१९६२-१९६३ की रचनाएँ : हरिवंशराय बच्चन

1962-1963 Ki Rachnayen : Harivansh Rai Bachchan

1. सूर समर करनी करहिं

सर्वथा ही
यह उचित है
औ' हमारी काल-सिद्ध, प्रसिद्ध
चिर-वीर प्रसविनी,
स्‍वाभिमानी भूमि से
सर्वदा प्रत्‍याशित यही है
जब हमे कोई चुनौती दे,
हमे कोई प्रचारे,
तब कड़क
हिमश्रृंग से आसिंधु
यह उठ पड़ें,
हुँकारे-
कि धरती काँपे,
अम्‍बर में दिखाई दें दरारें।

शब्‍द ही के
बीच में दिन-रात बरसता हुआ
उनकी शक्ति से, सामर्थ्‍य से-
अक्षर-
अपरिचित नहीं हूँ।

किंतु, सुन लो,
शब्‍द की भी,
जिस तरह संसार में हर एक की,
कमज़ोरियाँ, मजबूरियाँ हैं।
शब्‍द सबलों की
सफल तलवार हैं तो
शब्‍द निबलों की
नपुंसक ढाल भी हैं।
साथ ही यह भी समझ लो,
जीभ का जब-जब
भुजा का एवज़ी माना गया है,
कंठ से गाया गया है।

और ऐसा अजदहा जब सामने हो
कान ही जिसके ना हों तो
गीत गाना-
हो भले ही वीर रस का तराना-
गरजना, नारा लगाना,
शक्ति अपनी क्षीण करना,
दम घटाना।

ओ हमारे
वज्र-दुर्दम देश के
वक्षुब्‍ध-क्रोधातुर
जवानों!
किटकिटाकर
आज अपने वज्र के-से
दाँत भींचो,
खड़े हो,
आगे बढ़ो,
ऊपर बढ़ो,
बे-कंठ खोले।
बोलना हो तो
तुम्‍हारे हाथ की दो चोटें बोलें!

2. उघरहिं अन्त न होइ निबाहू

अगर दुश्‍मन
खींचकर तलवार
करता वार
उससे नित्‍य प्रत्‍याशित यही है
चाहिए इसके लिए तैयार रहना;
यदि अपरिचित-अजनबी
कर खड्ग ले
आगे खड़ा हो जाए,
अचरज बड़ा होगा,
कम कठिन होगा नहीं उससे सँभालना;
किन्‍तु युग-युग मीत अपना,
जो कि भाई की दुहाई दे
दिशाएँ हो गुँजाता,
शीलवान जहान भर को हो जानता,
पीठ में सहसा छुरा यदि भोंकता,
परिताप से, विक्षोभ से, आक्रोश से,
आत्‍मा तड़पती,
नीति धुनती शीश
छाती पीट मर्यादा बिलखती,
विश्‍व मानस के लिए संभव न होता
इस तरह का पाशविक आघात सहना;
शाप इससे भी बड़ा है शत्रु का प्रच्‍छन्‍न रहना।

यह नहीं आघात, रावण का उघरना;
राम-रावण की कथा की
आज पुनरावृति हुई है।
हो दशानन कलियुगी,
त्रेतायुगी,
छल-छद्म ही आधार उसके-
बने भाई या भिखारी,
जिस किसी भी रूप में मारीच को ले साथ आए
कई उस मक्‍कार के हैं रूप दुनिया में बनाए।
आज रावण दक्षिणापथ नहीं,
उत्‍तर से उत्‍तर
हर ले गया है,
नहीं सीता, किन्‍तु शीता-
शीत हिममंडित
शिखर की रेख-माला से
सुरक्षित, शांत, निर्मल घाटियों को
स्‍तब्‍ध करके,
दग्‍ध करके,
उन्‍हें अपनी दानवी
गुरु गर्जना की बिजलियों से।
और इस सीता-हरण में,
नहीं केवल एक
समरोन्‍मुख सहस्‍त्रों लौह-काय जटायु
घायल मरे
अपने शौर्य-शोणित की कहानी
श्‍वेत हिमगिरि की
शिलाओं पर
अमिट
लिखते गए हैं।

इसलिए फिर आज
सूरज-चाँद
पृथ्‍वी, पवन को, आकाश को
साखी बताकर
तुम करो
संक्षिप्‍त
पर गंभीर, दृढ़
भीष्‍म-प्रतिज्ञा
देश जन-गण-मन समाए राम!-
अक्षत आन,
अक्षत प्राण,
अक्षत काय,
'जो मैं राम तो कुल सहित कहहिं दशानन आय!'

