शामे-श्हरे-यारां : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Shaam-e-Shehar-e-Yaran in Hindi : Faiz Ahmed Faiz

1. "आपकी याद आती रही रात-भर"
मख़दूम की याद में-1

"आपकी याद आती रही रात-भर"
चाँदनी दिल दुखाती रही रात-भर

गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात-भर

कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात-भर

फिर सबा सायः-ए-शाख़े-गुल के तले
कोई क़िस्सा सुनाती रही रात-भर

जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात-भर

एक उमीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात-भर

मास्को, सितंबर, 1978


(मख़दूम=उर्दू के मशहूर कवि, जिन्होंने
तेलंगाना आंदोलन में हिस्सा लिया था।
उनकी ग़ज़ल से प्रेरित होकर ही ’फ़ैज़’
ने यह ग़ज़ल लिखी है, पैरहन=वस्त्र, सबा=
ठंडी हवा, ज़ंजीरे-दर=दरवाज़े कि साँकल)

2. अब के बरस दस्तूरे-सितम में

अबके बरस दस्तूरे-सितम में क्या-क्या बाब ईज़ाद हुए
जो कातिल थे मकतूल बने, जो सैद थे अब सय्याद हुए

पहले भी ख़िजां में बाग़ उजड़े पर यूं नहीं जैसे अब के बरस
सारे बूटे पत्ता-पत्ता रविश-रविश बरबाद हुए

पहले भी तवाफ़े-शमए-वफ़ा थी, रसम मुहब्बतवालों की
हम-तुम से पहले भी यहां मंसूर हुए, फ़रहाद हुए

इक गुल के मुरझा जाने पर क्या गुलशन में कुहराम मचा
इक चेहरा कुम्हला जाने से कितने दिल नाशाद हुए

'फ़ैज़' न हम यूसुफ़ न कोई याकूब जो हमको याद करे
अपना क्या, कनआं में रहे या मिसर में जा आबाद हुए

{ग़नी, रोज़े-सियाहे-पीरे-कनआंरा तमाशाकुन
कि नूरे-दीदा-अश रौशन कुनद चशमे-जुलेख़ा-रा}


(ईज़ाद=खोज, मकतूल=मरने वाला, सैद=शिकार,
सय्याद =शिकारी, तवाफ़े-शमए-वफ़ा=वफ़ा की शमअ
के आसपास चक्कर लगाने वाले, यूसुफ=प्रसिद्ध पैग़म्बर,
याकूब=हज़रत यूसुफ के पिता, कनआं =पच्छमी
एशिया का एक पुराना शहर)

3. ग़म-ब-दिल, शुक्र-ब-लब, मस्तो-ग़ज़लख़्वाँ चलिए

ग़म-ब-दिल, शुक्र-ब-लब, मस्तो-ग़ज़लख़्वाँ चलिए
जब तलक साथ तेरे उम्रे-गुरेज़ां चलिए

रहमते-हक से जो इस सम्त कभी राह निकले
सू-ए-जन्नत भी बराहे-रहे-जानां चलिए

नज़र मांगे जो गुलसितां से ख़ुदावन्दे-जहां
सागरो-ख़ुम में लिये ख़ूने-बहारां चलिए

जब सताने लगे बेरंगी-ए-दीवारे-जहां
नक़्श करने कोई तस्वीरे-हसीनां चलिए

कुछ भी हो आईना-ए-दिल को मुसफ़्फ़ा रखीए
जो भी ग़ुजरे, मिसले-खुसरवे-ए-दौरां चलिए

इमतहां जब भी हो मंज़ूर जिगरदारों का
महफ़िले-यार में हमराहे-रकीबां चलिए


(ब=में,पर, ग़ज़लख़्वाँ=ग़ज़ल गाते हुए,
उम्रे-गुरेज़ां=बचकर रहने वाली उम्र, हक=
ख़ुदा, बराहे-रहे-जानां=प्यारे का रास्ता,
मुसफ़्फ़ा=पवित्र किया हुआ)

4. हैराँ हैं जबीं आज किधर सज्दा रवाँ है

हैरां है जबीं आज किधर सजदा रवां है
सर पर हैं खुदावन्द, सरे-अर्श ख़ुदा है

कब तक इसे सींचोगे तमन्नाए-समर में
यह सबर का पौधा तो न फूला न फला है

मिलता है ख़िराज इसको तिरी नाने-जवीं से
हर बादशाहे-वक़्त तिरे दर का गदा है

हर-एक उकूबत से है तलख़ी में सवातर
वो रंज, जो-नाकरदा गुनाहों की सज़ा है

एहसान लिये कितने मसीहा-नफ़सों के
क्या कीजीये दिल का न जला है, न बुझा है


(जबीं=माथा, खुदावन्द=मालिक, तमन्नाए-समर=
फल की उम्मीद में, नाने-जवीं=ज्वार की रोटी,
उकूबत=तसीहा, सवातर=ज़्यादा, मसीहा-नफ़सों =
मसीहे की तरह नई ज़िंदगी देने वाले लोग)

