिक जाँच के सामने ठीक नहीं ठहरती। रामानंदजी की मृत्यु अधिक से अधिक देर में मानने से संवत्1467 में हुई, इससे 14 या 15 वर्ष पहले भी उनके होने का प्रमाण विद्यमान है। उस समय कबीर की अवस्था 11 वर्ष की रही होगी, क्योंकि हम ऊपर उनका जन्म संवत् 1456 सिद्ध कर आये हैं। 11 वर्ष के बालक का घूम-फिरकर उपदेश देने लगना सहसा ग्राह्य नहीं होता और यदि रामानंदजी की मृत्यु संवत् 1453 के लगभग हुई तो यह किंवदंती झूठ ठहरती है; क्योंकि उस समय तो कबीर को संसार में आने के लिए अभी तीन-चार वर्ष रहे होंगे।

पर जब तक कोई विरुद्ध दृढ़ प्रमाण नहीं मिलते, तब तक हम इस लोकप्रसिद्ध बात को कि रामानंदजी कबीर के गुरु थे, बिलकुल असत्य भी नहीं ठहरा सकते। हो सकता है कि बाल्यकाल में बार-बार रामानंदजी के साक्षात्कार तथा उपदेशश्रवण से ('गुरु के सबद मेरा मन लागा') अथवा दूसरों के मुँह से उनके गुण तथा उपदेश सुनने में बालक कबीर के चित्त पर गहरा प्रभाव पड़ गया हो जिसके कारण उन्होंने आगे चलकर उन्हें अपना मानस गुरु मान लिया हो। कबीर मुसलमान माता-पिता की संतति हों चाहे नहीं किंतु मुसलमान के घर में लालित-पालितहोने पर भी उनका हिंदू विचारधारा में आप्लावित होना उन पर बाल्यकाल ही से किसी प्रभावशाली हिंदू का प्रभाव होना प्रदर्शित करता है-

'हम भी पाहन पूजते होते बन के रोझ।

सतगुरु की किरपा भई सिर तैं उतरय्या बोझ॥'

से प्रकट होता है कि अपने गुरु रामानंद से प्रभावित होने से पहले कबीर पर हिंदू प्रभाव पड़ चुका था जिससे वे मुसलमान कुल में परिपालित होने पर भी 'पाहन' पूजने वाले हो गये थे। कबीर लोगों के कहने से कोई काम करने वाले नहीं थे। उन्होंने अपना सारा जीवन ही अपने समय के अंधविश्वासों के विरुद्ध लगा दिया था। यदि स्वयं उनका हार्दिक विश्वास न होता कि गुरु बनाना आवश्यक है, तो वे किसी के कहने की परवा न करते। किंतु उन्होंने स्वयं कहा है-

'गुरु बिन चेला ज्ञान न लहै।'

'गुरु बिन इह जग कौन भरोसा, करके संग ह्नै रहिए।'

परंतु वे गुरु और शिष्य का शारीरिक साक्षात्कार आवश्यक नहीं समझते थे। उनका विश्वास था कि गुरु के साथ मानसिक साक्षात्कार से भी शिष्यत्व का निर्वाह हो सकता है-

'कबीर गुरु बसै बनारसी सिष समंदर तीर।

बिसर्‌या नहीं बींसरे जे गुण होई सरीर॥'

कबीर अपने आप में शिष्य के लिए आवश्यक गुणों का अभाव नहीं समझते थे। वे उन एक आध में से थे जो गुरुज्ञान से अपना उद्धार कर सकते थे, जिनके संबंध में कबीर ने कहा है-

'माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़ंत।

कहै कबीर गुरु ज्ञान थैं, एक आध उबरंत॥'

मुसलमान कबीरपंथियों का कहना है कि कबीर ने सूफी फकीर शेख तकी से दीक्षा ली थी। कबीर ने अपने गुरु के बनारस निवासी होने का स्पष्ट उल्लेख किया है। इस कारण ऊँजी के पीर और तकी उनके गुरु नहीं हो सकते।'घट घट है अविनासी सुनहु तकी तुम शेख' में उन्होंने तकी का नाम उस आदर से नहीं लिया है जिस आदर सेगुरु का नाम लिया जाता है और जिसके प्रभाव से कबीर ने असंभव का भी संभव होना लिखा है-

'गुरु प्रसाद सूई कै नोकैं हस्ती आवै जाहि॥'

बल्कि उल्टे वे तो तकी को ही उपदेश देते जान पड़ते हैं। यद्यपि यह वाक्य इस ग्रंथावली में कहीं नहीं मिलता फिर भी स्थान-स्थान पर 'शेख' शब्द का प्रयोग मिलता है जो विशेष आदर से नहीं लिया गया है वरन् जिसमें फटकार की मात्रा ही अधिक देख पड़ती है। अतः तकी कबीर के गुरु तो हो ही नहीं सकते, हाँ यह हो सकता है कि कबीर कुछ समय तक उनके सत्संग में रहे हों, जैसा कि नीचे लिखे वचनों से भी प्रकट होता है। पर यह स्वयं कबीर के वचन हैं, इसमें भी संदेह है-

'मानिकपुरहिं कबीर बसेरी। मदहति सुनि शेख तकि केरी।

ऊजी सुनी जौनपुर थाना। झूँसी सुनि पीरन के नामा॥'

परंतु इसके अनन्तर भी वे जीवनपर्यंत राम नाम रटते रहे जो स्पष्टतः रामानंद के प्रभाव का सूचक है; अतएव स्वामी रामानंद को कबीर का गुरु मानने में कोई अड़चन नहीं है; चाहे उन्होंने स्वयं उन्हीं से मंत्र ग्रहण किया हो अथवा उन्हें अपना मानस गुरु बनाया हो। उन्होंने किसी मुसलमान फकीर को अपना गुरु बनाया हो इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता।

शिष्य

धर्मदास और सुरतगोपाल नाम के कबीर के दो चेले हुए। धर्मदास बनिए थे। उनके विषय में लोग कहते हैं कि वे पहले मूर्तिपूजक थे, उनका कबीर से पहले पहल काशी में साक्षात्कार हुआ था। उस समय कबीर ने उन्हें मूर्तिपूजक होने के कारण खूब फटकारा था। फिर वृंदावन में दोनों की भेंट हुई। उस समय उन्होंने कबीर को पहचाना नहीं; पर बोले- 'तुम्हारे उपदेश ठीक वैसे हैं जैसे एक साधु ने मुझे काशी में दिए थे।' इस समय कबीर ने उनकी मूर्ति को, जिसे वे पूजा के लिए सदैव अपने साथ रखते थे, जमुना में डाल दिया। तीसरी बार कबीर स्वयं उनके घर बाँधोगढ़ पहुँचे। वहाँ उन्होंने उनसे कहा कि तुम उसी पत्थर की मूर्ति पूजते हो जिसके तुम्हारे तौलने के बाट हैं। उनके दिल में यह बात बैठ गयी और ये कबीर के शिष्य हो गये। कबीर की मृत्यु के बाद धर्मदास ने छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ की एक अलग शाखा चलाई और सुखगोपाल काशीवाली शाखा की गद्दी के अधिकारी हुए। धीरे-धीरे दोनों शाखाओं में बहुत भेद हो गया।

कबीर कर्मकांड को पाखंड समझते थे और उसके विरोधी थे; परंतु आगे चलकर कबीरपंथ में कर्मकांड की प्रधानता हो गयी। कंठी और जनेऊ कबीरपंथ में भी चल पड़े। दीक्षा से मृत्युपर्यंत कबीरपंथियों को कर्मकांड की कई क्रियाओं का अनुसरण करना पड़ता है। इतनी बात अवश्य है कि कबीरपंथ में जातपाँत का कोई भेद नहीं है हिंदू-मुसलमान दोनों धर्म के लोग उसमें सम्मिलित हो सकते हैं। परंतु ध्यान रखने की बात यह है कि कबीरपंथ में जाकर भी हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं मिट जाता। हिंदू धर्म का प्रभाव इतना व्यापक है कि उससे अलग होने पर भी भारतीय नये-नये मत अंत में उसके प्रभाव से नहीं बच सकते।

गार्हस्थ्य जीवन

कबीर के साथ प्रायः लोई का भी नाम लिया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह कबीर की शिष्या थी और आजन्म उनके साथ रही! अन्य इसे उनकी परिणीता स्त्री बताते हैं और कहते हैं कि इसके गर्भ से कबीर को कमाल नाम का पुत्र और कमाली नाम की पुत्री हुई थी। कबीर ने लोई को संबोधन करके कई पद कहे हैं। एक पद में वे कहते हैं-

रे यामें क्या मेरा क्या तेरा, लाज न मरहिं कहत घर मेरा।

कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम विनसि रहेगा सोई।

इसमें लोई और कबीर का एक घर होना कहा गया है। जिससे लोई को कबीर की स्त्री होना ही अधिक संभव जान पड़ता है। कबीर ने कामिनी की बहुत निंदा की है। संभवतः इसीलिए लोई के संबंध में उनकी पत्नी के स्थान में शिष्या होने की कल्पना की गयी है-

'नारि नसावै तीनि सुख, जो नर पासै होइ।

भगति मुकति निज ज्ञान में, पैसि न सकई कोइ॥

एक कनक अरु कामिनी, विष फल कीएउ पाइ।

देखे ही थे विष चढ़े, खाए सूँ मरि जाइ॥'

परंतु कामिनी कांचन की निंदा के उनके वाक्य वैराग्यावस्था के समझने चाहिए। यह अधिक संगत जान पड़ता है कि लोई कबीर की पत्नी थी जो कबीर के विरक्त होकर नवीन पंथ चलाने पर उनकी अनुगामिनी हो गयी। कहते हैं कि लोई एक बनखण्डी वैरागी की परिपालिता कन्या थी। वह लोई उस वैरागी को स्नान करते समय लोई में लपेटी और टोकरी में रखी हुई गंगाजी में बहती हुई मिली थी। लोई में लपेटी हुई मिलने के कारण ही उसका नाम लोई पड़ा। बनखण्डी वैरागी की मृत्यु के बाद एक दिन कबीर उनकी कुटिया में गये। वहाँ अन्य संतों के साथ उन्हें भी दूध पीने को दिया गया, औरों ने तो दूध पी लिया, पर कबीर ने अपने हिस्से का रख छोड़ा। पूछने पर उन्होंने कहा कि गंगापार एक साधु आ रहे हैं, उन्हीं के लिए रख छोड़ा है। थोड़ी देर में सचमुच एक साधु आ पहुँचा जिससे अन्य साधु कबीर की सिद्धई पर आश्चर्य करने लगे। उसी दिन से लोई उनके साथ हो ली।

कबीर की संतति के विषय में तो कोई प्रमाण नहीं मिलता। कहते हैं कि उनका पुत्र कमाल उनके सिद्धान्तों का विरोधी था। इसी से कबीर ने कहा-

'डूबा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल।

हरि का सुमिरन छाँड़ि के, घर ले आया माल।'

इस दोहे के भी कबीरकृत होने में संदेह ही है। परंतु कमाल के कई पद ग्रंथसाहब में सम्मिलित किए गये हैं।

अलौकिक कृत्य

कबीर के विषय में कई आश्चर्यजनक कथाएँ प्रसिद्ध हैं जिनसे उनमें लोकोत्तर शक्तियों का होना सिद्ध किया जाता है। महात्माओं के विषय में प्रायः ऐसी कल्पनाएँ की ही जाती हैं यद्यपि इस युग में इस प्रकार की बातों पर शिक्षित और समझदार लोग विश्वास नहीं करते; परंतु फिर भी महात्मा गाँधी के विषय में भी असहयोग के समय में ऐसी कई गप्पें उड़ी थीं। अतएव हम उन सबका उल्लेख मात्रा करके व्यर्थ इस प्रस्तावना का कलेवर बढ़ाना उचित नहीं समझते। यहाँ एक ही कथा दे देना पर्याप्त होगा, जिसके लिए कुछ स्पष्ट आधार है।

कहते हैं कि एक बार सिकंदर लोदी के दरबार में कबीर पर अपने आपको ईश्वर कहने का अभियोग लगाया गया। काजी ने उन्हें काफिर बताया और उनको मंसूर हल्लाज की भाँति मृत्युदण्ड की आज्ञा हुई। बेड़ियों से जकड़े हुए कबीर नदी में फेंक दिए गये। परंतु जिन कबीर को माया मोह की शृंखला न बाँध सकती थी, जिनकी पाप कीबेड़ियाँ कट चुकी थीं उन्हें यह जंजीर बाँधे न रख सकी और वे तैरते हुए नदी तट पर आ खड़े हुए। अब काजी ने उन्हें धधकते हुए अग्निकुण्ड में डलवाया; किंतु उनके प्रभाव से आग बुझ गयी और कबीर की दिव्य देह पर आँच तक न आयी। उनके शरीर नाश के इस उद्योग के भी निष्फल हो जाने पर उन पर एक मस्त हाथी छोड़ा गया। उनके पास पहुँचकर हाथी उन्हें नमस्कार कर चिग्घाड़ता हुआ भाग खड़ा हुआ। इसका आधार कबीर का यह पद कहा जाता है-

