पदावली : संत मीरा बाई (अर्थ सहित)

Padavali : Sant Meera Bai (with meanings)

पदावली : संत मीरा बाई (अर्थ सहित) - आचार्य परशुराम चतुर्वेदी



1. मन थें परस हरि रे चरण

स्तुति वंदना राग तिलंग मन थें परस हरि रे चरण ॥ टेक ॥ सुभग सीतल कँवल कोमल, जगत ज्वाला हरण । जिण चरण प्रहलाद परस्याँ, इन्द्र पदवी धरण । जिण चरण ध्रुव अटल करस्याँ, सरण असरण सरण । जिण चरण ब्रह्माण्ड भेट्याँ, नखसिखाँ सिरी धरण । जिण चरण कालियाँ नाथ्याँ, गोप- लीला करण । जिण चरण गोबरधन धार्यों, गरब मघवा हरण । दासि मीराँ लाल गिरधर, अगम तारण तरण ॥1॥ भावार्थ : मीराबाई श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को प्रस्तुत करते हुए, अपने मन को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे मन ! तू श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श कर श्रीकृष्ण के ये सुन्दर शीतल कमल जैसे चरण सभी प्रकार के दैविक, दैहिक तथा भौतिक तापों का नाश करने वाले हैं । इन चरणों के स्पर्श से भक्त प्रहलाद का उद्धार हुआ और उन्हें इन्द्र की पदवी प्राप्त हुई । इन्हीं चरणों के आश्रय में आकर भक्त ध्रुव ने अटल पदवी प्राप्त की । इन्हीं चरणों से श्रीकृष्ण ने ब्रह्माण्ड को भी भेद दिया था और यह ब्रह्माण्ड उन्हीं चरणों से शिख तक सौंदर्य और सौभाग्य से मंडित है । इन्हीं चरणों के स्पर्श से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या बाई का उद्धार हुआ । इन्हीं कृष्ण ने ब्रजवासियों के रक्षार्थ कालिया नाग का अन्त किया और गोपियों के साथ लीला सम्पन्न की । इन्हीं श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को धारण कर इन्द्र के गर्व को चकनाचूर कर दिया । मीरा ऐसे प्रभु के चरणों की दासी है और उनसे प्रार्थना करती है कि वे अगम्य संसार से उन्हें पार उतारें । विशेष : माधुर्य गुण तथा शांत रस है ।

2. म्हारो परनाम बाँकेबिहारी जी

राग ललित म्हारो परनाम बाँकेबिहारी जी । मोर मुगट माथ्याँ तिलक बिराज्याँ, कुण्डल अलकौँ धारी जी । अधर मधुर धर वंशी बजावाँ, रीझ रिझावाँ, राधा प्यारी जी । या छब देख्याँ मोह्याँ मीराँ, मोहन गिरवरधारी जी ॥2॥ भावार्थ : मीराँ बाई ने इस पद में भगवान के अलौकिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए इस मनोहारी छवि को अपने हृदय में बसाने का भाव प्रकट किया है । वे कहतीं है कि मेरा सारा समर्पण श्री बांके बिहारी जी के प्रति है । उनके सिर पर मोर का सुन्दर मुकुट और माथे पर तिलक शोभायमान है । कानों में लटकदार कुण्डल हैं । उनके होठों पर बंशी है, वे सदैव राधा को रिझाते हैं । श्रीकृष्ण की यह सुन्दर छवि देखकर मीराँ मोहित हो जाती है । वे कहती है ऐसे सभी को मोहित करने वाले एवं गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले श्रीकृष्ण सदा मेरे हृदय में बसें ।

3. मोर बस्या म्हारे नेणण माँ नंदलाल

राग हमीर मोर बस्या म्हारे नेणण माँ नंदलाल । मुकुट मकराक़त कुण्डल अरुण तिलक सोहाँ भाल । मोहिनी मूरत सावरा सूरत नेण बण्या विशाल । अधर सुधा रस मुरली राजाँ उर बैजन्ती माल । मीरों प्रभु संतो सुखदायाँ भगत बछल गोपाल॥3॥ भावार्थ : मीरा बाई ने श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति को अपने हृदय में बसाने का निवेदन किया है। कृष्ण का सुंदर रूप बड़े - बड़े नेत्र, अधरों पर अमृत के समान वर्षा करने वाली मुरली और गले में भव्य वैजयंती माला सुशोभित है । कृष्ण की कमर में बंधी सुन्दर घण्टियाँ व उनसे निकलने वाले घुंघरू के मधुर स्वर सभी संतों को सुख देने वाले हैं। मीरा निवेदन करती है कि भक्त वत्सल श्रीकृष्ण मेरे नयनों में निवास करें ।