5. हमीं से अपनी नवा हमकलाम होती रही

हमीं से अपनी नवा हमकलाम होती रही
ये तेग़ अपने लहू में नियाम होती रही

मुकाबिले-सफ़े-आदा जिसे किया आग़ाज़
वो जंग अपने ही दिल में तमाम होती रही

कोई मसीहा न ईफ़ा-ए-अहद को पहुंचा
बहुत तलाश पसे-कत्ले-आम होती रही

ये बरहमन का करम, वो अता-ए-शैख़े-हरम
कभी हयात कभी मय हराम होती रही

जो कुछ भी बन न पड़ा, 'फ़ैज़' लुटके यारों से
तो रहज़नों से दुआ-ओ-सलाम होती रही


(नवा=आवाज़, नियाम=मियान, मुकाबिले-
सफ़े-आदा=दुश्मन के आमने-सामने, आग़ाज़=
शुरू, ईफ़ा-ए-अहद=अपना पैगम्बरी वचन पूरा
करने के लिए, पसे=बाद, हयात=ज़िन्दगी
रहज़न=लुटेरे)

6. हमने सब शे’र में सँवारे थे

हमने सब शे’र में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न तुम्हारे थे

रंगों ख़ुश्बू के, हुस्नो-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे थे

तेरे क़ौलो-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे

जब वो लालो-गुहर हिसाब किए
जो तरे ग़म ने दिल पे वारे थे

मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्ते-फ़लक में तारे थे

उम्रे-जावेद की दुआ करते थे
‘फ़ैज़’ इतने वो कब हमारे थे


(इस्तिआरे=रूपक, लालो-गुहर=
हीरे-मोती, तश्ते-फ़लक=आसमान
की तश्तरी, उम्रे-जावेद=उम्रदराज़)

7. हसरते दीद में गुज़राँ है ज़माने कब से

हसरते दीद में गुज़राँ है ज़माने कब से
दशते-उमीद में गरदां हैं दिवाने कब से

देर से आंख पे उतरा नहीं अश्कों का अज़ाब
अपने जिंमे है तिरा कर्ज़ न जाने कब से

किस तरह पाक हो बेआरज़ू लमहों का हिसाब
दर्द आया नहीं दरबार सजाने कब से

सुर करो साज़ कि छेड़ें कोई दिलसोज़ ग़ज़ल
'ढूंढता है दिले-शोरीदा बहाने कब से

पुर करो जाम कि शायद हो इसी लहज़ा रवां
रोक रक्खा है इक तीर कज़ा ने कब से

'फ़ैज़' फिर किसी मकत्ल में करेंगे आबाद
लब पे वीरां हैं शहीदों के फ़साने कब से


(दशते-उम्मीद=उम्मीद का बियाबान, गरदां
हैं=मिट्टी छान रहे, अज़ाब=दुख, पाक=चुकता,
दिले-शोरीदा=पागल दिल, कज़ा=मौत,
मकत्ल=कत्लगाह)

8. किस शह्‍र न शोहरा हुआ नादानी-ए-दिल का

किस शह्‍र न शोहरा हुआ नादानी-ए-दिल का
किस पर न खुला राज़ परीशानी-ए-दिल का

आयो करें महफ़िल पे ज़रे-ज़ख़्म नुमायां
चर्चा है बहुत बे-सरो-सामानी-ए-दिल का

देख आयें चलो कूए-निगारां का ख़राबा
शायद कोई महरम मिले वीरानी-ए-दिल का

पूछो तो इधर तीरफ़िगन कौन है यारो
सौंपा था जिसे काम निगहबानी-ए-दिल का

देखो तो किधर आज रुख़े-बादे-सबा है
किस रह से पयाम आया है ज़िन्दानी-ए-दिल का

उतरे थे कभी 'फ़ैज़' वो आईना-ए-दिल में,
आलम है वही आज भी हैरानी-ए-दिल का


(शोहरा=मशहूरी, कूए-निगारां=प्रेमिका की गली,
तीरफ़िगन=तीर चलाने वाला, ज़िन्दानी=कैदी)

9. एक दकनी ग़ज़ल

कुछ पहले इन आँखों आगे क्या-क्या न नज़ारा गुज़रे था
क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था

थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फ़ुर्सत थी
सब पूछें थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था

अबके तो ख़िज़ाँ ऐसी ठहरी वो सारे ज़माने भूल गए
जब मौसमे-गुल हर फेरे में आ-आ के दुबारा गुज़रे था

थी यारों की बुहतात तो हम अग़यार से भी बेज़ार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था

अब तो हाथ सुझाइ न देवे लेकिन अब से पहले तो
आँख उठते ही एक नज़र में आलम सारा गुज़रे था

लंदन, 1979


(ख़िज़ाँ=पतझड़, मौसमे-गुल=बसन्त, अग़यार=ग़ैर,
गवारा=सहन करना)

10. न अब रकीब न नासेह न ग़मगुसार कोई

न अब रकीब न नासेह न ग़मगुसार कोई
तुम आशना थे तो थीं आशनाईयां क्या-क्या

जुदा थे हम तो मुयस्सर थीं कुरबतें कितनी
बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाईयां क्या-क्या