3. गाँधी

एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,

जिस समय हिंसा,
कुटिल विज्ञान बल से हो समंवित,
धर्म, संस्‍कृति, सभ्‍यता पर डाल पर्दा,
विश्‍व के संहार का षड्यंत्र रचने में लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था!

एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय अन्‍याय ने पशु-बल सुरा पी-
उग्र, उद्धत, दंभ-उन्‍मद-
एक निर्बल, निरपराध, निरीह को
था कुचल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था?

एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय अधिकार, शोषण, स्‍वार्थ
हो निर्लज्‍ज, हो नि:शंक, हो निर्द्वन्‍द्व
सद्य: जगे, संभले राष्‍ट्र में घुन-से लगे
जर्जर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था?

क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
यदि मिलती न हिंसा को चुनौ‍ती,
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
यदि अन्‍याय की ही जीत होती,
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
जाति स्‍वतंत्र होकर
यदि न अपने पाप धोती!

4. युग-पंक

दूध-सी कर्पूर-चंदन चाँदनी में
भी नहाकर, भीगकर
मैं नहीं निर्मल, नहीं शीतल
हो सकूँगा,
क्‍यों कि मेरा तन-बसन
युग-पंक में लिथड़ा-सना है
और मेरी आत्‍मा युग-ताप से झुलसती हुई है;
नहीं मेरी ही तुम्‍हारी, औ' तुम्‍हारी और सबकी।
वस्‍त्र सबके दाग़-धब्‍बे से भरे हैं,
देह सबकी कीच-काँदों में लिसी, लिपटी, लपेटी।

कहाँ हैं वे संत
जिनके दिव्‍य दृग
सप्‍तावरण को भेद आए देख-
करूणासिंधु के नव नील नीरज लोचनों से
ज्‍योति निर्झर बह रहा है,
बैठकर दिक्‍काल
दृढ़ विश्‍वास की अविचल शिला पर
स्‍नान करते जा रहे हैं
और उनका कलुष-कल्‍मष
पाप-ताप-' भिशाप घुलता जा रहा है।

कहाँ हैं वे कवि
मदिर-दृग, मधुर-कंठी
और उनकी कल्‍पना-संजात
प्रेयसियाँ, पिटारी जादुओं की,
हास में जिनके नहाती है जुन्‍हाई,
जो कि अपनी बहुओं से घेर
बाड़व के हृदय का ताप हरतीं,
और अपने चमत्‍कारी आँचलों से
पोंछ जीवन-कालिमा को
लालिमा में बदलतीं,
छलतीं समय को।
आज उनकी मुझे, तुमको,
और सबको है जरुरत।
कहाँहैं वे संत?
वे कवि हैं कहाँ पर?-
नहीं उत्‍तर।

वायवी सब कल्‍पनाएँ-भावनाएँ
आज युग के सत्‍य से ले टक्‍करें
गायब हुई हैं।
कुछ नहीं उपयोग उनका।
था कभी? संदेह मुझको।
किन्‍तु आत्‍म-प्रवंचना जो कभी संभव थी
नहीं अब रह गई है।
तो फँसा युग-पंक में मानव रहेगा?
तो जला युग-ताप से मानव करेगा?
नहीं।
लेकिन, स्‍नान करना उसे होगा
आँसुओं से- पर नहीं असमर्थ, निर्बल और कायर,
सबल पश्‍चा के उन आँसुओं से,
जो कलंको का विगत इतिहास धोते।
स्‍वेद से- पर नहीं दासों के, खरीदे और बेचे,-
खुद बहाए, मृत्तिका जिसे कि अपना ऋण चुकाए।
रक्‍त से- पर नहीं अपने या पराए,
उसी पावन रक्‍त से
जिनको कि ईसा और गाँधी की
हथेली और छाती ने बहाए।

5. गत्‍यवरोध

बीतती जब रात,
करवट पवन लेता
गगन की सब तारिकाएँ
मोड़ लेती बाग,
उदयोन्‍मुखी रवि की
बाल-किरणें दौड़
ज्‍योतिर्मान करतीं
क्षितिज पर पूरब दिशा का द्वार,
मुर्ग़ मुंडेर पर चढ़
तिमिर को ललकारता,
पर वह न मुड़कर देखता,
धर पाँव सिर पर भागता,
फटकार कर पर
जाग दल के दल विहग
कल्‍लोल से भूगोल और खगोल भरते,
जागकर सपने निशा के
चाहते होना दिवा-साकार,
युग-श्रृंगार।

कैसा यह सवेरा!
खींच-सी ली गई बरबस
रात की ही सौर जैसे और आगे-
कुढ़न-कुंठा-सा कुहासा,
पवन का दम घुट रहा-सा,
धुंध का चौफेर घेरा,
सूर्य पर चढ़कर किसी ने
दाब-जैसा उसे नीचे को दिया है,
दिये-जैसा धुएँ से वह घिरा,
गहरे कुएँ में है वह दिपदिपाता,
स्‍वयं अपनी साँस खाता।

एक घुग्‍घू,
पच्छिमी छाया-छपे बन के
गिरे; बिखरे परों को खोंस
बैठा है बकुल की डाल पर,
गोले दृगों पर धूप का चश्‍मा लगाकर-
प्रात का अस्तित्‍व अस्‍वीकार रने के लिए
पूरी तरह तैयार होकर।

और, घुघुआना शुरू उसने किया है-
गुरू उसका वेणुवादक वही
जिसकी जादुई धुन पर नगर कै
सभी चूहे निकल आए थे बिलों से-
गुरू गुड़ था किन्‍तु चेला शकर निकाला-
साँप अपनी बाँबियों को छोड़
बाहर आ गए हैं,
भूख से मानो बहुत दिन के सताए,
और जल्‍दी में, अँधेरे में, उन्‍होंने
रात में फिरती छछूँदर के दलों को
धर दबाया है-
निगलकर हड़बड़ी में कुछ
परम गति प्राप्‍त करने जा रहे हैं,
औ' जिन्‍होंने अचकचाकर,
भूल अपनी भाँप मुँह फैला दिया था,
वे नयन की जोत खोकर,
पेट धरती में रगड़ते,
राह अपनी बाँबियों की ढूँढते हैं,
किन्‍तु ज्‍यादातर छछूँदर छटपटाती-अधमरी
मुँह में दबाए हुए
किंकर्तव्‍यविमूढ़ बने पड़े हैं;
और घुग्‍घू को नहीं मालूम
वह अपने शिकारी या शिकारों को
समय के अंध गत्‍यवरोध से कैसे निकाले,
किस तरह उनको बचा ले।

6. शब्‍द-शर

लक्ष्‍य-भेदी
शब्‍द-शर बरसा,
मुझे निश्‍चय सुदृढ़,
यह समर जीवन का
न जीता जा सकेगा।

शब्‍द-संकुल उर्वरा सारी धरा है;
उखाड़ो, काटो, चलाओ-
किसी पर कुछ भी नहीं प्रतिबंध;
इतना कष्‍ट भी करना नहीं,
सबको खुला खलिहान का है कोष-
अतुल, अमाप और अनंत।

शत्रु जीवन के, जगत के,
दैत्‍य अचलाकार
अडिग खड़े हुए हैं;
कान इनके विवर इतने बड़े
अगणित शब्‍द-शर नित
पैठते है एक से औ'
दूसरे से निकल जाते।
रोम भी उनका न दुखता या कि झड़ता
और लाचारी, निराशा, क्‍लैव्‍य कुंठा का तमाशा
देखना ही नित्‍य पड़ता।

कब तलक,
औ' कब तलक,
यह लेखनी की जीभ की असमर्थ्‍यता
निज भाग्‍य पर रोती रहेगी?
कब तलक,
औ' कब तलक,
अपमान औ' उपहासकर
ऐसी उपेक्षा शब्‍द की होती रहेगी?


कब तलक,
जब तक न होगी
जीभ मुखिया
वज्रदंत, निशंक मुख की;
मुख न होगा
गगन-गर्विले,
समुन्‍नत-भाल
सर का;
सर न होगा
सिंधु की गहराइयें से
धड़कनेवाले हृदय से युक्‍त
धड़ का;
धड़ न होगा
उन भुजाओं का
कि जो है एक पर
संजीवनी का श्रृंग साधो,
एक में विध्‍वंस-व्‍यग्र
गदा संभाले,
उन पगों का-
अंगदी विश्‍वासवाले-
जो कि नीचे को पड़ें तो
भूमी काँपे
और ऊपर को उठें तो
देखते ही देखते
त्रैलोक्‍य नापें।

सह महा संग्राम
जीवन का, जगत का,
जीतना तो दूर है, लड़ना भी
कभी संभव नहीं है
शब्‍द के शर छोड़नेवाले
सतत लघिमा-उपासक मानवों से;
एक महिमा ही सकेगी
होड़ ले इन दानवों से।

