हिन्दी कविताएं : कर्मजीत सिंह गठवाला

Hindi Poetry : Karamjit Singh Gathwala

1. बैसाखी

ज़ुल्म की बाढ़ में धर्म जब ज़ोरों से बहता था ।
उठे अब सूरमा कोई सभी को रो-रो कहता था ।
धर्म की बात जो करता भय मन में रहता था ।

बुद्ध-भूमि से कोई आया पंजाब जिसकी थी समर-भूमि ।
ज़ुल्म के रोकने को उसने अपनी तलवार थी चूमी ।
बन गए सिंह सयारों से जिधर भी निगाह थी घूमी ।

बाग़ तो बहुत दुनिया में परंतु एक बाग़ अमृतसर में ।
पूजा-वेदि बनी हुई जिसकी हिन्द के हर एक घर में ।
लोग जहां आज़ादी मांगने पहुंचे तो दी मौत डायर ने ।

तेरी पद-चाप सुनकर कृषक में उमंग जगती है ।
स्वप्न वह मन में बुनता जो तू उनमें रंग भरती है ।
सुनहरी रंग में डूबी धरा सब हंसती सी लगती है ।

हम ये चाहते हैं तू आए सदा ढोल औ’ नगाड़ों से ।
दुश्मनों के दिल कांपें हमारे सिंहों की दहाड़ों से ।
ज़रूरत जब पड़े इसकी नहर खोद लाएं पहाड़ों से ।

2. झुकी गर्दन

कई दिन से सोच रहा हूं,
उस दिन की बात;
वहम है या सत्य ?

मुझे मान्यवर कवि के
जन्म-दिन पर रखे
समागम का बुलावा आया ।
मैं बड़े चाव से वहां गया ।
वहां कवि की बड़ी सुन्दर
पर निर्जीव प्रतिमा
हंस रही थी ।
मुझे माला दी गई और
मैं उसे लेकर उस के पास पहुंचा;
मैंने यूं ही माला उपर उठाई,
वह बोली,
'क्या आपने कभी भी
मेरी कोई कविता या
और रचना पूरी पढ़ी है ?'
मैंने हां में सिर हिलाया ।
वह हंसी फिर बोली,
'क्या आपने कभी ये सोचा
कि उसमें क्या लिखा है ?'
मैंने फिर हां में सिर हिलाया
प्रतिमा फिर मुस्कुराई,
'क्या आपने कभी उसमें से
किसी विचार को अपनाया है ?'
मैंने सिर नहीं हिलाया
बस उसे नीचा कर लिया ।

पीछे से आवाज आई
'सोच क्या रहे हैं ?
माला गले में डाल दीजिये,
जलदी कीजीए,
प्रतिमा को नहीं;
हमें बहुत ठंड लग रही है।'

मैंने कुछ नहीं सोचा
माला गले में डाल दी
और झुकी गर्दन लिये
वापिस आ गया ।
जो अभी तक झुकी है।

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