पहुंच के दर पर तिरे कितने मो'तबर ठहरे
अगरचे रह में हुईं जगहंसाईयां क्या-क्या

हम-ऐसे सादा-दिलों की नियाज़मन्दी से
बुतों ने की हैं जहां में बुराईयां क्या-क्या

सितम पे ख़ुश कभी लुतफ़ो-करम से रंजीदा
सिखाईं तुमने हमें कजअदाईयां क्या-क्या


(नासेह=प्रचारक, कुरबत=नज़दीकी, बहम=
इकठ्ठा, मो'तबर=भरोसेयोग, नियाज़मन्दी=
प्रेम भक्ति, कजअदाई=बाँकी अदा)

11. नज़रे-हाफ़िज़

नासेहम गुफ़त बजुज़ ग़म चे हुनर दारद इश्क
बिरो ऐ ख़्वाज़ा-ए-आकिल हुनर-ए-बेहतर अज़ीं

कन्दे-दहन कुछ इससे ज़ियादा
लुतफ़े-सुख़न कुछ इससे ज़ियादा

फ़सले-ख़िज़ां में मुशके-बहारां
बरगे-समन कुछ इससे ज़ियादा

हाले-चमन पर तलख़े-नवाई
मुरग़े-चमन कुछ इससे ज़ियादा

दिलशिकनी भी, दिलदारी भी
यादे-वतन कुछ इससे ज़ियादा

शम्म-ए-बदन, फ़ानूसे-कबा में
ख़ूबी-ए-तन कुछ इससे ज़ियादा

इश्क में क्या है ग़म के अलावा
ख़्वाजा-ए-मन कुछ इससे ज़ियादा


(नासेहम गुफ्त..बेहतर अज़ीं=मुझे
नसीहत करने वाले ने कहा कि इश्क
में बिना दुख के और क्या रखा है। हे
अक्लमंद, भला यह बताओ कि इस से
बड़ी अच्छाई और क्या है, कन्दे-दहन=
मुँह की मिठास, बरगे-समन=चमेली का
पत्ता, तलख़े-नवाई कौड़ी बात कहना, मुर्गे-
चमन=बाग़ के पक्षी, फ़ानूसे-कबा=कपड़े
का फानूस, ख़्वाजा-ए-मन=हे मेरे मालिक)

12. सभी कुछ है तेरा दिया हुआ, सभी राहतें सभी कुलफतें

सभी कुछ है तेरा दिया हुआ, सभी राहतें सभी कुलफतें
कभी सोहबतें, कभी फुरक़तें, कभी दूरियां, कभी क़ुर्बतें

ये सुखन जो हम ने रक़म किये, ये हैं सब वरक़ तेरी याद के
कोई लम्हा सुबहे-विसाल का, कोई शामे-हिज़्र कि मुद्दतें

जो तुम्हारी मान ले नासेहा, तो रहेगा दामने-दिल में क्या
न किसी अदू की अदावतें, न किसी सनम कि मुरव्वतें

चलो आओ तुम को दिखायें हम, जो बचा है मक़तले-शहर में
ये मज़ार अहले-सफा के हैं, ये अहले-सिदक़ की तुर्बतें

मेरी जान आज का ग़म न कर, कि न जाने कातिबे-वक़्त ने
किसी अपने कल मे भी भूलकर, कहीं लिख रही हो मस्सरतें


(कुलफ़तें=दुख, क़ुर्बतें=नज़दीकियाँ, अहले-सिदक़=सच्चे लोग)

13. सहल यूं राहे-ज़िन्दगी की है

सहल यूं राहे-ज़िन्दगी की है
हर कदम हमने आशिकी की है

हमने दिल में सजा लिये गुलशन
जब बहारों ने बेरुख़ी की है

ज़हर से धो लिये हैं होंठ अपने
लुत्फ़े-साकी ने जब कमी की है

तेरे कूचे में बादशाही की
जब से निकले गदागरी की है

बस वही सुरख़रू हुआ जिसने
बहरे-ख़ूं में शनावरी की है

"जो गुज़रते थे दाग़ पर सदमे"
अब वही कैफ़ीयत सभी की है


(लुत्फ़=आनंद, गदागरी=भिक्षा
माँगना, शनावरी =तैरना)

14. सितम सिखलाएगा रस्मे-वफ़ा ऐसे नहीं होता

सितम सिखलाएगा रस्मे-वफ़ा ऐसे नहीं होता
सनम दिखलाएँगे राहे-ख़ुदा ऐसे नहीं होता

गिनो सब हसरतें जो ख़ूँ हुई हैं तन के मक़तल में
मेरे क़ातिल हिसाबे-खूँबहा ऐसे नहीं होता

जहाने दिल में काम आती हैं तदबीरें न ताज़ीरें
यहाँ पैमाने-तस्लीमो-रज़ा ऐसे नहीं होता

हर इक शब हर घड़ी गुजरे क़यामत, यूँ तो होता है
मगर हर सुबह हो रोजे़-जज़ा, ऐसे नहीं होता

रवाँ है नब्ज़े-दौराँ, गार्दिशों में आसमाँ सारे
जो तुम कहते हो सब कुछ हो चुका, ऐसे नहीं होता


