हिंदी कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल

Hindi Poetry : Golendra Patel



1. चिहुँकती चिट्ठी

बर्फ़ का कोहरिया साड़ी ठंड का देह ढंक लहरा रही है लहरों-सी स्मृतियों के डार पर हिमालय की हवा नदी में चलती नाव का घाव सहलाती हुई होंठ चूमती है चुपचाप क्षितिज वासना के वैश्विक वृक्ष पर वसंत का वस्त्र हटाता हुआ देखता है बात बात में चेतन से निकलती है चेतना की भाप पत्तियाँ गिरती हैं नीचे रूह काँपने लगती है खड़खड़ाहट खत रचती है सूर्योदयी सरसराहट के नाम समुद्री तट पर एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है संसद की ओर गिद्ध-चील ऊपर ही छिनना चाहते हैं खून का खत मंत्री बाज का कहना है गरुड़ का आदेश आकाश में विष्णु का आदेश है आकाशीय प्रजा सह रही है शिकारी पक्षियों का अत्याचार चिड़िया का गला काट दिया राजा रक्त के छींटे गिर रहे हैं रेगिस्तानी धरा पर अन्य खुश हैं विष्णु के आदेश सुन कर मौसम कोई भी हो कमजोर.... सदैव कराहते हैं कर्ज के चोट से इससे मुक्ति का एक ही उपाय है अपने एक वोट से बदल दो लोकतंत्र का राजा शिक्षित शिक्षा से शर्मनाक व्यवस्था पर वास्तव में आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है चिट्ठी चिहुँक रही है चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह मैं क्या करूँ?

2. किसान है क्रोध

निंदा की नज़र तेज है इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं बाज़ार की मक्खियाँ अभिमान की आवाज़ है एक दिन स्पर्द्धा के साथ चरित्र चखती है इमली और इमरती का स्वाद द्वेष के दुकान पर और घृणा के घड़े से पीती है पानी गर्व के गिलास में ईर्ष्या अपने इब्न के लिए लेकर खड़ी है राजनीति का रस प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर कुढ़न की खेती का किसान है क्रोध !

3. वसंत का छलकता यौवन ?

केले के पत्तों पर किरणें करुणा लिख रही हैं और तेज हवा में चंचल चिखुरी चीख रही है सिसक रहे हैं सरसों के फूल कलियों के काजल गुलाब के गालों पर हँस रहे हैं पत्तियों पर चिपकी है धूल भौंरें चाट रहे हैं मोथा की माथा गौरया गा रही है गम की गाथा अन्य पंक्षी पढ़ रहे हैं पलायन की भाषा चौपाये चिंतित खड़े हैं उनके पेट बड़े हैं सड़कों पर बिखर गयी है आशा बौरें कह रहे हैं बगीचे के माली से बादल के रोने पर हम भी रोते हैं हल्कु के कुत्ते हरदम भूखे सोते हैं गाँव से गयी गंध पूछ रही है रानी से इस वर्ष हर्ष कहाँ है ? और उत्साह के उपवन में वसंत का छलकता यौवन मौन क्यों है ? तुम्हारी तरह बिल्कुल तुम्हारी तरह!

4. मुसहरिन माँ

धूप में सूप से धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध जिसमें जिंदगी का स्वाद है चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है (जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर) अपने और अपनों के लिए आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ अब उसके भूख का क्या होगा? उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से यह मैंने क्या किया? मैं कितना निष्ठुर हूँ दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को सर पर सूर्य खड़ा है सामने कंकाल पड़ा है उन चूहों का जो विष युक्त स्वाद चखे हैं बिल के बाहर अपने बच्चों से पहले आज मेरी बारी है साहब!

5. सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी

तिर्रियाँ पकड़ रही हैं गाँव की कच्ची उम्र तितलियों के पीछे दौड़ रही है पकड़ने की इच्छा अबोध बच्चियों का! बच्चें काँचे खेल रहे हैं सामने वृद्ध नीम के डाल पर बैठी है मायूसी और मौन मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं चुप्पी चिड़ियाँ! कोयल कूक रही है शांत पत्तियाँ सुन रही हैं सुबह का सरसराहट व शाम का चहचहाहट चीख हैं क्रमशः हवा और पाखी का चहचहाहट चार कोस तक जाएगी फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से फिर जाएगी; चौराहों पर कुछ क्षण रुक चलती चली जाएगी सड़क धर सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!

6. लक्ष्य के पथ जाना है

लक्ष्य के पथ जाना है आँधी आये दीप बुझे ; फिर भी रूक नहीं सकता मणि है साथ जो! आगे बढ़ चला साहित्य के घर चला! आदित्य की तरह जला काव्य-परिसर में आ जो पला!

7. आँख

1. सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार 2. दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत 3. दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों? 4. धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र 5. आम आँखों की तरह नहीं होती दिल्ली की आँख वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती 6. अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल

8. बुद्ध के रंग में रंगें हम

अकुशल द्वेष ईर्ष्या घृणा गर्व है गोली त्याग चतुष्टय-दोष, बोलो मीठी बोली बुद्ध वचन से भरे, तुम्हारी ज्ञान-झोली संग रंगमंच पर झूमी-झूमी नाचे टोली भक्तिरस में भींगी, करें हँसी-ठिठोली उमंग-तरंग और रंगों का पर्व है होली।

9. थ्रेसर

थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ देखकर ट्रैक्टर का मालिक मौन है और अन्यात्मा दुखी उसके साथियों की संवेदना समझा रही है किसान को कि रक्त तो भूसा सोख गया है किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े साफ दिखाई दे रहे हैं कराहता हुआ मन कुछ कहे तो बुरा मत मानना बातों के बोझ से दबा दिमाग बोलता है / और बोल रहा है न तर्क, न तत्थ सिर्फ भावना है दो के संवादों के बीच का सेतु सत्य के सागर में नौकाविहार करना कठिन है किंतु हम कर रहे हैं थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर - बुजुर्ग कहते हैं कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं खेलने के लिए बताओ न दिल्ली के दादा गेहूँ की कटाई कब दोगे?

10. गुढ़ी

लौनी गेहूँ का हो या धान का बोझा बाँधने के लिए - गुढ़ी बूढ़ी ही पुरवाती है बहू बाँकी से ऐंठती है पुवाल और पीड़ा उसकी कलाई !

11. घिरनी

फोन पर शहर की काकी ने कहा है कल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया है भरकुंडी में है कीचड़ खाली बाल्टी रो रही है जगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे? आह! जनता की तरह मौन है घिरनी और तुम हँस रही हो।

12. रणभेरी

गूँज उठी रणभेरी काशी कब से खड़ी पुकार रही पत्रकार निज कर में कलम पकड़ो गंगा की आवाज़ हुई स्वच्छ रहो और रहने दो आओ तुम भी स्वच्छता अभियान से जुड़ो न करो देरी गूँज उठी रणभेरी घाटवॉक के फक्कड़ प्रेमी तानाबाना की गाना कबीर तुलसी रैदास के दोहें सुनने आना जी आना घाट पर आना --- माँ गंगा दे रही है टेरी गूँज उठी रणभेरी बच्चे बूढ़े जवान सस्वर गुनगुना रहे हैं गान उर में उठ रही उमंगें नदी में छिड़ गई तरंगी-तान नौका विहार कर रही है आत्मा मेरी गूँज उठी रणभेरी सड़कों पर है चहलपहल रेतों पर है आशा की आकृति आकाश में उठ रहा है धुआँ हाथों में हैं प्रसाद प्रेमचंद केदारनाथ की कृति आज अख़बारों में लग गयी हैं ख़बरों की ढेरी गूँज उठी रणभेरी पढ़ो प्रेम से ढ़ाई आखर सुनो धैर्य से चिड़ियों का चहचहाहट देखो नदी में डूबा सूरज रात्रि के आगमन की आहट पहचान रही है नाविक तेरी पतवार हिलोरें हेरी गूँज उठी रणभेरी धीरे धीरे जिंदगी की नाव पहुँच रही है किनारे देख रहे हैं चाँद-तारे तीरे-तीरे मणिकर्णिका से आया मन देता मंगल-फेरी गूँज उठी रणभेरी

13. माँ

("अनुप्रास अलंकार' में : 'म' से 'माँ") मृत्युंजय मनुष्यता मेरी माँ मंगलगीत मज़बूत मेरी माँ! मैं मुख मन्थन मधु! मधुर मंगल मृदुल माँ! मानस महन्त मातृत्व महिमा! मुख्य मग मार्गदर्शक महान! मानव मेरा महत्व मान! मुझसे मोह माया मुक्ति! मंज़िल मज़हब मोहब्बत मस्ती मिलती मनोहर मज़ेदार ममता! मनुष्य मानो मुझे महकता! मर्म महक मीठा मरहम! माता माई मईया मम! मन-माँझी महाकाव्य महतारी! मत मार्मिक मणि मतारी! महामंत्र मख मठरी माँ! मिट्टी मतलब मेरी माँ! मतभेद मिटाती मेरी माँ! मधुपर्क मधुमय मयुखी मनुजा ! मनोभूमि मसि मार्तंड मुनिजा! मर्ष महि महेरी माँ! मेंड़ मंजरी मेरी माँ! मातु मंगलमय मंजिमा महिला माननीय मंत्र मंत्रणा मंदाकिनी! मंच मचान मदरसा मंदिर मज़ार मजाज़ी मर्यादा मानिनी! मानवीय मशाल मकान मालिकिन मिलनसार मार्गदर्शिका मुखर मुदर्रिस! मुकरी मुक्तक मीमांसा मुमतहिन मुहसिन मुल्क मेधा मुस्तग़ीस! मेरी मुक्ति मेरी माँ! मेरी मति मेरी माँ! (2017 की रचना)

14. हिंदी के ठेकेदार

हिंदी के ठेकेदार साहब हिंदी पढ़ रहे हो हिंदी पढ़ा रहे हो हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हिंदी दिवस पर खुब भाषण दे रहे हो दीजिए , हम सुन रहे हैं और गुन रहे हैं कि आप अपने वाल पर क्यों नहीं करते हैं हिंदी के किसी नवांकुर रचनाकार की कोई रचना साझा खैर, हमें आपकी भाषा से नहीं है बैर पर हम आपकी ठेकेदारी में काम नहीं करेंगे आपकी ठेकेदारी आपको मुबारक ; तुम नाराज क्यों हो रहे हो तुम्हारे हिंदी के लोग ही कौन कहीं नवोदित रचनाकारों को अपने वाल पर साझा करते हैं कुछ लोगों को छोड़कर शेष तो हमारे जैसे ही हैं वे ठेकेदार नहीं हैं तो क्या हुआ वे हमसे भी बढ़कर हैं वे हिंदी के साहित्यकार नहीं बल्कि शासक हैं शासक...। रचना: 14-09-2019

15. तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें

(प्रथम खंड) सभ्यता और संस्कृति के समन्वित सड़क पर निकल पड़ा हूँ शोध के लिए झाड़ियों से छिल गयी है देह थक गये हैं पाँव कुछ पहाड़ों को पार कर सफर में ठहरी है आत्मा बोध के लिए बरगद के नीचे बैठा कोई बूढ़ा पूछता है अजनबी कौन हो ? जी , मैं एक शोधार्थी हूँ (पुरातात्विक विभाग ,....विश्वविद्यालय) मुझे प्यास लगी है जहाँ प्रोफेसर और शोधार्थी पुरातात्विक पत्थर पर पढ़ रहे हैं उम्मीद की उजाला से उत्पन्न उल्लास उत्खनन के प्रक्रिया में खोज रही है प्रथम प्रेमियों के ऐतिहासिक साक्ष्य मैं वहीं जा रहा हूँ बेटा उस तरफ देखो वहाँ छोटी सी झील है जिसमें यहाँ के जंगली जानवर पीते हैं पानी यदि तुम कुशल पथिक हो तो जा कर पी लो नहीं तो एक कोस दूर एक कबीला है जहाँ से तुम्हारी मंजिल डेढ़ कोस दूर नदी के पास फिलहाल दो घूँट मेरे लोटे में है पी लो बेटा धन्यवाद दादा जी! उत्खनन स्थल पर पहूँचते ही पुरातत्वज्ञ ने लिख डाली डायरी के प्रथम पन्ने पर मिट्टी के पात्रों का इतिहास लोटा देख कर आश्चर्य है यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा उक्त बूढ़े का था (वही नकाशी वही आकार) कलम स्तब्ध है स्वप्नसागर में डूबता हुआ मन सोच के आकाश में देख रहा है अस्थियों का औजार पत्थरों के बने हुए औजारों से मजबूत हैं देखो टूरिस्ट आ गये हैं पुरातात्विक पत्थरों के जादा पास न पहुँचे सब नहीं तो लिख डालेंगे इतिहास पढ़ने से पहले ही प्रेम की ताजी पंक्ति किसी ने आवाज दी सो गये हो क्या ? शोधकर्ता सोते नहीं है शोध के समय सॉरी सर! कल के थकावट की वजह से आँखें लग गयीं अब दोबारा ऐसा नहीं होगा ठीक है जाओ देखो उन टूरिस्टों को कहीं कुछ लिख न दें ( प्रिय पर्यटकगण! आप लोगों से अतिविनम्र निवेदन है कि किसी भी पुरातात्विक पत्थरों पर कुछ भी न लिखें) श्रीमान! आप मूर्तियों के पास क्या कर रहे हैं ? कुछ नहीं सर! बस छू कर देख रहा हूँ कितनी प्राचीन हैं महोदय! किसी मूर्ति की प्राचीनता पढ़ने पर पता चलती है छूने पर नहीं जो लिखा है मूर्तियों पर उसे पढ़ें और क्रमशः आप लोग आगे बढ़ें सामने एक पत्थर पर लिखा है जंगल के विकास में इतिहास हँस रहा है पेड़-पौधे कट रहे हैं पहाड़-पठार टूट रहे हैं नदी-झील सूख रही हैं कुछ वाक्य स्पष्ट नहीं हैं अंत में लिखा है जैसे जैसे बिमारी बढ़ रही है दीवारों पर थूकने की और मूतने की वैसे वैसे चढ़ रही है संस्कार के ऊपर जेसीबी और मर रही हैं संवेदना आगे एक क्षेत्र विशेष में अधिकतम मानव अस्थियां प्राप्त हुई हैं जिससे सम्भावना व्यक्त किया जा सकता है कि यहाँ प्राकृती के प्रकोप का प्रभाव रहा हो जिसने समय से पहले ही पूरी बस्ती को श्मशान बना दी संदिग्ध इतिहास छोड़िये मौर्य-गुप्त-मुगलों के इतिहास में भी नहीं रुकना है सीधे वर्तमान में आईये जनतंत्र से जनजाति की ओर चलते हैं आजादी के बाद शहर में आदिवासियों के आगमन पर हम खुश हुए कि कम से कम हम रोज हँसेंगे उनकी भाषा और भोजन पर वस्त्र और वक्त पर व्यवसाय और व्यवहार पर बस कवि को छोड़ कर शेष सभी पर्यटक जा चुके हैं जो जानना चाहता है प्राचीन प्रेम का वह साक्ष्य जिस पर सर्वप्रथम उत्कीर्ण हुआ है वही दो अक्षर (जिसे 'प्रेम' कहते हैं / दो प्रेमियों के बीच / संबंधों का सत्य / सृष्टि की शक्ति / जीवन का सार ) पास की कबीली दो कन्याएँ पुरातत्व के शोधार्थी से प्रेम करती हैं प्रेम की पटरी पर रेलगाड़ी दौड़ने से पहले ही शोधार्थी लौट आता है शहर शहर में भी किसी सुशील सुंदर कन्या को हो जाती है उससे सच्ची मुहब्बत दिन में रोजमर्रा की राजनीति रात में मुहब्बते-मजाज़ी की बातें गंभीर होती हैं प्रिये! जब तुम मेरे बाहों में सोती हो गहरी नींद निश्चिंत तब तुम्हारे शरीर की सुगंध स्वप्न-सागर से आती सरसराहटीय स्वर में सौंदर्य की संगीत सुनाती है भीतर जगती है वासना तुम होती हो शिकार समय के सेज पर संरक्षकीय शब्द सफर में थक कर करता है विश्राम चीख चलती है हवा में अविराम साँसों के रफ्तार दिल की धड़कन से कई गुना बढ़ जाती है होंठों पर होंठें सटते हैं कपोलों पर नृत्य करती हैं सारी रतिक्रियाएँ एक कर सहलाता है केश तो दूसरा स्तन को एक दूसरे की नाक टकराती है नशा चढ़ता है ऊपर (नाक के ऊपर) आग सोखती हैं आँखें आँखों में देख कर स्पर्श की आनंद तभी अचानक बाहर से कोई देता है आवाज यह तो स्वप्नोदय की सनसनाहट है देखो वीर अपना बल अपना वीर्य अपनी ऊर्जा प्रियतम! क्यों हाँफ रहे हो क्यों काँप रहे हो मैं सोई थी निश्चिंत फोहमार कर गहरी नींद में मुझे बताओ क्या हुआ? तुम्हें क्या हुआ है? तुम्हारे चेहरे पर यह चिह्न कैसा है? यौन कह रहा है मौन रहने दो प्रिये! ठीक है जैसा तुम चाहो अल्हड़ नदी मुर्झाई कली के पास है साँझ श्रृंगार करने आ रही है तट पर हँसी ठिठोली बैठ गई नाव में लहरें उठ रही हैं अलसाई ओसें गिर रही हैं दूबों के देह पर इस चाँदनी में देखने दो प्रेम की प्रतिबिम्ब आईना है नेह का नीर नाराजगी खे रही है पतवार दलील दे रही है देदीप्यमान द्वीप पर रुकने का संकेत कितनी रम्य है रात कितने अद्भुत हैं ये पेड़-पौधे नदी-झील पशु-पक्षी जंगल-पहाड़ यहाँ के फलों का स्वाद प्रिये! यही धरती का जन्नत है हाँ मुझे भी यही लगता है उधर देखो हड्डियाँ बिखरी हैं यह तो मनुष्य की खोपड़ी है अरे! यह तो पुरुष है इधर देखो स्त्री का कंकाल है ये कौन हैं? जाति से बहिष्कृत धर्म से तिरस्कृत पहली आजाद औरत का पहला प्यार या दाम्पत्य जीवन के सूत्र या आदिवासियों के वे पुत्र जिन्हें वनाधिकारियों के हवस-कुंड में होना पड़ा है हविष्य के रूप में स्वाहा हमें हमारा भविष्य दिख रहा है अंधेरे में प्रियतम पीड़ा हो रही है पेट में प्रिये! तुम भूखी हो कुछ खा लो नहीं , भूख नहीं है तब क्या है? तुम्हारा तीन महीने का श्रम ढो रही हूँ निरंतर इस निर्जनी उबड़खाबड़ जंगली पथ पर अब और चला नहीं जाता रुको...रु...को ठहरो...ठ...ह...रो सुस्ताने दो प्रिये! मुझे माफ करो मैं वासना के बस में था उस दिन आओ मेरे गोद में तुम्हें कुछ दूर और ले चलूँ उस पहाड़ के नीचे जहाँ एक बस्ती है पुरातात्विक साक्ष्य के संबंध में गया था वहाँ कभी तो दो लड़कियों ने कर ली थी मुझसे प्रेम जिनका भाषा नहीं जानता मैं वे वहीं हैं हम दोनों उनके घर विश्राम करेंगे निर्भय गोदी में ही पूछती है प्रियतमे! तुम मुझे कब तक ढोओगे? प्रिये! जन जमीन जंगल की कसम जीवन के अंत तक ढोऊँगा तुम्हें अविचलाविराम मेरे जीने की उम्मीद तुम्हारे गर्भ में पल रही है तुम मेरी प्राण हो तुम्हारा प्रेम मेरी प्रेरणा देखो सामने झोपड़ी है जो , उसी का है वह रहा उसका घर आश्चर्य है प्रियतम यह तो पेड़ पर बना है केवल बाँस से हाँ ये लोग खुँखार जानवरों से बचने के लिए ही ऐसा घर बनाते हैं बस अंतर इतना है कि हम शहरी हैं ये वनजाति (अर्थात् आदिवासियों के पूर्वज) हम देखने में देवता हैं ये राक्षस खैर ये सच्चे इंसान हैं कबीलों वालों मालिक आ रहे हैं स्वागत करो मालिक... मा...लि..क यह लीजिए एक घार केला यह लीजिए कटहर यह लीजिए बेर यह कंदमूल फल फूल स्वीकार करें मालिक हम कबीले की राजकुमारी हैं सरदार कहता है मालिक ये दोनों मेरी पुत्री आपकी राह देख रही थीं आपके आने से कबीलीयाई धरती धन्य हुई अब आप इन्हें वरण करें आपको अपना परिचय उस बार हम दोनों बहनें नहीं दे सकी इसके लिए हमें क्षमा करना ये कौन हैं? मेरी पत्नी जो आपकी भाषाओं से एकदम अपरचित है ये पेट से तीन महीने की है थक गई हैं सफर में चलते चलते हम दोनों आपके उपकारों का सदैव ऋणी रहेंगे यह मेरा सौभाग्य है कि मैं आप लोगों से पुनः मिल पा रहा हूँ कुछ दिन बाद दोनों शहर आ जाते हैं जहाँ सभ्य समाज के शिक्षित लोग रहते हैं क्या धर्म के पण्डित? इस कुँवारी कन्या की भारी पैर पर व्यंग्य के पत्थर मारेंगे या फिर इन्हें संसद के बीच चौराहे पर जाति के संरक्षक-सिपाही बहिष्कृत-तिरस्कृत का तीर मारेंगे कुछ भी हो कंदमूल की तरह दोनों ने दुनिया का सारा दुख एक साथ स्वीकार कर लिया तुम्हारे हिस्से का अँधेरा भी कैद कर लिए अपने दोनों मुट्ठियों में ताकि तुम्हें दिखाई देता रहे प्रकाशमान प्रेम और तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें प्रियतम ! पीड़ा पेट में पीड़ा... पी...ड़ा आह रे माई ! माई रे ! गर्भावस्था के अंतिम स्थिति में अक्सर अंकुरित होती है आँच अलवाँती की आँत से आती है आवाज प्रसूता की पीड़ा प्रसूता ही जाने औरत की अव्यक्त व्यथा-कथा कैसे कहूँ? मैं पुरुष हूँ नौ मास में उदीप्त हुई नयी किरण किलकारियों के क्यारी में रात के विरुद्ध रोपती है रोशनी का बीज जिसे माँ छाती से सींचती है नदी की तरह निःस्वार्थ अवनि आह्लादित है आसमान की नीलिमा में झूम रहे हैं तारे चाँद उतर आया है हरी भरी वात्सल्यी खेत में चरने के लिए फसल प्रेम की पइना पकड़े खड़े हैं पहरे पर पिता उम्र बढ़ रही है ऊख की तरह मिट्टी से मिठास सोखते हुए मौसम मुस्कुराया है बहुत दिन बाद बेटी के मुस्कुराने पर सयान सुता पूछती है माँ से क्या आप मुझे जीने देंगी अपनी तरह क्या मैं स्वतंत्र हूँ अपना जीवनसाथी चुनने के लिए आपकी तरह आप चुप क्यों हो? बापू आप बाताई जिस तरह माँ ने की है आपसे प्रेमविवाह क्या मैं कर सकती हूँ? धैर्य से उठाकर पिता ने दे दी धीमी स्वर में उत्तर मेरी बच्ची तुम स्वतंत्र हो शिक्षित हो जैसा उचित समझो करो...!

