ग़ज़लें जौन एलिया

Ghazals Jaun Elia

अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे

अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे

कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इसलाह मगर हम भी अब इसलाह न करेंगे

कमगोई के एक वस्फ़-ए-हिमाक़त है बहर तो
कमगोई को अपनाएँगे चहका न करेंगे

अब सहल पसंदी को बनाएँगे वातिरा
ता देर किसी बाब में सोचा न करेंगे

ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तआल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं भरे बैठे हैं गुस्सा न करेंगे

कल रात बहुत ग़ौर किया है सो हम ए "जॉन"
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे

अपना ख़ाका लगता हूँ

अपना ख़ाका लगता हूँ
एक तमाशा लगता हूँ

आईनों को ज़ंग लगा
अब मैं कैसा लगता हूँ

अब मैं कोई शख़्स नहीं
उस का साया लगता हूँ

सारे रिश्ते तिश्ना हैं
क्या मैं दरिया लगता हूँ

उस से गले मिल कर ख़ुद को
तन्हा तन्हा लगता हूँ

ख़ुद को मैं सब आँखों में
धुँदला धुँदला लगता हूँ

मैं हर लम्हा इस घर से
जाने वाला लगता हूँ

क्या हुए वो सब लोग कि मैं
सूना सूना लगता हूँ

मस्लहत इस में क्या है मेरी
टूटा फूटा लगता हूँ

क्या तुम को इस हाल में भी
मैं दुनिया का लगता हूँ

कब का रोगी हूँ वैसे
शहर-ए-मसीहा लगता हूँ

मेरा तालू तर कर दो
सच-मुच प्यासा लगता हूँ

मुझ से कमा लो कुछ पैसे
ज़िंदा मुर्दा लगता हूँ

मैं ने सहे हैं मक्र अपने
अब बेचारा लगता हूँ

अब जुनूँ कब किसी के बस में है

अब जुनूँ कब किसी के बस में है
उसकी ख़ुशबू नफ़स-नफ़स में है

हाल उस सैद का सुनाईए क्या
जिसका सैयाद ख़ुद क़फ़स में है

क्या है गर ज़िन्दगी का बस न चला
ज़िन्दगी कब किसी के बस में है

ग़ैर से रहियो तू ज़रा होशियार
वो तेरे जिस्म की हवस में है

बाशिकस्ता बड़ा हुआ हूँ मगर
दिल किसी नग़्मा-ए-जरस में है

'जॉन' हम सबकी दस्त-रस में है
वो भला किसकी दस्त-रस में है

आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले

आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले
जैसे निकला अपना जनाज़ा ऐसे जनाज़े कम निकले

दौर अपनी खुश-दर्दी रात बहुत ही याद आया
अब जो किताबे शौक निकाली सारे वरक बरहम निकले

है ज़राज़ी इस किस्से की, इस किस्से को खतम करो
क्या तुम निकले अपने घर से, अपने घर से हम निकले

मेरे कातिल, मेरे मसिहा, मेरी तरहा लासनी है
हाथो मे तो खंजर चमके, जेबों से मरहम निकले

'जॉन' शहादतजादा हूँ मैं और खूनी दिल निकला हूँ
मेरा जूनू उसके कूचे से कैसे बेमातम निकले

आज भी तिश्नगी की क़िस्मत में

आज भी तिश्नगी की क़िस्मत में
सम-ए-क़ातिल है सलसबील नहीं

सब ख़ुदा के वकील हैं लेकिन
आदमी का कोई वकील नहीं

है कुशादा अज़ल से रू-ए-ज़मीं
हरम-ओ-दैर बे-फ़सील नहीं

ज़िंदगी अपने रोग से है तबाह
और दरमाँ की कुछ सबील नहीं

तुम बहुत जाज़िब-ओ-जमील सही
ज़िंदगी जाज़िब-ओ-जमील नहीं

न करो बहस हार जाओगी
हुस्न इतनी बड़ी दलील नहीं

इक ज़ख़्म भी यारान-ए-बिस्मिल नहीं आने का

इक ज़ख़्म भी यारान-ए-बिस्मिल नहीं आने का
मक़्तल में पड़े रहिए क़ातिल नहीं आने का

अब कूच करो यारो सहरा से कि सुनते हैं
सहरा में अब आइंदा महमिल नहीं आने का

वाइ'ज़ को ख़राबे में इक दावत-ए-हक़ दी थी
मैं जान रहा था वो जाहिल नहीं आने का

बुनियाद-ए-जहाँ पहले जो थी वही अब भी है
यूँ हश्र तो यारान-ए-यक-दिल नहीं आने का

बुत है कि ख़ुदा है वो माना है न मानूँगा
उस शोख़ से जब तक मैं ख़ुद मिल नहीं आने का

गर दिल की ये महफ़िल है ख़र्चा भी हो फिर दिल का
बाहर से तो सामान-ए-महफ़िल नहीं आने का

वो नाफ़ प्याले से सरमस्त करे वर्ना
हो के मैं कभी उस का क़ाइल नहीं आने का

ईज़ा-दही की दाद जो पाता रहा हूँ मैं

ईज़ा-दही की दाद जो पाता रहा हूँ मैं
हर नाज़-आफ़रीं को सताता रहा हूँ मैं

ऐ ख़ुश-ख़िराम पाँव के छाले तो गिन ज़रा
तुझ को कहाँ कहाँ न फिराता रहा हूँ मैं

इक हुस्न-ए-बे-मिसाल की तमसील के लिए
परछाइयों पे रंग गिराता रहा हूँ मैं

क्या मिल गया ज़मीर-ए-हुनर बेच कर मुझे
इतना कि सिर्फ़ काम चलाता रहा हूँ मैं

रूहों के पर्दा-पोश गुनाहों से बे-ख़बर
जिस्मों की नेकियाँ ही गिनाता रहा हूँ मैं

तुझ को ख़बर नहीं कि तिरा कर्ब देख कर
अक्सर तिरा मज़ाक़ उड़ाता रहा हूँ मैं

शायद मुझे किसी से मोहब्बत नहीं हुई
लेकिन यक़ीन सब को दिलाता रहा हूँ मैं

इक सत्र भी कभी न लिखी मैंने तेरे नाम
पागल तुझी को याद भी आता रहा हूँ मैं

जिस दिन से ए'तिमाद में आया तिरा शबाब
उस दिन से तुझ पे ज़ुल्म ही ढाता रहा हूँ मैं

अपना मिसालिया मुझे अब तक न मिल सका
ज़र्रों को आफ़्ताब बनाता रहा हूँ मैं

बेदार कर के तेरे बदन की ख़ुद-आगही
तेरे बदन की उम्र घटाता रहा हूँ मैं

कल दोपहर अजीब सी इक बे-दिली रही
बस तीलियाँ जला के बुझाता रहा हूँ मैं

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या

मेरी हर बात बे-असर ही रही
नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है ख़ानदान में क्या

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन-बान में क्या

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से
आ गया था मिरे गुमान में क्या

शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या

ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़
तू नहाती है अब भी बान में क्या

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में
आबले पड़ गए ज़बान में क्या

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मिरे गुमान में क्या

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत
ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या

