उलजुज़ उम्र अली : हिन्दी कविता

Poetry in Hindi : Uljuz Umar Ali

उलजुज़ उम्र अली-कजाकस्तान के कवि

सहरा की रात

कहीं भी शबनम कहीं नहीं है
अजब कि शबनम कहीं नहीं है
न सर्द ख़ुर्शीद की जबीं पर
किसी के रुख़ पर न आसतीं पर
ज़रा-सी शबनम कहीं नहीं है

पिसे हुए पत्थरों की मौजें
ख़मोश-ओ-साकिन
हरारते-माहे-नीम शब में सुलग रही हैं
और शबनम कहीं नहीं है

बरहना-पा ग़ोल गीदड़ों के
लगा रहे हैं बनों में ठट्ठे
कि आज शबनम कहीं नहीं है

बबूल के इसतख़वां के ढांचे
पुकारते हैं
नहीं है शबनम, कहीं नहीं है

सफ़ैद, धुंधलायी रौशनी में
हैं दशत की छातियां बरहना
तरस रही हैं जो हुसने-इंसां लिये
कि शबनम का एक कतरा
कहीं पे बरसे

ये चांद भी सर्द हो रहेगा
उफ़क पे जब सुबह का किनारा
किसी किरन से दहक उठेगा
कि एक दरमांदा राहरौ की
जबीं पे शबनम का हाथ चमके

(जबीं=माथा, रुख़=मुँह, साकिन=
स्थिर, हरारते-माहे-नीम शब=आधी
रात के चाँद की गर्मी, बरहना-पा
ग़ोल=नंगे पैर झुंड, इसतख़वां=
हड्डियों, दशत=जंगल, दरमांदा
राहरौ=थका राही)

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