16. होली

फाल्गुनी लोरी की लय में होरी सुना रही है आँगन में बन रही है रंगोली खुब उड़ रही है रोरी चेहरे पर अबीर ही अबीर है रूप में रंग ही रंग एक बोली होली गाती थी होली गाना सिर्फ़ उसी को ही आता था उसका नाम है ब्रज!

17. किसान का गान

घने जंगल में घने घन छाए माँ! वीरों को रणभूमि में लाना है हमें तेरी ही प्रशंसा गाना है चाहे प्राण भले ही जाए स्वयं को कर्तव्य-पथ पर चलाना है मातृभूमि की लाज बचाना है। अपनी धरती को स्वर्ग बनाऊँगा सूखी हुई भूमि की प्यास मिटाऊँगा हर घर प्रेम सुधा बरसाऊँगा फिर से हरित क्रान्ति लाऊँगा मजदूर-किसानों की भूख मिटना है मातृभूमि की लाज बचाना है। अनेक फसलें ललहा रही हैं कृषिका खेतों में गा रही हैं खूँटियों पर टँगे कच्छे हैं भोर के शोर अच्छे हैं मन की चिड़ियाँ चहचहा रही हैं तालाब में गाय-भैंस नहा रही हैं नभ से इन्द्र को बुलाना है मातृभूमि की लाज बचाना है। देश ने देखा सुंदर सपना घर हो सबके पास अपना शास्त्री जी ने दिया नारा जय जवान जय किसान नयन में नदी की धारा आँसू से सींचा हिन्दुस्तान हरा-भरा वृक्ष का गाना है मातृभूमि की लाज बचाना है। उस खेत में पानी बिन बीज जरा है इस खेत में नानी बिन घड़रोज चरा है नहर-नाली को देखकर ज़बान पर गाली है पनकट साला; मालगुजारी साली है सूखे क्षेत्र में गंगा को लाना है मातृभूमि की लाज बचाना है। रचना : 05-08-2013

18. नव वर्ष का नया राग

वे देश को दुहने के लिए प्रतिबद्ध हैं संबद्ध हैं आबद्ध हैं मगर मैं प्रतीक्षास्तब्ध हूँ कि गर्द है, धुआँ है, सर्द है और आग है नव वर्ष का नया राग है जहाँ पेड़ की फुनगियों पर उम्मीदें कायम हैं टूट, ओ पीड़ा के पर्ण पतझड़ वसंत से पहले आया है गम के ग्रीटिंग कार्ड में लिखीं नम आँखें कि नदी, जंगल, पहाड़ और सागर सुनो, इस दौर में ठौर नहीं है कौर नहीं है घर-घर में घुप अँधेरा घूर्ण है पूर्ण मन चूर्ण है यह ख़त अपूर्ण है सूरज लुढ़क गया है उम्र की ढलान पर और पृथ्वी डूब रही है आसमान के संचित आँसू में लेकिन युवा उलट कर हो गया वायु या यह कहूँ कि उसकी आत्मा का अव्यय वाह वह हवा है जो सरहद के पार जाती है शुभकामना लेकर! रचना : 20-12-2022)

19. उषा

प्रात पुष्प था बहुत खिला हुआ जैसे लोहित आसमान का सूरज पृथ्वी पर उतर रहा हो [नदी सागर की यात्रा में नयी सुबह है ] बहुत धुआँ उठ रहा है उधर कि जैसे जंगल जल रहा हो कागज़ पर या समय के श्यामपट पर लिख दी हो किसी ने कुम्हलाई कली की करुणा रूह की रोशनाई से और देह दर्द का गेह मालूम हो रही है गौर रेह रो रही है रेत... फ़सलें झुमती हैं रेगिस्तान में उषा का अब सूर्योदय हो रहा है!