7. लेखनी का इशारा

ना ऽ ऽ ऽ ग!
-मैंने रागिनी तुझको सुनाई बहुत,
अनका तू न सनका-
कान तेरे नहीं होते,
किन्‍तु अपना कान केवल गान के ही लिए
मैंने कब सुनाया,
तीन-चौथाई हृदय के लिए होता।
इसलिए कही तो तुझेमैंने कुरेदा और छेड़ा
भी कि तुझमें जान होगी अगर
तो तू फनफनाकर उठ खड़ाा होगा,
गरल-फुफकार छोड़ेगा,
चुनौती करेगा स्‍वीकार मेरी,
किन्‍तु उलझी रज्‍जु की तू एक ढेरी।

इसी बल पर,
धा ऽ ऽ ऽ ध,
कुंडल मारकर तू
उस खजाने पर तू डटा बैठा हुआ है
जो हमारे पूर्वजों के
त्‍याग, तप बलिदान,
श्रम की स्‍वेद की गाढ़ी कमाई?
हमें सौपी गई थी यह निधि
कि भोगे त्‍याग से हम उसे,
जिससे हो सके दिन-दिन सवाई;
किन्‍तु किसका भोग,
किसका त्‍याग,
किसकी वृद्धि‍।
पाई हुई भी है
आज अपनाई-गँवाई।

दूर भग,
भय कट चुका,
भ्रम हट चुका-
अनुनय-विनय से
रीझनेवाला हृदय तुझमें नहीं है-
खोल कुंडल,
भेद तेरा खुल चुका है,
गरल-बल तुझमें नहीं अब,
क्‍यों कि उससे विषमतर विषपर
बहुत दिन तू पला है,
चाटता चाँदी रहा है,
सूँघता सोना रहा है।
लट्ठबाजों की कमी
कुछ नहीं मेरे भाइयों में,
पर मरे को मार करके-
लिया ही जिसने, दिया कुछ नहीं,
यदि वह जिया तो कौन मुर्दा?
कौन शाह मदार अपने को कहाए!
क़लम से ही
मार सकता हूँ तुझे मैं;
क़लम का मारा हुया
बचता नहीं है।
कान तेरे नहीं,
सुनता नहीं मेरी बात
आँखें खोलकर के देख
मेरी लेखनी का तो इशारा-
उगा-डूबा है इसी पर
कहीं तुझसे बड़ों,
तुझसे जड़ों का
कि़स्‍मत-सितारा!

8. विभाजितों के प्रति

दग्‍ध होना ही
अगर इस आग में है
व्‍यर्थ है डर,
पाँव पीछे को हटाना
व्‍यर्थ बावेला मचाना।

पूछ अपने आप से
उत्‍तर मुझे दो,
अग्नियुत हो?
बग्नियुत हो?

आग अलिंगन करे
यदि आग को
किसलिए झिझके?
चाहिए उसको भुजा भर
और भभके!

और अग्नि
निरग्नि को यदि
अंग से अपने लगाती,
और सुलगाती, जलाती,
और अपने-सा बनाती,
तो सौभाग्‍य रेखा जगमगाई-
आग जाकर लौट आई!

किन्‍तु शायद तुम कहोगे
आग आधे,
और आधे भाग पानी।
तुम पवभाजन की, द्विधा की,
डरी अपने आप से,
ठहरी हुई-सी हो कहानी।
आग से ही नहीं
पानी से डरोगे,
दूर भागोगे,
करोगे दीन क्रंदन,
पूर्व मरने के
हजार बार मरोगे।

क्‍यों कि जीना और मरना
एकता ही जानती है,
वह बिभाजन संतुलन का
भेद भी पहचानती है।

9. भिगाए जा, रे

भीग चुकी अब जब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे

आँखों में तस्‍वीर कि सारी
सूखी-सूखी साफ़, अदागी,
पड़नी थी दो छींट छटटकर
मैं तेरी छाया से भागी!
बचती तो कड़ हठ, कुंठा की
अभिमानी गठरी बन जाती;
भाग रहा था तन, मन कहता
जाता था, पिछुआए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!

सब रंगों का मेल कि मेरी
उजली-उजली सारी काली
और नहीं गुन ज्ञात कि जिससे
काली को कर दूँ उजियाली;
डर के घर में लापरवाही,
निर्भयता का मोल बड़ा है;
अब जो तेरे मन को भाए
तू वह रंग चढ़ाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!

