बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी हिंदी में
Poetry in Hindi Bahadur Shah Zafar

  • 1. आगे पहुंचाते दहां तक ख़तो-पैग़ाम को दोस्त

    आगे पहुंचाते दहां तक ख़तो-पैग़ाम को दोस्त
    अब तो दुनिया में रहा कोई नहीं नाम को दोस्त

    दोस्त इकरंग कहां, जबकि ज़माना है दो रंग
    कि वही सुबह को दुश्मन है, जो शाम को दोस्त

    मेरे नज़दीक है वल्लाह, वो दुश्मन अपना
    जानता जो कि है, इस काफ़िरे-ख़ुदकाम को दोस्त

    दोस्ती मुझसे जो ऐ दुश्मने-आराम हुई
    न मैं राहत को समझता हूं, न आराम को दोस्त

    चाहता वो है बशर जिससे बढ़े इज़तो-कदर
    पहले मौकूफ़ कर तू अपनी तमा-ख़ाम को दोस्त

    ऐ 'ज़फ़र', दोस्त हैं, आग़ाज़े-मुलाकात में सब
    दोस्त पर वो ही है जो शख्श हो, अंजाम को दोस्त

    (दहां=मुँह, वल्लाह=हे ईश्वर, काफ़िरे-ख़ुदकाम=मतलबी,
    बशर=आदमी, रद्द=ख़त्म, तमा-ख़ाम=झूठा लालच)

    2. आशना है तो आशना समझे

    आशना है तो आशना समझे
    हो जो नाआशना, तो क्या समझे

    हम इसी को भला समझते हैं
    आपको जो कोई बुरा समझे

    वसल है, तू जो समझे, उसे वसल
    तू जुदा है, अगर जुदा समझे

    जो ज़हर देवे अपने हाथ से तू
    तेरा बीमारे-ग़म दवा समझे

    हो वो बेगाना एक आलम से
    जिसको अपना वो दिलरुबा समझे

    ऐ ! "ज़फर" वो कभी ना हो गुमराह
    जो मुहब्बत को रहनुमा समझे
    (आशना=दोस्त, वसल=मिलाप)

    3. बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी

    बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
    जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

    ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
    बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

    चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
    जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी

    उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
    कि तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी

    अक्स-ए-रुख़-ए-यार ने किस से है तुझे चमकाया
    ताब तुझ में माह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी

    क्या सबब तू जो बिगड़ता है "ज़फ़र" से हर बार
    ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी

    (ताब=चमक, माह-ए-कामिल=पुर्णिमा का चाँद,
    ख़ू=आदत)

    4. बीच में पर्दा दुई का था जो हायल उठ गया

    बीच में पर्दा दुई का था जो हायल उठ गया
    ऐसा कुछ देखा कि दुनिया से मेरा दिल उठ गया

    शमा ने रो-रो के काटी रात सूली पर तमाम
    शब को जो महफ़िल से तेरी ऐ ज़ेब-ए-महफ़िल उठ गया
    मेरी आँखों में समाया उस का ऐसा नूर-ए-हक़
    शौक़-ए-नज़्ज़ारा ऐ बद्र-ए-कामिल उठ गया

    ऐ 'ज़फ़र' क्या पूछता है बेगुनाह-ओ-बर-गुनह
    उठ गया अब जिधर को दस्ते क़ातिल उठ गया

    5. हमने दुनिया में आके क्या देखा

    हमने दुनिया में आके क्या देखा
    देखा जो कुछ सो ख़्वाब-सा देखा

    है तो इन्सान ख़ाक का पुतला
    लेकिन पानी का बुल-बुला देखा

    ख़ूब देखा जहाँ के ख़ूबाँ को
    एक तुझ सा न दूसरा देखा

    एक दम पर हवा न बाँध हबाब
    दम को दम भर में याँ हवा देखा

    न हुये तेरी ख़ाक-ए-पा हम ने
    ख़ाक में आप को मिला देखा
    अब न दीजे "ज़फ़र" किसी को दिल
    कि जिसे देखा बेवफ़ा देखा