'अहो मेरे गोव्यंद तुम्हारा जोर, काजी बकिवा हस्ती तोर॥

बाँधि भुजा भले करि डारौं, हस्ती कोपि सूँड मैं मारौं॥

भाग्यो हस्ती चीसा मारी, वा मूरति की मैं बलिहारी॥

महावत तोकूँ मारी साँटी, इसही मराउँ धालौं काटी॥

हस्ती न तोरै धरे ध्रियान, वाकै हिरदे बसै भगवान॥

कहा अपराध संत हौं कीन्हाँ, बाँधि पोट कुंजर कू दीन्हा॥

कुंजर पोट बहु बंदन करै, अँगहुँ न सूझै काजी अँधरै॥

तीनि बेर पतियारा लीन्हा, मन कठोर अजहूँ न पतीनाँ॥

कहै कबीर हमारे गोव्यंद, चौथे पद भै जन को गयंद॥'

परंतु यह पद प्राचीन प्रतियों में नहीं मिलता। यदि यह कबीरजी का ही कहा हुआ है तो इस पद से केवल यह प्रकट होता है कि उनको मारने के तीनों प्रयत्न हाथी के द्वारा किए गये थे, क्योंकि इसमें उनके नदी में फेंके जाने या आग में जलाए जाने का कोई उल्लेख नहीं है। ग्रंथसाहब में कबीरजी का यह पद भी मिलता है जो गंगा में जंजीर से बाँधकर फेंके जानेवाली कथा से संबंध रखता है-

'गंगा गुसाइन गहिर गँभीर। जंजीर बाँध करि खरे कबीर॥

गंगा की लहरि मेरी टूटी जंजीर। मृगछाला पर बैठे कबीर॥'

मृत्यु

कबीर का जीवन अंधविश्वासों का विरोध करने में ही बीता था। अपनी मृत्यु से भी उन्होंने इसी उद्देश्य की पूर्ति की। काशी मोक्षदापुरी कही जाती है। मुक्ति की कामना से लोग काशीवास करके यहाँ तन त्यागते हैं और मगहर में मरने का अनिवार्य परिणाम या फल नरकगमन माना जाता है। यह अंधविश्वास अब तक चला आता है। कहते हैं कि इसी के विरोध में कबीर मरने के लिए काशी छोड़कर मगहर चले गये थे। वे अपनी भक्ति के कारण ही अपने आपको मुक्ति का अधिकारी समझते थे। उन्होंने कहा भी है-

'जो काशी तन तजै कबीरा तौ रामहिं कहा निहोरा रे।'

इस अंधविश्वास का उन्होंने जगह-जगह खंडन किया है-

(क) 'हिरदै कठोर मरो बनारसी नरक न बंच्या जाई।

हरि को दास मरै जो मगहर सेन्या सकल तिहाई॥'

(ख) 'जस कासी तस मगहर ऊसर हृदय रामसति होई।'

आदि ग्रंथ में उनका नीचे लिखा पद मिलता है-

'ज्यों जल छाड़ि बाहर भयो मीना। पूरब जनम हौं तप का हीना॥

अब कहु राम कवन गति मोरी। तजिले बनारस मति भइ थोरी॥

बहुत बरष तप कीया कासी। मरनु भया मगहर को बासी॥

कासी मगहर सम बीचारी। ओछी भगति कैसे उतरसि पारी॥

कहु गुर गति सिव संभु को जानै। मुआ कबीर रमता श्री रामै॥'

कबीर के ये वचन मरने के कुछ ही समय पहले के जान पड़ते हैं। आरंभिक चरणों में जो क्षोभ प्रकट किया है, वह इसलिए कि बनारस उनका जन्मस्थान था जो सभी को अत्यंत प्रिय होता है। बनारस के साथ वे अपना संबंध वैसा ही घनिष्ठ बतलाते हैं जैसा जल और मछली का होता है। काशी और मगहर को वे अब भी समान समझते थे। अपनी मुक्ति के संबंध में उन्हें तनिक भी संदेह नहीं था, क्योंकि उन्हें परमात्मा की सर्वज्ञता में अटल विश्वास था, 'शिव सम को जनै' और राम का नाम जाप करते-करते वे शरीर त्यागने जा रहे थे 'मुआ कबीर रमत श्री राम।'

उनकी अन्त्येष्टि क्रिया के विषय में एक बहुत ही विलक्षण प्रवाद प्रसिद्ध है। कहते हैं हिंदू उनके शव का अग्निसंस्कार करना चाहते थे और मुसलमान उसे कब्र में गाड़ना चाहते थे। झगड़ा यहाँ तक बढ़ा कि तलवारें चलने की नौबत आ गयी। पर हिंदू-मुसलिम ऐक्य की प्रयासी कबीर की आत्मा यह बात कब सहन कर सकती थी। आत्मा ने आकाशवाणी की 'लड़ो मत! कफन उठाकर देखो।' लोगों ने कफन उठाकर देखा तो शव के स्थान पर एक पुष्प राशि पाई गयी, जिसको हिंदू-मुसलमान दोनों ने आधा-आधा बाँट लिया। अपने हिस्से के फूलों को हिन्दुओं ने जलाया और उनकी राख को काशी ले जाकर समाधिस्थ किया। वह स्थान अब तक कबीरचौरा के नाम से प्रसिद्ध है। अपने हिस्से के फूलों के ऊपर मुसलमानों ने मगहर ही में कब्र बनाई। यह कहानी भी विश्वास करने योग्य नहीं है, परंतु इसका मूल भाव अमूल्य है।

तात्विक सिद्धांत

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, कबीर ने चाहे जिस प्रकार हो रामानंद से रामनाम की दीक्षा ली थी; परंतु कबीर के राम रामानंद के राम से भिन्न थे। वे 'दुष्टदलन रघुनाथ' नहीं थे जिनके सेवक 'अंजनिपुत्र महाबलदायक, साधु-संत पर सदा सहायक' थे। राम से उनका अभिप्राय कुछ और ही था-

'दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना॥'

राम से उनका तात्पर्य निर्गुण ब्रह्म से है। उन्होंने 'निरगुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई' का उपदेश दिया है। उनकी रामभावना भारतीय ब्रह्म भावना से सर्वथा मिलती है। जैसा कि कुछ लोग भ्रमवश समझते हैं, वे ब्रह्मार्थवादमूलक मुसलमानी एकेश्वरवाद या खुदावाद के समर्थक नहीं थे। निरगुण भावना भी उनके लिए स्थूल भावना है जो मूर्तिपूजकों की सगुण भावना के विरोधीपक्ष का प्रदर्शन मात्रा करती है। उनकी भावना इससे भी अधिक सूक्ष्म है। वे राम, को सगुण और निर्गुण दोनों समझते हैं-

'अला एकै नूर उपनाया ताकी कैसी निंदा।

ता नूर थै जग कीया कौन भला कौन मंदा॥'

यह मुसलमानों की ही तर्कशैली का आश्रय लेकर 'खुदा के बन्दों' और काफिरों की एकता प्रतिपादन करने के लिए कहा जान पड़ता है, मुसलमानी मत के समर्थन में नहीं, क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा है-

'खालिक खलक, खलक में खालिक सब घट रह्यो समाई।'

जो भारतीय ब्रह्म भावना के ही परम अनुकूल है।

कबीर केवल शब्दों को लेकर झगड़ा करने वाले नहीं थे। अपने भाव व्यक्त करने के लिए उन्होंने उर्दू, फारसी,संस्कृत आदि सभी शब्दों का उपयोग किया है। अपने भाव प्रकट करने भर से उन्होंने मतलब रखा है। शब्दों के लिए वे विशेष चिन्तित नहीं दिखाई देते। ब्रह्म के लिए, राम, रहीम, अल्ला, सत्यनाम, गोब्यन्द, साहब, आप आदि अनेक शब्दों को उन्होंने प्रयोग किया है। उन्होंने कहा भी है 'अपरम्पार का नाउँ अनन्त।' ब्रह्म के निरूपण के लिए शब्दों के प्रयोग में जो अत्यंत शुद्धता और सावधानी बहुत आवश्यक है, कबीर में उसे पाने की आशा करना व्यर्थ है, क्योंकि कबीर का तत्त्वज्ञान दार्शनिक ग्रंथों के अध्ययन का फल नहीं है, वह उनकी अनुभूति और सारग्राहिता का प्रसाद है। पढ़े-लिखे तो वे थे ही नहीं, उन्होंने जो कुछ ज्ञानसंचय किया, वह सब सत्संग और आत्मानुभव से था। हिंदू-मुसलमान सभी संत फकीरों का इन्होंने समागम किया था, अतएव हिंदू भावों के साथ इनमें मुसलमानी भाव भी पाए जाते हैं। यद्यपि इनकी रचनाओं में भारतीय ब्रह्मवाद का पूरा-पूरा ढाँचा पाया जाता है, तथापि उसकी प्रायः वे ही बातें इन्होंने अधिक विस्तृत रूप से वर्णन के लिए उठाई हैं जो मुसलमानी एकेश्वरवाद के अधिक मेल में थीं। इनका ध्येय सर्वदा हिंदू-मुस्लिम ऐक्य रहा है, यह भी इसका एक कारण है।

स्थूल दृष्टि से तो मूर्तिद्रोही एकेश्वरवाद और मूर्तिपूजक बहुदेववाद में बहुत बड़ा अंतर है, परंतु यदि सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाए तो उनमें उतना अंतर नहीं देख पड़ेगा, जितना एकेश्वरवाद और ब्रह्मवाद में है, परन् सारतः वे दोनों एक ही हैं, क्योंकि बहुत से देवी-देवताओं को अलग-अलग मानना और सबके गुरु गोवर्धनदास एक ईश्वर को मानना एक ही बात है। परंतु ब्रह्मवाद का मूलाधार ही भिन्न है। उसमें लेशमात्रा भी भौतिकवाद नहीं है वह जीवात्मा, परमात्मा और जड़ जगत् तीनों की भिन्न सत्ता मानता है, जब कि ब्रह्मवाद शुद्ध आत्मतत्त्व अर्थात् चैतन्य के अतिरिक्त और किसी का अस्तित्व नहीं मानता। उसके अनुसार आत्मा भी परमात्मा ही है जड़ जगत् भी ब्रह्म है। कबीर में भौतिक या बाह्यार्थवाद कहीं मिलता ही नहीं और आत्मवाद की उन्होंने स्थान-स्थान पर अच्छी झलक दिखाई है।

ब्रह्म ही जगत् में एकमात्रा सत्ता है, इसके अतिरिक्त संसार में और कुछ नहीं है। जो कुछ है, ब्रह्म ही है। ब्रह्म ही से सबकी उत्पत्ति होती है और फिर उसी में सब लीन हो जाते हैं। कबीर के शब्दों में-

'पाणी ही ते हिम भया, हिम ह्नै गया बिलाइ।

जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ॥'

विश्वविस्तृत सृष्टि और ब्रह्म का संबंध दिखाने के लिए ब्रह्मवादी दो उदाहरण दिया करते हैं। जिस प्रकार एक छोटे से बीज के अन्दर वट का बृहदाकार वृक्ष अंतर्हित रहता है उसी प्रकार यह सृष्टि भी ब्रह्म में अंतर्हित रहती है; और जिस प्रकार दूध में घी व्याप्त रहता है उसी प्रकार ब्रह्म भी इस अंडकटाह में सर्वत्र व्याप्त रहता है। कबीर ने इसे इस तरह कहा है-

'खालिक खलक, खलक में खालिक सब जग रह्यो समाई।'

सर्वव्यापि ब्रह्म जब अपनी लीला का विस्तार करता है तब इस नामरूपात्मक जगत् की सृष्टि होती है, जिसे वह इच्छा होने पर अपने ही में समेट लेता है-

'इन मैं आप आप सबहिन में आप आप सूँ खेलै।

नाना भाँति घड़े सब भाँड़े रूप धरे धरि मेलै॥'

वेदान्त में नामरूपात्मक जगत् से ब्रह्म का संबंध और कई प्रकार से प्रकट किया जाता है, जिनमें से एक प्रतिबिम्बवाद है जिसका कबीर ने भी सहारा लिया है। प्रतिबिम्बवाद के अनुसार ब्रह्म बिम्ब है और नामरूपात्मक दृश्य जगत् उसका प्रतिबिम्ब है। कबीर कहते हैं-

'खण्डित मूल बिनास कहौ किम बिगतह कीजै।

ज्यूँ जल मैं प्रतिव्यंब, त्यूँ सकल रामहिं जाणीजै॥'

'जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है' कहकर भी ब्रह्म का निरूपण किया जाता है परंतु केवल वाक्य के आश्रय से बनने वाले ज्ञानियों को इससे भ्रम हो सकता है कि पिण्ड और ब्रह्माण्ड ब्रह्म की अवस्थिति के लिए आवश्यक है। ऐसे लोगों के लिए कबीर कहते हैं-