(मक़तल=हत्यास्थल, हिसाबे-खूँबहा=ख़ून के बदले
का हिसाब, तदबीरें न ताज़ीरें=न युक्तियाँ न सज़ाएँ,
पैमाने-तस्लीमो-रज़ा=हर बात मानने की प्रतिज्ञा,
रोजे़-जज़ा=फ़ल-प्राप्ति का दिन, नब्ज़े-दौराँ=युग की
धड़कन, गार्दिश=चक्कर)

15. तुझे पुकारा है बेइरादा

तुझे पुकारा है बेइरादा
जो दिल दुखा है बहुत ज़ियादा

नदीम हो तेरा हरफ़े-शीरीं
तो रंग पर आये रंगे-बादा

अता करो इक अदा-ए-देरीं
तो अश्क से तर करें लबादा

न जाने किस दिन से मुंतज़िर है
दिले-सरे-रहगुज़र फ़तादा

कि एक दिन फिर नज़र में आये
वो बाम रौशन वो दर कुशादा

वो आये पुरसिश को, फिर सजाये
कबा-ए-रंगीं अदा-ए-सादा


(नदीम=दोस्त, फ़तादा=रासते
पर पड़ा दिल, पुरसिश=हाल चाल
पूछने को, कबा=कपड़े)

16. वो बुतों ने डाले हैं वस्वसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया

वो बुतों ने डाले हैं वस्वसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़्याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया

जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलु बना जो उठा तो हाथ क़लम हुये
वो निशात-ए-आहे-सहर गई वो विक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया

न वो रंग फ़स्ल-ए-बहार का न रविश वो अब्र-ए-बहार की
जिस अदा से यार थे आश्ना वो मिज़ाज-ए-बाद-ए-सबा गया

जो तलब पे अहदे-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सरे-आम जब हुए मुद्दई तो सवाबे-सिदको-सफ़ा गया

अभी बादबाँ को तह् रखो अभी मुज़तरिब है रुख़-ए-हवा
किसी रास्ते में हैं मुंतज़िर वो सुकूँ जो आके चला गया


(वस्वसे=शंकायें, जज़ा=क्यामत, ख़ार-ए-गुलु=गल का
काँटा, निशात-ए-आहे-सहर=सुबह की फ़रियाद करने का
मज़ा, वकार=सम्मान, मुद्दई=दुश्मन, सवाबे-सिदको-सफ़ा=
पवित्रता और सच्चाई का पुण्य, मुज़तरिब=बेचैन, मुंतज़िर=
इंतज़ार करने वाला)

17. मख़दूम की याद में-2

"याद का फिर कोई दरवाज़ा खुला आख़िरे-शब"
दिल में बिख़री कोई ख़ुशबू-ए-क़बा आख़िरे-शब

सुब्‍ह फूटी तो वो पहलू से उठा आख़िरे-शब
वो जो इक उम्र से आया न गया आख़िरे-शब

चाँद से माँद सितारों ने कहा आख़िरे-शब
कौन करता है वफ़ा अहदे-वफ़ा आख़िरे-शब

लम्से-जानाना लिए, मस्ती-ए-पैमाना लिए
हम्दे-बारी को उठे दस्ते-दुआ आख़िरे-शब

घर जो वीराँ था सरे-शाम वो कैसे-कैसे
फ़ुरक़ते-यार ने आबाद किया आख़िरे-शब

जिस अदा से कोई आया था कभी अव्वले-सुब्‍ह
"उसी अंदाज़ से चल बादे-सबा आख़िरे-शब"

मास्को, अक्तूबर, 1978


(आख़िरे-शब=रात का आख़िरी पहर, ख़ुशबू-ए-
क़बा=वस्त्र की सुगंध, लम्से-जानाना=प्रेमिका का
स्पर्श, हम्दे-बारी=ख़ुदा की महिमा,दस्ते-दुआ=
प्रार्थना के लिए हाथ उठाना, फ़ुरक़ते-यार=प्रेमिका
से विरह, बादे-सबा=हवा)

18. यह मौसमे-गुल गर चे तरबख़ेज़ बहुत है

यह मौसमे-गुल गर चे तरबख़ेज़ बहुत है
अहवाले गुल-ओ-लाला ग़म-अँगेज़ बहुत है

ख़ुश दावते-याराँ भी है यलग़ारे-अदू भी
क्या कीजिए दिल का जो कम-आमेज़ बहुत है

यूँ पीरे-मुग़ाँ शैख़े-हरम से हुए यकजाँ
मयख़ाने में कमज़र्फ़िए परहेज़ बहुत है

इक गर्दने-मख़लूक़ जो हर हाल में ख़म है
इक बाज़ु-ए-क़ातिल है कि ख़ूंरेज़ बहुत है

क्यों मश'अले दिल 'फ़ैज़' छुपाओ तहे-दामाँ
बुझ जाएगी यूँ भी कि हवा तेज़ बहुत है


(तरबख़ेज़=आनंद बढ़ाने वाला, ग़मअंगेज़=
दुख देने वाला, यलग़ारे-उदू=दुश्मन का हमला,
कमआमेज़=मिलना-जुलना कम पसंद करने
वाला, पीरे-मुग़ाँ=पीने वालों के सर्दार, शैख़े-
हरम=धर्म गुरू, यकजाँ=एकजुट, कमज़र्फ़िए=
तंगदिली, मख़लूक=जनता, ख़म=झुकी हुई,
ख़ूंरेज़=लहू वहाने वाला, मशअले=मशाल)

