विविध रचनाएँ : दुष्यन्त कुमार (हिन्दी कविता)
Misc Poetry : Dushyant Kumar
1. होली की ठिठोली-ग़ज़ल (1)
दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर ।
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर ।
अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया,
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर ।
कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका,
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर ।
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे,
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर ।
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,
शी! होंठ सिल के बैठ गए, लीजिए हुजूर ।
2. होली की ठिठोली-ग़ज़ल (2)
धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार
(धर्मवीर भारती का उत्तर बक़लम दुष्यंत कुमार)
जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर ।
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर ।
ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है,
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर ।
भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई,
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर ।
पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन,
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर ।
शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम,
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर ।
(उपरोक्त दोनों ही ग़ज़लें 1975 में ’धर्मयुग’
के होली-अंक में प्रकाशित हुई थीं।)
3. ग़ज़ल-याद आता है कि मैं हूँ शंकरन या मंकरन
याद आता है कि मैं हूँ शंकरन या मंकरन
आप रुकिेए फ़ाइलों में देख आता हूँ मैं
हैं ये चिंतामन अगर तो हैं ये नामों में भ्रमित
इनको दारु की ज़रूरत है ये बतलाता हूँ मैं
मार खाने की तबियत हो तो भट्टाचार्य की
गुलगुली चेहरा उधारी मांग कर लाता हूँ मैं
इनका चेहरा है कि हुक्का है कि है गोबर-गणेश
किस कदर संजीदगी यह सबको समझाता हूँ मैं
उस नई कविता पे मरती ही नहीं हैं लड़कियाँ
इसलिये इस अखाड़े में नित गज़ल गाता हूँ मैं
कौन कहता है निगम को और शिव को आदमी
ये बड़े शैतान मच्छर हैं ये समझाता हूँ मैं
ये सुमन उज्जैन का है इसमें खुशबू तक नहीं
दिल फ़िदा है इसकी बदबू पर कसम खाता हूँ मैं
इससे ज्यादा फ़ितरती इससे हरामी आदमी
हो न हो दुनिया में पर उज्जैन में पाता हूँ मैं
पूछते हैं आप मुझसे उसका हुलिया, उसका हाल
भगवती शर्मा को करके फ़ोन बुलवाता हूँ मैं
वो अवंतीलाल अब धरती पे चलता ही नहीं
एक गुटवारे-सी उसकी शख़्सियत पाता हूँ मैं
सबसे ज़्यादा कीमती चमचा हूँ मैं सरकार का
नाम है मेरा बसंती, राव कहलाता हूँ मैं
प्यार से चाहे शरद की मार लो हर एक गोट
वैसे वो शतरंज का माहिर है, बतलाता हूँ मैं
(उपरोक्त ग़ज़ल टेपा सम्मेलन के लिए लिखी गई)
4. फिर कर लेने दो प्यार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये
अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं
तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये
इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी
खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये