काव्यगंधा (कुण्डलिया संग्रह) : त्रिलोक सिंह ठकुरेला

Kavyagandha (Kundaliya Sangrah) : Trilok Singh Thakurela

आत्म निवेदन

समाज, साहित्य और विज्ञान के बीच गहरा संबंध हैं। जिस समाज की दृष्टि वैज्ञानिक और साहित्य उन्नत होता है, वही समाज उपलब्धियों के नये शिखर छूता है। इसीलिए आज हमारा समाज विज्ञान को विशेष महत्व देता है। विज्ञान के अपने नियम एवं अवधारणायें हैं। उन्हीं के आधार पर उसका मूल्यांकन होता है। आज का मनुष्य हर विषय को वैज्ञानिक कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करता है।

भारतीय संस्कृति और साहित्य का आधार प्रारम्भ से ही वैज्ञानिक रहा है। भारतीय साहित्य में वर्णित छंद अपने निश्चित शिल्प, नियम और गणितीय आधार के कारण लोकप्रिय रहे हैं।

काव्य में छंद की अपनी गरिमा और लालित्य है । छंद पाठक या श्रोता के मन में प्रसन्नता उत्पन्न करता है- ‘यः छंदयति आह्लादयति च सः छंन्दः।’

प्राचीन आचार्यों ने छंद को पद्य का पर्यायवाची माना है। जिस तरह किसी भी भाषा को सुन्दर और अलंकृत बनाने के लिये शब्द-योजना, वाक्य-योजना और शिल्प तथा शैली आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार काव्य को लययुक्त, गतिशील, गेय और प्रभावपूर्ण बनाने के लिये उसे छंद के साँचे में ढालना पड़ता है। यति, गति, तुक, गण, वर्ण अथवा मात्रा की सुनिश्चित गणना के विचार से की गयी रचना छंद कहलाती है। छंदबद्ध रचनाएँ निश्चित रूप से भावमयी और रसीली होती हैं। यह सर्वविदित है कि छांदस रचनाएँ विश्व-वाङ्मय में सदैव और सर्वत्र सम्मानित रही हैं। छंद का अपना सौन्दर्य-बोध होता है। छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं एवं मनभावन तो होते ही हैं।

भारतीय संस्कृति और साहित्य ने सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया है। भारतीय साहित्य मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण, प्रेरक और अनूठा है। प्राचीन भारतीय साहित्य छंदों में रचा गया साहित्य है। वैदिक काल से आधुनिक काल तक छंद ने साहित्य में अपनी गरिमामय उपस्थिति दर्ज की है। हिन्दी साहित्य में अनेक छंद चर्चित रहे हैं।

यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि भोगवादी सोच के कारण समाज में विकृतियां आती है और सामाजिक मूल्यों का ह्रास होता है। यह दुःखद है कि वर्तमान समय में मनुष्य जिस संक्रमण-काल से गुजर रहा है, उसने उसे ‘स्व’ और ‘स्वार्थ’ तक सीमित कर दिया है। यह समाज के लिए किसी भी प्रकार हितकर नहीं है। साहित्य की समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जो साहित्य सामाजिक जीवन के लिए अर्थपूर्ण होता है, वही मूल्यवान भी होता है। आत्मकेन्द्रित अथवा अत्यधिक बौद्धिकता से परिपूर्ण साहित्य जनमानस को प्रभावित ही नहीं कर पाता, तो समाज में मानवीय गुणों तथा नैतिक मूल्यों का संचार कैसे कर पायेगा।

समाज के लिए वही साहित्य ग्राह्य है, जो सहज, सरल, सरस होने के साथ-साथ व्यक्ति और समाज को दिशाबोध दे सके तथा समाज में शाश्वत और नैतिक मूल्यों की स्थापना करने में समर्थ हो। इस दृष्टिकोण से कुण्डलिया जनसामान्य का प्रिय छंद रहा है।