    (हबाब=बुलबुला)

    6. हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़

    हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़
    बुतकदे के बुतो ख़ुदा हाफ़िज़

    कर चुके तुम नसीहतें हम को
    जाओ बस नासेहो ख़ुदा हाफ़िज़

    आज कुछ और तरह पर उन की
    सुनते हैं गुफ़्तगू ख़ुदा हाफ़िज़

    बर यही है हमेशा ज़ख़्म पे ज़ख़्म
    दिल का चाराग़रो ख़ुदा हाफ़िज़

    आज है कुछ ज़ियादा बेताबी
    दिल-ए-बेताब को ख़ुदा हाफ़िज़

    क्यों हिफ़ाज़त हम और की ढूँढें
    हर नफ़स जब कि है ख़ुदा हाफ़िज़

    चाहे रुख़्सत हो राह-ए-इश्क़ में अक़्ल
    ऐ "ज़फ़र" जाने दो ख़ुदा हाफ़िज़

    (चाराग़र=इलाज करने वाला)

    7. जा कहियो उन से नसीम-ए-सहर मेरा चैन गया मेरी नींद गई

    जा कहियो उन से नसीम-ए-सहर मेरा चैन गया मेरी नींद गई
    तुम्हें मेरी न मुझ को तुम्हारी ख़बर मेरा चैन गया मेरी नींद गई

    न हरम में तुम्हारे यार पता न सुराग़ दैर में है मिलता
    कहाँ जा के देखूँ मैं जाऊँ किधर मेरा चैन गया मेरी नींद गई

    ऐ बादशाह्-ए-ख़ूबाँ-ए-जहाँ तेरी मोहिनी सुरत पे क़ुर्बाँ
    की मैं ने जो तेरी जबीं पे नज़र मेरा चैन गया मेरी नींद गई

    हुई बाद-ए-बहारी चमन में अयाँ गुल बूटी में बाक़ी रही न फ़िज़ा
    मेरी शाख़-ए-उम्मीद न लाई समर मेरा चैन गया मेरी नींद गई

    ऐ बर्क़-ए-तजल्लि बहर-ए-ख़ुदा न जला मुझे हिज्र में शम्मा सा
    मेरी ज़ीस्त है मिस्ल-ए-चिराग़-ए-सहर मेरा चैन गया मेरी नींद गई

    कहता है यही रो-रो के "ज़फ़र" मेरी आह-ए-रसा का हुआ न असर
    तेरे हिज्र में मौत न आई अभी मेरा चैन गया मेरी नींद गई
    यही कहना था शेरों को आज "ज़फ़र" मेरी आह-ए-रसा में हुआ न असर
    तेरे हिज्र में मौत न आई मगर मेरा चैन गया मेरी नींद गई

    (नसीम-ए-सहर=सुबह की हवा, बाद-ए-बहारी=बसंत की हवा,
    अयाँ=ज़ाहिर, समर=फल, बर्क़-ए-तजल्लि=सुन्दरता का प्रकाश,
    बहर-ए-ख़ुदा=ख़ुदा के लिये, ज़ीस्त=ज़िंदगी)

    8. जो तमाशा देखने, दुनिया में थे, आए हुए

    जो तमाशा देखने, दुनिया में थे, आए हुए
    कुछ न देखा, फिर चले, आख़िर वो पछताए हुए

    फ़रशे-मख़मल पर भी मुशकिल से जिन्हें आता था ख़्वाब
    ख़ाक पर सोते हैं अब वो, पांव फैलाए हुए

    जो मुहय्या-ए-फ़ना-हसती में है मिसले-अहबाब
    होते हैं अव्वल से ही पैदा वो कफ़नाए हुए

    गुंचे कहते हैं कि होगा देखिए क्या अपना रंग
    जब चमन में देखते हैं फूल कुमलाए हुए

    ग़ाफ़िलो !इस अपनी हसती पर कि है नक्शे-ब-आब
    मौज की मानिन्द क्यों फिरते हो बलखाए हुए