19. य' किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया

य' किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया
फिर आज किसने सुख़न हमसे ग़ायबाना किया

ग़मे-जहां हो, रुख़े-यार हो, कि दस्ते-उदू
सलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया

थे ख़ाके-राह भी हम लोग, कहरे-तूफ़ां भी
सहा तो क्या न सहा, और किया तो क्या न किया

खुशा कि आज हरइक मुद्दई के लब पर है
वो राज़, जिसने हमें रांदए-ज़माना किया

वो हीलागर जो वफ़ाज़ू भी है, ज़फ़ाख़ू भी
किया भी 'फ़ैज़' तो किस बुत से दोस्ताना किया


(दस्ते-उदू=दुश्मन का हाथ, खुशा=ख़ुशी की बात,
रांदए-ज़माना=ज़माने से बाहर निकाला, हीलागर=
बहानेसाज़, ज़फ़ाख़ू=निरदई)

20. उमीदे-सहर की बात सुनो

जिगर-दरीदा हूं, चाके-जिगर की बात सुनो
अलम-रसीदा हूं, दामने-तर की बात सुनो

ज़बां-बुरीदा हूं, ज़ख़्मे-गुलू से हरफ़ करो
शिकसता-पा हूं, मलाले-सफ़र की बात सुनो

मुसाफ़िरे-रहे-सहरा-ए-ज़ुल्मते-शब से
अब इलतिफ़ाते-निगारे-सहर की बात सुनो

सहर की बात उमीदे-सहर की बात सुनो


(जिगर-दरीदा=टूटा दिल, अलम-रसीदा=दुखी,
बुरीदा=कटी हुई, इलतिफ़ाते-निगारे-सहर=
सुबह-रूपी प्यारी का व्यंग्य)

21. जिस रोज़ क़ज़ा आएगी

किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
शायद इस तरह कि जिस तौर कभी अव्वल शब
बेतलब पहले पहल मर्हमते-बोसा-ए-लब
जिससे खुलने लगें हर सम्त तिलिस्मात के दर
और कहीं दूर से अनजान गुलाबों की बहार
यक-ब-यक सीना-ए-महताब तड़पाने लगे

शायद इस तरह कि जिस तौर कभी आख़िरे-शब
नीम वा कलियों से सर सब्ज़ सहर
यक-ब-यक हुजरे महबूब में लहराने लगे
और ख़ामोश दरीचों से ब-हंगामे-रहील
झनझनाते हुए तारों की सदा आने लगे

किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
शायद इस तरह कि जिस तौर तहे नोके-सनाँ
कोई रगे वाहमे दर्द से चिल्लाने लगे
और क़ज़ाक़े-सनाँ-दस्त का धुँदला साया
अज़ कराँ ताबा कराँ दहर पे मँडलाने लगे
जिस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
ख़्वाह क़ातिल की तरह आए कि महबूब सिफ़त
दिल से बस होगी यही हर्फ़े विदा की सूरत
लिल्लाहिल हम्द बा-अँजामे दिले दिल-ज़द्गाँ
क़लमा-ए-शुक्र बनामे लबे शीरीं-दहना


(नीम वा=अधखिला, ब-हंगामे-रहील=कूच
समय, तहे नोके-सनाँ=तीर की नोक पर,
वाहिमे=वहम, क़ज़ाक़े-सनाँ-दस्त=हाथ में
तीर पकड़े डाकू, अज़ कराँ ताबा कराँ=इस
किनारे से उस किनारे तक, दहर=ज़माना,
लिल्लाहिल हम्द बा-अँजामे दिले दिल-ज़द्गाँ=
अंत को दुखी दिल से ईश्वर की तारीफ़ ही
निकलेगी, क़लमा-ए-शुक्र बनामे लबे शीरीं-
दहना=होंठों में से अति मिठास के साथ
शुक्रिया का कलमा)

22. अश्क आबाद की इक शाम

जब सूरज ने जाते-जाते
अश्क आबाद के नीले उफ़क से
अपने सुनहरी जाम
में ढाली
सुरख़ी-ए-अवले शाम
और ये जाम
तुम्हारे सामने रखकर
तुमसे किया कलाम
कहा : परनाम !
उठो
और अपने तन की सेज से उठकर
इक शीरीं पैग़ाम
सबत करो इस शाम
किसी के नाम
किनारे जाम
शायद तुम ये मान गईं और तुमने
अपने लबे-गुलफ़ाम
कीये इनआम
किसी के नाम
किनारे जाम
या शायद
तुम अपने तन की सेज पे सजकर
थीं यूं महवे-आराम
कि रस्ता तकते-तकते
बुझ गई शमा-ए-जाम
अश्क आबाद के नीले उफ़क पर
ग़ारत हो गई शाम

23. मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले

मेरा दर्द नग़मा-ए-बे-सदा
मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बे-निशाँ
मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले
मुझे अपना नामो-निशाँ मिले

मेरी ज़ात को जो निशाँ मिले
मुझे राज़े-नज़्मे-जहाँ मिले
जो मुझे ये राज़े-निहाँ मिले
मेरी ख़ामशी को बयाँ मिले
मुझे क़ायनात की सरवरी
मुझे दौलते-दो-जहाँ मिले