4. हरि म्हारा जीवण प्राण आधार

हरि म्हारा जीवण प्राण आधार । और असिरो ना म्हारा थें विण, तीनूँ लोक मँझार । थें विण म्हाणे जगना सुहावाँ, निख्याँ सब संसार । मीराँ रे प्रभु दासी रावली, लीज्यो नेक निहार ॥4॥ भावार्थ : मीराँ ने इस पद में श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को उजागर करते हुए लिखा है कि श्रीकृष्ण मेरे जीवन व प्राणों के आधार हैं । उनके बिना मेरा तीनों लोकों में कोई नहीं है । मीरा कहती हैं कि उन्हें कृष्ण के बिना संसार में कोई भी अच्छा नहीं लगता । उन्होनें इस मिथ्या जगत को खूब अच्छी तरह देख लिया है । वे निवेदन करती है कि हे श्रीकृष्ण ! मैं आपकी दासी हूँ । अतः आप मुझे भुला मत देना ।

5. तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर

राग कान्हरा तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर । हम चितवाँ थें चितवो ना हरि, हिवड़ो बड़ो कठोर । म्हारो आसा चितवणि थारी ओर ना दूजा दोर I ऊभ्याँ ठाढ़ी अरज करूँ हूँ करता करताँ भोर । रे प्रभु हर अविनासी देस्यूँ प्राण अंकोर ॥5॥ भावार्थ : मीराँ ने इस पद में भगवान की कृपा दृष्टि अपने ऊपर चाही है । वे निवेदन करती है कि हे श्रीकृष्ण ! मेरी ओर भी थोड़ी दृष्टि डालो । हमारी दृष्टि सदैव आपकी ओर लगी रहती है। कभी आप अपनी दृष्टि भी हम पर डालें ताकि हमारा भी उद्धार हो । यदि आप ऐसा नहीं करते हो तो आप हृदय के बड़े कठोर हैं । हमारे जीवन की पूरी आस तुम्हारी चित्तवन है । इसके अलावा हमारा कहीं ठिकाना नही है । मेरा इस संसार में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं है । आपके लिए हमारे जैसे लाखों-करोड़ों भक्त हो सकते हैं । मीराँ कृष्ण की चित्तवन रूपी कृपा की प्रतीक्षा करते-करते ऊब गई है और रात से भोर हो गई लेकिन प्रभु कृष्ण आप फिर भी द्रवित नहीं हुए । अविनाशी आप मुझ पर कृपा दृष्टि कीजिये । मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूँगी ।

6. म्हारो गोकुल रो ब्रजवासी

म्हारो गोकुल रो ब्रजवासी । बजलीला लख जन सुख पावाँ, ब्रजवनताँ सुखरासी । नाच्या गावाँ ताल बजावाँ, पावाँ आणंद हाँसी । नन्द जसोदा पुत्र री, प्रगट्याँ प्रभु अविनासी । पीताम्बर कट उर बैजणताँ, कर सोहाँ री बाँसी । मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, दरसरण दीज्यो दासी ॥6॥ भावार्थ : मीराँ श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबी हुई है । वे कहती हैं कि हमारे श्रीकृष्ण तो ब्रज में निवास करते हैं । उनकी लीलाओं को देखकर ब्रज की स्त्रियाँ सुख प्राप्त करती हैं । वे नाचती हैं, गाती हैं, ताली बजाती हैं और आनंद की हँसी प्राप्त करती है । अविनाशी प्रभु कृष्ण ने नंद व यशोदा के पुत्र के रूप में अवतार लिया है । उनके कमर पर सुन्दर पीले वस्त्र, गले में सुन्दर वैजयंती माला और हाथों में मुरली शोभायमान रहती है। मीराँ निवेदन करती है कि उनके तो एक मात्र स्वामी श्रीकृष्ण है । वे श्रीकृष्ण अपनी दासी को दर्शन देकर कृतार्थ करें।