है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद
ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या

उस के पहलू से लग के चलते हैं

उस के पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं

बंद है मय-कदों के दरवाज़े
हम तो बस यूँही चल निकलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलते हैं

वो है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं

है उसे दूर का सफ़र दर-पेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

शाम फ़ुर्क़त की लहलहा उठी
वो हवा है कि ज़ख़्म भरते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं

तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुशबू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं

ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
उस जिस्म की मैं जाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

तू आज मेरे घर में जो मेहमाँ है ईद है
तू घर का मेज़बाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

खोली तो है ज़बान मगर इस की क्या बिसात
मैं ज़हर की दुकाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

क्या एक कारोबार था वो रब्त-ए-जिस्म-ओ-जाँ
कोई भी राएगाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

कितना जला हुआ हूँ बस अब क्या बताऊँ मैं
आलम धुआँ धुआँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

देखा था जब कि पहले-पहल उस ने आईना
उस वक़्त मैं वहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

वो इक जमाल जलवा-फ़िशाँ है ज़मीं ज़मीं
मैं ता-ब-आसमाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

मैं ने बस इक निगाह में तय कर लिया तुझे
तू रंग-ए-बेकराँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

गुम हो के जान तू मिरी आग़ोश-ए-ज़ात में
बे-नाम-ओ-बे-निशाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

हर कोई दरमियान है ऐ माजरा-फ़रोश
मैं अपने दरमियाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

ऐ सुबह मैं अब कहाँ रहा हूँ

ऐ सुबह मैं अब कहाँ रहा हूँ
ख़्वाबों ही में सर्फ़ हो चुका हूँ

सब मेरे बग़ैर मुतमइन हों
मैं सब के बग़ैर जी रहा हूँ

क्या है जो बदल गई है दुनिया
मैं भी तो बहुत बदल गया हूँ

गो अपने हज़ार नाम रख लूँ
पर अपने सिवा मैं और क्या हूँ

मैं जुर्म का ए'तिराफ़ कर के
कुछ और है जो छुपा गया हूँ

मैं और फ़क़त उसी की ख़्वाहिश
अख़्लाक़ में झूट बोलता हूँ

इक शख़्स जो मुझ से वक़्त ले कर
आज आ न सका तो ख़ुश हुआ हूँ

हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा
फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ

चरके तो तुझे दिए हैं मैंने
पर ख़ून भी मैं ही थूकता हूँ

रोया हूँ तो अपने दोस्तों में
पर तुझ से तो हँस के ही मिला हूँ

ऐ शख़्स मैं तेरी जुस्तुजू से
बेज़ार नहीं हूँ थक गया हूँ

मैं शम-ए-सहर का नग़्मा-गर था
अब थक के कराहने लगा हूँ

कल पर ही रखो वफ़ा की बातें
मैं आज बहुत बोझा हुआ हूँ

कोई भी नहीं है मुझ से नादिम
बस तय ये हुआ कि मैं बुरा हूँ

कभी जब मुद्दतों के बा'द उस का सामना होगा

कभी जब मुद्दतों के बा'द उस का सामना होगा
सिवाए पास आदाब-ए-तकल्लुफ़ और क्या होगा

यहाँ वो कौन है जो इंतिख़ाब-ए-ग़म पे क़ादिर हो
जो मिल जाए वही ग़म दोस्तों का मुद्दआ' होगा

नवेद-ए-सर-ख़ुशी जब आएगी उस वक़्त तक शायद
हमें ज़हर-ए-ग़म-ए-हस्ती गवारा हो चुका होगा

सलीब-ए-वक़्त पर मैंने पुकारा था मोहब्बत को
मिरी आवाज़ जिस ने भी सुनी होगी हँसा होगा

अभी इक शोर-ए-हा-ओ-हू सुना है सारबानों ने
वो पागल क़ाफ़िले की ज़िद में पीछे रह गया होगा

हमारे शौक़ के आसूदा-ओ-ख़ुश-हाल होने तक
तुम्हारे आरिज़-ओ-गेसू का सौदा हो चुका होगा

नवाएँ निकहतें आसूदा चेहरे दिल-नशीं रिश्ते
मगर इक शख़्स इस माहौल में क्या सोचता होगा

हँसी आती है मुझ को मस्लहत के इन तक़ाज़ों पर
कि अब इक अजनबी बन कर उसे पहचानना होगा

दलीलों से दवा का काम लेना सख़्त मुश्किल है
मगर इस ग़म की ख़ातिर ये हुनर भी सीखना होगा

वो मुंकिर है तो फिर शायद हर इक मकतूब-ए-शौक़ उस ने
सर-अंगुश्त-ए-हिनाई से ख़लाओं में लिखा होगा

है निस्फ़-ए-शब वो दीवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चाँदनी रातों का क़िस्सा छिड़ गया होगा

सबा शिकवा है मुझ को उन दरीचों से दरीचों से
दरीचों में तो दीमक के सिवा अब और क्या होगा

कोई दम भी मैं कब अंदर रहा हूँ

कोई दम भी मैं कब अंदर रहा हूँ
लिए हैं साँस और बाहर रहा हूँ

धुएँ में साँस हैं साँसों में पल हैं
मैं रौशन-दान तक बस मर रहा हूँ

फ़ना हर दम मुझे गिनती रही है
मैं इक दम का था और दिन भर रहा हूँ

ज़रा इक साँस रोका तो लगा यूँ
कि इतनी देर अपने घर रहा हूँ

ब-जुज़ अपने मयस्सर है मुझे क्या
सो ख़ुद से अपनी जेबें भर रहा हूँ

हमेशा ज़ख़्म पहुँचे हैं मुझी को
हमेशा मैं पस-ए-लश्कर रहा हूँ

लिटा दे नींद के बिस्तर पे ऐ रात
मैं दिन भर अपनी पलकों पर रहा हूँ

कोई हालत नहीं ये हालत है

कोई हालत नहीं ये हालत है
ये तो आशोभना सूरत है

अन्जुमन में ये मेरी खामोशी
गुर्दबारी नहीं है वहशत है

तुझ से ये गाह-गाह का शिकवा
जब तलक है बस गनिमत है

ख्वाहिशें दिल का साथ छोड़ गईं
ये अज़ीयत बड़ी अज़ीयत है

लोग मसरूफ़ जानते हैं मुझे
या मेरा गम ही मेरी फुरसत है

तंज़ पैरा-या-ए-तबस्सुम में
इस तक्ल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है

