ज्ञान-वैराग्य कुण्डलियाँ गिरिधर कविराय
Gyan-Vairagya Kudaliyan Giridhar Kavirai

1. तुही शुद्ध परमात्मा, तुही सच्चिदानंद

तुही शुद्ध परमात्मा, तुही सच्चिदानंद।
चतुर्वेद यों कहत हैं, व्यास, विशिष्ठ, मुकुंद॥
व्यास, वशिष्ठ, मुकुंद, तत्वविद् यावत भूपर।
परमेश्वर अद्वितीय न भाषी तुम बिन दूसर ॥
कह गिरिधर कविराय, धार सो निश्चय हू ही ।
तुही सच्चिदानंद, शुद्ध परमातम तू ही ॥

2. बेड़ा तू, दरियाव तू, तुही वार, तुहि पार

बेड़ा तू, दरियाव तू, तुही वार, तुहि पार ।
तुही तरावे, तरे तू, तुहि मध डूबनहार ॥
तुहि मध दूबनहार, सर्वलीला है तेरी ।
तुही घंटा, तुहि शंख, तुही रणसिंहा भेरी ॥
कह गिरिधर कविराय, तुही बस्ती तुहि खेड़ा ।
तुहि नावक, तुहि नीर, तुही पतवारी बेड़ा ॥

3. राम तुही, तुहि कृष्ण है, तुहि देवन को देव

राम तुही, तुहि कृष्ण है, तुहि देवन को देव ।
तू ब्रह्मा, शिव शांति तू, तुहि सेवक, तुहि सेव॥
तुहि सेवक, तुहि सेव, तुही इंदर तुही शेषा ।
तुही होय सब रूप, कियो सबमें परवेसा ॥
कह गिरिधर कविराय, पुरुष तुहि, तुहि वामा ।
तुहि लछमन, तुहि भरत, शत्रुघन, सीतारामा॥

4. मालिक अपना आप तू, तुव नहिं मालिक अन्य

मालिक अपना आप तू, तुव नहिं मालिक अन्य ।
समझेगा जिस वक्त यह, तब होवै धनि धन्य ॥
तब होवै धनि धन्य, लोक या पुनि परलोक में ।
संसार-सिंधु को तरे, डूबे कूप-शोक में ॥
कह गिरिधर कविराय, खलिक का जो है खालिक।
सो परमेश्वर तू ही, पिंड ब्रह्मांड को मालिक ॥

5. करै कृपा जिस पुरुष पर, अतिसय करके राम

करै कृपा जिस पुरुष पर, अतिसय करके राम ।
ताको कोई ना फुरै, लौकिक वैदिक काम ॥
लौकिक वैदिक काम, रहै नहि करनो बाकी ।
हर जगहा हर बखत, ब्रह्म की होवै झांकी ॥
कह गिरिधर कविराय, अविद्या जिसकी मरै।
सर्व क्रिया के माहिं, एक खुद दरसन करै॥

6. कीजै ऐसी कथा मत, निष्फल कथनी जोय

कीजै ऐसी कथा मत, निष्फल कथनी जोय।
सिद्धि ना जिसमें अर्थ की, नहिं परमारथ होय॥
नहिं परमारथ होय, वार्ता सो सब तजिए ।
राम कृष्ण नारायण गोविंद हरि हरि भजिए ॥
कह गिरिधर कविराय, सुधा अनुभव रस पीजै ।
आतम-अनुसंधान होय सो चरचा कीजै॥

7. रहनी सदा इकंत को, पुनि भजनो भगवंत

रहनी सदा इकंत को, पुनि भजनो भगवंत ।
कथन श्रवण अद्वैत को, यही मतो है संत ॥
यही मतो है संत, सत्य को चिंतन करनो ।
प्रत्यक ब्रह्म अभिन्न, सदा उर अंतर धरनो॥
कह गिरिधर कविराय, वचन दुर्जन को सहनो।
तजके जन-समुदाय देश निर्जन में रहनो॥