'प्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई, वाकै आदि अरु अंत न होई।

प्यंड ब्रह्मंड छाड़ि जे कथिऐ, कहै कबीर हरि सोई॥'

वेदान्त के 'कनककुण्डलन्याय' के अनुसार जिस प्रकार सोने के कुण्डल बनता है और उस कुण्डल के टूटटाट अथवा पिघल जाने पर वह सोना ही रहता है, उसी प्रकार नामरूपात्मक दृश्यों की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है और ब्रह्म ही में वे समा जाते हैं-

'जैसे बहु कंचन के भूषन ये कहि गालि तवावहिंगे।

ऐसे हम लोक वेद के बिछुरे सुन्निहि माँहि समावेहिंगे॥'

इसी प्रकार का जलतरंग न्याय भी है-

'जैसे जलहि तरंग तरंगनी ऐसे हम दिखलावहिंगे।

कहै कबीर स्वामी सुखसागर हंसहिं हंस मिलावेहिंगे॥'

एक और तरह से कबीर ने भारतीय पद्धति से यह संबंध प्रदर्शित किया है-

'जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है, बाहरि भीतरि पानी।

फूटा कुंभ जल जलहि समानां, यह तत कथौ गियानी॥'

यह नामरूपात्मक दृश्य जो चर्म चक्षुओं को दिखाई देता है, जल में का घड़ा है जिसके बाहर भी ब्रह्मरूप वारि है और अन्दर भी। बाह्यरूप का नाश हो जाने पर घड़े के अन्दर का जल जिस प्रकार बाहरवाले जल में मिल जाता है उसी प्रकार ब्रह्म रूप के अभ्यंतर का ब्रह्म भी अपने बाह्यस्थ ब्रह्म में समा जाता है।

सब प्रकार से यही सिद्ध किया गया है कि परिवर्तनशील नाशवान् दृश्यों का अध्यारोप जिस एक अव्यय तत्व पर होता है, वही वास्तव है। जो कुछ दिखाई देता है, वह असत्य है, केवल मायात्मक भ्रांतिज्ञान है। यह बात कबीर नेस्पष्ट ही कह दी है-

'संसार ऐसा सुपिन जैसा जीव न सुपिन समान।'

जो मनुष्य माया के इस प्रसार को सच्चा समझकर उसमें लिपट जाता है उसे शुद्ध हंस स्वरूप जीव अर्थात् ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती।

बुद्धदेव के 'दुःख का सत्य' सिद्धांत के समान ही कबीर का भी सिद्धांत है कि यह संसार दुःख ही का घर है-

'दुनियाँ भाँड़ा दुःख का भरी मुँहामुँह मूष।

अदयां अलह राम की कुरहै उँणी कूष॥'

संसार का यह दुःख मायाकृत है परंतु जो लोग माया में लिपटे रहते हैं वे इस दुःख में पड़े हुए भी उसे समझ नहीं सकते। इस दुःख का ज्ञान उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने मायात्मक अज्ञानावरण हटा दिया है। माया में पड़े हुए लोग तो इस दुःख को सुख ही समझते हैं-

'सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै॥'

कबीर का दुःख अपने लिए नहीं है, वे अपने लिए नहीं रोते, संसार के लिए रोते हैं क्योंकि उन्होंने साईं के सब जीवों के लिए अपना अस्तित्व समर्पित कर दिया था, संसार के लिए ईसामसीह की तरह उन्होंने अपने आपको मिटा दिया था।

माया में पड़ा हुआ मनुष्य अपनी ही बात सोचता रहता है, इसी से वह परमात्मा को नहीं पा सकता। परमात्मा को पाने के लिए इस 'ममता' को छोड़ना पड़ता है-

'जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।'

इसीलिए ज्ञानी माया का त्याग आवश्यक बताते हैं। परंतु माया का त्याग कुछ खेल नहीं है। बाहर से वह इतनी मधुर जान पड़ती है कि उसे छोड़ते ही नहीं बनता-

'मीठी मीठी माया तजी न जाई।

अग्यानी पुरिष को भोलि भोलि खाई॥'

माया ही विषय वासनाओं को जन्म देती है-

'इक डाइन मेरे मन बसै। नित उठि मेरे जिया को डसै॥

या डाइन के लरिका पाँच रे। निसि दिन मोहि नचावै नाच रे॥'

माया के पाँच पुत्र काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर हैं। मनुष्य के अधःपात के कारण ये ही हैं। आत्मा की परमात्मिकता को यही व्यवधान में डालते हैं। अतएव परम तत्त्वार्थियों को इनसे सावधान रहना चाहिए-

'पंच चोर गढ़ मंझा, गढ़ लूटै दिवस अरु संझा।

जो गढ़पति मुहकम होई, तौ लूटि न सकै कोई॥'

माया ही पाखंड की जननी है। अतएव माया का उचित स्थान पाखंडियों के ही पास है। इसलिए माया को संबोधन कर कबीर कहते हैं-

'तहाँ जाहु जहँ पाट पटंबर, अगर चन्दन घसि लीना।'

कर्मकांड को भी कबीर पाखंड ही के अंतर्गत मानते हैं क्योंकि परमात्मा की भक्ति का संबंध मन से है, मन की भक्ति तन को स्वयं ही अपने अनुकूल बना लेगी, भक्ति की सच्ची भावना होने से कर्म भी अनुकूल होने लगेंगे परंतु केवल बाहरी माला जपने अथवा पूजापाठ करने से कुछ नहीं हो सकता। यह तो मानो और भी अधिक माया में पड़ना है-

'जप तप पूजा अरचा जोतिग जग बौराना।

कागद लिखि लिखि जगत भुलाना मन ही मन न समाना॥'

इसीलिए कबीर ने 'कर का मनका छाँड़ि के, मन का मनका फेर' का उपदेश दिया है। उनका मत है कि जो माया ऋषि, मुनि, दिगम्बर, जोगी और वेदपाठी ब्राह्मणों को भी धर पछाड़ती है, वही 'हरि भगत कै चेरी' है। काम, क्रोध,लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि माया के सहचारियों का मिट जाना 'हरि भजन' का आवश्यक अंग है-

'राम भजै सो जानिये, जाकै आतुर नाहीं।

सत संतोष लीयै रहैं, धीरज मन माहीं॥

जन कौं काम क्रोध व्यापै नहीं, त्रिष्णा न जरावै।

प्रफुलित आनंद मैं, गोब्यंद गुण गावै॥'

माया से बचने का एक उपाय जो भक्तों को बताया गया है, वह संसार से विमुख रहना है। जैसे उलटा घड़ा पानी में नहीं डूबता परंतु सीधा घड़ा भरकर डूब जाता है, वैसे ही संसार के सम्मुख होने से मनुष्य माया में डूब जाता है,परंतु संसार से विमुख होकर रहने से माया का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता-

'औंधा घड़ा न जल मैं डूबे, सूधा सूभर भरिया।

जाकौं यह जग घिन करि चालै, ता प्रसादि निस्तरिया॥'

माया का दूसरा नाम अज्ञान है। दर्पण पर जिस प्रकार काई लग जाती है, उसी प्रकार आत्मा पर अज्ञान का आवरण पड़ जाता है जिससे आत्मा में परमात्मा का प्रदर्शन अर्थात् आत्मज्ञान दुर्लभ हो जाता है अतएव आत्मा रूपी दर्पण को निर्मल रखना चाहिए-

'जौ दरसन देख्या चाहिए, तौ दरपन मंजत रहिए।

जब दरपन लागै काई, तब दरसन किया न जाई॥'

दरपन का यही माँजना हरिभक्ति करना है। भक्ति ही से मायाकृत अज्ञान दूर होता है और ज्ञानप्राप्ति के द्वारा अपने पराए का भेद मिटता है-

'उचित चेति च्यंति लै ताहीं। जा च्यंत आपा पर नाहीं॥

हरि हिरदै एक ग्यान उपाया। ताथै छूट गयी सब माया॥'

इस पद में 'च्यंति' शब्द विचारणीय है क्योंकि यह कबीर की भक्ति की विशेषता प्रकट करता है। यह कहना अधिक उचित होगा कि ज्ञानियों की ब्रह्मजिज्ञासा और वैष्णवों की सगुणभक्ति की विशेष विशेष बातों को लेकर कबीर ने अपनी निर्गुणभक्ति का भवन खड़ा किया अथवा वैष्णवों के तात्त्विक सिद्धान्तों और व्यावहारिक भक्ति के मिश्रण से कबीर की भक्ति का उद्भव हुआ है। सिद्धांत और व्यवहार में, कथनी और करनी में भेद रखना कबीर के स्वभाव के प्रतिकूल है। वैष्णवों में सदा से सिद्धांत और व्यवहार में भेद रहा है। सिद्धांत रूप से रामानुज जी ने विशिष्टाद्वैत वल्लभाचार्यजी ने शुद्धाद्वैत और माधवाचार्य ने द्वैत का प्रचार किया; पर व्यवहार के लिए सगुण भगवान की भक्ति का ध्येय ही सामने रखा गया।

सिद्धांत पक्ष का अज्ञेय ब्रह्म व्यवहार पक्ष में जाने बूझे मनुष्य के रूप में आ बैठा। हम दिखला चुके हैं कि कबीर अपने को वैष्णव समझते थे। परंतु सिद्धांत और व्यवहार का, कथनी और करनी का भेद वे पसन्द नहीं कर सकते थे, अतएव उन्होंने दोनों का मिश्रण कर अपनी निर्गुणभक्ति का भवन खड़ा किया जिसका मुसलमानी खुदावाद से भी बाहरी मेल था।

ज्ञानमार्ग के अनुसार निर्गुण निराकार ब्रह्म शुष्क चिन्तन का विषय है। कबीर ने इस शुष्कता को निकालकर प्रेमपूर्ण चिन्तन की व्यवस्था की है। कबीर के इस प्रेम के दो पक्ष हैं, पारमार्थिक और ऐहिक। पारमार्थिक अर्थ मेंप्रेम का अर्थ लगन है, जिसमें मनुष्य अपनी वृत्तियों को संसार की सब वस्तुओं से विमुख करके समेट लेता है और केवल ब्रह्म के चिन्तन में लगा देता है तथा ऐहिक पक्ष में उसका अभिप्राय संसार के सब जीवों से प्रेम और दया का व्यवहार करना है।

जिन्हें ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है केवल वे ही अमर हैं; जन्ममरण का भय उन्हें नहीं रह जाता। उनके अतिरिक्त और सब नश्वर हैं। कबीरदास कहते हैं कि मुझे ब्रह्म का साक्षात्कार हो गया है, इसीलिए वे अपने आप को अमर समझते हैं-

'हम न मरैं मरिहै संसारा, हम कूँ मिल्या जिवावनहारा।

अब न मरौं मरनै मन मानां, तेई मुए जिन राम न जाना॥'

मनुष्य की आत्मा ब्रह्म के साथ एक है और ब्रह्म ही एकमात्रा चिरस्थायी सत्ता है, जिसका नाश नहीं हो सकता। अतएव मनुष्य की आत्मा का भी नाश नहीं हो सकता, यही कबीर के अस्तित्व का रहस्य है-

'हरि मरिहैं तो हम मरिहैं, हरि न मरै हम काहे कूँ मरिहैं।'

परंतु साक्षात्कार के पहले इस अमरत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। परंतु उस प्रेम का मिलना सहज नहीं है, यह व्यक्तिगत साधना ही से उपलब्ध हो सकता है। यह पूर्ण आत्मोत्सर्ग चाहता है-

'कबीर भाटी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।

सिर सौंपै सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाइ॥'

जब मनुष्य आत्मोत्सर्ग की इस चरम सीमा पर पहुँच जाता है, तब उसके लिए यह प्रेम अमृत हो जाता है-

'नीझर झरै अमीरस निकसै तिहि मदिरावलि छाका।'

इस प्रेमरूप मदिरा को मनुष्य यदि एक बार भी पी लेता है तो जीवनपर्यंत उसका नशा नहीं उतरता और उसे अपने तन मन की सब सुध बुध भूल जाती है-

'हरि रस पीया जानिए, कबहुँ न जाय खुमार।

मैमंता घूमत रहे, नाहीं तन की सार॥'

यह परमानंद की अवस्था है, जिसमें मनुष्य का लौकिक अंश, जो अज्ञानावस्था में प्रधान रहता है, किसी गिनती में नहीं रह जाता; उसे अपने में अंतर्हित आत्मतत्त्व का ज्ञान हो जाता है और उस ब्रह्म के साथ तादात्म्य की अनुभूतिहो जाती है। इसी को साक्षात्कार होना कहते हैं। यह साक्षात्कार हो जाने पर अर्थात् ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होने पर मनुष्य ब्रह्म ही हो जाता है-ब्रह्मवित् ब्रह्मैव भवति। उपनिषद् के 'तत्त्वमसि' अथवा 'सोऽहं' भाव का यही रहस्य है-

'तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझमें रही न हूँ।

वारी फेरी बलि गयी, जित देखी तित तूँ॥'

यह सच है कि ऐतिहासिक अर्थ में निराकार निर्गुण ब्रह्म प्रेम का आलम्बन नहीं हो सकता, केवल चिन्तन का ही विषय हो सकता है, परंतु उस निराकार की इस विश्वविस्तृत सृष्टि में उस मूल तत्त्व की सत्ता का जो आभास मिल जाता है उसके कारण निर्गुण संसार के समस्त प्राणियों को अपने प्रेम और दया का पात्रा बना लेता है, जब कि सगुण भक्त की बहुत कुछ भावुकता ठाकुर जी की पूर्ति के बनाव शृंगार और उनके भोगराग के आडम्बर ही में व्यय हो जाती है। इसी प्रेम ने कबीर को ऊँच नीच का भेदभाव दूर कर सबकी एकता प्रतिपादित करने की प्रेरणा दी थी-

'एक बूँद एक मल मूतर एक चाम एक गूदा।

एक जाति थै सब उपजा कौन ब्राह्मन कौन सूदा॥'

जातिपाँति का ही नहीं इसी से धर्माधर्म का भेद भी उन्हें अवास्तविक जँचा-

'कहैं कबीर एक राम जपहु रे, हिंदू तुरक न कोई।'

कबीर का प्रेम मनुष्यों तक ही परिमित नहीं है, परमात्मा की सृष्टि के सभी जीव जन्तु उसकी सीमा के अन्दर आ जाते हैं क्योंकि 'सबै जीव साईं के प्यारे हैं।' अँगरेजी के कवि कॉलरिज ने भी यही भाव इस प्रकार प्रकट किया है-

'ही प्रेथ बेस्ट हू लव्थ बेस्ट,

आल थिंग्स बोथ ग्रेट ऐंड स्माल;

फार दि डियर गॉड हू लब्थ अस,

ही मेड ऐंड लव्थ आल।'

कबीर का यह प्रेमतत्व, जिसका ऊपर निरूपण किया गया है, सूफियों के संसर्ग का फल है परंतु उसमें भी उन्होंने भारतीयता का पुट दे दिया है। सूफी परमात्मा को प्रियतमा के रूप में देखते हैं। उनके 'मजनूँ' को अल्लाह भी लैला नजर आता है परंतु कबीरदास ने परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखा है जो भारतीय माधुर्य भाव के सर्वथा मेल में है। फारस में विरह व्यथा, पुरुषों के मत्थे और भारत में स्त्रियों के ही मत्थे अधिक मढ़ी जाती है। वहाँ प्रेमीप्रिया को अपना प्रेम जताने के लिए उत्कट उद्योग करते हैं, और यहाँ प्रेमिका विरह से व्याकुल होकर मुरझाए हुए फूल की तरह अपनी सत्ता तक मिटा देती है। इसी से वहाँ उपासक की पुरुष रूप में और यहाँ स्त्री रूप में भावनाकी गयी है। परंतु कबीर के सूफियाना भावों में भारतीयता कूट कूटकर भरी हुई है।

इस प्रकार निर्गुणवाद और सगुणवाद की एकेश्वरवाद से बाहरी समता रखने वाली बातों के सम्मिश्रण और उसके प्रेमतत्त्व के योग से कबीर की भक्ति का निर्माण हुआ। कबीर का विश्वास है कि भक्ति से मुक्ति हो जाती है-

'कहै कबीर संसा नाहीं भगति मुगति गति पाई रे।'

परंतु भक्ति निष्काम होनी चाहिए। परमात्मा का प्रेम अपस्वार्थ की पूर्ति का साधन नहीं है, मनुष्य को यह न सोचना चाहिए कि उससे मुझे कोई फल मिलेगा। यदि फल की कामना हो गयी, तो वह भक्ति भक्ति न रह गयी और न उससे सत्य की प्राप्ति ही हो सकती है-

'जब लग है बैकुंठ की आशा। तब लग न हरि चरन निवासा।'

ब्रह्म लौकिक वासनाओं से परे है। व्यक्तिगत उच्चतम 'साधन से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है, वह स्वयं भक्त के लिए विशेष चिन्तित नहीं रहता। क्योंकि भक्त भी ब्रह्म ही है। वह किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता, उसे अपने ब्रह्मत्व की अनुभूति भर कर लेनी पड़ती है जो, जैसा कि हम देख चुके हैं, कोई खेल नहीं है। इसीलिए ब्रह्म को अवतार धारण करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। जो कबीर मनुष्य से ऐहिक अंश छुड़ाकर उसे ब्रह्मत्व तक पहुँचाना चाहते हैं, उनकी ब्रह्म में लौकिक भावनाओं का समावेश करके उसका अधःपात करने की व्यग्रता स्वाभाविक ही है-

'ना दसरथ घरि औतरि आवा, लंका का राव सतावा।

देवै कूप न औतरि आवा, ना जसवै गोद खिलावा॥

ना वो ग्वालन के संग फिरिया, गोबरधन ले न कर धरिया।

बावन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद ले न उधरिया॥

गंडक सालिकराम न कोल, मछ कछ ह्नै जलहिं न डोला।

बद्री वैस्य ध्यान नहिं छावा, परसराम ह्नै खत्री न सँतावा॥'

प्रतिमापूजन के वे घोर विरोधी थे। जिस परमात्मा का कोई आकार नहीं, देशकाल का जिसके लिए कोई आधार आवश्यक नहीं, उसकी मूर्ति कैसी? जगह जगह पर उन्होंने मूर्तिपूजा के प्रति अपनी अरुचि प्रदर्शित की है-

'हम भी पाहन पूजते होते वन के रोझ।

सतगुरु की किरपा भई, डार्‌या सिर थैं बोझ॥

सेवें सालिगराम कूँ मन की भ्रंति न जाइ।

सीतलता सुपिनै नहीं, दिन दिन अधकी लाइ॥'

जिसका आकार नहीं, उसकी मूर्ति का सहारा लेकर उसकी प्राप्ति का प्रयत्न वैसा ही है जैसा झूठ के सहारे सच तक पहुँचने का प्रयत्न। असत्य से मन की भ्रान्ति बढ़ेगी ही, घट नहीं सकती; और उससे जिज्ञासा की तृप्ति होना तोअसंभव ही है।

मूर्तिपूजा में भगवान् की मूर्ति को जो भोग लगाने की प्रथा है, उसकी वे इस तरह हँसी उड़ाते हैं-

'लाडू लावर लापसी पूजा चढ़े अपार।

पूजि पुरारा ले चला दे मूरति के मुख छार॥'

यद्यपि कबीर अवतारवाद और मूर्तिपूजा के विरोधी थे, तथापि हिंदूमत की कई बातें वे पूर्णतया मानते हैं। हिन्दुओं का जन्म-मरण-संबंधी सिद्धांत वे मानते हैं। मुसलमानों की तरह वे एक ही जन्म नहीं मानते, जिसके बाद मरने पर प्राणी कब्र में पड़ा पड़ा कयामत तक सड़ा करता है, जब तक कि प्राणी पुनरुज्जीवित होकर खुदावंद करीम के सामने अपने अपने कर्मों के अनुसार अनन्त काल तक दोजख की आग में जलने अथवा बिहिश्त में हूरों और गिलमों का सुख भोगने के लिए पेश किए जायँ। एक स्थान पर, 'उबरहुगे किस बोले' कह कर कबीर ने इसीविश्वास की ओर संकेत किया है। परंतु यह उन्होंने बोलचाल के ढंग पर कहा है, सिद्धांत के रूप में नहीं। ये बातें कुछ उसी प्रकार कही गयी हैं, जिस प्रकार सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूमने के कारण दिन रात का होना माननेपर भी साधारण बोलचाल में यह कहना कि 'सूर्य उगता है'। सिद्धांत रूप से वे अनेक जन्म मानते हैं। 'जनम अनेक गया अरु आया'। इस जन्म में जो कुछ भोगना पड़ता है वह पूर्व जन्म के कर्मों का ही फल है, 'देखौ कर्म कबीर का कछू पूरब जनम का लेखा'। कबीर ने यह तो कहा है कि सृष्टि के सृजन और लय का कारण परमात्मा है, परंतु उन्होंने यह नहीं कहा कि सृष्टि की रचना कैसे और किस क्रम से हुई है, कौन तत्त्व पहले हुआ और कौन पीछे। इस विषय में वे शंका मात्र उठाकर रह गये हैं, उसका समाधान उन्होंने नहीं किया-

'प्रथमे गगन कि पुहुमि प्रथमे प्रभू, प्रथमे पवन की पांणीं।

प्रथमे चंद कि सूर प्रथमे प्रभू, प्रथमे कौन बिनांणी॥

प्रथमे प्राण कि प्यंड प्रथमे प्रभू, प्रथमे रकत की रेंत।

प्रथमे पुरिष की नारी प्रथमे प्रभू, प्रथमे, बीज की खेत॥

प्रथमे दिवस कि रैणि प्रथमे प्रभू, प्रथमे पाप की पुण्यं।

कहै कबीर जहाँ बसहु निरंजन, तहाँ कछु आहि कि सुन्यं॥'

ऊपर हमने कबीर की रचना में वेदान्तसम्मत अद्वैतवाद की एक पूरी पूरी पद्धति के दर्शन किए हैं, जिसे हम शुद्धाद्वैत नहीं मान सकते। शुद्धाद्वैत में माया ब्रह्म की ही शक्ति मानी जाती है, परंतु कबीर ने माया को मिथ्या याभ्रममात्रा माना है, जिसका कारण अज्ञान है। यह शंकर का अद्वैत है, जिसमें आत्मा और परमात्मा परमार्थतः एक माने जाते हैं, परंतु बीच में अज्ञान के आ पड़ने से आत्मा अपनी पारमार्थिकता को भूल जाती है। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर अज्ञानकृत भेद मिट जाता है और आत्मा को अपनी पारमात्मिकता की अनुभूति हो जाती है। यही बात हम कबीर में देख चुके हैं।

परंतु उन पर समय और परिस्थितियों का अलक्ष्य प्रभाव भी पड़ा था, जिसके कारण वे असावधानी में ऐसी बातें भी कह गये हैं जो उनके अद्वैत सिद्धांत से मेल नहीं खाती। उन्होंने स्थान स्थान पर अवतारवाद का विरोध ही किया है, परंतु उनके नीचे लिखे पद से अवतारवाद का समर्थन भी होता है-

'बांधि मारि भावै देह जारि जै, हूँ राम छाड़ौ ताँ मेरे गुरुहिं यारि।

तब काटि खड़ग कोप्यो रिसाइ तोहि राखनहारौं मोंहि बताइ॥

खम्भा मैं प्रगट्यौ गिलारि, हरनाकस मारौं नख विदारि।

महा पुरुष देवाधिदेव, नरयंध प्रकट किए भगति मेव॥

कहै कबीर कोई लहैं न पार; प्रहिलाद उबारो अनेक बार।'

बात यह है कि उपासना के लिए उपास्य में कुछ गुणों का आरोप आवश्यक होता है बिना गुणों के प्रेम का आलम्बन हो ही नहीं सकता। उपनिषदों तक में निराकार निर्गुण ब्रह्म में उपासना के लिए गुणों का आरोप किया गया है। एकेश्वरवादी धर्मों में जहाँ कट्टरपन ने परमात्मा में गुणों का आरोप नहीं करने दिया, वहाँ परमात्मा और मनुष्य के बीच में एक और मनुष्य का सहारा लिया गया है। ईसाइयों को ईसा और मुसलमानों को मुहम्मद का अवलम्बन ग्रहण करना पड़ा। भक्ति झोंक में कबीर भी जब सांसारिक प्रेममूलक सम्बन्धों के द्वारा परमात्मा कीभावना करने लगे, तब परमात्मा में स्वयं ही गुणों का आरोप हो गया। माता पिता और प्रियतम निर्जीव पत्थर नहीं हो सकते। माता के रूप में परमात्मा की भावना करते हुए वे कहते हैं-

'हरि जननी मैं बालक तेरा। कस नहिं बकसहु अवगुण मेरा॥'

अवतारवाद में यही सगुणवाद पराकाष्ठा को पहुँचा हुआ है।

कबीर में कई बात ऐसी भी हैं, जिसमें दिखाई देने वाला विरोध केवल भाषा की असावधानी से आया है। कबीर शिक्षित नहीं थे, इसलिए उनकी रचनाओं में यह दोष क्षम्य है।

व्यावहारिक सिद्धांत

कबीरदासजी ने धार्मिक सिद्धान्तों के साथ साथ उनकी पुष्टि के लिए अनेक स्थानों पर अलौकिक आचरण अथवा व्यवहारों का वर्णन किया है। यदि उनकी वाणी का पूरा पूरा विवेचन किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि उनकी साखियों का विशेष संबंध लौकिक आचरणों से है तथा पदों का संबंध विशेष कर धार्मिक सिद्धान्तों तथा अंशतः लौकिक आचरण से है। लौकिक आचरण की इन बातों को भी दो भागों में विभक्त कर सकते हैं, कुछ तो निवृत्तिमूलक हैं और कुछ प्रवृत्तिमूलक।