कठिन कहाँ था गीला करना,
रँग देना इस बसन, बदन को,
मैं तो तब जानूँ रस-रंजित
कर दे जब को मेरे मन को,
तेरी पिचकारी में वह रंग,
वह गुलाल तेरी झोली में,
हो तो तू घर, आँगन, भीतर,
बाहर फाग मचाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!

मेरे हाथ नहीं पिचकारी
और न मेरे काँधे झोरी,
और न मुझमें हैबल, साहस,
तेरे साथ करूँ बरजोरी,
क्‍या तेरी गलियों में होली
एक तरफ़ी खेली जाती है?
आकर मेरी आलिंगन में
मेरे रँग रंगाए जा, रे?
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!

10. दिये की माँग

रक्‍त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।

बड़ा अचरज हुया
किन्‍तु विवेक बोला:
आज अचरज की जगह दुनिया नहरं है,
जो असंभव को और संभव को विभाजित कर रही थी
रेख अब वह मिट रही है।
आँख फाड़ों और देखो
नग्‍न-निमर्म सामने जो आज आया।
रक्‍त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।

वक्र भौंहें हुईं
किन्‍तु वि‍वेक बोला:
क्रोध ने कोई समस्‍या हल कभी की?
दीप चकताचूर होकर भूमि के ऊपर पड़ा है,
तेल मिट्टी सोख़ती है,
वर्तिका मुँह किए काला,
बोल तेरी आँख को यह चित्र भाया?
रक्‍त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।

मन बड़ा ही दुखी,
किन्‍तु विवेक चुप है।
भाग्‍य-चक्र में पड़ा कितना कि मिट्टी से दिया हो,
लाख आँसु के कणों का सत्‍त कण भर स्‍नेह विजेता,
वर्तिका में हृदय तंतु बटे गए थे,
प्राण ही जलता रहा है।
हाय, पावस की निशा में, दीप, तुमने क्‍या सुनाया?
रक्‍त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।

स्‍नेह सब कुछ दान,
मैंने क्‍या बचाया?
एक अंतर्दाह, चाहूँ तो कभी गल-पिघल पाऊँ।
क्‍या बदा था, अंत में मैं रक्‍त के आँसू बहाऊँ?
माँग पूरी कर चुका हूँ,
रिक्‍त दीपक भर चुका हूँ,
है मुझे संतोष मैंने आज यह ऋण भी चुकाया।
रक्‍त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।

11. दो बजनिए

"हमारी तो कभी शादी न हुई,
न कभी बारात सजी,
न कभी दूल्‍हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन में क्‍वाँरे ही रह गए।"

दूल्‍हन को साथ लिए लौटी बारात को
दूल्‍हे के घर पर लगाकर,
एक बार पूरे जोश, पूरे जोर-शोर से
बाजों को बजाकर,
आधी रात सोए हुए लोगों को जगाकर
बैंड बिदा हो गया।

अलग-अलग हो चले बजनिए,
मौन-थके बाजों को काँधे पर लादे हुए,
सूनी अँधेरी, अलसाई हुई राहों से।
ताज़ औ' सिरताज चले साथ-साथ-
दोनों की ढली उमर,
थोड़े-से पके बाल,
थोड़ी-सी झुकी कमर-
दोनों थे एकाकी,
डेरा था एक ही।

दोनों ने रँगे-चुँगी, चमकदार
वर्दी उतारकर खूँटी पर टाँग दी,
मैली-सी तहमत लगा ली,
बीड़ी सुलगा ली,
और चित लेट गए ढीली पड़ी खाटों पर।

लंबी-सी साँस ली सिरताज़ ने-
"हमारी तो कभी शादी न हुई,
न कभी बारात चढ़ी,
न कभी दूल्‍हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन में क्‍वाँरे ही रह गए।
दूसरों की खुशी में खुशियाँ मनाते रहे,
दूसरों की बारात में बस बाजा बजाते रहे!
हम तो इस जीवन में..."