20. कविता में किन्नर

प्रिय दोस्त! न स्त्री न पुरुष न ही अर्द्धनारिश्वर हो तुम तुम कविता में किन्नर हो यानी थर्ड जेंडर _ ट्रांसजेंडर लफ़ंगों की भाषा में हिजड़ा तुम्हारा गात गोया गम का पिंजड़ा पर तुम मुझे पसंद हो!... इस सृष्टि में तुम्हारी ताली कुदृष्टि के लिए गाली है तुम भी उसी कोख से उत्पन्न हुए हो जिससे मैं तुम देश की संतान हो मेरे दोस्त! रचना : 20-12-2022

21. ट्रांसजेंडर संतान का दुःख!

क्या कोई रोक पाया है कभी आँखों से पकी पीड़ा का टपकना माथे पर श्रम की बूँद का अंकुरित होना देह में दर्द का खिलना फिर कैसे रोक पायेगा कभी कोई ट्रांसजेंडर संतान का दुःख! सुख में पत्थर पर उग जाती है प्रसन्नता जैसे रेत में रोती हुई दूब ; जहाँ मर्द और औरत के बीच नदी किन्नर का संचित आँसू है जो अपने आप में धाँसू है!

22. प्रेम

संबंध टूटता है समय के कंठ से उत्तर फूटता है 'प्रेम क्या है ? कबीर का अढ़ाई अक्षर है ? बोधा की तलवार पर धावन है ?' 'ना ,भाई , ना प्रेम_ आँखों की भाषा में मन के विश्वास से उपजी हृदय की मुक्तावस्था के लिए आत्मा की आवाज़ है' 'क्या यह मित्रता को मुहब्बत में तब्दील करने की___ भावना में वासना भरने की__ छद्मवेश धरने की___ वस्तु है ?' 'ना , भाई , ना , प्रेम__ व्यक्तित्व में उदात्त होने का तथास्तु है !'

23. मैं विद्यार्थी नहीं, मज़दूर हूँ!

ओ कवियो! ओ लेखको! किसके लिए लिख रहे हो? मेरी दादी बन्नी-मजूरी करती थी अब मेरी माँ करती है मेरे दादा मज़दूर थे मेरे पिता विकलांग हैं पर मज़दूर हैं अतः मैं विद्यार्थी से अधिक मज़दूर हूँ पुस्तक से अधिक पेट की चिंता है मुझे जितनी छात्रवृत्ति मिलती है , उससे काफ़ी अधिक है उनकी एक किताब की कीमत मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जिन्हें अपना गुरु मानता हूँ उन्हें ख़रीद कर कभी नहीं पढूँगा और जिन्हें अपना शिष्य मानता हूँ उन्हें अपनी किताब ख़रीदने नहीं दूँगा !

24. पहले माँ फिर बेटा

जब मैं अपने माँ के गर्भ में था वह ढोती रही ईंट जब मेरा जन्म हुआ वह ढोती रही ईंट जब मैं दुधमुँहाँ शिशु था वह अपनी पीठ पर मुझे और सर पर ढोती रही ईंट मेरी माँ, माईपन का महाकाव्य है यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उसका बेटा हूँ मेरी माँ लोहे की बनी है मेरी माँ की देह से श्रम-संस्कृति के दोहे फूटे हैं उसके पसीने और आँसू के संगम पर ईंट-गारे, गिट्टी-पत्थर, कोयला-सोयला, लोहा-लक्कड़ व लकड़ी-सकड़ी के स्वर सुनाई देते हैं मेरी माँ के पैरों की फटी बिवाइयों से पीब नहीं, प्रगीत बहता है मेरी माँ की खुरदरी हथेलियों का हुनर गोइंठा-गोहरा की छपासी कला में देखा जा सकता है मेरी माँ धूल, धुएँ और कुएँ की पहचान है मेरी माँ धरती, नदी और गाय का गान है मेरी माँ भूख की भाषा है मेरी माँ मनुष्यता की मिट्टी की परिभाषा है मेरी माँ मेरी उम्मीद है चढ़ते हुए घाम में चाम जल रहा है उसका वह ईंट ढो रही है उसके विरुद्ध झुलसाती हुई लू ही नहीं, अग्नि की आँधी चल रही है वह सुबह से शाम अविराम काम कर रही है उसे अभी खेतों की निराई-गुड़ाई करनी है वह थक कर चूर है लेकिन उसे आधी रात तक चौका-बरतन करना है मेरे लिए रोटी पोनी है, चिरई बनानी है क्योंकि वह मजदूर है! अब माँ की जगह मैं ढोता हूँ ईंट कभी भट्ठे पर, कभी मंडी का मजदूर बन कर शहर में और कभी-कभी पहाड़ों में पत्थर भी तोड़ता हूँ काटता हूँ बोल्डर बड़ा-बड़ा मैं गुरु हथौड़ा ही नहीं, घन चलाता हूँ खड़ा-खड़ा टाँकी और चकधारे के बीच मुझे मेरा समय नज़र आता है मैं करनी, बसूली, साहुल, सूता, रूसा व पाटा से संवाद करता हूँ और अँधेरे में ख़ुद बरता हूँ मेरा दुख मेरा दीपक है मैं मजदूर का बच्चा हूँ मजदूर के बच्चे बचपन में ही बड़े हो जाते हैं वे बूढ़ों की तरह सोचते हैं उनकी बातें भयानक कष्ट की कोख से जन्म लेती हैं क्योंकि उनकी माँएँ उनके मालिक की किताबों के पन्नों पर उनका मल फेंकती हैं उनके बीच की कविता सत्ता का प्रतिपक्ष रचती है अब मेरी माँ वही कविता बन गयी है जो दुनिया की ज़रूरत है!