(नग़मा-ए-बे-सदा=बे-आवाज़
गीत, ज़र्रा-ए-बे-निशाँ=बे-
निशान कण, राज़े-नज़्मे-जहाँ=
विश्व-व्यवस्था का रहस्य, राज़े-
निहाँछुपा हुआ, क़ायनात की
सरवरी=दुनिया की बादशाही)

24. पाँवों से लहू को धो डालो

हम क्या करते किस रह चलते
हर राह में कांटे बिखरे थे
उन रिश्तों के जो छूट गए
उन सदियों के यारानो के
जो इक इक करके टूट गए
जिस राह चले जिस सिम्त गए
यूँ पाँव लहूलुहान हुए
सब देखने वाले कहते थे
ये कैसी रीत रचाई है
ये मेहँदी क्यूँ लगवाई है
वो: कहते थे, क्यूँ कहत-ए-वफा
का नाहक़ चर्चा करते हो
पाँवों से लहू को धो डालो
ये रातें जब अट जाएँगी
सौ रास्ते इन से फूटेंगे
तुम दिल को संभालो जिसमें अभी
सौ तरह के नश्तर टूटेंगे


(सिम्त=ओर, कहत-ए-वफा=
वफ़ादारी का अकाल, नाहक़=
बेकार में ही)

25. सज्जाद ज़हीर के नाम

न अब हम साथ सैरे-गुल करेंगे
न अब मिलकर सरे-मकत्ल चलेंगे
हदीसे-दिलबरां बाहम करेंगे
न ख़ूने-दिल से शरहे-ग़म करेंगे
न लैला-ए-सुख़न की दोस्तदारी
न ग़महा-ए-वतन पर असकबारी
सुनेंगे नग़मा-ए-ज़ंजीर मिलकर
न शब-भर मिलकर छलकायेंगे सागर

ब-नामे-शाहदे-नाज़ुकख़्यालां
ब-यादे-मस्तीए-चश्मे-ग़िज़ालां
ब-नामे-इम्बिसाते-बज़्मे-रिन्दां
ब-यादे-कुलफ़ते-अय्यामे-ज़िन्दां

सबा और उसका अन्दाज़े-तकल्लुम
सहर और उसका अन्दाज़े-तबस्सुम

फ़िज़ा में एक हाला-सा जहां है
यही तो मसनदे-पीरे-मुगां है
सहरगह उसी के नाम, साकी
करें इतमामे दौरे-जाम, साकी
बिसाते-बादा-ओ-मीना उठा लो
बढ़ा दो शमए-महफ़िल, बज़्मवालो
पियो अब एक जामे-अलविदाई
पियो, और पी के सागर तोड़ डालो


(सरे-मकत्ल=शहादत की जगह,
चश्मे-ग़िज़ालां=हिहरनी जैसी आँखें,
इम्बिसाते=मस्ती और आनंद, कुलफ़ते-
अय्यामे-ज़िन्दां=जेल की मुसीबत,
अन्दाजे-तकल्लुम=बात करने का ढंग,
तबस्सुम=मुस्कान, हाला-सा=प्रभात
मंडल जैसा, मसनदे-पीरे-मुगां=मस्तों
के गुरू का आसन, इतमामे दौरे-जाम=
जाम का दौर ख़त्म करो, बढ़ा दो=बुझा दो)

26. ऐ शाम मेहरबां हो

ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ शाम-ए-शहर-ए-यारां
हम पे मेहरबां हो

दोज़ख़ी दोपहर सितम की
बेसबब सितम की
दोपहर दर्दो-ग़ैज़ो-ग़म की
इस दोज़ख़ी दोपहर के ताज़ियाने
आज तन पर धनक की सूरत
कौस-दर-कौस बट गये हैं
ज़ख़्म सब खुल गये हैं जिनके,
दाग़ जाना था, छुट गये हैं
तेरे तोशे में कुछ तो होगा
मरहमे-दर्द का दुशाला
तन के उस अंग पर उढ़ा दे
दर्द सबसे सिवा जहां हो
ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ शाम-ए-शहर-ए-यारां
हम पे मेहरबां हो

दोज़ख़ी दशत नफ़रतों की
किरचीयां दीदा-ए-हसद की
ख़स-ओ-ख़ाशाक रंजिशों के
इतनी सुनसान शाहराहें
इतनी गुंजान कत्लगाहें
जिनसे आये हैं हम गुज़रकर
आबला बनके हर कदम पर
यूं पांव कट गये हैं
रसते सिमट गये हैं
मखमलें अपने बादलों की
आज पांव तले बिछा दे
शाफ़ी-ए-करब-ए-रह-रवां हो
ऐ शाम मेहरबां हो

ऐ मह-ए-शब निगारां
ऐ रफ़ीक-ए-दिल-फ़िगारां
इस शाम हम ज़बां हो
ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ शाम-ए-शहर-ए-यारां
हम पे मेहरबां हो