7. हे मा बड़ी बड़ी अखियन वारो

हे मा बड़ी बड़ी अखियन वारो, साँवरो मो तन हेरत हसिके । भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके । जतन करो जन्तर लिखि बाँधों, ओखद लाऊँ घसिके । ज्यों तोकों कछु और बिधा हो, नाहिन मेरो बसिके । कौन जतन करों मोरी आली, चन्दन लाऊँ घसिके । जन्तर मन्तर जादू टोना, माधुरी मूरति बसिके । साँवरी सूरत आन मिलावो ठाढ़ी रहूँ मैं हँसिके । रेजा रेजा भयो करेजा अन्दर देखो धँसिके । मीरा तो गिरधर बिन देखे कैसे रहे घर बसिके ॥7॥ भावार्थ : मीराँ ने कृष्ण के माधुर्य रूप का वर्णन किया है । वे कहती हैं कि बड़ी-बड़ी आँखों वाले साँवले श्रीकृष्ण की मेरी ओर मुस्कराहट भरी दृष्टि और उनकी टेड़ी कमान जैसी भौंहें, सुन्दर नेत्र आदि से मैं उनके वशीभूत हो गई हूँ। मेरी वेदना का कारण कोई और नहीं है । श्रीकृष्ण के जादू-टोने मेरे हृदय में बस गए हैं और श्रीकृष्ण की मनोहर मूर्ति मेरे हृदय में से नहीं निकलती है । मीरा कहती है कि मैं श्रीकृष्ण को अपने हृदय से मिलाने के लिए बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही हूँ । श्रीकृष्ण के बिना मेरा कलेजा टूक-टूक हुआ जाता है । कृष्ण के वियोग में वेदना से मीरा इस प्रकार पीड़ित है कि वे बिना कृष्ण के दर्शन किए बिना घर में कैसे रह सकती है । विशेषः "भाँह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके । " इस पंक्ति में सांगरूपक है । रेजा रेजा भयो करेजा में रूढ़ि लक्षणा है।

8. हे मा री नन्द को गुमानी म्हारे मनड़े बस्यो

हे मा री नन्द को गुमानी म्हारे मनड़े बस्यो । बाहे दुम डार कदम की ठाड़ो मृदु मुसकाय म्हारी और हँस्यो । पीताम्बर कट काछनी काछे, रतन जटित माथे मुगट कस्यो । मीरों के प्रभु गिरधर नागर, निरख बदन म्हारो मनड़ो फँस्यो॥8॥ भावार्थ : मीराँ कहती हैं कि नंद का गर्वीला पुत्र अर्थात् श्रीकृष्ण मेरे मन में बस गया है । वह कदम की डाल पकड़े हुए मेरी ओर देखकर मुस्करा रहा है । उसके पीले वस्त्र कमर में धोती और मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट सुशोभित था । मीरा श्रीकृष्ण की इस छवि को हृदयंगम करके कहती है कि यह अपूर्व छवि बरबस ही मुझे मोहित कर रही है, जिसे देखकर मेरा मन सम्मोहित हो गया है ।

9. थारो रूप देख्याँ अटकी

थारो रूप देख्याँ अटकी । कुल कुटुम्ब सजन सकल बार बार हटकी । विसरयाँ ना लगन लगाँ मोर मुगट नटकी । म्हारो मन मगन स्याम लोक कहाँ भटकी । मीराँ प्रभु सरण गह्यौं जाण्या घट घट की॥9॥ भावार्थ : मीराँ ने इस पद में श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य के स्वयं पर असर का वर्णन किया है । वे कहती है कि हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे रूप माधुरी को देखकर मेरी आँखे अटक गई हैं । लोगों ने मुझे बार- बार मना किया, लेकिन मैं उनसे दूर होकर भी आपकी शरण की कामना करती हूँ । मोर मुकुट धारण करने वाले श्रीकृष्ण में मेरा मन रम गया है । इसे लोग मेरा भटकना कहते हैं । मीराँ कहती है कि यह भटकना नहीं है बल्कि मैंने उस अन्तर्यामी ईश्वर की शरण प्राप्त की है जो प्रत्येक हृदय की बात जानता है ।

