फलों-सब्जियों खानपान पर कविताएं : नज़ीर अकबराबादी

Fruits Vegetables Poems : Nazeer Akbarabadi

1. संतरा

क्या क्या हर एक दरख़्त पे आया है संतरा।
फल ज़ोर ही मजे़ का कहाया है संतरा।
नारंगी और अनार कब अच्छे लगें उसे।
जिस रस भरी के दिल में समाया है संतरा।
छाती पे हाथ रखके कहा मैंने उससे जान।
मुद्दत में मेरे हाथ यह आया है संतरा।
गर तुम बुरा न मानो तो एक बात मैं कहूं।
यह तो किसी का तुमने चुराया है संतरा।
तुम तोड़ती थीं, आन पड़ा इसमें बागबां।
अंगिया में उसके डर से छुपाया है संतरा।
यह सुनके उसने हंस दिया और यूं कहा मुझे।
अब हमने इस तरह से यह पाया है संतरा।
एक बाग़ हुस्न का हैं जवानी है उसका नाम।
वां से हमारे हाथ यह आया है संतरा।
जोबन के बाग़वान ने, उठती बहार से।
ताज़ा अभी यह हमको भिजाया है संतरा।
कूल्हे ही लग रहा है हमारे तमाम उम्र।
जिसको कभी यह हमने दिखाया है संतरा।
जब तो नज़ीर मैं ने यह हंस कर कहा उसे।
मेवा खु़दा ने खू़ब बनाया है संतरा॥

2. नारंगी

अब तो हर बाग़ में आई है भली नारंगी।
है हर एक पेड़ की मिसरी की डली नारंगी।
हुस्न वालों के भी सीने की फली नारंगी।
देख कर उसकी वह अंगिया की पली नारंगी।
हमने तो आज यह जाना कि चली नारंगी॥

3. तरबूज़

क्यूँ न हो सब्ज़ जुमुर्रद के बराबर तरबूज़।
करता है खु़श्क कलेजे के तई तर तरबूज़।
दिल की गर्मी को निकाले है यह अक्सर तरबूज़।
जिस तरफ़ देखिए बेहतर से है बेहतर तरबूज़।
अब तो बाजार में बिकते हैं सरासर तरबूज़॥

कितने हैं खाते नज़ाकत से तराश ओस में घर।
ताकि सीना हो ख़ुनुक, सर्दी से ठंडा हो जिगर।
कितने शर्बत ही के पीते हैं कटोरे भर-भर।
कितने बीजों को खुटकते हैं खुशी हो-हो कर।
कितने खाते हैं किफ़ायत से मंगा कर तरबूज़॥

मीठे और सर्द हैं इतने कि ज़रा नाम लिए।
होंठ चिपके हैं जुदा, दांत हैं कड़कड़ बजते।
शब को दो चार मंगा कर जो तराशे मैंने।
क्या कहूं मैं कि मिठाई में वह कैसे निकले।
कोई ओला कोई मिश्री, कोई शक्कर तरबूज़?॥

मुझसे कल यार ने मंगवाया जो देकर पैसा।
उसमें टांकी जो लगाई, तो वह कच्चा निकला।
देख त्यौरी को चढ़ा, होके ग़ज़ब तैश में आ।
कुछ न बन आया तो फिर घूर के यह कहने लगा।
क्यूं बे लाया है उठाकर यह मेरा सर तरबूज़॥

जब कहा मैंने मियां यह तो नहीं है कच्चा।
और कच्चा है तो मैं पेट में पैठा तो न था।
इसके सुनते ही ग़जब होके वह लाल अंगारा।
लाठी पाठी जो न पाई तो फिर आखिर झुंझला।
खींच मारा मेरे सीने पे उठाकर तरबूज़॥

क्यूं मियां हमको जो तुम करते हो ककड़ी खीरा।
कोसना हर घड़ी हर आन का होता है बुरा।
तुमको तो पड़ गया मिलने का रक़ीबों से मज़ा।
झूठी क़स्में यह मेरे सर की जो खाते हो भला।
क्या मेरे सर को किया तुमने मुक़र्रर तरबूज़॥

प्यार से जब है वह तरबूज़ कभी मंगवाता।
छिलका उसका मुझे टोपी की तरह देवै पिन्हा।
और यह कहता है कि फेंका तो चखाऊंगा मज़ा।
क्या कहूं यारो में उस शोख़ के डर का मारा।
दो दो दिन रक्खे हुए फिरता हूं सर पर तरबूज़॥

एक बेदर्द सितमगर है वह काफ़िर खू़ंख्वार।
क़त्ल करता है अज़ीज़ों के तई लैलो निहार।
कल मेरा उसकी गली में जो हुआ आके गुज़ार।
इस तरह सरके शहीदों का पड़ा था अंबार।
जैसे बाज़ार में तरबूज़ के ऊपर तरबूज़॥

थी जिन्हें आगे तेरे कंद से होठों पे निगाह।
आरजू ही में वह सब मरके हुए ख़ाक स्याह।
उन शहीदों की भी कुछ तुझको ख़बर है वल्लाह।
बोसे लेने की तमन्ना में थे ख़ाक स्याह।
वही हसरत ज़दा अब निकले हैं बनकर तरबूज़॥

रात उस शोख़ से मैंने यह पहेली में कहा।
भीगी बकरी किसे कहते हैं बताओ तो भला।
इस पहेली के तई सुन के बड़े सोच में आ।
जब न समझा तो कहा, हार के अब तू ही बता।
हंस के जब मैंने कहा ऐ मेरे दिलबर तरबूज़॥