8. बहता पानी निर्मला, पड़ा गंध सो होय

बहता पानी निर्मला, पड़ा गंध सो होय ।
त्यों साधू रमता भला, दाग न लागै कोय॥
दाग न लागै कोय, जगत में रहै अलेदा ।
राग द्वेष जुग प्रेत न चितको करै बिछैदा ॥
कह गिरिधर कविराय, शीत उष्णादिक सहता ।
होइ ना कहुं आसक्त, यथा गंगाजल बहता॥

9. जैसा-कैसा अन्न ले, भिक्षु करै आहार

जैसा-कैसा अन्न ले, भिक्षु करै आहार ।
मोटो जीरण कापड़ो, पहरै तजै विकार ॥
पहरै तजै विकार, चीनकर अपना हूदा ।
उदासीन ह्वै रहै सर्व से, पकरे मूदा ॥
कह गिरिधर कविराय, समीप न राखै पैसा ।
सोई परम विरक्त, भने हैं शास्त्र हु जैसा ॥

10. भिक्षा खावै मांगकै, रहै जहां-तहं सोय

भिक्षा खावै मांगकै, रहै जहां-तहं सोय ।
काम ना राखे किसी सों, जो होवै सो होय ॥
जो होवै सो होय, विरक्त की यही निशानी ।
ब्रह्म-विद्या के बिना, और बोलै नहिं बानी ॥
कह गिरिधर कविराय, ज्ञान को देवै दिक्षा।
क्षुधानिवृति अर्थ मांगकैं खावै भिक्षा॥

11. भिक्षु, बालक, भारजा, पुनि भूपति यह चार

भिक्षु, बालक, भारजा, पुनि भूपति यह चार।
अस्ति, नास्ति जानें न कछु, देही देहि पुकार ॥
देही देहि पुकार, रातदिन आठो जामू ।
जाग्रत सुपनै माहिं फुरै नहिं दूसर कामू ॥
कह गिरिधर कविराय, जगत में कोहु तितिक्षु ।
जिनको तृष्णा नाहिं ऐसे बिरलो भिक्षु ॥

12. देही सदा अरोग है, देह रोगमय चीन

देही सदा अरोग है, देह रोगमय चीन।
यह निश्चय परिपक जिसे, सोइ चतुर परवीन ॥
सोइ चतुर परवीन, विवेकी सो है पंडित ।
दरश करै अत्यंत आत्मा लखै अखंडित ॥
कह गिरिधर कविराय, अपना आप सनेही ।
परमानंदस्वरूप और नहिं एहै देही॥

13. पासी जब लग मजब की, तबलग होत न ज्ञान

पासी जब लग मजब की, तबलग होत न ज्ञान।
मजब-पासि टूटे जबैं, पावे पद निर्वान॥
पावे पद निर्वान, निरंजन माहिं समावै।
जनम-मरन-भवचक्र, विषैं फिर योनि ना आवैं॥
कह गिरिधर कविराय, बांध बिन भ्रमैं चौरासी ।
तबलग होत न ज्ञान, मजब की जबलग पासी॥

14. गढ़े अविद्या ने रचे, हाथी डूब अनंत

गढ़े अविद्या ने रचे, हाथी डूब अनंत ।
जोइ गिर्यो तिस खांत में, धंसग्यो कानप्रयंत ॥
धंसग्यो कानप्रयंत, आपको सुनै न देखै।
बहरो अंधरो भयो, दशो दिशि तम इक पेखै ॥
कह गिरिधर कविराय, यदपि शास्त्र स्मृति पढ़ै ।
तिसीतिसी में मगन गिर्यो है जिस-जिस गढ़ै॥

15. जैसा यह मन भूत है, और न दुतीय वैताल

जैसा यह मन भूत है, और न दुतीय वैताल ।
छिन में चढ़ै आकाश को, छिन में धंसै पताल ॥
छिन में धंसै पताल, होत छिन में कम जादा ।
छिन में शहर-निवास करै छिन वन का रादा ॥
कह गिरिधर बिन ज्ञान चित्त थिर होत न ऐसा ।
गुरु-अनुग्रह बिना बोध दृढ़ होत न जैसा॥