10. निपट बंकट छब अटके

राग त्रिवेनी निपट बंकट छब अटके । देख्याँ रूप मदन मोहन री, पियत पियूख न मटके । बारिज भवाँ अलक मतवारी, नेण रूप रस अटके । टेढ्या कट टेढ़े कर मुरली, टेढया पाय लर लटके । मीराँ प्रभु रे रूप लुभाणी, गिरधर नागर नटके॥10॥ भावार्थ : मीराँ ने इस पद में कहा है कि श्रीकृष्ण की नितान्त टेढ़ी अर्थात् त्रिभंगी छवि उसके नेत्रों में बस गई है । वे कहती हैं कि मेरे नेत्रों ने श्रीकृष्ण के इस माधुर्य रूप का अमृत तुल्य पान किया है । जिससे वे और मटकने लगी है और ये नेत्र उस रूप माधुरी रूपी रस पर अटक गये हैं । उनके मुख पर सुन्दर और टेढ़ी अलखें तथा बांसुरी बजाते समय टेढ़ी कमर और ऐसे ही टेढ़े हाथों में पकड़े मुरली तथा पैरों की लटकती टेढ़ी दशा नटवर नागर श्रीकृष्ण के त्रिभंगी रूप में सभी को मोहित करने वाली शक्ति होती है । उस पर मीराँ पूरी तरह मोहित है ।

11. म्हा मोहन रो रूप लुभाणी

म्हा मोहन रो रूप लुभाणी । सुन्दर बदना कमल दल लोचन, बाँकाँ चितवन नेणाँ समाणी । जमना किनारे कान्हा धेनु चरावाँ, बंशी बजावाँ मीट्ठाँ वाणी । तन मन धन गिरधर पर वाराँ, चरण कँवल बिलमाणी ॥11॥ भावार्थ : मीराँ कहती है कि मैं अपने आराध्य प्रियतम श्रीकृष्ण के रूप पर मोहित हो गई हूँ । उन प्रियतम श्रीकृष्ण का वदन (मुख) सुन्दर है, कमल पत्र के समान उनके नेत्र हैं तथा उनकी दृष्टि बांकी है जो कि मेरे नेत्रों में समा रही है । वह प्रियतम कृष्ण युमना नदी के किनारे गायें चराते रहते हैं और मधुर स्वर लहरी में बंशी बजाते रहते हैं । मीराँ कहती है कि मैं अपना शरीर, मन और धन ( अपना सर्वस्व ) गिरधर कृष्ण पर न्योछावर करती हूँ तथा उनके चरण-कमलों में रम गई हूँ ।

12. साँवरा णन्द णंदेन, दीठ पड्याँ माई

साँवरा णन्द णंदेन, दीठ पड्याँ माई । डार्यों सब लोकलाज सुध बुध बिसराई । मोर चन्द्रमा किरीट मुगुट छब सोहाई । केसर री तिलक भाल, लोणण सुखदाई । कुण्डल झलकाँ कपोल अलकाँ लहराई । मीणाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई । नटवर प्रभू भेष धर्मों रूप जग लो भाई । गिरधर प्रभू अंग अंग मीराँ बल जाई॥12॥ भावार्थ : मीराँ कहती है कि अरी सखी, नंद जी के पुत्र साँवले श्रीकृष्ण जब से मुझे दिखाई दिये (मेरी दृष्टि में पड़े) तब से मैं सब लोक - लाज का त्याग कर अपनी सुध-बुध खो बैठी हूँ । भाव यह है कि मैं उनकी प्रेम दीवानी हो गई हूँ और लोक मर्यादा को भूलकर उन्मत्त हो गई हूँ । उन प्रियतम श्रीकृष्ण ने मोरपंखों के रंग बिरंगे चन्द्रकों वाला सुन्दर चमकीला मुकुट सिर पर धारण कर रखा है, जो कि अत्यधिक शोभायमान हो रहा है । ललाट पर उन्होंने केसर का तिलक लगा रखा है जो कि देखने वालों की आँखों को बहुत ही अच्छा लगता है । उनके कानों में कुण्डल झलक रहे हैं और घुंघराले बाल लहरा रहे हैं । उनकी शोभा ऐसी लग रही है कि मानो मछलियाँ तालाब को छोड़कर मगर से मिलने के लिए दौड़ रही हों । रसिक शिरोमणि प्रभु कृष्ण ने ऐसा वेश धारण कर रखा है, जिसे देखकर सभी लोग ललचा जाते हैं । मीराँ कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर कृष्ण मेरे अंग - अंग में समाये हुए हैं और मैं उन पर न्योछावर होना चाहती हूँ ।

