Bhakt Ramanand Ji
भक्त रामानन्द जी

भक्त रामानन्द जी (१३६६-१४६७) को स्वामी रामानन्द के नाम से भी जाना जाता है। उनके जन्म और जन्म-स्थान के में बारे विद्वानों की अलग-अलग राय है। कुछ उनको दक्षिणी भारत का जन्मा मानते हैं और कुछ उत्तरी भारत का। कुछ उनका जन्म काशी में हुआ मानते हैं, कुछ प्रयाग (अलाहाबाद) में। उन के पिता का नाम भूरि कर्मा या सदन शर्मा और माँ का नाम सुशीला माना जाता है। आप आचार्य 'रामानुज' जी द्वारा चलाई गई 'श्री संप्रदाय' के प्रसिद्ध प्रचारक स्वामी 'राघवानन्द' के शिष्य थे। आम धारना मुताबिक पहले वह सरगुण ब्रह्म के उपासक थे और बाद में निर्गुण की उपासना करने लगे।उन्होंने दक्षिणी भारत से शुरू हुई भक्ति लहर को उत्तरी भारत में फैलाया। वह ब्राह्मण परिवार में पैदा हो कर भी ब्राह्मणवादी सोच वाले नहीं थे।उन्होंने औरतों और पिछड़ी जातियों के लिए भी भक्ति के दरवाज़े खोल दिए। उन्होंने संस्कृत की जगह हिंदी सधुक्कड़ी भाषा के द्वारा अपना प्रचार किया। रामानंद जी ने वेदांत विचार, गीता भाष्य, श्री वैष्णव मताब्ज भास्कर, रामार्चनपद्धति, उपनिषद भाष्य, आनंद भाष्य, योग चिंतामणि जैसे ग्रंथों की रचना की। नागरी प्रचारिणीसभा ने रामानंद की हिंदी रचनाएं प्रकाशित की हैं, इसमें हनुमान आरती के साथ तमाम निर्गुण भाव के भक्ति पद हैं । गुरू ग्रंथ साहिब में भी आपका एक 'शब्द' बसंत राग में दर्ज है। आपके शिष्यों में मुख्य भक्त कबीर जी, भक्त रविदास जी, भक्त पीपा जी, भक्त सैन जी और भक्त धन्ना जी हैं।

भक्त रामानन्द जी की रचनाएँ

1. कत जाईऐ रे घर लागो रंगु-शब्द

रामानंद जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
कत जाईऐ रे घर लागो रंगु ॥
मेरा चितु न चलै मनु भइओ पंगु ॥१॥ रहाउ ॥
एक दिवस मन भई उमंग ॥
घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ॥
पूजन चाली ब्रहम ठाइ ॥
सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि ॥१॥
जहा जाईऐ तह जल पखान ॥
तू पूरि रहिओ है सभ समान ॥
बेद पुरान सभ देखे जोइ ॥
ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ॥२॥
सतिगुर मै बलिहारी तोर ॥
जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर ॥
रामानंद सुआमी रमत ब्रहम ॥
गुर का सबदु काटै कोटि करम ॥੩॥੧॥1195॥
(गुरू ग्रंथ साहिब)

(कत=और कहाँ? रे=हे भाई ! रंगु=आनन्द,
घर=हृदय-रूप घर में ही, न चलै=
भटकता नहीं है, पंगु=लंगड़ा, दिवस=दिन,
उमंग=इच्छा, घसि=घिस कर, चोआ=इत्र,
बहु=कई, सुगंध=सुगंधी, ब्रहम ठाइ=ठाकुर
द्वारे, जोइ=खोज कर, तह=वहां, जल
पखान=(तीर्थों पर) पानी, (मन्दिरों में)
पत्थर, समान=एक जैसा, ऊहां=तीर्थों
और मंदिरों की तरफ, तउ=तो ही, जउ=
अगर, ईहां=यहाँ हृदय में, बलिहारी
तोर=तुझपर सदके, जिनि=जिस ने,
बिकल=कठिन, भ्रम=शंका, मोर=मेरे,
रामानंद सुआमी=रामानन्द का प्रभु,
रमत=सब जगह मौजूद है, कोटि=
करोड़ों, करम=(किये हुए मंदे) काम)