    बे-कदम नक्शे-कदम पे बैठ सकता है कि हम
    आप से बैठे नहीं, बैठे हैं बिठलाए हुए

    ऐ 'ज़फ़र', बे-ऐबो-रहमत उसके क्योंकर बुझ सकें
    नफ़से-सरकश के जो ये शोले हैं भड़काए हुए

    (मुहय्या-ऐ-फना-हस्ती=मिटने वाली दुनिया, अहबाब =दोस्त,
    नक्शे-ब-आब=पानी और चित्रकारी, मौज की मानिन्द=लहर की तरह,
    नफ़से-सरकश=बुरा साँस)

    9. कहीं मैं गुंचा हूं, वाशुद से अपने ख़ुद परीशां हूं

    कहीं मैं गुंचा हूं, वाशुद से अपने ख़ुद परीशां हूं
    कहीं गौहर हूं, अपनी मौज़ में मैं आप ग़लतां हूं

    कहीं मैं साग़रे-गुल हूं, कहीं मैं शीशा-ए-मुल हूं
    कहीं मैं शोरे-कुलकुल हूं, कहीं मैं शोरे-मसतां हूं

    कहीं मैं जोशे-वहश्त हूं, कहीं मैं महवे-हैरत हूं
    कहीं मैं आबे-रहमत हूं, कहीं मैं दाग़े-असीयां हूं

    कहीं मैं बर्के-ख़िरमन हूं, कहीं मैं अब्रे-गुलशन हूं
    कहीं मैं अशके-दामन हूं, कहीं मैं चशमे-गिरीयां हूं

    कहीं मैं अक्ले-आरा हूं, कहीं मजनूने-रुसवां हूं
    कहीं मैं पीरे-दाना हूं, कहीं मैं तिफ़ले-नादां हूं

    कहीं मैं दस्ते-कातिल हूं, कहीं मैं हलके-बिस्मिल हूं
    कहीं मैं ज़हरे-हलाहल हूं, कहीं मैं आबे-हैवां हूं

    कहीं मैं सवरे-मौज़ूं हूं, कहीं मैं बैदे-मजनूं हूं
    कहीं गुल हूं 'ज़फ़र' मैं, और कहीं ख़ारे-बियाबां हूं

    (वाशुद =खेड़ा, ग़लतां=व्यस्त, शीशा-ए-मुल=जाम, आबे-रहमत=मेहर की वर्षा,
    दाग़े-असीयां=पाप का दाग़, बर्के-ख़िरमन=खेत में गिरने वाली बिजली,
    चश्मे-गिरीयां=रोती आँखें, अक्ले-आरा=बुद्धिमान, मजनूने-रुसवा=बदनाम पागल,
    तिफ़ले-नादां=नासमझ बच्चा, आबे-हैवां=अमृत, बैदे-मजनूं=बटेर का पौधा)

    10. कीजे न दस में बैठ कर आपस की बातचीत

    कीजे न दस में बैठ कर आपस की बातचीत
    पहुँचेगी दस हज़ार जगह दस की बातचीत

    कब तक रहें ख़मोश कि ज़ाहिर से आप की
    हम ने बहुत सुनी कस-ओ-नाकस की बातचीत

    मुद्दत के बाद हज़रत-ए-नासेह करम किया
    फ़र्माइये मिज़ाज-ए-मुक़द्दस की बातचीत

    पर तर्क-ए-इश्क़ के लिये इज़हार कुछ न हो
    मैं क्या करूँ नहीं ये मेरे बस की बातचीत

    क्या याद आ गया है "ज़फ़र" पंजा-ए-निगार
    कुछ हो रही है बन्द-ओ-मुख़म्मस की बातचीत

    (नासेह=उपदेशक, मुक़द्दस=पवित्र)

    11. लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में

    लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
    किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

    बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
    किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में

    कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
    इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

    इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
    कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में

    उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
    दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
    दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
    फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में
    कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
    दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
    (दयार=बाग़,दुनिया, आलम-ए-नापायेदार=नाशवान दुनिया, बाग़बां=माली,
    सैय्याद=शिकारी, फ़स्ले-बहार=बसंत ॠतु, शादमां=परेशान, दिले-लालाज़ार=
    लाली बाँटता दिल,, दराज़=लम्बी, कुंजे-मज़ार=कब्र का कोना, कू=गली)

    12. नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें

    नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें कि क़रार-ओ-शकेब ज़रा न रहा
    ग़म-ए-इश्क़ तो अपना रफ़ीक़ रहा कोई और बला से रहा न रहा

    दिया अपनी ख़ुदी को जो हम ने उठा वो जो पर्दा सा बीच में था न रहा
    रहे पर्दे में अब न वो पर्दा-नशीं कोई दूसरा उस के सिवा न रहा

    न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब-ओ-हुनर
    पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा
    तेरे रुख़ के ख़याल में कौन से दिन उठे मुझ पे न फ़ितना-ए-रोज़-ए-जज़ा
    तेरी ज़ुल्फ़ के ध्यान में कौन सी शब मेरे सर पे हुजूम-ए-बला न रहा

    हमें साग़र-ए-बादा के देने में अब करे देर जो साक़ी तो हाए ग़ज़ब
    कि ये अहद-ए-नशात ये दौर-ए-तरब न रहेगा जहाँ में सदा न रहा

    कई रोज़ में आज वो मेहर-ए-लिक़ा हुआ मेरे जो सामने जलवा-नुमा
    मुझे सब्र-ओ-क़रार ज़रा न रहा उसे पास-ए-हिजाब-ओ-हया न रहा

    तेरे ख़ंजर-ओ-तेग़ की आब-ए-रवाँ हुई जब के सबील-ए-सितम-ज़दगाँ
    गए कितने ही क़ाफ़िले ख़ुश्क-ज़बाँ कोई तिश्ना-ए-आब-ए-बक़ा न रहा

    मुझे साफ़ बताए निगार अगर तो ये पूछूँ मैं रो रो के ख़ून-ए-जिगर
    मले पाँव से किस के हैं दीदा-ए-तर कफ़-ए-पा पे जो रंग-ए-हिना न रहा

    उसे चाहा था मैंने के रोक रखूँ मेरी जान भी जाए तो जाने न दूँ
    किए लाख फ़रेब करोड़ फ़ुसूँ न रहा न रहा न रहा न रहा

    लगे यूँ तो हज़ारों ही तीर-ए-सितम के तड़पते रहे पड़े ख़ाक पे हम
    वले नाज़ ओ करिश्मा की तेग़-ए-दो-दम लगी ऐसी के तस्मा लगा न रहा

    'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
    जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा

    13. नहीं जाता किसी से वो मरज़, जो है नसीबों का

    नहीं जाता किसी से वो मरज़, जो है नसीबों का
    न कायल हूं दवा का मैं, न कायल हूं तबीबों का

    न शिकवा दुश्मनों का है, न है शिकवा हबीबों का
    शिकायत है तो किसमत की, गिला है तो नसीबों का

    हम अपने कुंजे-ग़म में नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं
    हमें क्या, गर चमन में चहचहा है, अन्दलीबों का

    जो ज़ाहर पास हों दिन-रात और वो दूर हों दिल से
    बईदों से ज़्यादा हाल समझो उन करीबों का

    नहीं कालीनों-नमगीरा से मतलब, ख़ाकसारी को
    ज़मीनो-आसमां है फ़रशो-ख़ेमा, इन ग़रीबों का

    किया है बेअदब ख़ालिक ने पैदा, ऐ 'ज़फ़र' जिनको
    करे क्या फ़ायदा उनको, अदब देना अदीबों का

    (हकीम=डाक्टर, हबीब=दोस्त, अन्दलीब=बुलबुल,
    बईद=दूर वाले, अदीब=साहित्यकार)

    14. न किसी की आँख का नूर हूँ

    न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
    जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्‍त-ए-गुब़ार हूँ