25. हमरी भौजी

अवधी कऽ ब्याह भोजपुरी से भइल बा भौजी हमरी पढ़ीं-लिखीं नइखे हम मोबाइल चलावत रहलीं कि उ पास आ के कहलीं कि ये देवर बबुआ तनी अपन वाईफ़ चालू करी न? हमरी डॉटा टिक्की खा गइल बा हम पहीले ख़ूबे हँसनीं हऽ फिर कहनीं कि उ हमार वाईफ़ नाहीं, वाई-फ़ाई हॉट-स्पॉट बा हो , भौजी! भौजी, साँझे बकरियाँ चरा के लउट रहनीं हऽ उनकी बकरियाँ हरी-भरी चरी देखी के अपनी रहिया छोड़ी के कूदी गइलीन बिरवाई के खेतन में भौजी, अपनी बकरियन के छेकी के कहलीं कि सब एकदम अँखोर गयल हइन, देवर बबुआ! ई ‘एकदम अँखोरना’ मुहावरा हउवे बड़े मज़ेदार जेकर मतलब होखे ला, संभवतः ‘अपनी राह को जानबूझकर छोड़ना लेकिन द्रष्टा की दृष्टि में भटकना।’ हमरी भौजी बहुतऽ मज़किया हइन होली त अइसन खेललिन कि उन कर चोली फाट जाला रंगवा जहवाँ नाहीं उहवाँ लग जाला हमरी भौजी हइन बहुतऽ मज़किया हमरी भौजी हट्टी-कट्टी सुनर हइन उनकरा में एगो लोक बसल बा उ हमरा के वोइसहीं प्यार-दुलार करलीं जइसे कोई गइया अपने बछड़ा के हमरी भौजी अपने पुरातन में निमन हइन हमरी भौजी हमरी हँसी-ख़ुशी हइन हमरी भौजी हमरी नस-नस में हइन हमरी भौजी हमरे हृदय में हइन हमरी भौजी हमरे घर कऽ फ़ौज़ी हइन! उ अपने माई-बाउ कऽ शान हइन आउर हमरे भइया कऽ जान हइन हमरी भौजी कऽ हर बोली-बात अनोखी हऽ हमरी भौजी अपनी माटी-पानी की पहचान हइन हमरी भौजी लोकगीत कऽ किसान हइन हमरी भौजी हमार परान हइन।।

26. स्त्री, औरत और महिला में क्या अंतर है?

हमारी भाषा में सच तो यही है कि दो शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं होते स्त्री, औरत और महिला में क्या अंतर है? नारीवादी दृष्टि में ‘स्त्री’ वह संज्ञा है जो अपनी अस्मिता का अन्वेषण कर रही है और वह अन्य दोनों संज्ञाओं को अपने में समेटी हुई है ‘महिला’ वह संवैधानिक शब्द है जो सभ्य, शिष्ट और शिक्षित की ओर संकेत करता है लेकिन ‘औरत’ वह साहित्यिक शब्द है जो अनपढ़, असहाय और गँवई की ओर संकेत करता है हालांकि वाचक और बोधक के बीच ये संज्ञाएँ अपने अलग-अलग अर्थ का बोध कराती हैं ये संज्ञाएँ अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं पुरुषों के व्याकरण में नारी का विलोम नर है स्त्री का विलोम पुरुष है और औरत का विलोम मर्द है पर, प्रश्न यह है, महिला का विलोम क्या है? जबकि चारों शारीरिक संरचना में एक हैं!

27. काली बातें

लाल किले की जितनी बातें लाल थीं उतनी ही नीली थीं उतनी ही पीली थीं पर, वे कानों तक पहुँते-पहुँते हो गयीं काली ऐसा क्यों?

28. प्रश्न

आग से प्रश्न : पानी मेरा पति है पर , हवा पत्नी । मैं कौन हूँ ?

29. बहन का मतलब

अंग्रेजी में ‘बहन’ को ‘सिस्टर’ कहते हैं जिसका मशहूर मतलब है ‘स्वीट’, ‘इनोसेंट’, ‘सुपर’, ‘टैलेंटेड’, ‘एलिगेंट’ और ‘रिमार्केबल’ हिन्दी में बहन का पहला मतलब है ‘ब’ से ‘बज़्म’ है बहन ‘ह’ से ‘हथौटी’ है बहन ‘न’ से ‘नज़्म’ है बहन बहन का दूसरा मतलब है ‘ब’ से ‘बल’ है बहन (भाई का) ‘ह’ से ‘हल’ है बहन (हर सवाल का) ‘न’ से ‘नल’ है बहन (पानी का) बहन का तीसरा मतलब है ‘ब’ से बाप के लिए बधाई बन जाना ‘ह’ से हक के लिए हथियार उठाना ‘न’ से नीच के लिए नाख़ून बढ़ाना बहन! बहन का चौथा मतलब क्या है? “दूसरे की बहन को अपनी बहन समझना!”

30. पहली कक्षा

(बाल कविता) हम हर दिन पढ़ने जाते हैं हम सब यह गाते हैं कलम के आगे झुकता है भाला सबसे प्यारी है हमारी पाठशाला हम पहली कक्षा के विद्यार्थी हैं हमें याद करनी है गिनती हमें याद करनी है वर्णमाला सबसे प्यारी है हमारी पाठशाला बोलो बच्चों एक साथ जय जवान जय किसान जय विज्ञान हम पहली कक्षा के विद्यार्थी हैं हमें याद करना है राष्ट्रगान हमें खोलना है दिमाग़ का ताला सबसे प्यारी है हमारी पाठशाला हम पहली कक्षा के विद्यार्थी हैं हमें याद करनी हैं किताब की बातें हमें बनानी है शब्दों की माला सबसे प्यारी है हमारी पाठशाला बोलो बच्चों एक साथ जय हिन्द जय भारत!

31. हिंदी

जब कोई बच्चा रोता है उसकी माँ उसे मना लेती है ; हिन्दी हमारी माँ है उसकी वर्णमाला ‘अ’ से ‘अनपढ़’ को अंत में ‘ज्ञ’ से ‘ज्ञानी’ बना देती है।

32. ‘क’ से ‘किसान’