2. ग्यांन लीला

मूरष तन धर कहा कमायौ ।
रांम भजन बिन जन्म गमायौ ॥
रांम भगति गत जांणी नाहीं ।
भन्दू भूलौ धंधा माहीं ॥१॥

मेरी मेरी करतो फिरियौ ।
हरि सुमिरण तो कबू न करियौ ॥
नारी सेती नेह लगायौ ।
कबहूं हिरदै रांम नहिं आयौ ॥२॥

सुष माया सूं षरो पियारो ।
कबहुं न सिवरयौ सिरजनहारो ॥
स्वारथ माहिं चहूं दिसि धायौ ।
गोबिन्द को गुंण कबहुं न गायौ ॥३॥

ऐसे ऐसे करत बुहारा ।
आये साहिब के हलकारा ॥
बंधे काल कीयौ चौरंगा ।
सुत बेटी नार कोइ नहि संगा ॥४॥

जो तुम करम कीया है भारी ।
सो अब संग सु चलै तुमारी ॥
जम आगै लै ठाढो कीनो ।
धरम राय बूझण कू लीनो ॥५॥

जिण पांणीं सू पैदा कीयौ ।
नर सौ रूप तोहि कूं दीयौ ॥६॥

जो तूं बिसरयौ मूरष अंधा ।
तो तूं आयौ जंम पै बंधा ॥७॥

हरि की कथा सुनी नहीं कानां ।
तो तू नांहीं जम सूं छांनां ॥
साध कै संगत मैं कछू न रहियौ ।
मुष सूं रांम कछु नहिं कहियौ ॥८॥

हरि की भगति करौ नर नारी ।
धरम राय यूं कहै बिचारी॥
मोकूं दोस न दीजै कोई।
जिसा करम भुगताऊँ सोई ॥९॥

पाप पुंन कूं न्यारा छांणूं ।
जो तुम करम करो सो जांणूं॥
तुमरा करम तुमै भुगताऊँ ।
आद पुरुस की आग्यां पाऊँ ॥१०॥

साहिब की अग्यां है मोकूं ।
महा कसौटी देहूं तोकूं ॥
घड़ी घड़ी का लेषा लेहूं ।
करमादिक तेरा भर देहूं ॥११॥

है हरि बिनां कूंण रषवारो ।
चित दे सिवरौ सिरजणहारो ॥
संकट मैं हरि बेह उबारी ।
निस दिन सिमरौ नांम मुरारी ॥१२॥

नांम निकेवल सबते न्यारा ।
रटत अघट घट होय उजारा ॥
रामानंद यूं कहै समुझाई ।
हरि सिमरयौ जम लोक न जाई ॥१३॥

3. पद

हरि बिन जन्म वृथा षोयो रे ।
कहा भयो अति मान बड़ाई, धन मद अंध मति सोयो रे ।
अति उतंग तरु देषि सुहायो; सैबल कुसुम सूवा सेयो रे ॥
सोई फल पुत्र कलत्र विषै सुष, अंति सीस धुनि धुनि रोयौ रे ।
सुमिरन भजन साध की संगति, अंतरि मन मैल न धोयौ रे ॥
रामानंद रतन जम त्रासैं श्रीपति पद काहे न जोयौ रे ॥१॥

4. आरती

आरति कीजै हनुमान लला की । दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥
जाके बल गरजै महि काँपे । रोग सोग जाके सिमाँ न चांपे ॥
अंजनी-सुत महाबल-दायक । साधु संत पर सदा सहायक ॥
बांएँ भुजा सब असुर सँघारी । दहिन भुजा सब संत उबारी॥
लछिमन धरनि में मूर्छि पय्यो। पैठि पताल जमकातर तोय्यौ ॥१॥
आनि सजीवन प्रान उबाय्यो । मही सबन कै भुजा उपाय्यो ॥
गाढ़ परे कपि सुमिरौ तोहीं । होहु दयाल देहु जस मोहीं ॥
लंका कोट समुन्दर खाई । जात पवन सुत बार न लाई॥
लंक प्रजारि असुर सब मारयौ । राजा रामजि के काज सँवारयौ ॥
घंटा ताल झालरी बाजै । जग मग जोति अवधपुर छाजै ॥
जो हनुमानजि की आरति गावै । बसि बैकुंठ परम पद पावै ॥
लंक विधंस कियो रघुराई। रामानन्द (स्वामी) आरती गाई ॥
सुर नर मुनि सब करही आरती। जै जै जै हनुमान लाल की ॥२॥