(ताज़ियाने=कोड़े, कौस=धनुष,
तोशे=समान, हसद=ईर्ष्या, खस-
ओ-ख़ाशाक=घास-फूस,शाफ़ी-ए-
करब-ए-रह-रवां=मुसाफ़िरों के
दुक्ख दूर करने वाली, मह-ए-शब
निगारां=रात की सुंदरियों के चाँद,
रफ़ीक-ए-दिल-फ़िगारां=ज़ख़्मी दिल
वालों के दोस्त)

27. गीत

चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं

जो गुज़र गई हैं रातें
उनहें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गई हैं बातें
उनहें याद में बुलाएं
चलो फिर से दिल लगाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं

किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी कबा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हरफ़े-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा

ये मिलन की, नामिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गई हैं रातें
जो बिसर गई हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएं
कोई इनका गीत गाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं


(शह-नशीं=बैठने की ऊँची
जगह, कबा=अंगरखा)

28. हम तो मज़बूर थे इस दिल से

हम तो मज़बूर थे इस दिल से कि जिसमें हर दम
गरदिशे-ख़ूं से वो कोहराम बपा रहता है
जैसे रिन्दाने-बलानोश जो मिल बैठें ब-हम
मयकदे में सफ़र-ए-जाम बपा रहता है

सोज़े-ख़ातिर को मिला जब भी सहारा कोई
दाग़े-हरमान कोई दर्द-ए-तमन्ना कोई
मरहमे-यास से मायल-ब-शिफ़ा होने लगा
ज़ख़्मे-उमीद कोई फिर से हरा होने लगा

हम तो मज़बूर थे इस दिल से कि जिसकी ज़िद पर
हमने उस रात के माथे पे सहर की तहरीर
जिसके दामन में अंधेरे के सिवा कुछ भी न था
हमने उस दश्त को ठहरा दिया फ़िरदौस नज़ीर
जिसमें जुज़ सनअते-ख़ूने-सरे-पा कुछ भी न था

दिल को ताबीर कोई और गवारा ही न थी
कुलफ़ते-ज़ीसत तो मंज़ूर थी हर तौर मगर
राहते-मरग किसी तौर गवारा ही न थी


(कोहराम बपा =कोलाहल पड़ा, रिन्दाने-बलानोश=
बहुत पीने वाले शराबी, सोज़े-खातिर=दिल की जलन,
दागे-हिरमान =बदकिसम्ती, मरहमे-यास=निराशा की
मरहम, मायल-ब-शिफ़ा=बीमारी ख़त्म होने लगी,
फ़िरदौस नज़ीर=सुरगी, जुज़ सनअते-ख़ूने-सरे-पा=
सिर और पैर का ख़ून करने के बग़ैर, कुलफ़ते-ज़ीसत=
ज़िंदगी का दुख, राहते-मरग=मौत का आराम)

29. ढाका से वापसी पर

हम केः ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद

कब नज़र में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के
थीं बहुत बे-मह्‍र सुब्हें मह्‍रबाँ रातों के बाद

दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद

उनसे जो कहने गए थे “फ़ैज़” जाँ सदक़ा किए
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद


(मदारातों=आवभगत, आशना=परिचित,
लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़=प्रेम की पीड़ा की
समाप्ति के क्षण, बे-मह्‍र=निर्दई, शिकस्ते-
दिल=दिल की हार, मोहलत=अवकाश,
मुनाजातों=प्रार्थना-गीत,जाँ सदक़ा=प्राण
न्यौछावर)

30. बहार आई

बहार आई तो जैसे एक बार
लौट आये हैं फिर अदम से
वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिये थे
निखर गये हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुशकबू हैं
जो तेरे उशाक का लहू हैं

उबल पड़े हैं अज़ाब सारे
मलाले-अहवाले-दोस्तां भी
ख़ुमारे-आग़ोशे-महवशां भी
ग़ुबारे-ख़ातिर के बाब सारे
तेरे हमारे
सवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गए हैं
नये सिरे से हिसाब सारे


(अदम=शून्य लोक, मुशकबू=
कस्तूरी, उशाक=प्रेमी, मलाले-
अहवाले-दोस्तां=दोस्तों की दशा
का दुख, ख़ुमारे-आग़ोशे-महवशां=
चाँद जैसी प्रेमिकायों के आलिंगन
का टूटता नशा, ग़ुबारे-ख़ातिर के
बाब=दिल की भड़ास के प्रसंग)

31. तुम अपनी करनी कर गुज़रो

अब कयूं उस दिन का ज़िकर करो
जब दिल टुकड़े हो जायेगा
और सारे ग़म मिट जायेंगे
जो कुछ पाया खो जायेगा
जो मिल न सका वो पायेंगे
ये दिन तो वही पहला दिन है
जो पहला दिन था चाहत का
हम जिसकी तमन्ना करते रहे
और जिससे हरदम ड्रते रहे
ये दिन तो कितनी बार आया
सौ बार बसे और उजड़ गये
सौ बार लुटे और भर पाया

अब कयूं उस दिन की फ़िकर करो
जब दिल टुकड़े हो जायेगा
और सारे ग़म मिट जायेंगे
तुम ख़ौफ़ो-ख़तर से दरगुज़रो
जो होना है सो होना है
गर हंसना है तो हंसना है
गर रोना है तो रोना है
तुम अपनी करनी कर गुज़रो
जो होगा देखा जायेगा