13. नेणोँ लोभाँ अटकाँ शक्यौँ णा फिर आया

राग नीलाम्बरी नेणोँ लोभाँ अटकाँ शक्यौँ णा फिर आया॥ रूम - रूम नखसिख लख्यौं, ललक ललक अकुलाय । म्याँ ठाढ़ी घर आपणे मोहन निकल्या आय । बदन चन्द परगासतौँ, मन्द मन्द मुसकाय । सकल कुटुम्बाँ बरजताँ बोल्या बोल बनाय । नेणां चंचल अटक ना मान्या, परहथ गयाँ बिकाय । भलो कह्याँ काँई कह्याँ बुरो री सब लया सीस चढ़ाय । मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बिना पल रह्याँ ना जाय॥13॥ भावार्थ : मीराँ भक्ति भाव से कहती हैं कि ये मेरे रूप- माधुरी के लोभी नेत्र एक बार प्रियतम कृष्ण की छवि पर अटक गए, तो फिर वापिस नही आ सके । मेरा रोम-रोम उनके नख - शिख की शोभा देखकर बार- बार देखने के लिए आकुल व्याकुल बना रहता है। एक बार मेरे घर में प्रियतम मोहन अपने आप आ गए, उस समय वे अपने मुख रूपी चन्द्रमा को प्रकाशित करते हुए मंद-मंद मुस्कराने लगे । तब मेरे परिवार के सब लोगों के द्वारा मना करने पर भी वे मधुर वचनों में (मधुर बातें बनाकर ) मुझसे बोलते रहे । मेरे चंचल नेत्र मेरा कहा नहीं मानते हैं, अब तो ये पराये हाथ (प्रियतम कृष्ण के हाथ ) उनकी रूप माधुरी के लालच में बिक गए हैं । इस संसार में अच्छी बात कहने पर भी कोई नहीं मानता है, परन्तु बुरी बात को सब लोग सिर पर चढ़ा लेते हैं अर्थात् सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं । मीराँ कहती है कि हे चतुर गिरधर प्रियतम ! अब मुझसे आपके बिना एक पल भी नहीं रहा जा सकता ।

14. आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी

राग कामोद आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी । चित्त चढ़ी म्हारे माधुरी मूरत, हिवड़ा अणी गड़ी । कब री ठाढ़ी पंथ निहारों, अपने भवन खड़ी । अटक्याँ प्राण साँवरो प्यारो, जीवन मूर जड़ी । मीराँ गिरधर हाथ बिकाणी, लोग कह्याँ बिगड़ी ॥14॥ भावार्थ : मीराँ ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण की मधुर मूरत को अपने हृदय में बसाया है । वे अपनी सखी से कह रही है कि सखी मेरे नेत्रों श्रीकृष्ण की माधुरी झलक के दर्शन की आदत पड़ गई है । मेरे हृदय में श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति स्थापित हो गई है जो हृदय में बहुत गहराई तक चुभ गई है । मैं न जाने कब से अपने आराध्य की प्रतीक्षा में हूँ । मेरे प्राण श्रीकृष्ण में अटके हुए हैं । श्रीकृष्ण के प्रति मेरे इस समर्पण को लोग चाहे भटकना कहें या बिगड़ना, मैं तो श्रीकृष्ण के हाथों में अपना सर्वस्व समर्पित कर चुकी हूँ । इस पद में मीराँ का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण उजागर हुआ है ।