‘क’ से ‘किसान’ ‘ख’ से ‘खेत’ में ‘ग’ से ‘गन्ना’ उगाता है ‘घ’ से ‘घर’ ङ माने कुछ नहीं। ‘च’ से ‘चरखा’ ‘छ’ से ‘छता’ ‘ज’ से ‘जवान’ ‘झ’ से ‘झण्डा’ फहरता है आसमान में ‘ञ’ माने कुछ नहीं। ‘ट’ से ‘टमाटर’ ‘ठ’ से ‘ठेला’ ‘ड’ से ‘डमरू’ ‘ढ’ से ‘ढक्कन’ ‘ण’ माने कुछ नहीं। ‘त’ से ‘तराजू’ ‘थ’ से ‘थरिया’ ‘द’ से ‘दवाई’ ‘ध’ से ‘धान’ ‘न’ से ‘नहर’ ‘प’ से ‘पपीता’ ‘फ’ से ‘फल’ ‘ब’ से ‘बड़हल’ ‘भ’ से ‘भुट्टा’ ‘म’ से ‘मटर’ ‘य’ से ‘यज्ञ’ ‘र’ से ‘रस्सी’ ‘ल’ से ‘लड्डू’ ‘व’ से ‘वकील’ ‘श’ से ‘शहर’ ‘ष’ से ‘षड्यंत्र’ ‘स’ से ‘सड़क’ ‘ह’ से ‘हृदय’ ‘क्ष’ से ‘क्षत्रीय’ ‘त्र’ से ‘त्रिशूल’ ‘ज्ञ’ से ‘ज्ञानी’ बनेंगे हम।

33. तीर्थायन

सीर गोवर्धन से साबरमती का तीर्थायन करते हुए हमने जाना—“गाँधी के राम कौन हैं? उन्हें चरखा किस संत ने दिया? उन्होंने बुद्ध को कितना जिया?”

34. दूब

ओ ओस के आँसू! विपरीत परिस्थिति में मैं उगी यों— चेहरे पर उनके लिए ऊब हूँ मैं हरी दूब हूँ!!

35. सप्त क्रियाएँ

एक आत्मा चीख रही है दूसरी चिल्ला रही है तीसरी चोकर रही है चौथी अरई दे रही है पाचवीं ओरिया रही है छठवीं गरिया रही है सातवीं बर्रा रही है इन सप्तात्माओं में किस की क्रिया सार्थक है?

36. हमें चाहिए

(बाल कविता) हम मनुष्य हैं हम देश हैं हमें चाहिए ‘अ’ से अधिकार हमें चाहिए ‘क’ से किसान हमें चाहिए ‘ज’ से जवान हमें चाहिए ‘व’ से विज्ञान हमें चाहिए ‘स’ से संविधान हमें चाहिए ‘ह’ से हक हमें चाहिए ‘ज्ञ’ से ज्ञान हम मनुष्य हैं हम देश हैं!

37. हरियाली विहीन देश

(बाल कविता) वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो! जहाँ की सरकार शेरनी है और न्याय शेर वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो! जहाँ अधिकार माँगने वाली जनता विषहीन बिरनी है भेंड़ है, बकरी है, गाय है, भैंस है और हिरनी है वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो! जहाँ नदी सड़क है और पहाड़ पोखरा वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो! जहाँ हर घर प्लास्टिक के पेड़ पाये जाते हैं वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो! जहाँ एक पौधा रोपते हुए कई बुद्धिजीवी तसवीर खींचाते है वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो! जहाँ पंख के लिए पानी नहीं है और न ही चौपायों के लिए चारा वह देश हरियाली विहीन जंगल है, बच्चो! जहाँ हर पाँच साल पर गूँजता है मानवता का नारा।।

38. खर जिउतिया पूजन

एक माँ की स्मृति जीवित होती है जीवित्पुत्रिका व्रत से अनंत दुआएँ द्वार पर आती हैं सभी संतानें साँपों से बच जाती हैं मुश्किल सफ़र में विषम समय का विख सोख लेता है सूर्य गाँव दर गाँव गूँजता है तूर्य जगत पर टिमटिमाते जुगनुओं की रोशनी में अढ़ाई अक्षरों के प्रेमपत्र को पढ़ती हैं किशोरियाँ किलकारियों के कचकचाहटी स्वर में गाती हैं कजरियाँ “सर्वे भवंतु सुखिनः’ सिद्धांत है हवा के होंठों पर ऐ सखी! सृष्टि में फूल मरता है पर उसका सौरभ नहीं कलियाँ कंठों-कंठ कानों-कान सुनती रहती हैं भ्रमरियों की गुनगुनाहट और आहत तन-मन की आहट मसलन ‘जीवन का राग नया अनुराग नया” बाहर धूल भीतर रेत है अंधेरी आँधियों में मणियों का मौन चमकना साँप-साँपिन के संयोग का संकेत है ओसों से बुझ रही है घास की प्यास साथ छोड़ रहा है श्वास पर, पेड़ को पता है पत्तियों के पेट में जाग रही है भूख कहीं नहीं है सुख सूख रहा है ऊख आश्विन-कृष्णा अष्टमी को जीमूतवाहन जन्नत का वास छोड़कर पृथ्वी पर आते हैं गरुड़ गगनगंगा में मलयावती के साथ नौका विहार करते हैं जहाँ ढेर सारे किसान बादलराग गाते हैं नयननीर की नदियों में शांति है पर आँखों में क्रांति है लालिमा बढ़ रही है टूट रहा है विश्वास रोष के रस से लबालब भरा है गिलास गर्भवती अनुभूतियाँ जन्म दे रही हैं स्मृतियों को जिन्हें जीउतिया माई अमरता का आशीर्वाद दे रही हैं स्मृतियों के जीवित रहने से मनुष्यता जीवित रहती है खैर, यह कोरोना के विरुद्ध छत्तिस घंटों का महासंकल्प है इस वायरस-वर्ष ने प्रेम में नजदीकियों को नहीं, दूरियों के तनाव को स्वीकार किया है स्पर्श से दोस्ती में दरार पड़ रही है कच्ची उम्र की बुभुक्षा लड़ रही है पर्व को परवाह नहीं किसी के जीवन से मृत्यु नहीं रुकती है किसी के रोकने से नहीं रुकती हैं कभी-कभी ख़ुद से ख़ुद की दूरियाँ बढ़ने से दूरियों के बढ़ने से मन खिन्न है गँवई शब्द मृत्यु की गंध को सूँघ रहे हैं मरने से पहले एकत्र होकर एक ही अगरबत्ती के धुएं को फेफड़े तक पहुँचा रहे हैं डर के विरुद्ध व्रतधारिन बूढ़ी औरतें नयी नवेली बहुओं को उपदेश दे रही हैं कि उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद है उपवास चील्होर था या उल्लू फुसफुसा रही है भीड़ परात का प्रसाद लौट रहा है चूल्हे के पास बच्चे हैं कि गोझिया आज ही खाना चाहते हैं खर व्रतधारिन समझा रही हैं जिउतिया माई रात भर खईहन हम सब सवेरे (प्रसाद बसियाने पर शीघ्र शक्ति प्रदान करता है, वत्स!) बच्चे कह रहे हैं माई हमार हिस्सा हमें दे दे नाहीं त रतिया में जिउतिया माई कुल खा जईहन आज शायद ही छोटे बच्चे सो पाएंगे ठीक से व्रत की बात हट रही है लीक से यह लोकपर्व मातृशक्ति की तपस्या है!!