5. पद

तातैं ना कछू रे संसारा । मेरै रांम को नांव अधारा ॥टेक॥
गुड़ चींटा गुड़ षायी । गुड़ माहिं रही लपटायी ॥
गुड़ रती एक मीठा होई । पाछै दुष पावै सोई ॥
सुपनांतर राजा होइए। नांनां बिधि के सुष लहिए ॥
ऐसा सुष कों सुष होई । जाग्या थैं झूठा सोई ॥
मैं मेरी ग्यांन नसावै । तातैं आत्म समाधि न पावै ॥
रामानंद गुर गमि गावै । तातै भिन भिन समझावै ॥ ३ ॥

6. पद

सहजैं सहजैं सब गुन जाइला । भगवंत भगता एक थिर थाइला ॥
मुक्ति भईला जाप जपीला । यों सेवग स्वामी संग रहीला ॥
अमृत सुधानिधि अंत न पाइला । पीवत प्रान न कदे अघाइला ॥
रामानंद मिलि संग रहैला । जब लग रस तब लग पीवैला ॥४॥

7. पद

.......लांबी को अंग,
कहां जाइसे हो घरि लागो रंग । मेरो चित न चलै मन भयो अपंग ॥
जहाँ जाइये तहाँ जल पपांन । पूरि रहे हरि सब समांन ॥
वेद सुमृत सब मेले जोइ । उहाँ जाइए हरि इहाँ न होइ ॥
एक बार मन भयौ उमंग । घसि चोबा चंदन चरि अंग ॥
पूजन चाली ठांइ ठांइ । सो ब्रह्म बतायौ गुरु आप माइं ॥
सतगुर मैं बलिहारी तोर । सकल विकल भ्रम जारे मोर ॥
'रामानंद' रमैं एक ब्रह्म । गुर कै एक सबदि काटे कोटि क्रम्म ॥५॥

(उपरोक्त पद थोड़े अंतर के साथ गुरू ग्रंथ साहिब में
बसंत राग में दर्ज है)

8. पद

सहज सुन्न मैं चिति वसंत । अबहि असहि जिनि जाय अंत ॥
न तहाँ इंच्छया ओं अंकार । न तहाँ नाभि न नालि तार ॥
न तहां ब्रह्मा स्यौ बिसन । न तहां चौबीसू बप बरन ॥
न तहाँ दीसै माया मंड । 'रामानंद' स्वामी रमैं अषंड ॥६॥

9. योग चिंतामणि

ॐ अकट बिकट रे भाई । काया (गढ़) चढा न जाई ॥
पछिम (दि) शा की घाटी। फौज खड़ी है ठाढी ॥१॥

जहाँ नाद-बिंदु की हाथी । सतगुर ले चल साथी॥
सतगुर साह बिराजै। नौबत नाम की बाजै ॥२॥

जहाँ अष्ट दल कमल फूला । हंस सरोवर में भूला ॥
जहाँ राग रंग होय षासे । जहाँ है हंस के बासे ॥३॥

शब्द को सीखले शब्द को बूझले शब्द से शब्द पहिचान भाई ।
शब्द तो हृदय बसे शब्द तो नयनों बसे शब्द की महिमा चार वेद गाई ॥४॥

शब्द तो आकाश बसे शब्द तो पाताल बसे शब्द तो पिंड ब्रह्मांड छाई ।
आप में देख ले सकल में पेषले आप मध्ये विचार भाई ॥५॥

कह रामानंद सतगुर दया करि मिलिया सत्य का शब्द सुन भाई ॥
.................................................फकीरी अदल बादसाही ॥६॥