हमने देखा तो हमने ये देखा
जो नहीं है वो ख़ूबसूरत है

वार करने को जाँनिसार आए
ये तो इसार है इनायत है

गर्म-जोशी और इस कदर क्या बात
क्या तुम्हें मुझ से कुछ शिकायत है

अब निकल आओ अपने अन्दर से
घर में सामान की ज़रूरत है

आज का दिन भी ऐश से गुज़रा
सर से पाँव तक बदन सलामत है

क्या कहें तुम से बूद-ओ-बाश अपनी

क्या कहें तुम से बूद-ओ-बाश अपनी
काम ही क्या वही तलाश अपनी

कोई दम ऐसी ज़िंदगी भी करें
अपना सीना हो और ख़राश अपनी

अपने ही तेशा-ए-नदामत से
ज़ात है अब तो पाश पाश अपनी

है लबों पर नफ़स-ज़नी की दुकाँ
यावा-गोई है बस मआश अपनी

तेरी सूरत पे हूँ निसार प अब
और सूरत कोई तराश अपनी

जिस्म ओ जाँ को तो बेच ही डाला
अब मुझे बेचनी है लाश अपनी

क्या हो गया है गेसू-ए-ख़मदार को तिरे

क्या हो गया है गेसू-ए-ख़मदार को तिरे
आज़ाद कर रहे हैं गिरफ़्तार को तिरे

अब तू है मुद्दतों से शब-ओ-रोज़ रू-ब-रू
कितने ही दिन गुज़र गए दीदार को तिरे

कल रात चोबदार समेत आ के ले गया
इक ग़ोल तरह-दार-ए-सर-ए-दार को तिरे

अब इतनी कुंद हो गई धार ऐ यक़ीं तिरी
अब रोकता नहीं है कोई वार को तिरे

अब रिश्ता-ए-मरीज़-ओ-मसीहा हुआ है ख़्वार
सब पेशा-वर समझते हैं बीमार को तिरे

बाहर निकल के आ दर-ओ-दीवार-ए-ज़ात से
ले जाएगी हवा दर-ओ-दीवार को तिरे

ऐ रंग उस में सूद है तेरा ज़ियाँ नहीं
ख़ुशबू उड़ा के ले गई ज़ंगार को तिरे

ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ

ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ
उस को ढूँढें तो वो मिले भी कहाँ

ख़ेमा-ख़ेमा गुज़ार ले ये शब,
सुबह-दम ये क़ाफिले भी कहाँ

अब त'मुल न कर दिल-ए- ख़ुदकाम,
रूठ ले फिर ये सिलसिले भी कहाँ

आओ आपस में कुछ गिले कर लें,
वर्ना यूँ है के फिर गिले भी कहाँ

ख़ुश हो सीने की इन ख़राशों पर,
फिर तनफ़्फ़ुस के ये सिले भी कहाँ

ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी

ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी
मैं भी बरबाद हो गया तू भी

हुस्न-ए-मग़मूम तमकनत में तिरी
फ़र्क़ आया न यक-सर-ए-मू भी

ये न सोचा था ज़ेर-ए-साया-ए-ज़ुल्फ़
कि बिछड़ जाएगी ये ख़ुश-बू भी

हुस्न कहता था छेड़ने वाले
छेड़ना ही तो बस नहीं छू भी

हाए वो उस का मौज-ख़ेज़ बदन
मैं तो प्यासा रहा लब-ए-जू भी

याद आते हैं मो'जिज़े अपने
और उस के बदन का जादू भी

यासमीं उस की ख़ास महरम-ए-राज़
याद आया करेगी अब तू भी

याद से उस की है मिरा परहेज़
ऐ सबा अब न आइयो तू भी

हैं यही 'जौन-एलिया' जो कभी
सख़्त मग़रूर भी थे बद-ख़ू भी

ख़्वाब की हालातों के साथ तेरी हिकायतों में हैं

ख़्वाब की हालातों के साथ तेरी हिकायतों में हैं
हम भी दयार-ए-अहल-ए-दिल तेरी रिवायतों में हैं

वो जो थे रिश्ता-हा-ए-जाँ टूट सके भला कहाँ
जान वो रिश्ता-हा-ए-जाँ अब भी शिकायतों में हैं

एक ग़ुबार है कि है दायरा-वार पुर-फ़िशाँ
क़ाफ़िला-हा-ए-कहकशाँ तंग हैं वहशतों में हैं

वक़्त की दरमियानियाँ कर गईं जाँ-कनी को जाँ
वो जो अदावतें कि थीं आज मोहब्बतों में हैं

परतव-ए-रंग है कि है दीद में जाँ-नशीन-ए-रंग
रंग कहाँ हैं रूनुमा रंग तो निकहतों में हैं

है ये वजूद की नुमूद अपनी नफ़स नफ़स गुरेज़
वक़्त की सारी बस्तियाँ अपनी हज़ीमतों में हैं

गर्द का सारा ख़ानुमाँ है सर-ए-दश्त-ए-बे-अमाँ
शहर हैं वो जो हर तरह गर्द की ख़िदमतों में हैं

वो दिल ओ जान सूरतें जैसे कभी न थीं कहीं
हम उन्हीं सूरतों के हैं हम उन्हीं सूरतों में हैं

मैं न सुनूँगा माजरा मा'रका-हा-ए-शौक़ का
ख़ून गए हैं राएगाँ रंग नदामतों में हैं

जाने कहाँ गया है वो वो जो अभी यहाँ था

जाने कहाँ गया है वो वो जो अभी यहाँ था
वो जो अभी यहाँ था वो कौन था कहाँ था

ता-लम्हा-ए-गुज़िश्ता ये जिस्म और साए
ज़िंदा थे राएगाँ में जो कुछ था राएगाँ था

अब जिस की दीद का है सौदा हमारे सर में
वो अपनी ही नज़र में अपना ही इक समाँ था

क्या क्या न ख़ून थूका मैं उस गली में यारो
सच जानना वहाँ तो जो फ़न था राएगाँ था

ये वार कर गया है पहलू से कौन मुझ पर
था मैं ही दाएँ बाएँ और मैं ही दरमियाँ था

उस शहर की हिफ़ाज़त करनी थी हम को जिस में
आँधी की थीं फ़सीलें और गर्द का मकाँ था

थी इक अजब फ़ज़ा सी इमकान-ए-ख़ाल-ओ-ख़द की
था इक अजब मुसव्विर और वो मिरा गुमाँ था

उम्रें गुज़र गई थीं हम को यक़ीं से बिछड़े
और लम्हा इक गुमाँ का सदियों में बे-अमाँ था

जब डूबता चला मैं तारीकियों की तह में
तह में था इक दरीचा और उस में आसमाँ था

जॉन ! गुज़ाश्त-ए-वक्त की हालत-ए-हाल पर सलाम

जॉन ! गुज़ाश्त-ए-वक्त की हालत-ए-हाल पर सलाम
उस के फ़िराक को दुआ, उसके विसाल पर सलाम

तेरा सितम भी था करम, तेरा करम भी था सितम
बंदगी तेरी तेग को, और तेरी ढाल पर सलाम

सूद-ओ-जयां के फर्क का अब नहीं हम से वास्ता
सुबह को अर्ज़-ए-कोर्निश, शाम-ए-मलाल पर सलाम

अब तो नहीं है लज्ज़त-ए-मुमकिन-ए-शौक भी नसीब
रोज़-ओ-शब ज़माना-ए-शौक महाल पर सलाम

हिज्र-ए-सवाल के है दिन, हिज्र-ए-जवाब के हैं दिन
उस के जवाब पर सलाम, अपने सवाल पर सलाम

जाने वोह रंग-ए-मस्ती-ए-ख्वाब-ओ-ख्याल क्या हुई?
इशरत-ए-ख्वाब की सना, ऐश-ए-ख्याल पर सलाम