ताज़ सुनता रहा,
फिर ज़रा खाँसकर
बैठ गया खाट पर,
और कहने लगा-
"दुनिया बड़ी ओछी है;
औरों को खुश देख
लोग कुढ़ा करते हैं,
मातम मनाते हैं, मरते हैं।
हमने तो औरों की खुशियों में
खुशियाँ मनाई है।
काहे का पछतावा?
कौन की बुराई है?
कौन की बुराई है?
लोग बड़े बेहाया हैं;
अपनी बारात का बाजा खुद बजाते हैं,
अपना गीत गाते हैं;
शत्रु है कि औरों के बारात का ही
बाजा हम बजा रहे,
दूल्‍हे मियाँ बनने से सदा शरमाते रहे;
मेहनत से कमाते रहे,
मेहनत का खाते रहे;
मालिक ने जो भी किया,
जो
भी दिया,
उसका गुन गाते रहे।"

12. खून के छापे

सुबह-सुबह उठकर क्‍या देखता हूँ
कि मेरे द्वार पर
खून-रँगे हाथों से कई छापे लगे हैं।

और मेरी पत्‍नी ने स्‍वप्‍न देखा है
कि एक नर-कंकाल आधी रात को
एक हाथ में खून की बाल्‍टी लिए आता है
और दूसरा हाथ उसमें डुबोकर
हमारे द्वार पर एक छापा लगाकर चला जाता है;
फिर एक दूसरा आता है,
फिर दूसरा, आता है,
फिर दूसरा, फिर दूसरा, फिर दूसरा... फिर...

यह बेगुनाह खून किनका है?
क्‍या उनका?
जो सदियों से सताए गए,
जगह-जगह से भगाए गए,
दुख सहने के इतने आदी हो गए
कि विद्रोह के सारे भाव ही खो गए,
और जब मौत के मुँह में जाने का हुक्‍म हुआ,
निर्विरोध, चुपचाप चले गए
और उसकी विषैली साँसों में घुटकर
सदा के लिए सो गए
उनके रक्‍त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।

यह बेज़बान ख़ून किनका है?
जिन्‍होंने आत्‍माहन् शासन के शिकंजे की
पकड़ से, जकड़ से छूटकर
उठने का, उभरने का प्रयत्‍न किया था
और उन्‍हें दबाकर, दलकर, कुचलकर
पीस डाला गया है।
उनके रक्‍त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।

यह जवान खून किनका है?
क्‍या उनका?
जो अपने माटी का गीत गाते,
अपनी आजादी का नारा लगाते,
हाथ उठाते, पाँव बढ़ाते आए थे
पर अब ऐसी चट्टान से टकराकर
अपना सिर फोड़ रहे हैं
जो न टलती है, न हिलती है, न पिघलती है।
उनके रक्‍त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।
यह मासुम खून किनका है?
जो अपने श्रम से धूप में, ताप में
धूलि में, धुएँ में सनकर, काले होकर
अपने सफेद-स्‍वामियों के लिए
साफ़ घर, साफ़ नगर, स्‍वच्‍छ पथ
उठाते रहे, बनाते रहे,
पर उनपर पाँव रखने, उनमें पैठने का
मूल्‍य अपने प्राणों से चुकाते रहे।
उनके रक्‍त के छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।

यह बेपनाह खून किनका है?
क्‍या उनका?
जो तवारीख की एक रेख से
अपने ही वतन में एक जलावतन हैं,
क्‍या उनका?
जो बहुमत के आवेश पर
सनक पर, पागलपन पर
अपराधी, दंड्य और वध्‍य
करार दिए जाते हैं,
निर्वास, निर्धन, निर्वसन,
निर्मम क़त्‍ल किए जाते हैं,
उनके रक्‍त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।

यह बेमालूम खून किनका है?
क्‍या उन सपनों का?
जो एक उगते हुए राष्‍ट्र की
पलको पर झूले थे, पुतलियों में पले थे,
पर लोभ ने, स्‍वार्थ ने, महत्‍त्‍वाकांक्षा ने
जिनकी आँखें फोड़ दी हैं,
जिनकी गर्दनें मरोड़ दी हैं।
उनके रक्‍त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।
लेकिल इस अमानवीय अत्‍याचार, अन्‍याय
अनुचित, अकरणीय, अकरुण का
दायित्‍व किसने लिया?
जिके भी द्वार पर यह छापे लगे उसने,
पानी से घुला दिया,
चूने से पुता दिया।

किन्‍तु कवि-द्वार पर
छापे ये लगे रहें,
जो अनीति, अत्ति की
कथा कहें, व्‍यथा कहें,
और शब्‍द-यज्ञ में मनुष्‍य के कलुष दहें।
और मेरी पत्‍नी ने स्‍वप्‍न देखा है
कि नर-कंकाल
कवि-कवि के द्वार पर
ऐसे ही छापे लगा रहे हैं,
ऐसे ही शब्‍द-ज्‍वाला जगा रहे हैं।

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