अब तो उस शोख़ का तरबूज़ ही लूटे है मज़ा।
वह तो ठण्डा है वले मेरा जिगर है जलता।
रोना किस तौर "नज़ीर" अब न मुझे आवे भला।
फांक बीजों की भरी, लेहै वह जब मुंह से लगा।
तब लिपट जाता है क्या प्यार से हंस कर तरबूज़॥

(तराश=काटकर, ख़ुनुक=ठण्डा, अज़ीज़ों=मित्रों,
लैलो निहार=दिन-रात)

4. ख़रबूजे़

अब तो बाज़ार के हैं जे़बफ़िज़ा ख़रबूजे़।
हैं जिधर देखो उधर जलवानुमा ख़रबूजे़।
क़न्दो मिश्री की हिलावत तो अयां है लेकिन।
कन्दो मिश्री के भी हैं होश रुबा ख़रबूजे़।
दिलकश इतने हैं कि बाज़ार में लेने तरबूज़।
गर कोई, जावे तो लाता है तुला ख़रबूजे़।
नाशपाती को लगाकर अगर अमरूदो अनार।
हों मुक़ाबिल तो उन्हें गिनते हैं क्या ख़रबूजे़।
सो बढ़ल लेके कठहल भी अगर आवे पक कर।
अपने एक क़ाश से दें उसको हटा ख़रबूज़े।
यार आया तो कहा हमने मंगा दे लड्डू।
हंस के उस शोख़ शकर लब ने कहा ख़रबूजे।
खिन्नियां फ़ालसे मंगवादें तो झुंझलाके कहा।
पूछते क्या हो, तुम्हें कह तो दिया ख़रबूज़े।
हमने देखा कि इधर रग़बतेख़ातिर है बहुत।
हुक्म करते ही दिये ढेर लगा ख़रबूज़े।
छू लिया सेब ज़कन को तो कहा वाह चह खु़श।
तुमने मंगवाए इसी वास्ते क्या ख़रबूज़े।
अब के शफ़तालुए लब से कोई लोगे बोसा।
अच्छी हुर्फ़त को लिये तुमने मंगा ख़रबूज़े।
शक्करें मेवे हों और सबको बहम पहुंचे बहुत।
सो "नज़ीर" ऐसे तो तरबूज़ हैं या ख़रबूज़े॥

(जे़बफ़िज़ा=सुशोभित, जलवानुमा=शोभायमान,
हिलावत=मिठास, क़ाश=फाँक, रग़बतेख़ातिर=
पसंद, ज़कन=ठुड्डी)

5. आगरे की ककड़ी

पहुंचे न इसको हरगिज काबुल दरे की ककड़ी।
ने पूरब और न पच्छिम, खू़बी भरे की ककड़ी।
ने चीन के परे की और ने बरे की ककड़ी।
दक्खिन की और न हरगिज, उससे परे की ककड़ी।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

क्या प्यारी-प्यारी मीठी और पतली पतलियां हैं।
गन्ने की पोरियां हैं, रेशम की तकलियां हैं।
फ़रहाद की निगाहें, शीरीं की हसलियां हैं।
मजनूं की सर्द आहें, लैला की उंगलियां हैं।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

कोई है ज़र्दी मायल, कोई हरी भरी है।
पुखराज मुनफ़अल है, पन्ने को थरथरी है।
टेढ़ी है सो तो चूड़ी वह हीर की हरी है।
सीधी है सो वह यारो, रांझा की बांसुरी है।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

मीठी है जिसको बर्फ़ी कहिए गुलाबी कहिए।
या हल्के़ देख उसको ताज़ी जलेबी कहिए।
तिल शकरियों की फांके, अब या इमरती कहिए।
सच पूछिये तो इसको दनदाने मिश्री कहिए।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

छूने में बर्गे गुल है, खाने में कुरकुरी है।
गर्मी के मारने को एक तीर की सरी है।
आंखों में सुख कलेजे, ठंडक हरी भरी है।
ककड़ी न कहिये इसको, ककड़ी नहीं परी है।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

बेल उसकी ऐसी नाजुक, जूं जुल्फ़ पेच खाई।
बीज ऐसे छोटे छोटे, ख़शख़ाश या कि राई।
देख उसी ऐसी नरमी बारीकी और गुलाई।
आती है याद हमको महबूब की कलाई।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

लेते हैं मोल इसको गुल की तरह से खिल के।
माशूक और आशिक़ खाते हैं दोनों मिलके।
आशिक़ तो हैं बुझाते शोलों को अपने दिल के।
माशूक़ हैं लगाते, माथे पै अपने छिलके।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

मशहूर जैसी हरजा, यां की जमालियां हैं।
वैसी ही ककड़ी ने भी धूमें यह डालियां हैं।
मीठी हैं सो तो गोया, शक्कर की थालियां हैं।
कड़वी हैं सो भी गोया, खू़बां की गालियां हैं।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

जो एक बार यारो, इस जा की खाये ककड़ी।
फिर जा कहीं की उसको हरगिज़ न भाए ककड़ी।
दिल तो "नज़ीर" ग़श है यानी मंगाए ककड़ी।
ककड़ी है या क़यामत, क्या कहिए हाय ककड़ी।
क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी।

(मुनफ़अल=लज्जित)

6. जलेबियां

ऐ बी! मुकरती क्यों हो वह खंदी तो जीती है।
है जिसके हाथ हमने भिजाई जलेबियां॥
मैं दो बरस से भेजता रहता हूँ रात दिन।
तुमने अभी से मेरी भुलाई जलेबियां॥
यह बात सुनके हंस दी और यह कहा मियां।
ऐसी ही हमने कितनी उड़ाई जलेबियां॥
हलवाई तो बनाते हैं मैदे की ऐ "नज़ीर"।
हमने यह एक सुखु़न की बनाई जलेबियां॥

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