अपना कमाल था अजब, अपना ज़वाल था अजब
अपने कमाल पर दारूद, अपने ज़वाल पर सलाम

जी ही जी में वो जल रही होगी

जी ही जी में वो जल रही होगी
चाँदनी में टहल रही होगी

चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र
अब वो कपड़े बदल रही होगी

सो गई होगी वो शफ़क़-अंदाम
सब्ज़ क़िंदील जल रही होगी

सुर्ख़ और सब्ज़ वादियों की तरफ़
वो मिरे साथ चल रही होगी

चढ़ते चढ़ते किसी पहाड़ी पर
अब वो करवट बदल रही होगी

पेड़ की छाल से रगड़ खा कर
वो तने से फिसल रही होगी

नील-गूँ झील नाफ़ तक पहने
संदलीं जिस्म मल रही होगी

हो के वो ख़्वाब-ए-ऐश से बेदार
कितनी ही देर शल रही होगी

जो ज़िंदगी बची है उसे मत गंवाइये

जो ज़िंदगी बची है उसे मत गंवाइये
बेहतर ये है कि आप मुझे भूल जाइए

हर आन इक जुदाई है ख़ुद अपने आप से
हर आन का है ज़ख़्म जो हर आन खाइए

थी मश्वरत की हम को बसाना है घर नया
दिल ने कहा कि मेरे दर-ओ-बाम ढाइए

थूका है मैंने ख़ून हमेशा मज़ाक़ में
मेरा मज़ाक़ आप हमेशा उड़ाइए

हरगिज़ मिरे हुज़ूर कभी आइए न आप
और आइए अगर तो ख़ुदा बन के आइए

अब कोई भी नहीं है कोई दिल-मोहल्ले में
किस किस गली में जाइए और गुल मचाइए

इक तौर-ए-दह-सदी था जो बे-तौर हो गया
अब जंतरी बजाइये तारीख़ गाइए

इक लाल-क़िलअ' था जो मियाँ ज़र्द पड़ गया
अब रंग-रेज़ कौन से किस जा से लाइए

शाइ'र है आप या'नी कि सस्ते लतीफ़-गो
रिश्तों को दिल से रोइए सब को हँसाइए

जो हालतों का दौर था वो तो गुज़र गया
दिल को जला चुके हैं सो अब घर जलाइए

अब क्या फ़रेब दीजिए और किस को दीजिए
अब क्या फ़रेब खाइए और किस से खाइए

है याद पर मदार मेरे कारोबार का
है अर्ज़ आप मुझ को बहुत याद आइए

बस फ़ाइलों का बोझ उठाया करें जनाब
मिस्रा ये 'जौन' का है इसे मत उठाइए

जो हुआ 'जौन' वो हुआ भी नहीं

जो हुआ 'जौन' वो हुआ भी नहीं
या'नी जो कुछ भी था वो था भी नहीं

बस गया जब वो शहर-ए-दिल में मिरे
फिर मैं इस शहर में रहा भी नहीं

इक अजब तौर हाल है कि जो है
या'नी मैं भी नहीं ख़ुदा भी नहीं

लम्हों से अब मुआ'मला क्या हो
दिल पे अब कुछ गुज़र रहा भी नहीं

जानिए मैं चला गया हूँ कहाँ
मैं तो ख़ुद से कहीं गया भी नहीं

तू मिरे दिल में आन के बस जा
और तू मेरे पास आ भी नहीं

ज़िंदगी क्या है इक कहानी है

ज़िंदगी क्या है इक कहानी है
ये कहानी नहीं सुनानी है

है ख़ुदा भी अजीब या'नी जो
न ज़मीनी न आसमानी है

है मिरे शौक़-ए-वस्ल को ये गिला
उस का पहलू सरा-ए-फ़ानी है

अपनी तामीर-ए-जान-ओ-दिल के लिए
अपनी बुनियाद हम को ढानी है

ये है लम्हों का एक शहर-ए-अज़ल
याँ की हर बात ना-गहानी है

चलिए ऐ जान-ए-शाम आज तुम्हें
शम्अ इक क़ब्र पर जलानी है

रंग की अपनी बात है वर्ना
आख़िरश ख़ून भी तो पानी है

इक अबस का वजूद है जिस से
ज़िंदगी को मुराद पानी है

शाम है और सहन में दिल के
इक अजब हुज़न-ए-आसमानी है

तुझ में पड़ा हुआ हूँ हरकत नहीं है मुझ में

तुझ में पड़ा हुआ हूँ हरकत नहीं है मुझ में
हालत न पूछियो तू हालत नहीं है मुझ में

अब तो नज़र में आ जा बाँहों के घर में आ जा
ऐ जान तेरी कोई सूरत नहीं है मुझ में

ऐ रंग रंग में आ आग़ोश-ए-तंग में आ
बातें ही रंग की हैं रंगत नहीं है मुझ में

अपने में ही किसी की हो रू-ब-रूई मुझ को
हूँ ख़ुद से रू-ब-रू हूँ हिम्मत नहीं है मुझ में

अब तो सिमट के आ जा और रूह में समा जा
वैसे किसी की प्यारे वुसअ'त नहीं है मुझ में

शीशे के इस तरफ़ से मैं सब को तक रहा हूँ
मरने की भी किसी को फ़ुर्सत नहीं है मुझ में

तुम मुझ को अपने रम में ले जाओ साथ अपने
अपने से ऐ ग़ज़ालो वहशत नहीं है मुझ में

तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो

तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो

तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
और इतने ही बेमुरव्वत हो

तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो

है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो

किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो

किसलिए देखते हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो

दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो

दिल-ए-बर्बाद को आबाद किया है मैं ने

दिल-ए-बर्बाद को आबाद किया है मैंने
आज मुद्दत में तुम्हें याद किया है मैं ने

ज़ौक़-ए-परवाज़-ए-तब-ओ-ताब अता फ़रमा कर
सैद को लाइक़-ए-सय्याद किया है मैंने

तल्ख़ी-ए-दौर-ए-गुज़िश्ता का तसव्वुर कर के
दिल को फिर माइल-ए-फ़रियाद किया है मैंने

आज इस सोज़-ए-तसव्वुर की ख़ुशी में ऐ दोस्त
ताइर-ए-सब्र को आज़ाद किया है मैंने

हो के इसरार-ए-ग़म-ए-ताज़ा से मजबूर-ए-फ़ुग़ाँ
चश्म को अश्क-ए-तर इमदाद किया है मैंने

तुम जिसे कहते थे हंगामा-पसंदी मेरी
फिर वही तर्ज़-ए-ग़म ईजाद किया है मैंने

फिर गवारा है मुझे इश्क़ की हर इक मुश्किल
ताज़ा फिर शेव-ए-फ़रहाद किया है मैंने

दिल का दयार-ए-ख़्वाब में दूर तलक गुज़र रहा

दिल का दयार-ए-ख़्वाब में दूर तलक गुज़र रहा
पाँव नहीं थे दरमियाँ आज बड़ा सफ़र रहा

हो न सका हमें कभी अपना ख़याल तक नसीब
नक़्श किसी ख़याल का लौह-ए-ख़याल पर रहा

नक़्श-गरों से चाहिए नक़्श ओ निगार का हिसाब
रंग की बात मत करो रंग बहुत बिखर रहा

जाने गुमाँ की वो गली ऐसी जगह है कौन सी
देख रहे हो तुम कि मैं फिर वहीं जा के मर रहा