39. गुब्बारे

(बाल कविता) मैं बचपन से बेचता हूँ प्यारे-प्यारे गुब्बारे मैं बेचता हूँ आसमान के तारे मैं बेचता हूँ चुनाव के नारे मैं बेचता हूँ बच्चों का खेलौना मैं बेचता हूँ तरह-तरह का खेलौना मैं बेचता हूँ खेलौना ले लो ना, खेलौना ले लो ना। मैंने यह कसम है खाई ये गुब्बारे किस्मत के मारे बच्चे सारे निःशुल्क ले सकते हैं भाई आओ! आओ! खेलौना देखो! जो मनभाये ले लो पढ़ो-लिखो और खेलो! गुब्बारे रंग-बिरंगे प्यारे-प्यारे इतने सारे मैं लेकर आया हूँ गुब्बारे ले लो! गुब्बारे ले लो!...

40. खिलौने

(बाल कविता) अच्छे खिलौने बच्चों के व्यक्तित्व को निखारते हैं खिलौने, सीखने की प्रक्रिया में सहायक होते हैं अक्सर मेले में अमीर माँ-बाप कहते हैं “अच्छे बच्चे खिलौनें लेने के लिए नहीं रोते हैं!” और गरीब माँ-बाप कहते हैं “बेटा! चेलो आगे, इससे बढ़िया खिलौना दिलाऊँगा!” जब कि सच यह है कि गरीबी बच्चे को हामिद बना देती है हाँ, वही हामिद जिसका चिमटा व्यवस्था को चुनौती देता है जो कथा-साहित्य में अमर है सुनो! बाँसुरी का कितना सुंदर स्वर है! देखो! ये चूल्हे पर चढ़े हुए कुकर सीटी मारते हैं अच्छे खिलौने बच्चों के व्यक्तित्व को निखारते हैं!

41. हम माटी के प्रेमी किसान हैं

गाय, बैल, ट्रैक्टर, थ्रैशर, खेत व खलिहान हमारी पहचान हैं हमारे बेटे सरहद के जवान हैं हमारी हथेलियों में कुदाल, खुरपी, फ़रसा व हँसिया के निशान हैं हम माटी के प्रेमी किसान हैं। हम धूल, धुआँ, कुआँ व जुआ के गान हैं हमारे गीतों में गोभी, गन्ना, गेहूँ व धान हैं हम इनसान के स्वाभिमान हैं हम माटी के प्रेमी किसान हैं। तुम्हारी दृष्टि में देव, हम क्यों प्रकृति के क़रीब हैं? हम क्यों भूखे नंगे ग़रीब हैं? हम क्यों अनपढ़, गँवार व नादान हैं? हम माटी के प्रेमी किसान हैं। हममें क्या कमी है? हमारी भाषा में नमी है हमारी संस्कृति श्रम की कोख से जन्मी है हम देश की आन बान शान हैं हम माटी के प्रेमी किसान हैं।

42. छठ पूजा

आज आह्लादित है आकाश नदी-सरोवर बीच समभाव जनित उदात्त संस्कृति का प्रकाश देखता हुआ सूर्य तूर्य बजाकर कहा कि प्रेम, मैत्री, अहिंसा, सह-अस्तित्व और करुणा लोकपर्व की पहचान हैं सूर्योदय के स्वर में स्त्रियों की गरिमा का गान है! अँधेरे में उजाले के व्रत उनकी सप्तरंगी सत्य से बड़े हैं वे अर्घ्य के लिए खड़े हैं जहाँ व्रती के मन में स्व का सर्व है हृदय का हठ लेकिन स्त्रियों के रुदन के प्रत्याख्यान का पर्व है छठ! मिट्टी के चूल्हे पर खीर, हलवा, पूड़ी और ठेकुआ आदि भाँति-भाँति के व्यंजन बनाकर बाँस की दौरी, छिटवा व सूप में सजाकर गेहूँ, चना, ऊख, केला और सिंघाड़ा यानी तरह-तरह के फूल-फल अक्षत-वक्षत पीले परिधानों से ढककर ढोलक के साथ घाट की ओर चली हैं छठ की औरतें उनके स्वागत के लिए समय उतर रहा है काले पानी में जलकुंभी अपनी ज़िम्मेदारियाँ समझ रही है किन्तु काइयाँ कह रही हैं कि सोच की सेवार विचार है यह मछलियों के प्यार का त्योहार है मछलियाँ अपनी संतान को भर पेट खिला रही हैं प्रसाद गागर, निम्बू और सुथनी के स्वाद मानवीय मंगल विधायनी शक्ति के सूचक हैं पुरोहिततंत्र के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा है इस पर्व के प्रवेशद्वार पर व्रतपारिणी की श्रद्धा, भक्ति और आस्था हैं जो उसे रोकी हुई हैं बाँझिन की संज्ञा से मुक्ती पाने पर मातृत्व की प्रसन्नता की पंक्ति है कि उपासिकाओं की नाक से माथे तक सिंदूर का तेज प्रेमात्मपरिष्कार का नया पेज है आओ कार्तिक के कल्लोलित किरणे! अवनि पर ओस के आँसू की सेज है!

43. चोकर की लिट्टी

मेरे पुरखे जानवर के चाम छिलते थे मगर, मैं घास छिलता हूँ मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ मेरे सिर पर चूल्हे की जलती हुई कंडी फेंकी गयी मैंने जलन यह सोचकर बरदाश्त कर ली कि यह मेरे पाप का फल है (शायद अग्निदेव का प्रसाद है) मैं पतली रोटी नहीं, बगैर चोखे का चोकर की लिट्टी खाता हूँ चपाती नहीं, चिपरी जैसी दिखती है मेरे घर की रोटी मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ मुझे हमेशा कोल्हू का बैल समझा गया मैं जाति की बंजर ज़मीन जोतने के लिए जुल्म के जुए में जोता गया हूँ मेरी ज़िंदगी देवताओं की दया का नाम है देवताओं के वंशजों को मेरा सच झूठ लगता है मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ मैं कैसे किसी देवता को नेवता दूँ? मेरे घर न दाना है न पानी न साग है न सब्जी न गोइंठी है न गैस मुझे कुएँ और धुएँ के बीच सिर्फ़ धूल समझा जाता है पर, मैं बेहया का फूल हूँ देवी-देवता मुझे हालात का मारा और वक्त का हारा कहते हैं मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ देखो न देव, देश के देव! मैं अब भी चोकर का लिट्टा गढ़ रहा हूँ, चोकर का रोटा ठोंक रहा हूँ क्या तुम इसे मेरी तरह ठूँस सकते हो? मैं भाषा में अनंत आँखों की नमी हूँ मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ (शाम : 21/11/2023)

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