‘काव्यगंधा’ से समाज का किंचित मात्र भी हित होता है, तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा।
आपकी प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत है ।

त्रिलोक सिंह ठकुरेला

जीवन की आस्तिकता को रेखायित करते 'कुण्डलियां छंद'

त्रिलोक सिंह ठकुरेला मूलतः एक गीतकवि हैं। मेरा उनसे परिचय कुछ वर्ष पूर्व प्रतिष्ठित वेब-पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ द्वारा संयोजित ‘नवगीत पाठशाला’ के माध्यम से हुआ। उनके द्वारा उसमें भेजी प्रविष्ठि मुझे अच्छी लगी और उस गीत की खूबियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी मैंने उन्हें लिख भेजी। बाद में फेसबुक पर उनसे एक मित्र का रिश्ता बना और उसमें पहली बार उनकी कुण्डलियाँ अवलोकने का सुयोग मुझे मिला। मुझे लगा कि वे एक गंभीर चिंतक कवि हैं और फि़लवक्त के सरोकारों का उनकी कुण्डलियाँ काफी सटीक आकलन करती हैं। वैसे तो आज की समग्र कविता का प्रमुख सरोकार समसामयिक संदर्भों की आख्या कहना ही है, किंतु कुण्डलियों के माध्यम से उन्हें परिभाषित करने का उनका यह प्रयास मुझे बिल्कुल अछूता और अनूठा लगा। इसी बीच उनके द्वारा सम्पादित आज की पीढ़ी के कई कवियों की रची कुण्डलियों के संकलन ‘कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर’ के कुछ अंश भी फेसबुक पर मुझे पढ़ने को मिले। हिन्दी में गिरिधर कविराय की कुण्डलियों से हमारी पीढ़ी का छात्र जीवन में परिचय रहा ही था, किन्तु वह अट्ठारहवीं सदी की कहन-शैली आज के संदर्भों के लिए भी मौजूँ हो सकती है, यह भाई त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलियों से परिचित होने के बाद ही मैं जान सका। गिरिधर कविराय की कुण्डलियों की भाँति ही ठकुरेला जी की कुण्डलियों में भी जीवन की आस्तिकता को रेखायित करते सार्थक संकेत निहित हैं। बतौर उद्धरण देखें उनकी यह कुण्डलिया-

‘रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान ।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान ।।
सीप चुने नादान, अज्ञ मूँगे पर मरता ।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता ।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर ।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर ।।

इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी की इस पुरातन रीतिकालीन काव्य विधा को एक नया आयाम देने की दृष्टि से श्री ठकुरेला का महती योगदान है। मुझे पूरी आस्था है कि उनका प्रस्तुत व्यक्तिगत कुण्डलिया संग्रह इस विरल एवं कठिन काव्य-विधा के प्रति एक बार फिर से हिन्दी के काव्य-मर्मज्ञों को आश्वत करेगा। उनके इस संग्रह के माध्यम से कुण्डलिया आज के कविता-प्रसंग को रोचक एवं समृद्ध करने में सहायक होगी, इसी विश्वास के साथ ठकुरेला जी को मेरी अनन्य शुभकामनाएँ।

-कुमार रवीन्द्र

भाव सौंदर्य एवं शिल्प सौंदर्य का अनूठा उपवन है काव्यगंधा

साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला बहुआयामी काव्य-प्रतिभा से सम्पन्न रचनाकार हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ठकुरेला जी साहित्य के क्षेत्र में कुछ न कुछ नया करते रहते हैं, उनकी यही मनोवृत्ति उन्हें अपने समकालीनों से पृथक करती है। इसी क्रम में ‘काव्यगंधा’ शीर्षक से उनका कुण्डलिया छंद संग्रह साहित्य-जगत के सामने है।