दिल मिरे दिल मुझे भी तुम अपने ख़वास में रखो
याराँ तुम्हारे बाब में मैं ही न मो'तबर रहा

शहर-ए-फ़िराक़-ए-यार से आई है इक ख़बर मुझे
कूचा-ए-याद-ए-यार से कोई नहीं उभर रहा

दिल की हर बात ध्यान में गुज़री

दिल की हर बात ध्यान में गुज़री
सारी हस्ती गुमान में गुज़री

अज़ल-ए-दास्ताँ से इस दम तक
जो भी गुज़री इक आन में गुज़री

जिस्म मुद्दत तिरी उक़ूबत की
एक इक लम्हा जान में गुज़री

ज़िंदगी का था अपना ऐश मगर
सब की सब इम्तिहान में गुज़री

हाए वो नावक-ए-गुज़ारिश-ए-रंग
जिस की जुम्बिश कमान में गुज़री

वो गदाई गली अजब थी कि वाँ
अपनी इक आन-बान में गुज़री

यूँ तो हम दम-ब-दम ज़मीं पे रहे
उम्र सब आसमान में गुज़री

जो थी दिल-ताएरों की मोहलत-ए-बूद
ता ज़मीं वो उड़ान में गुज़री

बूद तो इक तकान है सो ख़ुदा
तेरी भी क्या तकान में गुज़री

दिल को दुनिया का है सफ़र दरपेश

दिल को दुनिया का है सफ़र दरपेश
और चारों तरफ़ है घर दरपेश

है ये आलम अजीब और यहाँ
माजरा है अजीब-तर दरपेश

दो जहाँ से गुज़र गया फिर भी
मैं रहा ख़ुद को उम्र भर दरपेश

अब मैं कू-ए-अबस शिताब चलूँ
कई इक काम हैं उधर दरपेश

उस के दीदार की उम्मीद कहाँ
जब कि है दीद को नज़र दरपेश

अब मिरी जान बच गई यानी
एक क़ातिल की है सिपर दरपेश

किस तरह कूच पर कमर बाँधूँ
एक रहज़न की है कमर दरपेश

ख़ल्वत-ए-नाज़ और आईना
ख़ुद-निगर को है ख़ुद-निगर दरपेश

दिल ने किया है क़स्द-ए-सफ़र घर समेट लो

दिल ने किया है क़स्द-ए-सफ़र घर समेट लो
जाना है इस दयार से मंज़र समेट लो

आज़ादगी में शर्त भी है एहतियात की
पर्वाज़ का है इज़्न मगर पर समेट लो

हमला है चार सू दर-ओ-दीवार-ए-शहर का
सब जंगलों को शहर के अंदर समेट लो

बिखरा हुआ हूँ सरसर-ए-शाम-ए-फ़िराक़ से
अब आ भी जाओ और मुझे आ कर समेट लो

रखता नहीं है कोई न-गुफ़्ता का याँ हिसाब
जो कुछ है दिल में उस को लबों पर समेट लो

दीद की एक आन में कार-ए-दवाम हो गया

दीद की एक आन में कार-ए-दवाम हो गया
वो भी तमाम हो गया मैं भी तमाम हो गया

अब मैं हूँ इक अज़ाब में और अजब अज़ाब में
जन्नत-ए-पुर-सुकूत में मुझ से कलाम हो गया

आह वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ हाए वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ
हाए वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ शहर में आम हो गया

रिश्ता-ए-रंग-ए-जाँ मिरा निकहत-ए-नाज़ से तिरी
पुख़्ता हुआ और इस क़दर या'नी कि ख़ाम हो गया

पूछ न वस्ल का हिसाब हाल है अब बहुत ख़राब
रिश्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ के बीच जिस्म हराम हो गया

शहर की दास्ताँ न पूछ है ये अजीब दास्ताँ
आने से शहरयार के शहर ग़ुलाम हो गया

दिल की कहानियाँ बनीं कूचा-ब-कूचा कू-ब-कू
सह के मलाल-ए-शहर को शहर में नाम हो गया

'जौन' की तिश्नगी का था ख़ूब ही माजरा कि जो
मीना-ब-मीना मय-ब-मय जाम-ब-जाम हो गया

नाफ़-पियाले को तिरे देख लिया मुग़ाँ ने जान
सारे ही मय-कदे का आज काम तमाम हो गया

उस की निगाह उठ गई और में उठ के रह गया
मेरी निगाह झुक गई और सलाम हो गया

न पूछ उस की जो अपने अंदर छुपा

न पूछ उस की जो अपने अंदर छुपा
ग़नीमत कि मैं अपने बाहर छुपा

मुझे याँ किसी पे भरोसा नहीं
मैं अपनी निगाहों से छुप कर छुपा

पहुँच मुख़बिरों की सुख़न तक कहाँ
सो मैं अपने होंटों पे अक्सर छुपा

मिरी सुन न रख अपने पहलू में दिल
इसे तू किसी और के घर छुपा

यहाँ तेरे अंदर नहीं मेरी ख़ैर
मिरी जाँ मुझे मेरे अंदर छुपा

ख़यालों की आमद में ये ख़ारज़ार
है तीरों की यलग़ार तू सर छुपा

नाम ही क्या निशाँ ही क्या ख़्वाब-ओ-ख़याल हो गए

नाम ही क्या निशाँ ही क्या ख़्वाब-ओ-ख़याल हो गए
तेरी मिसाल दे के हम तेरी मिसाल हो गए

साया-ए-ज़ात से भी रम अक्स-ए-सिफ़ात से भी रम
दश्त-ए-ग़ज़ल में आ के देख हम तो ग़ज़ाल हो गए

कहते ही नश्शा-हा-ए-ज़ौक़ कितने ही जज़्बा-हा-ए-शौक़
रस्म-ए-तपाक-ए-यार से रू-ब-ज़वाल हो गए

इश्क़ है अपना पाएदार तेरी वफ़ा है उस्तुवार
हम तो हलाक-ए-वर्ज़िश-ए-फ़र्ज़-ए-मुहाल हो गए

जादा-ए-शौक़ में पड़ा क़हत-ए-गुबार-ए-कारवाँ
वाँ के शजर तो सर-ब-सर दस्त-ए-सवाल हो गए

सख़्त ज़मीं-परस्त थे अहद-ए-वफ़ा के पासदार
उड़ के बुलंदियों में हम गर्द-ए-मलाल हो गए

क़ुर्ब-ए-जमाल और हम ऐश-ए-विसाल और हम
हाँ ये हुआ कि साकिन-ए-शहर-ए-जमाल हो गए

हम-नफ़सान-ए-वज़्अ'-दार मुस्तमिआन-ए-बुर्द-बार
हम तो तुम्हारे वास्ते एक वबाल हो गए

कौन सा क़ाफ़िला है ये जिस के जरस का है ये शोर
मैं तो निढाल हो गया हम तो निढाल हो गए

ख़ार-ब-ख़ार गुल-ब-गुल फ़स्ल-ए-बहार आ गई
फ़स्ल-ए-बहार आ गई ज़ख़्म बहाल हो गए

शोर उठा मगर तुझे लज़्ज़त-ए-गोश तो मिली
ख़ून बहा मगर तिरे हाथ तो लाल हो गए

'जौन' करोगे कब तलक अपना मिसालिया तलाश
अब कई हिज्र हो चुके अब कई साल हो गए

बज़्म से जब निगार उठता है

बज़्म से जब निगार उठता है
मेरे दिल से ग़ुबार उठता है

मैं जो बैठा हूँ तो वो ख़ुश-क़ामत
देख लो बार बार उठता है

तेरी सूरत को देख कर मिरी जाँ
ख़ुद-बख़ुद दिल में प्यार उठता है

उस की गुल-गश्त से रविश-ब-रविश
रंग ही रंग यार उठता है

तेरे जाते ही इस ख़राबे से
शोर-ए-गिर्या हज़ार उठता है

कौन है जिस को जाँ अज़ीज़ नहीं
ले तिरा जाँ-निसार उठता है

सफ़-ब-सफ़ आ खड़े हुए हैं ग़ज़ाल
दश्त से ख़ाकसार उठता है

है ये तेशा कि एक शो'ला सा
बर-सर-ए-कोहसार उठता है

कर्ब-ए-तन्हाई है वो शय कि ख़ुदा
आदमी को पुकार उठता है

तू ने फिर कस्ब-ए-ज़र का ज़िक्र किया
कहीं हम से ये बार उठता है

लो वो मजबूर शहर-ए-सहरा से
आज दीवाना-वार उठता है

अपने याँ तो ज़माने वालों का
रोज़ ही ए'तिबार उठता है

'जौन' उठता है यूँ कहो या'नी
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का यार उठता है

बजा इरशाद फ़रमाया गया है

बजा इरशाद फ़रमाया गया है
कि मुझ को याद फ़रमाया गया है

इनायत की हैं ना-मुम्किन उमीदें
करम ईजाद फ़रमाया गया है

हैं अब हम और ज़द है हादसों की
हमें आज़ाद फ़रमाया गया है

ज़रा उस की पुर-अहवाली तो देखें
जिसे बर्बाद फ़रमाया गया है

नसीम-ए-सब्ज़गी थे हम सो हम को
ग़ुबार-उफ़्ताद फ़रमाया गया है

मुबारक फाल-ए-नेक ऐ ख़ुसरव-ए-शहर
मुझे फ़रहाद फ़रमाया गया है

सनद बख़्शी है इश्क़-ए-बे-ग़रज़ की
बहुत ही शाद फ़रमाया गया है

सलीक़े को लब-ए-फ़रियाद तेरे
अदा की दाद फ़रमाया गया है

कहाँ हम और कहाँ हुस्न-ए-सर-ए-बाम
हमें बुनियाद फ़रमाया गया है

बद-दिली में बे-क़रारी को क़रार आया तो क्या

बद-दिली में बे-क़रारी को क़रार आया तो क्या
पा-पियादा हो के कोई शहसवार आया तो क्या

ज़िंदगी की धूप में मुरझा गया मेरा शबाब
अब बहार आई तो क्या अब्र-ए-बहार आया तो क्या

मेरे तेवर बुझ गए मेरी निगाहें जल गई
अब कोई आईना-रू आईना-दार आया तो क्या

अब कि जब जानाना तुम को है सभी पर ए'तिबार
अब तुम्हें जानाना पे जब ए'तिबार आया तो क्या

अब मुझे ख़ुद अपनी बाहोँ पर नहीं है इख़्तियार
हाथ फैलाए कोई बे-इख़्तियार आया तो क्या

वो तो अब भी ख़्वाब है बेदार बीनाई का ख़्वाब
ज़िंदगी में ख़्वाब में उस के गुज़ार आया तो क्या

हम यहाँ हैं बे-गुनाह सो हम में से 'जौन-एलिया'
कोई जीत आया यहाँ और कोई हार आया तो क्या

बाहर गुज़ार दी कभी अंदर भी आएँगे

बाहर गुज़ार दी कभी अंदर भी आएँगे
हम से ये पूछना कभी हम घर भी आएँगे

ख़ुद आहनी नहीं हो तो पोशिश हो आहनी
यूँ शीशा ही रहोगे तो पत्थर भी आएँगे

ये दश्त-ए-बे-तरफ़ है गुमानों का मौज-ख़ेज़
इस में सराब क्या कि समुंदर भी आएँगे

आशुफ़्तगी की फ़स्ल का आग़ाज़ है अभी
आशुफ़्तगाँ पलट के अभी घर भी आएँगे

देखें तो चल के यार तिलिस्मात-ए-सम्त-ए-दिल
मरना भी पड़ गया तो चलो मर भी आएँगे

ये शख़्स आज कुछ नहीं पर कल ये देखियो
उस की तरफ़ क़दम ही नहीं सर भी आएँगे

मसनद-ए-ग़म पे जच रहा हूँ मैं

मसनद-ए-ग़म पे जच रहा हूँ मैं
अपना सीना खुरच रहा हूँ मैं

ऐ सगान-ए-गुरसना-ए-अय्याम
जूँ ग़िज़ा तुम को पच रहा हूँ मैं

अन्दरून-ए-हिसार-ए-ख़ामोशी
शोर की तरह मच रहा हूँ मैं

वक़्त का ख़ून-ए-राएगाँ हूँ मगर
ख़ुश्क लम्हों में रच रहा हूँ मैं

ख़ून में तर-ब-तर रहा मिरा नाम
हर ज़माने का सच रहा हूँ मैं

हाल ये है कि अपनी हालत पर
ग़ौर करने से बच रहा हूँ मैं

महक उठा है आँगन इस ख़बर से

महक उठा है आँगन इस ख़बर से
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से

जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम
दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे

मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से

गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से

उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद
हमारी चाँदनी छाए तो तरसे

मेरे मान न गुज़रा कर मेरी जान
कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से

यह ग़म क्या दिल की आदत है? नहीं तो

यह ग़म क्या दिल की आदत है? नहीं तो
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो

है वो इक ख्वाब-ए-बे ताबीर इसको
भुला देने की नीयत है? नहीं तो

किसी के बिन किसी की याद के बिन
जिए जाने की हिम्मत है ? नहीं तो

किसी सूरत भी दिल लगता नहीं? हाँ
तू कुछ दिन से यह हालत हैं? नहीं तो

तेरे इस हाल पर हैं सब को हैरत
तुझे भी इस पर हैरत है? नहीं तो

वो दरवेशी जो तज कर आ गया.....तू
यह दौलत उस की क़ीमत है? नहीं तो

हुआ जो कुछ यही मक़्सूम था क्या
यही सारी हकायत है ? नहीं तो

अज़ीयत नाक उम्मीदों से तुझको
अमन पाने की हसरत है? नहीं तो

यादों का हिसाब रख रहा हूँ

यादों का हिसाब रख रहा हूँ
सीने में अज़ाब रख रहा हूँ

तुम कुछ कहे जाओ क्या कहूँ मैं
बस दिल में जवाब रख रहा हूँ

दामन में किए हैं जम्अ' गिर्दाब
जेबों में हबाब रख रहा हूँ

आएगा वो नख़वती सो मैं भी
कमरे को ख़राब रख रहा हूँ

तुम पर मैं सहीफ़ा-हा-ए-कोहना
इक ताज़ा किताब रख रहा हूँ

ये अक्सर तल्ख़-कामी सी रही क्या

ये अक्सर तल्ख़-कामी सी रही क्या
मोहब्बत ज़क उठा कर आई थी क्या

न कसदम हैं न अफ़ई हैं न अज़दर
मिलेंगे शहर में इंसान ही क्या

मैं अब हर शख़्स से उक्ता चुका हूँ
फ़क़त कुछ दोस्त हैं और दोस्त भी क्या

ये रब्त-ए-बे-शिकायत और ये मैं
जो शय सीने में थी वो बुझ गई क्या

मोहब्बत में हमें पास-ए-अना था
बदन की इश्तिहा सादिक़ न थी क्या

नहीं है अब मुझे तुम पर भरोसा
तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या

जवाब-ए-बोसा सच अंगड़ाइयाँ सच
तो फिर वो बे-वफ़ाई झूट थी क्या

शिकस्त-ए-ए'तिमाद-ए-ज़ात के वक़्त
क़यामत आ रही थी आ गई क्या

ये पैहम तल्ख़-कामी सी रही क्या

ये पैहम तल्ख़-कामी सी रही क्या
मोहब्बत ज़हर खा के आई थी क्या

मुझे अब तुम से डर लगने लगा है
तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या

शिकस्त-ए-ए'तिमाद-ए-ज़ात के वक़्त
क़यामत आ रही थी आ गई क्या

मुझे शिकवा नहीं बस पूछना है
ये तुम हँसती हो अपनी ही हँसी क्या

हमें शिकवा नहीं इक दूसरे से
मनाना चाहिए उस पर ख़ुशी क्या

पड़े हैं एक गोश में गुमाँ के
भला हम क्या हमारी ज़िंदगी क्या

मैं रुख़्सत हो रहा हूँ पर तुम्हारी
उदासी हो गई है मुल्तवी क्या

मैं अब हर शख़्स से उक्ता चुका हूँ
फ़क़त कुछ दोस्त हैं और दोस्त भी क्या

मोहब्बत में हमें पास-ए-अना था
बदन की इश्तिहा सादिक़ न थी क्या

नहीं रिश्ता समूचा ज़िंदगी से
न जाने हम में है अपनी कमी क्या

अभी होने की बातें हैं सो कर लो
अभी तो कुछ नहीं होना अभी क्या

यही पूछा किया मैं आज दिन-भर
हर इक इंसान को रोटी मिली क्या

ये रब्त-ए-बे-शिकायत और ये मैं
जो शय सीने में थी वो बुझ गई क्या

रंज है हालत-ए-सफ़र हाल-ए-क़याम रंज है

रंज है हालत-ए-सफ़र हाल-ए-क़याम रंज है
सुब्ह-ब-सुब्ह रंज है शाम-ब-शाम रंज है

उस की शमीम-ए-ज़ुल्फ़ का कैसे हो शुक्रिया अदा
जब कि शमीम रंज है जब कि मशाम रंज है

सैद तो क्या कि सैद-कार ख़ुद भी नहीं ये जानता
दाना भी रंज है यहाँ या'नी कि दाम रंज है

मानी-ए-जावेदान-ए-जाँ कुछ भी नहीं मगर ज़ियाँ
सारे कलीम हैं ज़ुबूँ सारा कलाम रंज है

बाबा अलिफ़ मिरी नुमूद रंज है आप के ब-क़ौल
क्या मिरा नाम भी है रंज हाँ तिरा नाम रंज है

कासा गदागरी का है नाफ़-पियाला यार का
भूक है वो बदन तमाम वस्ल तमाम रंज है

जीत के कोई आए तब हार के कोई आए तब
जौहर-ए-तेग़ शर्म है और नियाम रंज है

दिल ने पढ़ा सबक़ तमाम बूद तो है क़लक़ तमाम
हाँ मिरा नाम रंज है हाँ तिरा नाम रंज है

पैक-ए-क़ज़ा है दम-ब-दम 'जौन' क़दम क़दम शुमार
लग़्ज़िश-ए-गाम रंज है हुस्न-ए-ख़िराम रंज है

बाबा अलिफ़ ने शब कहा नश्शा-ब-नश्शा कर गिले
जुरआ-ब-जुरआ रंज है जाम-ब-जाम रंज है

आन पे हो मदार क्या बूद के रोज़गार का
दम हमा-दम है दूँ ये दम वहम-ए-दवाम रंज है

रज़्म है ख़ून का हज़र कोई बहाए या बहे
रुस्तम ओ ज़ाल हैं मलाल या'नी कि साम रंज है

लाज़िम है अपने आप की इमदाद कुछ करूँ

लाज़िम है अपने आप की इमदाद कुछ करूँ
सीने में वो ख़ला है कि ईजाद कुछ करूँ

हर लम्हा अपने आप में पाता हूँ कुछ कमी
हर लम्हा अपने आप में ईज़ाद कुछ करूँ

रूकार से तो अपनी मैं लगता हूँ पाएदार
बुनियाद रह गई प-ए-बुनियाद कुछ करूँ

तारी हुआ है लम्हा-ए-मौजूद इस तरह
कुछ भी न याद आए अगर याद कुछ करूँ

मौसम का मुझ से कोई तक़ाज़ा है दम-ब-दम
बे-सिलसिला नहीं नफ़स-ए-बाद कुछ करूँ

शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें

शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें
तुम सर-ब-सर ख़ुशी थे मगर ग़म मिले तुम्हें

मैं अपने आप में न मिला इस का ग़म नहीं
ग़म तो ये है कि तुम भी बहुत कम मिले तुम्हें

है जो हमारा एक हिसाब उस हिसाब से
आती है हम को शर्म कि पैहम मिले तुम्हें

तुम को जहान-ए-शौक़-ओ-तमन्ना में क्या मिला
हम भी मिले तो दरहम ओ बरहम मिले तुम्हें

अब अपने तौर ही में नहीं तुम सो काश कि
ख़ुद में ख़ुद अपना तौर कोई दम मिले तुम्हें

इस शहर-ए-हीला-जू में जो महरम मिले मुझे
फ़रियाद जान-ए-जाँ वही महरम मिले तुम्हें

देता हूँ तुम को ख़ुश्की-ए-मिज़्गाँ की मैं दुआ
मतलब ये है कि दामन-ए-पुर-नम मिले तुम्हें

मैं उन में आज तक कभी पाया नहीं गया
जानाँ जो मेरे शौक़ के आलम मिले तुम्हें

तुम ने हमारे दिल में बहुत दिन सफ़र किया
शर्मिंदा हैं कि उस में बहुत ख़म मिले तुम्हें