संतो बन्दगी दीदार । सहज उतरो सागर पार ॥
सोहं शब्दै सों कर प्रीत । अनुभव अषंड घर जीत ॥७॥

अब उलटा चढ़ना दूर । जहाँ नगर बसता है पूर ॥
तन कर फिकिर कर भाई । जिसमें राम रोसनाई ॥८॥

सुरत नगर का कर सयल । जिसमें आत्मा का महल ।
इंद्रिया सिंधु मूल मिलियां । जिस पर रषना बाँवा पांव ॥९॥

दाहिने को मध्य पर धरनां । आसन अमर घर करनां ॥
द्वादश पव (न) भर पीता । उलट घर शीश को चढ़नां ॥१०॥

दो नैना कर बांन । भौंह उलटा कस कवांन ॥
त्रिवेनी कर असनांन । तेरा मेट जाय आवा जांन ॥११॥

बाजा गैब का बाजे । बोली सिंधु में राजे ॥
.......................लगी है गैब के बाजा ॥१२॥

संतो बंदे सबदा पार । दोहे सरवर दोहे पहार ॥
जहाँ षरे कुदरथ को झार । लगी है नौ लष हार ॥१३॥

शंकला करण मूल । जडिया कटे तो देषना मत फूल ।
माया ब्रह्म की फांसी । परी है प्रेम की फांसी ॥१४॥

बाजन बिना तम तूर । सहजे ऊगे पच्छि (म) सूर ।
भवर है सुगंध का प्यासा । किया है कमल का वासा ॥१५॥

इंद्रिया आराम का दीन्हा जिसका चोलना है लाल ।
.........................उनमनी भरे जदद मसाल ॥१६॥

10. ग्यांन तिलक

ॐ आदि जुगादि पवन और पानी
ब्रह्मा विष्णु महादेव जानी ॥
पाँच तत्त का करो निसेफ ।
उलटि दिष्टि आपै मैं देख ॥१॥

आप तेज धरणी आकासा ।
सकल पसारा पौन की साथा॥
पौनै आव पौनै जाय ।
पौन नाद धुनि गरजत रहै।
सूरा होय सो खड की लहै ॥२॥

खड़की लागि पार गहिया ।
ररंकार का चरन गहिया ॥
जहाँ राति द्यौस नहिं सूर ।
तहां उजियारा है भरपूर ॥३॥

धरती धीरन का मन थीर ।
महा देव नहिं ब्रह्मा वीर ॥
ज्योति स्वरूप किरपा निधाना ।
तिहि न लोक मत वहि जाना ॥४॥

मारिग माहिं मँडि गया सूरा ।
ता कूँ सतगुर मिलि गया पूरा ॥
पहुँच पकड़ि एक घरि ल्याव ।
चीतक चौहट न्याव चुकाव ॥५॥

आतम माहिं जब भय अनंदा ।
मिटि गये तिमिर प्रगटे रघुचंदा ॥
बुधि का कोट सबल नहिं टूटै ।
ताकौं मनसा डा(इ)णि कस बिधि लूटै ॥६॥

आसा नदी निकट नहिं जाई ।
भरम सब दिये बहवाई ॥
चेतन के गृह पहरा जागै ।
ता कौं काल कहां कर लागै ॥७॥

ऐसा है कोई अदली अदल चलावै ।
नारी चोर मूस नहिं पावै ॥
कहँ कबीर सोई बड़ भागी।
जाकी सुरति निरंतर लागी ॥८॥

आदि अंत अनहद बानी ।
चौद ब्रह्माँड रह्या भर पानी ॥९॥

ते पानी का अंड उपाया ।
तीन लोक जन उपजाई माया ॥
अंड सेवत भय जुग चारि ।
तहाँ उपजे ब्रह्मा त्रिपुरारि ॥१०॥

नाभ कमल छलि ब्रह्मा भये।
जुग छतीसों भरमत गये ॥
आपै आप करत विचारा ।
को हम को सरजनहारा ॥११॥

जब ले अंता का अंत वहु।
विगहंत भई भारि ॥
जा दिन जीव जंत नहीं कोई।
ता दिन की दास कबीर ! कहिं विचारि ॥१२॥