32. मोरी अरज सुनो

(नज़र-ए-ख़ुसरो)

"मोरी अरज सुनो दस्तगीर पीर"
"माई री कहूं, कासे मैं
अपने जिया की पीर"
"नैया बांधो रे
बांधो रे कनारे-दरिया"
"मोरे मन्दिर अब कयूं नहीं आये"

-इस सूरत से
अरज़ सुनाते
दर्द बताते
नैया खेते
मिन्नत करते
रसता तकते
कितनी सदियां बीत गई हैं
अब जाकर ये भेद खुला है
जिसको तुमने अरज़ गुज़ारी
जो था हाथ पकड़नेवाला
जिस जा लागी नाव तुमहारी
जिससे दुख का दारू मांगा
तोरे मन्दिर में जो नहं आया
वो तो तुम्हीं थे
वो तो तुम्हीं थे


(दस्तगीर=हाथ पकड़ने वाला,
दारू =दवा,इलाज)

33. लेनिनगराड का गोरिसतान

सर्द सिलों पर
ज़रद सिलों पर
ताज़ा गरम लहू की सूरत
गुलदस्तों के छींटे हैं
कतबे सब बे-नाम हैं लेकिन
हर इक फूल पे नाम लिखा है
ग़ाफ़िल सोनेवाले का
याद में रोनेवाले का
अपने फ़रज़ से फ़ारिग़ होकर
अपने लहू की तान के चादर
सारे बेटे ख़्वाब में हैं
अपने ग़मों का हार पिरोकर
अंमां अकेली जाग रही है


(गोरिस्तान=कब्रिस्तान, कतबे=
कब्र पर लगी पट्टी, गाफिल=
बेहोश)

34. कुछ इश्क किया कुछ काम किया

वो लोग बहुत ख़ुश-किस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते-जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया

काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

35. दर-ए-उमीद के दरयूज़ागर

फिर फरेरे बन के मेरे तन-बदन की धज्जीयां
शहर के दीवारो-दर को रंग पहनाने लगीं
फिर कफ़-आलूदा ज़बानें मदहो-ज़म की कमचीयां
मेरे ज़हनो-गोश के ज़ख़्मों पे बरसाने लगीं

फिर निकल आये हवसनाकों के रकसां तायफ़े
दर्दमन्दे-इश्क पर ठट्ठे लगाने के लिए
फिर दुहल करने लगे तशहीरे-इख़लासो-वफ़ा
कुशता-ए-सिदको-सफ़ा का दिल जलाने के लिए

हम कि हैं कब से दर-ए-उमीद के दरयूज़ागर
ये घड़ी गुज़री तो फिर दस्ते-तलब फैलायेंगे
कूचा-ओ-बाज़ार से फिर चुन के रेज़ा रेज़ा ख़्वाब
हम यूं ही पहले की सूरत जोड़ने लग जायेंगे


(दरयूज़ागर=भीखारी, फरेरे=झंडियाँ, कफ़-
आलूदा=गंदी, मदहो-ज़म=प्रशन्सा-निंदा,
ज़हनो-गोश=दिमाग़-कान, रकसां तायफ़े=
नाच मंडलियां, दुहल=नगाड़े, तशहीरे-इख़लासो-
वफ़ा=प्यार का प्रचार, कुशता-ए-सिदको-सफ़ा=
सत्य और ईमानदारी पर मिटे हुए, रेज़ा रेज़ा
ख़्वाब=टूटे सप्ने)

36. आज इक हरफ़ को फिर


आज इक हरफ़ को फिर ढूंढता फिरता है ख़्याल
मध-भरा हरफ़ कोई ज़हर-भरा हरफ़ कोई
दिलनशीं हरफ़ कोई कहर-भरा हरफ़ कोई
हरफ़े-उलफ़त कोई दिलदारे-नज़र हो जैसे
जिससे मिलती है नज़र बोसा-ए-लब की सूरत
इतना रौशन कि सरे-मौजा-ए-ज़र हो जैसे
सोहबते-यार में आग़ाज़े-तरब की सूरत
हरफ़े-नफ़रत कोई शमशीरे-ग़ज़ब हो जैसे
ता-अबद शहरे-सितम जिससे तबह हो जायें
इतना तारीक कि शमशान की शब हो जैसे
लब पे लाऊं तो मेरे होंठ सियह हो जायें


आज हर सुर से हर इक राग का नाता टूटा
ढूंढती फिरती है मुतरिब को फिर उसकी आवाज़
जोशिशे-दर्द से मजनूं के गरेबां की तरह
आज हर मौज हवा से है सवाली ख़िलकत
ला कोई नग़मा कोई सौत तेरी उम्र दराज़
नौहा-ए-ग़म ही सही शोरे-शहादत ही सही
सूरे-महशर ही सही बांगे-क्यामत ही सही


(आग़ाज़े-तरब=ख़ुशी की शुरुआत, ता-अबद=
सदा के लिए, ख़िलकत=दुनिया, सौत=कोड़ा,
सूरे-महशर=तुरही वाजा जो क्यामत के दिन
बजेगा, बांगे-क़यामत=क्यामत की आवाज़)

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