यूँ हो कि और ही कोई हव्वा मिले मुझे
हो यूँ कि और ही कोई आदम मिले तुम्हें

शाम हुई है यार आए हैं यारों के हमराह चलें

शाम हुई है यार आए हैं यारों के हमराह चलें
आज वहाँ क़व्वाली होगी 'जौन' चलो दरगाह चलें

अपनी गलियाँ अपने रमने अपने जंगल अपनी हवा
चलते चलते वज्द में आएँ राहों में बे-राह चलें

जाने बस्ती में जंगल हो या जंगल में बस्ती हो
है कैसी कुछ ना-आगाही आओ चलो नागाह चलें

कूच अपना उस शहर तरफ़ है नामी हम जिस शहर के हैं
कपड़े फाड़ें ख़ाक-ब-सर हों और ब-इज़्ज़-ओ-जाह चलें

राह में उस की चलना है तो ऐश करा दें क़दमों को
चलते जाएँ चलते जाएँ या'नी ख़ातिर-ख़्वाह चलें

समझ में ज़िंदगी आए कहाँ से

समझ में ज़िंदगी आए कहाँ से
पढ़ी है ये इबारत दरमियाँ से

यहाँ जो है तनफ़्फ़ुस ही में गुम है
परिंदे उड़ रहे हैं शाख़-ए-जाँ से

मकान-ओ-ला-मकाँ के बीच क्या है
जुदा जिस से मकाँ है ला-मकाँ से

दरीचा बाज़ है यादों का और मैं
हवा सुनता हूँ मैं पेड़ों की ज़बाँ से

था अब तक मा'रका बाहर का दरपेश
अभी तो घर भी जाना है यहाँ से

ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का
तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से

फुलाँ से थी ग़ज़ल बेहतर फुलाँ की
फुलाँ के ज़ख़्म अच्छे थे फुलाँ से

सर ही अब फोड़िए नदामत में

सर ही अब फोड़िए नदामत में
नींद आने लगी है फ़ुर्क़त में

हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर
सोचता हूँ तिरी हिमायत में

रूह ने इश्क़ का फ़रेब दिया
जिस्म को जिस्म की अदावत में

अब फ़क़त आदतों की वर्ज़िश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में

इश्क़ को दरमियाँ न लाओ कि मैं
चीख़ता हूँ बदन की उसरत में

ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी हैं मुरव्वत में

वो जो ता'मीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में

ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में

हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में

फिर बनाया ख़ुदा ने आदम को
अपनी सूरत पे ऐसी सूरत में

और फिर आदमी ने ग़ौर किया
छिपकिली की लतीफ़ सनअ'त में

ऐ ख़ुदा जो कहीं नहीं मौजूद
क्या लिखा है हमारी क़िस्मत में

सोचा है कि अब कार-ए-मसीहा न करेंगे

सोचा है कि अब कार-ए-मसीहा न करेंगे
वो ख़ून भी थूकेगा तो पर्वा न करेंगे

इस बार वो तल्ख़ी है कि रूठे भी नहीं हम
अब के वो लड़ाई है कि झगड़ा न करेंगे

याँ उस के सलीक़े के हैं आसार तो क्या हम
इस पर भी ये कमरा तह-ओ-बाला न करेंगे

अब नग़्मा-तराज़ान-ए-बर-अफ़रोख़्ता ऐ शहर
वासोख़्त कहेंगे ग़ज़ल इंशा न करेंगे

ऐसा है कि सीने में सुलगती हैं ख़राशें
अब साँस भी हम लेंगे तो अच्छा न करेंगे

हम जी रहे हैं कोई बहाना किए बग़ैर

हम जी रहे हैं कोई बहाना किए बग़ैर
उस के बग़ैर उस की तमन्ना किए बग़ैर

अम्बार उस का पर्दा-ए-हुरमत बना मियाँ
दीवार तक नहीं गिरी पर्दा किए बग़ैर

याराँ वो जो है मेरा मसीहा-ए-जान-ओ-दिल
बे-हद अज़ीज़ है मुझे अच्छा किए बग़ैर

मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास
सुब्ह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर

उस का है जो भी कुछ है मिरा और मैं मगर
वो मुझ को चाहिए कोई सौदा किए बग़ैर

ये ज़िंदगी जो है उसे मअना भी चाहिए
वा'दा हमें क़ुबूल है ईफ़ा किए बग़ैर

ऐ क़ातिलों के शहर बस इतनी ही अर्ज़ है
मैं हूँ न क़त्ल कोई तमाशा किए बग़ैर

मुर्शिद के झूट की तो सज़ा बे-हिसाब है
तुम छोड़ियो न शहर को सहरा किए बग़ैर

उन आँगनों में कितना सुकून ओ सुरूर था
आराइश-ए-नज़र तिरी पर्वा किए बग़ैर

याराँ ख़ुशा ये रोज़ ओ शब-ए-दिल कि अब हमें
सब कुछ है ख़ुश-गवार गवारा किए बग़ैर

गिर्या-कुनाँ की फ़र्द में अपना नहीं है नाम
हम गिर्या-कुन अज़ल के हैं गिर्या किए बग़ैर

आख़िर हैं कौन लोग जो बख़्शे ही जाएँगे
तारीख़ के हराम से तौबा किए बग़ैर

वो सुन्नी बच्चा कौन था जिस की जफ़ा ने 'जौन'
शीआ' बना दिया हमें शीआ' किए बग़ैर

अब तुम कभी न आओगे या'नी कभी कभी
रुख़्सत करो मुझे कोई वा'दा किए बग़ैर

हम तो जैसे वहाँ के थे ही नहीं

हम तो जैसे वहाँ के थे ही नहीं
बे-अमाँ थे अमाँ के थे ही नहीं

हम कि हैं तेरी दास्ताँ यकसर
हम तिरी दास्ताँ के थे ही नहीं

उन को आँधी में ही बिखरना था
बाल ओ पर आशियाँ के थे ही नहीं

अब हमारा मकान किस का है
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं

हो तिरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम
हम तिरे आस्ताँ के थे ही नहीं

हम ने रंजिश में ये नहीं सोचा
कुछ सुख़न तो ज़बाँ के थे ही नहीं

दिल ने डाला था दरमियाँ जिन को
लोग वो दरमियाँ के थे ही नहीं

उस गली ने ये सुन के सब्र किया
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं

हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं

हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं
कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं

तुम अपने चाहने वालों की बात मत सुनियो
तुम्हारे चाहने वाले दिवाने हो गए हैं

वो ज़ुल्फ़ धूप में फ़ुर्क़त की आई है जब याद
तो बादल आए हैं और शामियाने हो गए हैं

जो अपने तौर से हम ने कभी गुज़ारे थे
वो सुब्ह ओ शाम तो जैसे फ़साने हो गए हैं

अजब महक थी मिरे गुल तिरे शबिस्ताँ की
सो बुलबुलों के वहाँ आशियाने हो गए हैं

हमारे बा'द जो आएँ उन्हें मुबारक हो
जहाँ थे कुंज वहाँ कार-ख़ाने हो गए हैं

  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : जौन एलिया
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)