    मैं नहीं हूँ नग़मा-ए-जाँ-फ़िज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
    मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखों की पुकार हूँ

    मेरा रंग रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझ से बिछड़ गया
    जो चमन ख़िज़ाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

    पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
    कोई आ के शम्मा जलाए क्यूँ मैं वो बे-कसी का मज़ार हूँ

    न मैं ‘ज़फ़र’ उन का हबीब हूँ न मैं ‘ज़फ़र’ उन का रक़ीब हूँ
    जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वा दयार हूँ

    (मुश्‍त-ए-गुब़ार=मुट्ठी भर मिट्टी, ख़िज़ाँ=पतझड़, हबीब=दोस्त, रक़ीब=दुश्मन,
    पए फ़ातिहा=मरने पर दुख के शब्द पढ़ने के लिए, नग़मा-ए-जाँ-फ़िज़ा=
    मनमोहक गीत, बिरोग=दुख)

    15. न रही ताब-ओ-न तवां बाकी

    न रही ताब-ओ-न तवां बाकी
    है फ़्कत, तन में एक जां बाकी

    शमा-सा दिल तो जल बुझा लेकिन
    है अभी दिल में कुछ धुआं बाकी

    है कहां कोहकन, कहां मजनूं
    रह गया नामे-आशिकां बाकी

    ख़ाके-दिल-रफ़तगां पे रखना कदम
    है अभी सोज़िशे-नेहां बाकी

    कारख़ाने-हयात से तबे-ज़ार
    है मगर गरदे-कारवां बाकी

    दम-ए-उल्फ़त है ज़िन्दगी मेरी
    वरना है मुझ में वो वहां बाकी

    (ताब=हिम्मत, तवां=ताकत, फ़क्त=केवल, ख़ाके-दिल-रफ़तगां=मरे हुए की मिट्टी,
    सोज़िशे-नेहां=छिपी जलन)

    16. नसीब अच्छे अगर बुलबुल के होते

    नसीब अच्छे अगर बुलबुल के होते
    तो क्या पहलू में कांटे, गुल के होते

    जो हम लिखते तुम्हारा वसफ़े-गेसू
    तो मुसतर तार के, सम्बुल के होते

    जो होता ज़रफ़ साकी हमको मालूम
    तो मिनतकश न जामे-मुल के होते

    जताते मसत गर नाज़ुक-दिमाग़ी
    तो बरहम शोर से कुलकुल के होते

    लगाते शमा-सी गर लौ न तुझसे
    तो यूं आख़िर न हम धुल-धुल के होते

    न होते हज़रते-दिल पा-ब-जंज़ीर
    जो सौदायी न उस काकुल के होते

    (वसफ़े-गेसू=बालों की तारीफ़,
    सम्बुल=घास जैसा, ज़रफ़=योग्यता, बरहम=गुस्सा)

    17. न तो कुछ कुफ़र है, न दीं कुछ है

    न तो कुछ कुफ़र है, न दीं कुछ है
    है अगर कुछ, तेरा यकीं कुछ है

    है मुहब्बत जो हमनशीं कुछ है
    और इसके सिवा नहीं कुछ है

    दैरो-काबा में ढूंडता है क्या
    देख दिल में कि बस यहीं कुछ है

    नहीं पसतो-बुलन्द यकसां देख
    कि फ़लक कुछ है और ज़मीं कुछ है

    सर-फ़रो है जो बाग़ में नरगिस
    तेरी आंखों में शरमगीं कुछ है

    बर्क कांपे न क्यों कि तुझ में अभी
    ताब-ए-आहे-आतिशीं कुछ है

    राहे-दुनिया है, अजब रंगारंग
    कि कहीं कुछ है और कहीं कुछ है

    (दैरो -काबा=मंदिर-मस्जिद, पश्तो-बुलंद=ऊंचा-नीचा,
    एक सा=बराबर, फ़रो=झुका हुआ, बर्क=बिजली)