15. नेणाँ वणज बसवाँरी, म्हारा साँवराँ आवाँ

नेणाँ वणज बसवाँ री, म्हारा साँवराँ आवाँ । नेणाँ म्हारौँ साँवरा राज्याँ, डरता पलक ना लावाँ । म्हारा हिरदाँ बस्याँ मुरारी, पलपल दरसण पावाँ । स्याम मिलन सिंगार सजावाँ, सुख री सेज बिछावाँ । मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, बार- बार बलिजावा ।॥15॥ भावार्थ : मीराँबाई ने इस पद में अपनी सखी से कहा है कि मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण को मैं अपने कमल के समान कोमल नेत्र रूपी घर में बसाउँगी । मेरे नेत्रों में मेरे प्रियतम का बास है, इसलिए मैं पलक नहीं झपकती हूँ जिससे कहीं श्रीकृष्ण मेरे दर्शन से दूर नहीं हो जाएँ । भाव यह है कि मीराँ अपने प्रियतम को सदैव देखते रहना चाहती है इसलिए वे पलक भी नहीं झपकना चाहती । मीराँ कहती है कि श्रीकृष्ण मेरे हृदय में है, इसलिए मैं नित्य उनके दर्शन करती हैं और उनसे मिलन सुख के लिए सदैव शृंगार कर सुख रूपी सेज बिछाती हैं । मीरा आगे कहती है कि चतुर प्रभु श्री कृष्ण ही मेरे प्रियतम हैं । मैं पर उन बार बार न्योछावर होती हूँ ।

16. असा प्रभु जाण न दीजै हो

राग मुल्‍तानी असा प्रभु जाण न दीजै हो । तन मन धन करि वारणै, हिरदे धरि लीजै हो । आव सखी मुख देखिये, नैणाँ रस पीजै हो । जिह जिह बिधि रीझे हीर, सोई विधि कीजै हो । सुंदर स्‍याम सुहावणा, मुख देख्‍याँ जीजै, हो । मीराँ के प्रभु रामजी, बड़ भागण रीझै, हो ॥16॥ भावार्थ : मीराँ कहती है कि ऐसे परम मनोहारी भक्त वत्सल प्रभु कृष्ण को मैं जाने नहीं दूँगी । मैं उन्हें तन - मन धन समर्पित करके अपने हृदय में बसा लूँगी । मीरा अपनी सखी से कहती है कि श्रीकृष्ण के आते ही अपने नेत्रों के द्वारा उनके मुख देखकर मैं रूप- माधुरी का पान करूँगी । जिस - जिस तरीके से श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे वह सब उपाय करूंगी। मैं उनके श्याम सलोने रूप के मुख सौंदर्य को देखकर जीवित हूँ । मीरा कहती है कि मीराँ के प्रभु अत्यंत सहज हैं, जो सहजता से मुझ पर रीझते हैं । यह मेरा परम सौभाग्य है ।

17. म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री

राग मालकोस म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री । नाच नाच म्हाँ रसिक रिझावाँ, प्रीति पुरातन जाँच्या री । स्याम प्रीत बाँध घूँघर्यां मोहन म्हारो साँच्यौँ री । लोक लाज कुल री मरजादाँ, जग माँ नेक ना राख्याँ री । अनन्त पल छन ना बिसरावा, मीराँ हरि रँग राच्याँ री॥17॥ भावार्थ : मीराँ कहती है कि मैं अपने गिरधर गोपाल के आगे नृत्य करती रही । इस प्रकार नृत्य कर - कर के मैं अपने आराध्य को रिझाती हूँ । मेरी और कृष्ण की प्रीत पुरानी है । भाव यह है कि यह प्रीत जन्म-जन्मान्तर की है । कृष्ण मेरे सच्चे प्रियतम हैं इसलिए अपने कुल और लोक लाज की मर्यादाओं की परवाह न करते हुए मैं पूरी तरह श्रीकृष्ण के रंग में रंग गई हूँ ।