कबीर स्वतंत्र प्रकृति के मनुष्य थे। उनके चारों ओर शारीरिक दासता का घेरा पड़ा हुआ था। वे इस बात का अनुभव करते थे कि शारीरिक स्वातन्त्रय के पहले विचार स्वातन्त्रय आवश्यक है। जिनका मन ही दासता की बेड़ियों से जकड़ा हो, वह पाँवों की जंजीरें क्या तोड़ सकेगा। उन्होंने देखा था कि लोग नाना प्रकार के अंधविश्वासों में फँसकर हीन जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अतः लोगों को इसी से मुक्त करने का प्रयत्न किया। मुसलमानों के रोजा,नमाज, हज, ताजिएदारी और हिन्दुओं के श्राद्ध, एकादशी, तीर्थव्रत, मंदिर सबका उन्होंने विरोध किया है। कर्मकांड की उन्होंने भर पेट निंदा की है। इस बाहरी पाखंड के लिए उन्होंने हिंदू मुसलमान दोनों को खूब फटकारें सुनाई हैं। धर्म को वे आडम्बर से परे एकमात्रा सत्य सत्ता मानते थे, जिसके हिंदू मुसलमान आदि विभाग नहीं हो सकते। उन्होंने किसी नामधारी धर्म के बन्धन में अपने आपको नहीं डाला और स्पष्ट कह दिया है कि मैं न हिंदू हूँ न मुसलमान।

जिस सत्य को कबीर धर्म मानते हैं, वह सब धर्मों में है। परंतु इस सत्य को सबने मिथ्या विश्वास और पाखंड से परिच्छिन्न कर दिया है। इस बाहरी आडम्बर को दूर कर देने से धर्मभेद से समस्त झगड़े, बखेड़े दूर हो जाते हैं,क्योंकि उससे वास्तव में धर्मभेद ही नहीं रह जाता। फिर तो हिंदू मुस्लिम ऐक्य का प्रश्न स्वयं ही हल हो जाता है। पर एक अलग धार्मिक संप्रदाय के रूप में कबीरपंथ तो कबीर के मूल सिद्धान्तों के वैसे ही विरुद्ध है जैसे हिंदू अैर मुसलमान धर्म, जिनका उन्होंने जी भर खंडन किया है।

धार्मिक सुधार और समाज सुधार का घनिष्ठ संबंध है। धर्मसुधारक को समाज सुधारक होना पड़ता है। कबीर ने भी समाज सुधार के लिए अपनी वाणी का उपयोग किया है। हिन्दुओं की जातिपाँति, छुआछूत, खानपान आदि के व्यवहारों और मुसलमानों के चाचा की लड़की ब्याहने, मुसलमानी आदि कराने का उन्होंने चुभती भाषा में विरोध किया है और इनके विषय में हिंदू मुसलमान दोनों की जी भरकर धूल उड़ाई है। हिन्दुओं के चौके के विषय में वे कहते हैं-

'एकै पवन एक ही पाणी करी रसोई न्यारी जानी।

माटी सूँ माटी ले पोती, लागी कहौ कहाँ धूँ छोती॥

धरती लीपि पवित्तर कीन्हीं, छोति उपाय लीक बिचि दीन्हीं।

याका हम सूँ कहो विचारा, क्यूँ भव तिरिहौ इहि आचारा॥'

छुआछूत का उन्होंने इन शब्दों में खंडन किया है-

'काहैं की कीजै पाँडे छोति विचारा। छोतिहिं ते उपना संसारा॥

हमारे कैसें लोहू तुम्हारे कैसें दूध। तुम्ह कैसे ब्राह्मण पांडे हम कैसे सूद॥

छोति छोति करता तुम्हहीं जाए। तौ ग्रभवास काहे को आये॥

जनमत छोति मरत ही छोति। कहै कबीर हरि की निर्मल जोति॥'

जन्म ही से कोई द्विज या शूद्र अथवा हिंदू या मुसलमान नहीं हो सकता। इसकी कबीर ने कितने सीधे किंतु मन में जम जानेवाले ढंग से कहा है-

'जौ तूँ बाँभन बंभनी जाया। तौ आन वाट ह्नै क्यों नहिं आया॥'

'जौ तूँ तुरक तुरकनी जाया। तौ भीतर खतना क्यों न कराया॥'

उच्चता और नीचता का संबंध उन्होंने व्यवसाय के साथ नहीं जोड़ा है क्योंकि कोई व्यवसाय नीच नहीं है। अपने को जुलाहा कहने में भी उन्होंने कहीं संकोच नहीं किया और वे स्वयं आजीवन जुलाहे का व्यवसाय करते रहे। वे उन ज्ञानियों में से नहीं थे जो हाथ पाँव समेट कर पेट भरने के लिए समाज के ऊपर भार बनकर रहते हैं। वे परिश्रम का महत्त्व जानते थे और अपनी आजीविका के लिए अपने हाथों का आसरा रखते थे।

परंतु अपनी आजीविका भर से वे मतलब रखते थे, धन सम्पत्ति जोड़ना वे उचित नहीं समझते थे। थोड़े ही में संतोष करने का उन्होंने उपदेश दिया है। जो कुछ वे दिन भर में कमाते थे, उसका कुछ अंश अवश्य साधु संतों की सेवा में लगाते थे और कभी कभी सब कुछ उनकी सेवा में अर्पित कर डालते और आप निराहार रह जाते थे। कहते हैं, कि एक दिन वे गाढ़े का एक थान बेचने के लिए हाट गये। वस्त्रा के अभाव से दुखी एक फकीर को देखकर उन्होंने उसमें से आधा उसे दे दिया। पर जब फकीर ने कहा कि मेरा तन ढकने के लिए वह काफी नहीं है,तब उन्होंने सारा उसे ही दे डाला और खाली हाथ घर चले आये। धन धरती जोड़ना कबीर की सन्तोषोवृत्ति के विरुद्ध था। उन्होंने कहा भी है-

'काहे कूँ भीत बनाऊँ टाटी, का जाणूँ कहँ परिहै माटी।

काहे कूँ मंदिर महल चिनाऊँ, मूवाँ पीछै घड़ी एक रहन न पाऊँ॥'

काहे कूँ छाऊँ ऊँच उचेरा, साढै तीन हाथ घर मेरा।

कहै कबीर नर गरब न कीजै, जेता तन तेतीं भुइ लीजै॥

कबीर अत्यंत सरल हृदय थे। बालकों में सरलता की पराकाष्ठा होती है; यह सब जानते हैं। इसका कारण वर्ड्सवर्थ के अनुसार यह है कि बालक में पारमार्थिकता अधिक रहती है। पर ज्यों ज्यों बालक की अवस्था बढ़ती जाती है त्यों त्यों उसमें पारमार्थिकता की न्यूनता होती जाती है। इसीलिए अपने खोए हुए बालकत्व के लिए वर्ड्सर्वथ कवि क्षुब्ध हैं। परंतु कबीर कहते हैं कि यदि मनुष्य स्वयं भक्ति भाव से अपने मन को निर्मल कर परमात्मा की ओर मुड़े तो वह फिर से इस सरलता को प्राप्त कर बालक हो सकता है-

जों तन माहैं मन धरै, मन धरि निर्मल होइ।

साहिब सों सनमुख रहै; तौ फिरि बालक होइ॥

कबीर की गर्वोक्तियों के कारण लोग उन्हें घमण्डी समझते हैं। ये गर्वोक्तियाँ कम नहीं हैं। उनके नाम से प्रसिद्ध नीचे लिखा पद, जो इस ग्रंथावली में नहीं है, लोगों में बहुत प्रसिद्ध है-

'झीनी झीनी बीनी चदरिया।'

काहै कै ताना काहैं के भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।

इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया।

आठ कँवल दल चरख डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।

साँइ को सियत मास दस लागे, ठोक ठोक कै बीनी चदरिया।

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़े, ओढ़ कै मैली कीनी चदरिया।

दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।

इस ग्रंथावली में भी ऐसी गर्वोक्तियों की कोई कमी नहीं है-

(क) 'हम न मरै मरिहै संसारा।'

(ख) 'एक न भूला दोइ न भूला भूला सब संसारा।

एक न भूला दास कबीरा, जाकै राम अधारा॥'

(ग) 'देखौ कर्म कबीर का, कछू पूरब जनम का लेखा।

जाका महल न मुनि लहै, सौ दोसत किया अलेखा॥'

परंतु यह गर्व लोगों को नीचे देखनेवाला गर्व नहीं है-साक्षात्कारजन्य गर्व है, स्वामी के आधार का गर्व है, जो सबमें पारमात्मिकता का अनुभव करके प्राणिमात्रा को समता की दृष्टि से देखता है। अपनी पारमात्मिकता की अनुभूतिकी गरमी में उनका ऐसा कहना स्वाभाविक ही है जो उनके मुँह से अनुचित भी नहीं लगता। जो हो, कम से कम छोटे मुँह बड़ी बात की कहावत उनके विषय में चरितार्थ नहीं हो सकती। वे पहुँचे हुए महात्मा थे। उन्होंने स्वयं अपनी गिनती गोपीचन्द, भर्तृहरि और गोरखनाथ के साथ की है-

'गोरष भरथरि गोपीचन्दा। ता मन सो मिलि करै अनन्दा।

अकल निरंजन सकल सरीरा। ता मन सौं मिलि रहा कबीरा।'

परंतु इतने ऊँचे पद पर वे विनय के द्वारा ही पहुँच सके हैं। इसी से उनका गर्व उच्चतम मनुष्यता का प्रेममय गर्व है जिसकी आत्मा विनय है। सच्चे भक्त की भाँति उन्होंने परमात्मा के महत्त्व और अपनी हीनता का अनुभव किया है-

'तुम्ह समानि बाता नहीं, हम से नहीं पापी।'

स्वामी के सामने वे विनय के अवतार हैं-

'कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउँ।

गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउँ॥'

उनकी विनय यहाँ तक पहुँची है कि वे बाट का रोड़ा होकर रहना चाहते हैं जिस पर सबके पैर पड़ते हैं। परंतु रोड़ा पाँव में चुभकर बटोहियों को दुःख देता है, इसलिए वह धूल के समान रहना उचित समझते हैं। किंतु धूल भी उड़कर शरीर पर गिरती है और उसे मैला करती है, इसलिए पानी की तरह होकर रहना चाहिए जो सबका मैल धोवे। पर पानी भी ठंडा और गरम होता है जो अरुचि का विषय हो सकता है। इसलिए भगवान् की ही तरह होकर रहना चाहिए। कबीर का गर्व और दैन्य दोनों मनुष्य को उसकी पारमात्मिकता की अनुभूति कराने वाले हैं।

कबीर पहुँचे हुए ज्ञानी थे। उनका ज्ञान पोथियों से चुराई हुई सामग्री नहीं थी और न वह सुनी सुनाई बातों का बेमेल भण्डार ही था। पढ़े लिखे तो वे थे नहीं, परंतु सत्संग से भी जो बातें उन्हें मालूम हुई, उन्हें वे अपनीविचारधारा के द्वारा मानसिक पाचन से सर्वदा अपना ही बना लेने का प्रयत्न करते थे। उन्होंने स्वयं कहा है 'सो ज्ञानी आप विचारै'। फिर भी कई बातें उनमें ऐसी मिलती हैं, जिनका उनके सिद्धान्तों के साथ मेल नहीं पड़ता। उनकी ऐसी उक्तियों को समय और परिस्थितियों का तथा भिन्न भिन्न मतावलम्बियों के संसर्ग का अलक्ष्य प्रभाव समझना चाहिए।

कबीर बहुश्रुत थे। सत्संग से वेदान्त, उपनिषदों और पौराणिक कथाओं का थोड़ा बहुत ज्ञान उनको हो गया था, परंतु वेदों का उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं था। उन्होंने वेदों की जो निंदा की है, वह यह समझकर कि पण्डितों में जो पाखंडफैला हुआ है, वह वेदज्ञान के कारण ही है। योग की क्रियाओं के विषय में भी उनकी जानकारी थी। इंगला, पिंगला,सुषुम्ना षट्चक्र आदि का उन्होंने उल्लेख किया है, परंतु वे योगी नहीं थे। उन्होंने योग को भी माया में सम्मिलितकिया है। केवल हिंदू मुसलमान दो धर्मों का उन्होंने मुख्यतया उल्लेख किया है पर इससे यह न समझना चाहिए कि भारतवर्ष में प्रचलित और धर्मों से वे परिचित नहीं थे। वे कहते हैं-

'अरु भूले षटदरसन भाई। पाषंड भेष रहे लपटाई।

जैन बोध औरे साकत सैना। चारवाक चतुरंग बिहूना॥

जैन जीव की सुधि न जाने। पाती तोरी देहुरै आनै।'