    18. रविश-ए-गुल है कहां यार हंसाने वाले

    रविश-ए-गुल है कहां यार हंसाने वाले
    हमको शबनम की तरह सब है रुलाने वाले

    सोजिशे-दिल का नहीं अश्क बुझाने वाले
    बल्कि हैं और भी यह आग लगाने वाले

    मुंह पे सब जर्दी-ए-रुखसार कहे देती है
    क्या करें राज मुहब्बत के छिपाने वाले

    देखिए दाग जिगर पर हों हमारे कितने
    वह तो इक गुल हैं नया रोज खिलाने वाले

    दिल को करते है बुतां, थोड़े से मतलब पे खराब
    ईंट के वास्ते, मस्जिद हैं ये ढाने वाले

    नाले हर शब को जगाते हैं ये हमसायों को
    बख्त-ख्वाबीदा को हों काश, जगाने वाले

    खत मेरा पढ़ के जो करता है वो पुर्जे-पुर्जे
    ऐ ‘ज़फ़र’, कुछ तो पढ़ाते हैं पढ़ाने वाले

    (रविश-ए-गुल=फूल की भांति, जर्दी-ए-रूखसार=
    गालों का पीलापन, राज=भेद, बख्त-ख्वाबीदा=
    सोया हुआ भाग्य, नाले=आहें,)

    19. तेरे जिस दिन से ख़ाक-पा हैं हम

    तेरे जिस दिन से ख़ाक-पा हैं हम
    ख़ाक हैं एक कीमिया हैं हम

    हम-दमो मिसले-सूरते-तस्‍वीर
    क्‍या कहें तुमसे, बेसदा हैं हम

    हम हैं जूँ ज़ुल्‍फ़े-आरिज़े-ख़ूबाँ
    गो परेशाँ है खुशनुमा हैं हम

    जिस तरफ़ चाहे हम को ले जाए
    जानते दिल को रहनुमा हैं हम

    जो कि मुँह पर है, वो ही दिल में है
    मिसले-आईना बा-सफ़ा हैं हम

    तू जो नाआशना हुया हमसे
    ये गुनाह है कि आशना हैं हम

    ऐ ‘ज़फ़र’ पूछता है हमको सनम
    क्‍या कहें बन्‍दा-ए-खुदा हैं हम

    (बेसदा=बिना आवाज़, नाआशना=
    अनजान)

    20. थे कल जो अपने घर में वो महमाँ कहाँ हैं

    थे कल जो अपने घर में वो महमाँ कहाँ हैं
    जो खो गये हैं या रब वो औसाँ कहाँ हैं
    आँखों में रोते-रोते नम भी नहीं अब तो
    थे मौजज़न जो पहले वो तूफ़ाँ कहाँ हैं

    कुछ और ढब अब तो हमें लोग देखते हैं
    पहले जो ऐ "ज़फ़र" थे वो इन्साँ कहाँ हैं

    21. या मुझे अफसरे-शाहाना बनाया होता

    या मुझे अफसरे-शाहाना बनाया होता
    या मुझे ताज-गदायाना बनाया होता

    खाकसारी के लिए गरचे बनाया था मुझे
    काश, खाके-दरे-जनाना बनाया होता

    नशा-ए-इश्क का गर जर्फ दिया था मुझको
    उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता

    दिले-सदचाक बनाया तो बला से लेकिन
    जुल्फे-मुश्कीं का तेरे शाना बनाया होता

    था जलाना ही अगर दूरी-ए-साकी से मुझे
    तो चरागे-दरे-मयखाना बनाया होता

    क्यों खिरदमन्द बनाया, न बनाया होता
    आपने खुद का ही दीवाना बनाया होता

    रोज़ मामूर-ए-दुनिया में खराबी है ‘ज़फ़र’
    ऐसी बस्ती को तो वीराना बनाया होता

    (ताज-गदायाना=सन्तों जैसा, जर्फ=शौक, दिल-सदचाक=
    सौ जगह से कटा फटा दिल, शाना=कन्धा,
    खिरदमन्द=बुद्धिमान)