18. म्हारौँ री गिरधर गोपाल

राग झंझोटी म्हारौँ री गिरधर गोपाल दूसरौं नाँ कोई । दूसराँ नाँ कूयाँ साधाँ सकल लोक खोई । भाया छाँड्याँ, बन्धा छाँड्याँ सगाँ सोई । साधाँ ढिंग बैठ बैठ, लोक लाज खोई । भगत देख्याँ राजी ह्याँ, जगत देख्यौँ रोई । अँसुवाँ जल सींच सींच प्रेम बेल बोई । दधि मथ घृत काढ़ लयाँ डार दया छोई । राणा विष रो प्यालो भेज्याँ पीय मगन होई । मीराँ लगन लग्यौँ होणा हो जो होई ॥18॥ भावार्थ : मीराँ ने इस पद में कृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को प्रकट किया है । वे कहती हैं कि इस संसार में मेरे केवल श्रीकृष्ण हैं और कोई दूसरा नहीं हैं । उन्होंने कहा कि मैंने सारा संसार देख लिया है। संसार में सब स्वार्थी हैं । इस बात को जानकर ही मैंने सभी लौकिक बंधन रिश्ते छोड़ दिये हैं । अब मैं सत्संग में बैठकर प्रभु भक्ति में लीन रहती हूँ । इससे मैंने झूठी लोक लाज को छोड़ दिया है । इस जीवन में मुझे भगवान भक्ति से प्रसन्नता होती है लेकिन स्वार्थी संसार द्वारा निंदा की बात सुनकर रोना आता है । मैंने दु : ख और वेदना के आँसुओं से श्रीकृष्ण के प्रति अपनी प्रेम रूपी बेल को सींचा है । जिस प्रकार दही में से छाछ को अलग करके घृत को ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार मैंने संसार में सारतत्व को ग्रहण कर लिया है । इस भक्त रूप में बाधा स्वरूप राणा जी ने जो जहर का प्याला भेजा था, उसे मैंने श्रीकृष्ण के प्रसाद रूप में ग्रहण किया और कृष्ण में मगन हो गई । मीराँ कहती है कि मेरी पूरी लग्न श्रीकृष्ण के प्रति है और जो कुछ भी होगा वह उनकी इच्छा से ही होगा ।

19. माई साँवरे रँग राँची

राग पटमंजरी माई साँवरे रँग राँची । साज सिंगार बाँध पग घूँघर, लोकलाज तज नाँची । गयाँ कुमत लयाँ साधाँ संगम स्याम प्रीत जग साँची । गाय गायाँ हरि गुण निसदिन, काल ब्याल री बाँची । स्याम विना जग खारौं लागाँ, जग री बातोँ काँची । मीराँ सिरि गिरधर नट नागर भगति रसीली जाँची॥19॥ भावार्थ : मीराँ ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आस्था एवं समर्पण को व्यक्त किया है । मीराँ कहती हैं कि वह पूरी तरह कृष्ण भक्ति में रम चुकी है। इसलिए सारी लोक - लाज की परवाह किये बिना मैं कृष्ण को रिझाने के लिए अपना शृंगार करके घुंघरू बांध के नृत्य करती हूँ । मुझमें सांसारिकता के प्रति लगाव की जो कुमति थी, वो अब समाप्त हो चुकी है । मैंने सत्संग को अपना लिया है, जिससे मैं जान गई हूँ कि संसार में कृष्ण ही सच्चे हैं और उनके प्रति प्रीति सच्ची है । मैंने दिन-रात गाकर प्रभु गुण दंश से अपना बचाव किया है। मीराँ कहती है कि कृष्ण के बिना संसार अप्रिय लगता है और संसार के सारे सुख भी मृत्यु रूपी लगते हैं। मीराँ ने श्रीगिरधर गोपाल की रसीली भक्ति को ही उचित माना है ।

20. मैं तो गिरधर के घर जाऊँ

राग गुणकली मैं तो गिरधर के घर जाऊँ । गिरधर म्याँरों साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ । रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ, ज्यूँ त्यँ वाहि लुभाऊँ । जो पहिरावै सोई पहिरू, जो दे सोई खाऊँ । मेरी उणरी प्रीत पुराणी, उण विन पल न रहाऊँ । जहँ बैठावे तितही बैठूँ, बेचे तो बिक जाऊँ । मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, बार- बार बलि जाऊँ ॥20॥ भावार्थ : इस पद में मीराँ श्रीकृष्ण के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त कर रही है । वे कहती हैं कि मैं तो रात्रि होते ही अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास चली जाती हूँ और सुबह होते ही लौट आती हूँ । मैं रात-दिन उनके साथ खेलती हूँ और उन्हें रिझाती हूँ । मेरे सर्वस्व श्रीकृष्ण हैं वो मुझे जैसे रखेंगे, जो पहनायेंगे, जो खाने को देंगे मैं वही स्वीकार कर लूँगी, क्योंकि मेरा उनका जन्म- जन्मांतर का संबंध है । मीराँ कहती है कृष्ण मुझसे जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगी। इस प्रकार वे अपने प्रभु श्रीकृष्ण पर अपने आपको न्योछावर करती है ।

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण पदावली : संत मीरा बाई
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)