इससे ज्ञात होता है कि अन्य धर्मों से भी उनका परिचय था, पर कहाँ तक उनके गूढ़ रहस्यों को वे समझते थे यह नहीं विदित होता। जहाँ तक देखा जाता है, ऐसा जान पड़ता है कि ऊपरी बातों पर ही उन्होंने विशेष ध्यान दिया है। मार्मिक तात्त्विक बातों तक ये नहीं गये हैं। ईसाई धर्म का उनके समय तक इस देश में प्रवेश नहीं हुआ था पर बिलाइत का नाम उनकी साखी में एक स्थान पर अवश्य आया है-'बिन बिलाइत बड़ राज'। यह निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता कि 'बिलाइत' से उनका यूरोप के किसी देश से अभिप्राय था अथवा केवल विदेश से।कबीरदासजी ने शाक्तों की बड़ी निंदा की है। जैसे-

वैश्नो की छपरी भली, न साकत का बड़ागाँव।

साषत ब्राभण मति मिलै, वैषनों मिलै चंडाल।

अंक माल दे भेटिये, मानौ मिलै गोपाल॥

कबीर रहस्यवादी कवि हैं। रहस्यवाद के मूल में अज्ञात शक्ति की जिज्ञासा काम करती है। संसारचक्र का प्रवर्तन किसी अज्ञान शक्ति के द्वारा होता है, इस बात का अनुभव मनुष्य अनादि काल से करता चला आया है। उस अज्ञात शक्ति को जानने की इच्छा सदैव मनुष्य को रही है और रहेगी परंतु वह शक्ति उस प्रकार स्पष्टता से नहीं दिखाई दे सकती, जिस प्रकार जगत् के अन्य दृश्य रूप; और न उसका ज्ञान ही उस प्रकार साधारण विचारधारा के द्वारा हो सकता है, जिस प्रकार इन दृश्य रूपों का होता है। अपनी लगन से जो इस क्षेत्रा में सिद्ध हो गये हैं, उन्होंने जब जब अपनी अनुभूति का निरूपण करने का प्रयत्न किया है, तब तब अपनी उक्तियों की स्पष्टता देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाया है। कबीर ने स्पष्ट कर दिया है कि परमात्मा का प्रेम और उसकी अनुभूति गूँगे के गुड़ सा है-

(क) 'अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाइ।

गूँगे केरी सरकरा, बैठा मुसकाइ॥'

(ख) 'तजि बावै दाहिनै बिकार, हरि पद दिढ़ करि गहिए।

कहै कबीर गूँगे गुड़ खाया, बूझै तो का कहिए॥'

यही रहस्यवाद का मूल है। वेद और उपनिषदों में रहस्यवाद की झलक विद्यमान है। गीता में भगवान् के मुँह से उनकी विभूति का जो वर्णन कराया गया है वह भी अत्यंत रहस्यपूर्ण है। परमात्मा को पिता, माता, प्रियतम, पुत्र अथवा सखा के रूप में देखना रहस्यवाद ही है; क्योंकि लौकिक अर्थ में परमात्मा इनमें से कुछ भी नहीं है। आदर्श पुरुषों में परमात्मा की विशेष कला का साक्षात्कार कर उनकी अवतार मानने के मूल में भी रहस्यवाद ही है। मूर्ति को परमात्मा मानकर उसे मस्तक नवाना आदिम रहस्यवाद है।

परमात्मा के पितृत्व की भावना बहुत प्राचीन काल से वेदों ही में मिलने लगती है। ऋग्वेद की एक ऋचा में 'योनः पिता जनिता यो विधाता' कहकर परमात्मा का स्मरण किया गया है। वेदों में परमात्मा को माता भी कहा गया है-'त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शकतो बभूविय'। परमात्मा के मातृपितृ से प्राणियों के भ्रातृत्व की भावना का उदय होता है। 'अज्येष्ठासौ अकनिष्ठासौ एते सभ्रातरौ'। बहुत पीछे के ईसाई ईश्वरवाद में परमात्मा के पितृत्व औरप्राणियों के भ्रातृत्व की यही भावना पाई जाती है, अतएव पश्चिमी रहस्यवाद में भी इस भावना का प्राबल्य है। कबीर में भी यह भावना मिलती है-

'बाप राम राया अबहूँ सरन तिहारी।'

उन्होंने परमात्मा को 'माँ' भी कहा है-

'हरि जननी मैं बालिक तेरा।'

परंतु भारतीय रहस्यवाद की विशेषता सर्वात्मवादमूलक होने में है जो भारतीयों की ब्रह्मजिज्ञासा का फल है। उपनिषदों और गीता का रहस्यवाद यही रहस्यवाद है। जिज्ञासु जब ज्ञानी की कोटि पर पहुँचकर कवि भी होना चाहता है तब तो अवश्य ही वह इस रहस्यवाद की ओर झुकता है। चिन्तन के क्षेत्र का ब्रह्मवाद कविता के क्षेत्र में जाकर कल्पना और भावुकता का आधार पाकर इस रहस्यवाद का रूप पकड़ता है। सर्वात्मवादी कवि के रहस्योद्भावी मानस में संसार उसी रूप में प्रतिबिम्बित नहीं होता जिस रूप में साधारण मनुष्य उसे देखता है। यहपरमात्मा के साथ सारी सृष्टि का अखंड संबंध देखता है, जिसके चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हुए जायसी ने जगत् के सब रूपों को दिखलाया है। जगत् के नाना रूप उसकी दृष्टि में परमात्मा से भिन्न नहीं हैं, उसी के भिन्न-भिन्न व्यक्त रूप हैं।

स्वातन्त्र्य के अवतार स्त्रोत्व का आध्यात्मिक मूल समझने वाले अंगरेजी के कवि शेली को भी सर्वात्मवादी रहस्यता ही 'मर्मर करते हुए काननों में झरनों में, उन पुष्पों की परागगंध में जो उस दिव्य चुम्बन के सुखस्पर्श से सोए हुए कुछ बरौते से मुग्ध पवन को उसका परिचय दे रहे हैं, इसी प्रकार मन्द या तीव्र समीर में, प्रत्येक आते जाते मेघखंड की झड़ी में, बसंतकालीन विहंगमों के कलकूजन में और सब ध्वनियों और स्तब्धता में भी प्रियतम की मधुर वाणी सुनाई दी है। कबीर में ऊपर परिगणित कुछ अन्य रहस्यवादी भावनाओं के होते हुए भी प्रधानता इसी रहस्यवाद की है। मुसलमान कवियों की प्रेमाख्यात परंपरा के जायसी एक जगमगाते रत्न हैं। वे रहस्यवादीकवियों की ही एक लड़ी हैं जिसमें सूफियों के मार्ग से होते हुए भारतीय सर्वात्मवाद आया है।

सर्वात्मवादमूलक रहस्यवाद में 'माधुर्य भाव का उदय हुआ, जो कबीर और प्रेमाख्यानक सब मुसलमान कवियों में विद्यमान है। वैष्णवों और सूफियों की उपासना माधुर्य भाव से युक्त होती है। दार्शनिकों ने परमात्मा को पुरुष औरजगत् को स्त्रीरूप प्रकृति कहा है। माधुर्य भाव इसी का भावुक रूप है, जिसमें परमात्मा की प्रियतम के रूप में भावना की जाती है और जगत् के नाना रूप स्त्रीरूप में देखे जाते हैं। मीराबाई ने तो केवल कृष्ण को ही पुरुष माना है जगत् में पुरुष उन्हें और कोई दिखाई ही नहीं दिया। कबीर भी कहते हैं-

(क) कहै कबीर व्याहि चले हैं 'पुरुष एक अविनासी।'

(ख) 'सखी सुहाग राम मोहिं दीन्हा॥'

इस तरह के एक दो नहीं कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। राम की सुहागिन पहले अपना प्रेमनिवेदन करती है-

'गोकुल नायक बीठुला मेरो मन लागौ तोहि रे।'

यह जीवात्मा का परमात्मा में लगन लगने का आरंभिक रूप है। इसे ब्याह के पहले का पूर्वानुराग समझना चाहिए।

कभी वह वियोगिनी के रूप में प्रकट होती है और उस वियोगाग्नि में जले हुए हृदय के उद्गार प्रकट करती है-

'यह तन जालौं मसि करौं, लिखौ राम का नाउँ।

लेखणि करौं करंक की लिखि लिखि राम पठाउँ॥'

परमात्मा के वियोग से जनित सारी सृष्टि का दुख कितना घना होकर कबीर के हृदय में समाया है।

राम की वियोगिन आकुलता से उन दिनों की बाट देखती है जब वह प्रियतम का आलिंगन करेगी-

'वै दिन कब आवैंगे भाई।

जा कारनि हम देह धरीं है, मिलिबौ अंग लगाई॥'

यहाँ जीवात्मा के परमात्मा से मिलने की आकुलता की ओर संकेत है। इस आकुलता के साथ-साथ भय भी रहता है। सारा विश्व जिसका व्यक्त रूप है, उस प्रियतम से मिलने के लिए असाधारण तैयारी करने की आवश्यकता होती है। 'हरि की दुलहिन' को भय इस आशंका से होता है कि वह उतनी तैयारी कर सकेगी या नहीं। उसे अपने ऊपरविश्वास नहीं होता। फिर रहस्य केलि के समय प्रियतम के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना होगा, यह भी नहीं जानती-

'मन प्रतीति न प्रेमरस ना इस तन में ढंग।

क्या जाणौ उस पीय सूँ कैसे रहसी रंग॥'

इसमें साक्षात्कार की महत्ता का आभास है जो एक साधारण घटना नहीं है। ज्यों-ज्यों जीवात्मा को अपनी पारमात्मिकता का अनुभव होता जाता है, त्यों- त्यों उसका भय जाता रहता है। लौकिक भाषा में इसी की ओर इस पद में इशारा है-

अब तोंहिं जान न दैहूँ राम पियारे। ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे।

यह प्रेम की ढिठाई है।

परामात्मा से मिलने के लिए ऐसी ऊँची गैल, राह रपटीली नहीं तै करनी पड़ती जहाँ 'पाँव नहीं ठहराय'। वह तो घर बैठे मिल जायँगे पर उसके लिए पहुँची हुई लगन चाहिए, क्योंकि परमात्मा तो हृदय ही में हैं-

'बहुत दिनन के बिछेरे हरि पाये। भाग बड़े घरि बैठे आये।'

कबीरदास के नाम से लोगों की जिह्ना पर जो यह पद-

'मो को कहाँ ढूँढे बन्दे मैं तो तेरे पास में।

ना मैं देवन, ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में॥'

बहुत दिनों से चढ़ा चला आ रहा है, उसका भी यही भाव है। जायसी ने यही भाव यों प्रकट किया है-

'पिउ हिरदय महँ भेंट न होई। को रे मिलाय, कहौं केहि रोई॥'

रहस्यमय उक्तियों की हृदयात्मकता उनके लोकनियोजित शब्दार्थ में नहीं है। उस अर्थ को मानने से उनकी रहस्यात्मकता जाती रहती है, उनका संकेत मात्रा ग्रहण करना चाहिए। मूर्ति को परमात्मा मानकर उसका पूजन इसीलिए करना चाहिए कि ईश्वरप्राप्ति में आगे की सीढ़ी सहज में चढ़ सके, क्योंकि साधारणतः सब लोग परमात्मा या ब्रह्म का ठीक-ठीक स्वरूप समझने में नितान्त असमर्थ होते हैं। अतः मूर्तिपूजा के द्वारा मानो मनुष्य को ब्रह्म के सभी साक्षात्कार की प्रारम्भिक शिक्षा मिलती है। उसके आगे बढ़कर सचमुच पत्थर को परमात्मा मानने से फिर कोई रहस्य नहीं रह जाता।

ईसाइयों ने परमात्मा के पितृत्व भाव की उसी समय इतिश्री कर दी, जब ईसा और लौकिक अर्थ में परमात्मा या पवित्रात्मा का पुत्र मान लिया। राम और कृष्ण को साक्षात् परमात्मा ही मानने के कारण तुलसी और सूर में अवतारवाद की मूलभूत रहस्यभावना नहीं आ पाई है। सखी संप्रदाय ने मनुष्यों को सचमुच स्त्री मानकर और उनके नाम भी स्त्रियों जैसे रखकर और यहाँ तक कि उनसे ऋतुमती स्त्रियों का अभिनय कराकर 'माधुर्य भाव' केरहस्यवाद को वास्तववाद का रूप दे दिया। रहस्यवाद के वास्तववाद में पतित हो जाने के कारण ही सदुद्देश्य से प्रवर्तित अनेक धर्म संप्रदायों में इन्द्रियलोलुपता का नारकीय नृत्य देखने में आता है।

रहस्यवादी कवियों का वास्तववादियों से इसी बात में भेद है कि वास्तववादी कवि अपने विषय का यथातथ्य वर्णन करते हैं, और रहस्यवादी केवल संकेत मात्रा कर देते हैं, अपने वर्ण्यविषय का आभास भर दे देते हैं। उनमें जो यह धुँधलापन पाया जाता है, उसका कारण उनकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति है। परमात्मा की सत्ता का आभास मात्रा ही दिया जा सकता है। इसके लिए वे व्यंजनावृत्ति से अधिकतर काम लिया करते हैं और चित्रधान उनका प्रधान उपादान होता है। उनकी बातें अन्योक्ति के रूप में हुआ करती हैं। किसी प्रत्यक्ष व्यापार के चित्र को लेकर वे उससे दूसरेपरोक्ष व्यापार के चित्र की व्यंजना करते हैं। इसी से रहस्यवादी कवियों में वास्तववादियों की अपेक्षा कल्पना का प्राचुर्य अधिक होता है।

रसिकों की सम्मति में कबीर का रहस्यवाद रूखा है, उनका माधुर्य भाव भी उन्हें फीका लगता है, उनके चित्रों में उन्हें अनेकरूपता नहीं दिखाई देती। कबीर ने अपनी उक्तियों को काव्य की काटछाँट नहीं दी है, परंतु इसकी उन्हेंजरूरत ही नहीं थी। इस बात का प्रयास वह करेगा जिसमें कुछ सार न हो।

कबीर में चित्रों की अनेकरूपता न देखना उनके साथ अन्याय करना है। ब्याह का ही दृश्य वे कई बार अवश्य लाए हैं, पर जैसा कि पाठकों को आगे चलने पर मालूम होता जायेगा , उनका रहस्यवाद माधुर्य भाव में ही नहीं समाप्त हो जाता। प्रकृति से चुने-चुने चित्र उनकी उक्तियों में अपने आप आ बैठे हैं। हाँ, उन्होंने प्रयास करके अपनी उक्तियों को काव्य की मधुरता नहीं दी है। फिर भी उनकी ऊपरी सहृदयता न सही तो अनन्य हृदयता और तल्लीनता व्यर्थ कैसे जा सकती थी। जो उन्हें बिलकुल ही रूखा समझते हैं, उन्हें उनकी रहस्यमयी अन्योक्तियों को देखना चाहिए-

'काहे री नलिनी! तू कुमिलानी। तेरे ही नालि सरोवर पानी।

जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास॥

ना तलि तपति न ऊपर आगि, तोर हेत कहु कासनि लागि।

कहै कबीर जे उदिक समान, ते नहीं मूए हमारे जान।'

कैसा मृदुल मनमोहक चित्र है! इसका सहज माधुर्य किसे न मोह लेगा। प्रकृति का प्रतिनिधि मनुष्य नलिनी है,जल ब्रह्म तत्त्व है। इसी में प्रकृति के नाना रूपों की उत्पत्ति होती है, यही पोषक तत्त्व है जो मनुष्य और नाना रूपोंमें स्वयं विद्यमान है। इस जल की शीतलता के सामने कोई ताप ठहर नहीं सकता। यह तत्त्व समझकर इस पोषण सामग्री का उपयोग करने वाला (अर्थात् ज्ञानी) मर ही कैसे सकता है?

औद्यानिक भाषा में सांसारिक जीवन की नश्वरता का कितना प्रभावशाली आभास नीचे लिखे दोहे में है-

'मालिन आवत देखि करि, कलियाँ करीं पुकार।

फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार॥'

 

और देखिए-

'बाढ़ी आवत देखि करि, तरिवर डोलन लाग।

हम कटे कि कछु नहीं, पंखेरू घर भाग॥'

बढ़ई काल है, वृक्ष का डोलना वृद्धावस्था का कंप है, पक्षी आत्मा है। यह डोलना आत्मा को इस बात की चेतावनी देता है कि शरीर के नाश का दुख न करके ब्रह्म तत्त्व में लीन होने का प्रबन्ध करो; पक्षी का घर भागना यही है।काटते समय पेड़ को हिलने और वृद्धावस्था में शरीर को काँपते किसने नहीं देखा होगा। परंतु किसलिए वह हिलता-काँपता है, उसका रहस्य कबीर ही जान पाए हैं। यह आभास किसको नहीं मिलता, पर कितने हैं जो उनको समझ पाते हैं।

नाश नीची स्थितिवालों के लिए ही मुँह बाए नहीं खड़ा है, ऊँची स्थितिवाले भी उसी घाट उतरेंगे इस बात का संकेत यह दोहा देता है-

'फागुण आवत देखि करि, बन रूना मन माहिं।

ऊँची डाली पात हैं, दिन दिन पीले थाहिं॥'

कबीर की चमत्कारपूर्ण उलटवाँसियाँ भी रहस्यपूर्ण हैं। कठोपनिषद् के अनुसार मनुष्य का शरीर रथ है, जिसमें इन्द्रियों के घोड़े जुते हैं, घोड़ों पर मन की लगाम लगी हुई है जो सारथी रूपी बुद्धि के हाथ में है। 'परमपद' की पथिक आत्मा इस रथ पर सवार है, उसकी इच्छा के अनुसार उसका परिचालन होना चाहिए। शरीर सेवक है, आत्मा स्वामी है। यह स्वाभाविक क्रम है। परंतु जब स्वामी सो जाय, सारथी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाय और घोड़ों की लगाम निरुद्देश्य ढीली पड़ जाय, तब यह क्रम उलट जाता है, स्वामी का स्थान सेवक ले लेता है। रथ के अधीनहोकर स्वामी भटका करता है और प्रायः ऐसा होता है कि घोड़ों (इन्द्रियों) के मनमाने आचरण से रथ (शरीर) और स्वामी (आत्मा) दोनों को अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। भवजाल में पड़े हुए मनुष्यों की इसी उलटी अवस्था को विशेषकर कबीर ने अपनी उलटवाँसियों द्वारा व्यंजित कर लोगों को आश्चर्य में डाला है-

'ऐसा अद्भुत मेरा गुरु कथ्या, मैं रह्या उमेषै।

मूसा हस्ती सौं लड़ै कोई विरला पेषै॥

मूसा बैठा बाँबि मैं, लारै सापणि धाई।

उलटि मूसै सापिण गिली यह अचरज भाई॥

चींटी परबत ऊपण्यां ले राख्यौ चौड़ै।

मुर्गा मिनकी सूँ लड़ै झल पाणीं दौड़े॥

सुरही चूषै बछतलि, बछा दूध उतारै।

ऐसा नवल गुणी भया, सारदूलहि मारै।

भील लुक्या बन बीझ मैं, ससा सर मारै।

कहैं कबीर ताहि गुरु करौं, जो या पदहि विचारै॥'

सबका कारण परब्रह्म किसी का कार्य नहीं है, इस बात का आभास देने वाला यह सांकेतिक पद कितना रहस्यपूर्ण है-

'बाँझ का पूत, बाप बिन जाया, बिन पाउँ तरवर चढ़िया।

अस बिन पाषर, गज बिन गुड़िया, बिन पंडै संग्राम लडिया॥

बीज बिन अंकुर, पेड़ बिन तरवर, बिन सापा तरवर फलिया।

रूप बिन नारी, पुहुप बिन परिमल, बिन नीरै सर भरिया॥'

सभी संत कवियों के काव्य में थोड़ा-बहुत रहस्यवाद मिलता है। पर उनका काव्य विशेषकर कबीर का ही ऋणी है। बंगला के वर्तमान कवीन्द्र को भी कबीर का ऋण स्वीकार करना पड़ेगा। अपने रहस्यवाद का बीज उन्होंने कबीर ही में पाया। परंतु उनमें पाश्चात्य भड़कीली पालिश भी है। भारतीय रहस्यवाद को उन्होंने पाश्चात्य ढंग से सजाया है। इसी से यूरोप में उनकी इतनी प्रतिष्ठा हुई है। जब से उन्हें नोबेल प्राइज (पुरस्कार) मिला तब से लोग उनकी गीतांजलि की बेतरह नकल करने पर तुले हुए हैं। हिंदी का वर्तमान रहस्यवाद अब तक नकल ही सा लगता है। सच्चे रहस्यवाद के आविर्भाव के लिए प्रतिभा की अपेक्षा होती है। कबीर इसी प्रतिभा के कारण सफल हुए हैं। पिंगल के नियमों को भंग करके खड़ा किया हुआ निरर्थक शब्दाडंबर रहस्यवादी कविता का आसन नहीं प्राप्त करसकता है।

काव्यत्व

कबीर के काव्य के विषय में बहुत कुछ बातें उनके रहस्यवाद के अंतर्गत आ चुकी हैं; यहाँ पर बहुत कम कहना शेष है। कविता के लिए उन्होंने कविता नहीं की है। उनकी विचारधारा सत्य की खोज में बही है, उसी का प्रकाश करना उनका ध्येय है। उनकी विचारधारा का प्रवाह जीवनधारा के प्रवाह से भिन्न नहीं है। उसमें उनका हृदय घुला मिला है, उनकी प्रतिभा हृदयसमन्वित है। उनकी बातों में बल है जो दूसरे पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकता। अक्खड़ ढंग से कही होने पर भी उनकी बेलाग बातों में एक और ही मिठास है जो खरी खरी बातें कहने वाले हीकी बातों में मिल सकती है। उनकी सत्यभाषिता और प्रतिभा का ही फल है कि उनकी बहुत सी उक्तियाँ लोगों की जबान पर चढ़ कर कहावतों के रूप में चल पड़ी हैं। हार्दिक उमंग की लपेट में जो सहज विदग्धता उनकी उक्तियों में आ गयी है, वह अत्यंत भावापन्न है। उसी में उनकी प्रतिभा का चमत्कार है। शब्दों के जोड़ तोड़ में चमत्कार लाने के फेर में पड़ना उनको प्रकृति के प्रतिकूल था। दूर की सूझ जिस अर्थ में केशव, बिहारी आदि कवियों में मिलती है, उस अर्थ में उनमें पाना असंभव है। प्रयत्न उनकी कविता में कहीं नहीं दिखाई देता। अर्थ की जटिलता के लिए उनकी उलटवाँसियाँ केशव की शब्दमाया को मात करती हैं; परंतु उनमें भी प्रयत्न दृष्टिगत नहीं होता। रात-दिन आँखों में आने वाले प्रकृति के सामान्य व्यापारों के उलटे व्यवहार को ही उन्होंने सामने रखा है। सत्य के प्रकाश का साधन बनकर, जिसकी प्रगाढ़ अनुभूति उनकी हुई थी, कविता स्वयमेव उनकी जिह्वा पर बैठी है। इसमें संदेह नहीं कि कबीर में ऐसी भी उक्तियाँ हैं जिनमें कविता के दर्शन नहीं होते और ऐसे पद्य कम नहीं हैं किंतु उनके कारण कबीर के वास्तविक काव्य का महत्व कम नहीं हो सकता है, जो अत्यंत उच्चकोटि का है और जिसका बहुत कुछ माधुर्य रहस्यवाद के प्रकरण के अंतर्गत दिखाया जा चुका है।

जैसे कबीर का जीवन संसार से ऊपर उठा था, वैसे ही उनका काव्य भी साधारण कोटि से ऊँचा था। अतएव सीखकर प्राप्त की हुई रसिकता का काव्यानंद उनमें नहीं मिलता। परंपरा से बँधे हुए लोगों को काव्यजगत् में भी इन्द्रियलोलुपता का कीड़ा बनकर रहना भी भला लगता है। कबीर ऐसे लोगों की परितुष्टि की परवा कैसे कर सकते थे, जिनको निरपेक्षी के प्रति होनेवाला उनका प्रेम भी शुष्क लगता है। प्रेम की पराकष्ठा आत्मसमर्पण का मानो काव्यजगत् में कोई मूल्य ही नहीं है।

कबीर ने अपनी उक्तियों पर बाहर से अलंकारों का मुलम्मा नहीं चढ़ाया है। जो अलंकार उनमें मिलते भी हैं वे उन्होंने खोज खोजकर नहीं बैठाए हैं। मानसिक कलाबाजी और कारीगरी के अर्थ में कला का उनमें सर्वथा अभाव है। 'बेसिर-पैर की बातें, 'वायवी अवस्तुओं' का स्थान और नामनिर्देश कर देने को कविकर्म कहकर शेक्सपियर ने कवियों को सन्निपात या पागलपन में बेसिर-पैर की बातें बकने वालों की श्रेणी में रख दिया है। जिन कवियों के संबंध में 'किं न जलपंति' कहा जा सकता है, उन्हीं का उल्लेख 'किं न खादंति' वाले वायसों के साथ हो सकता है। सच्ची कला के लिए तथ्य आवश्यक है। भावुकता के दृष्टिकोण से कला आडम्बरों के बन्धन से निर्मुक्त तथ्य है। एक विद्वान् कृत इस परिभाषा को यदि काव्यक्षेत्रा में प्रयुक्त करें तो कम कवि सच्चे कलाकारों की कोटि में आ सकेंगे। परंतु कबीर का आसन उस ऊँचे स्थान पर अविचल दिखाई देता है। यदि सत्य के खोजी कबीर के काव्य में तथ्य की स्वतंत्रता नहीं मिलती तो और कहीं नहीं मिल सकती। कबीर के महत्त्व का अनुमान इसी से हो सकता है।

कबीर के काव्य में नीचे लिखी हुई खटकने वाली बातें भी हैं, जिनकी ओर स्थान-स्थान पर संकेत करते आये हैं-

1. एक ही बात को उन्होंने कई बार दुहराया है, जिससे कहीं-कहीं रोचकता जाती रहती है।

2. उनके ज्ञानीपन की शुष्कता का प्रतिबिम्ब उनकी भाषा का अक्खड़पन होकर पड़ा है।

3. उनकी आधी से अधिक रचना दार्शनिक पद्यमात्रा है, जिसको कविता नहीं कहना चाहिए।

4. उनकी कविता में साहित्यिकता का सर्वथा अभाव है। थोड़ी सी साहित्यिकता आ जाने से परंपरानुबद्ध रसिकों के लिए उपालम्भ का स्थान न रह जाता।

5. न उनकी भाषा परिमार्जित है और न उनके ग्रंथ पिंगलशास्त्रा के नियम के अनुकूल हैं।

कबीरदास छन्दशास्त्र से अनभिज्ञ थे, यहाँ तक कि वे दोहों को पिंगल की खराद पर न चढ़ा सके। डफली बजाकर गाने में जो शब्द जिस रूप में निकल गया, वही ठीक था। मात्राओं के घट-बढ़ जाने की चिंता करना व्यर्थ था। पर साथ ही कबीर में प्रतिभा थी; मौलिकता थी, उन्हें कुछ सन्देश देना था और उनके लिए शब्द की मात्रा गिनने की आवश्यकता न थी, उन्हें तो इस ढंग से अपनी बातें कहने की आवश्यकता थी, जो सुनने वालों के हृदय में पैठ जायँ और पैठकर जम जायँ। तिस पर वह हिंदी कविता के आरंभ के दिन थे। पर आजकल के रहस्यवादी काव्यों में न प्रतिभा के दर्शन होते हैं और न मौलिकता का आभास मिलता है। केवल ऊटपटाँग कह देने और भाषा तथा पिंगल की उपेक्षा दिखाने ही में उन आवश्यक गुणों के अभावों की पूर्ति नहीं हो सकती।

भाषा

कबीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है क्योंकि वह खिचड़ी है। कबीर की रचना में कई भाषाओं के शब्द मिलते हैं परंतु भाषा का निर्णय अधिकतर शब्दों पर निर्भर नहीं है। भाषा के आधार क्रियापद, संयोजक शब्द तथा कारक चिद्द हैं जो वाक्यविन्यास की विशेषताओं के लिए उत्तरदायी होते हैं। कबीर में केवल शब्द ही नहीं क्रियापद,कारक चिद्दादि भी कई भाषाओं के मिलते हैं, क्रियापदों के रूप में अधिकतर ब्रजभाषा और खड़ी बोली के हैं। कारक चिद्दों में कै, सन, सा आदि अवधी के हैं, को ब्रज का है और थे राजस्थानी का। यद्यपि उन्होंने स्वयं कहा है-'मेरी बोली पूरबी', तथापि खड़ी ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी, अरबी, फारसी आदि अनेक भाषाओं का पुट भी उनकी उक्तियों पर चढ़ा हुआ है। पूरबी से उनका क्या तात्पर्य है; यह नहीं कह सकते। उनका बनारस निवास पूरबी से अवधी का अर्थ लेने के पक्ष में है; परंतु उनकी रचना में बिहारी का पर्याप्त मेल है; यहाँ तक कि मृत्यु के समय मगहर में उन्होंने जो पद कहा है उसमें मैथिली का भी कुछ संसर्ग दिखाई देता है। यदि 'बोली' का अर्थ मातृभाषा लें और 'पूरब' का बिहारी तो कबीर के जन्म के विषय पर एक नया ही प्रकाश पड़ जाता है। उनका अपना अर्थ जो कुछ हो, पर पाई जाती हैं उनमें अवधी और बिहारी, दोनों बोलियाँ।

इस पंचमेल खिचड़ी का कारण यह है कि उन्होंने दूर-दूर के साधुसंतों का सत्संग किया था जिससे स्वाभाविक ही उन पर भिन्न-भिन्न प्रान्तों की बोलियों का प्रभाव पड़ा। खड़ी बोली का पुट इस दोहे में देखिए-

'कबीर कहता जात हूँ सणता है सब कोइ।

राम कहे भला होइगा, नहिंतर भला न होइ॥

आऊँगा न जाऊँगा, मरूँगा जीऊँगा।

गुरु के सबद रमि रमि रहूँगा॥'

इसमें शुद्ध खड़ी बोली के दर्शन होते हैं।

'जब लगि धसै न आभ' में 'धसै' ब्रजभाषा का है और 'आभ' फारसी के आब का बिगड़ा हुआ रूप है। आगे लिखे दोहे में अंषड़ियाँ, जीभड़ियाँ आदि रूप पंजाबी का और पड़ा क्रिया राजस्थानी प्रभाव प्रकट करते हैं-

'अंषड़ियाँ झाँई पड़ी पंथ निहारि निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पड़ा राम पुकारि पुकारि॥'

पंजाब के केवल बहुत से शब्द नहीं मुहावरे भी उनमें मिलते हैं। जैसे-

1. रलि गया आटे लूँण

2. लूण बिलग्गा पाणियाँ पाणी लूण विलग्ग

इनके उच्चारण पर भी पंजाबी का प्रभाव दृष्टिगत होता है। न कोण कहना पंजाबी की ही विशेषता है। पंजाबी विवेक का उच्चारण बवेक करते हैं। कबीर में भी वह शबद इसी रूप में मिलता है। बंगला के भी इनमें कुछ प्रयोग मिलते हैं। आछिली शब्द बंगला का छिली है जो 'था' अर्थ में प्रयुक्त होता है-'कहु कबीर कुछ आछिलो जहिया।' इसी प्रकार 'सकना' अर्थ में क्रिया के रूप भी जो अब केवल बंगला में मिलते हैं, पर जिनका प्रयोग जायसी और तुलसी ने भी किया है; इनकी भाषा में पाए जाते हैं-

'गाँइ कु ठाकुर खेत कु नेपै, काइथ खरच न पारै।'

संस्कृत वर्ज्य से बिगड़कर बना हुआ एक 'बाज' शब्द तुलसी और जायसी दोनों में मिलता है। जायसी में यह बाझ रूप में मिलता है। पर आजकल इसका प्रयोग अधिकतर पंजाबी में ही होता है, जहाँ इसका रूप 'बाझो' होता है-

'भिस्त न मेरे चाहिए बाझ पियारे तुज्झ।'

जेम, ससिहर आदि शुद्ध अपभ्रंश के भी कई शब्दों का उन्होंने प्रयोग किया है। 'जेम' शब्द संस्कृत 'यद्व' से निकला है और ससिहर संस्कृत शशधर से। अपभ्रंश में संस्कृत के क का ग हो जाता है जैसे प्रकट का प्रगट। कबीर ने मनमाने ढंग से भी ऐसे परिवर्तन किए हैं। उपकारी का उन्होंने उपगारी बनाया है। संस्कृत के महाप्राण अक्षर प्राकृत और अपभ्रंश में प्रायः ह रह जाते हैं जैसे शशधर से ससिहर। कबीर में इसका विपर्यय भी मिलता है। उन्होंने दहन को दाझन कहा है।

फारसी के एक ही शब्द का हमने ऊपर उदाहरण दिया है। यत्रा-तत्रा फारसी- अरबी के शब्द तो उनमें मिलते ही हैं,उनके कुछ पद ऐसे भी हैं जिनमें अरबी और फारसी शब्दों की ही भरमार है। उदाहरण के लिए उनकी पदावली का258वाँ पद ले लीजिए, जिसकी दो पंक्तियाँ हम यहाँ उद्धृत करते हैं-

'हमरकत रहबरहुँ समाँ मैं खुर्दा सुभाँ विसियार।

हमजिमीं आसमाँन खलिंक, गुंदा मुसकिल कार॥'

हम कह चुके हैं कि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, इसी से वे बाहरी प्रभावों के बहुत अधिक शिकार हुए। भाषा और व्याकरण की स्थिरता उनमें नहीं मिलती। या यह भी संभव है कि उन्होंने जान बूझकर अनेक प्रान्तों के शब्दों का प्रयोग किया हो अथवा शब्दभाण्डार की कमी के कारण जब जिस भाषा का सुना सुनाया शब्द उनके सामने आ गया हो, उन्होंने अपनी कविता में रख दिया हो। शब्दों को उन्होंने तोड़ा-मरोड़ा भी बहुत है। सन को सनि सनां सूँ-चाहे जिस रूप में तोड़-मरोड़कर उन्होंने आवश्यकतानुसार अपनी उक्तियों में ला बैठाया है। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में अक्खड़पन है और साहित्यिक कोमलता या प्रसाद का सर्वथा अभाव है। कहीं-कहीं उनकी भाषा बिलकुल गँवारू लगती है, पर उनकी बातों में खरेपन की मिठास है, जो उन्हीं की विशेषता है और उसके सामने यह गँवारपन डूब जाता है।

उपसंहार

हिंदी के काव्यसाहित्य में कबीर के स्थान का निर्णय करना कठिन है तुलना के लिए एक ही क्षेत्रा के कवियों को लेना चाहिए। कबीर का काव्य मुक्तक क्षेत्रा के अंतर्गत है। उसमें भी उन्होंने कुछ ज्ञान पर कहा है और कुछ नीति पर। नानक, दादू, सुन्दरदास आदि ज्ञानाश्रयी निर्गुण भक्त कवियों में वे सहज ही सबसे बढ़कर हैं। नानक, दादू आदि में कबीर की ही पुनरावृत्तियाँ हैं, परंतु आँचल में अस्वाभाविकता भी वे खूब बाँध लाए हैं। नीतिकाव्य की सफलता की कसौटी उसकी सर्वप्रियता है। कबीर के नीतिकाव्य की सर्वप्रियता न वृन्द को प्राप्त हुई और न रहीम को। रहीम में कबीर के भाव ज्यों के त्यों मिलते हैं। कहीं कहीं तो दोहे का दोहा रहीम ने अपना लिया है; यथा-

'कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाहि।

सीस उतारै हाथ करि सो पैसे घर माँहि॥'

-कबीर।

 

'रहिमन घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।

सीस उतारै भुइँ धरै सो जावै घर माँहिं॥'

-रहीम।

वृन्द और कबीर की विदग्धता एक सी है। रहस्यवादी कवियों में भी कबीर का ही आसन सबसे ऊँचा है, शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है। प्रेमाख्यानक कवियों का रहस्यवाद तो उनके प्रबन्ध के बीच-बीच में बहुत जगह थिगली सा लगता है और प्रबन्ध से अलग उसका अभिप्राय ही नष्ट हो जाता है। अन्य क्षेत्रों के कवियों के साथ कबीर की तुलना की ही नहीं जा सकती। तुलसी और सूर कविता के साम्राज्य में सर्वसम्मति से और सब कवियों की पहुँच के बाहर हैं। चन्दकृत पृथ्वीराजरासो नामक जो प्रक्षिप्त महाकाव्य प्रसिद्ध है, उसी में उनके महत्त्व का बहुत कुछ दर्शन हो जाता है। अतएव जब तक उनकी रचना के विषय में कोई निश्चयात्मक निर्णय नहीं हो जाता, तब तक उनको किसी के साथ तुलना के लिए खड़ा करना उन पर अन्याय करना है। केशव को काव्यशास्त्रा का आचार्य भले ही मान लें, पर उनको नैसर्गिक कवियों में गिनना कवित्व का तिरस्कार करना है। बिहारी की कोटि के कवियों की कविता को सच्ची स्वाभाविक कविता में गिनने में भी संकोच हो सकता है। मूँड़ मुँड़ाकर शृंगार के पीछे पड़ने वाले सब कवि इसी श्रेणी में हैं। पर भूषण, जायसी और कबीर में कौन बड़ा है, इसका निर्णय नहीं हो सकता। तीनों में सच्चे कवि की आकुलता विद्यमान है, और अपने क्षेत्रा में तीनों की पूरी पहुँच है, तीनों एक श्रेणी के हैं, फिर भी यदि आध्यात्मिकता को भौतिकता से श्रेष्ठ ठहराकर कोई कबीर को श्रेष्ठ ठहरावे तो रुचिस्वातन्त्रय के कारण उसे यह अधिकार है। प्रभाव से यदि श्रेष्ठता मानें तो तुलसी के बाद कबीर का ही नाम आता है; क्योंकि तुलसी को छोड़कर हिंदीभाषी जनता पर कबीर के समान या उनसे अधिक प्रभाव किसी कवि का नहीं पड़ा।

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