काव्यकृति ‘काव्यगंधा’ कुण्डलिया छंद के काव्य सौन्दर्य को अपने कलेवर में आत्मसात किये है। श्री ठकुरेला कुण्डलिया छंद शिल्प के पारखी हैं, प्रवीण हैं। कुण्डलिया छंद के प्रति उनके हृदय में अमित सम्मान का भाव है। इससे पूर्व उन्होंने ‘कुण्डलिया छंद’ के सात प्रमुख हस्ताक्षरों की रचनाओं को लेकर ‘कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर’ का विशिष्ट सम्पादन किया है और तत्पश्चात् ‘काव्यगंधा‘ का सृजन किया है। यह काव्यकृति उनकी मौलिक काव्य-प्रतिभा और बहुआयामी उद्भावनाओं का आकर्षक गुलदस्ता है। इसमें जीवन के विविध रंग बिखरे हैं।

‘काव्यगंधा’ भारतीय परिवेश का दर्पण है। यद्यपि अनुक्रम के अंतर्गत इसके रचनाकार ने ‘काव्यगंधा’ के कलेवर को सात भाव-शीर्षकों - ‘शाश्वत’, ‘हिन्दी’, ‘गंगा’, ‘होली’, ‘राखी’, ‘सावन’ और ‘विविध’ के अन्तर्गत विभाजित करते हुए कुण्डलिया छंद में अपनी अनुभूतियों की यथार्थ अभिव्यक्ति की है।

‘काव्यगंधा’ की प्रस्तुति में भावों की भाषागत सहजता उल्लेखनीय है। कुण्डलिया छंद जितना आकर्षक एवं मनोहारी है, वहीं भाषा की सहजता के कारण अत्यंत प्रभावी बन पड़ा है। उनकी ‘काव्यगंधा’ सहज संप्रेषणीय हो गयी है। ‘काव्यगंधा‘ में उनकी भाषा उनके भावों की अनुगामिनी बनकर आयी है। निस्संदेह वे सहज शब्द शिल्पी हैं, उनके पास प्रचुर शब्द विधान है और कहने का अपना निराला ढंग है जिसके कारण ‘काव्यगंधा‘ का शिल्प-सौन्दर्य भी उसके भाव सौन्दर्य के कारण निखर उठा है। ‘शाश्वत’ के इस छंद से मैं अपनी बात की पुष्टि करना चाहूँगा -

सोना तपता आग में और निखरता रूप।
कभी न रुकते साहसी, छाया हो या धूप।।
छाया हो या धूप, बहुत सी बाधा आयें।
कभी न बनें अधीर, नहीं मन में घबरायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, दुखों से कभी न रोना।
निखरे सहकर कष्ट, आदमी हो या सोना।।

-पृष्ठ 15

देखिए जीवन के अनुभव और परम्परागत सच्चाई को उन्होंने ‘शाश्वत’ में बड़ी कलात्मकता और जीवन्तता के साथ प्रस्तुत किया है। ‘शाश्वत’ अर्थात् जो हमेशा ही जीवन्त है, सत्य है, वही शाश्वत् है। वस्तुतः ‘शाश्वत्’ में ऐसे ही अनुभवों को प्रस्तुत करते हुए कवि ने ‘शाश्वत’ खण्ड को शाश्वत बना दिया है। इसी प्रकार हिन्दी, गंगा, होली, राखी, सावन के अन्तर्गत इन्हीं विषयों पर अपनी अनुभूतियों को उन्होंने कुण्डलिया छंद में प्रस्तुत किया है। जिनका भाव सौन्दर्य देखते ही बनता है।

‘काव्यगंधा’ में कुल 180 कुण्डलिया छंद हैं जो विविध भावों और युगीन विसंगतियों को सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। मेरा विचार तो यह है कि कवि को इसे उपशीर्षकों में निबद्ध नहीं करना चाहिए क्योंकि यह कार्य तो शोधार्थी का है कि वह यह देखे कि रचनाकार ने अपनी काव्यकृति में किन-किन अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान की है। कवि तो कवि है, वह घेरे में कभी नहीं बंधता। वह जहाँ जाता है और जो देखता है, भोगता है, उसी की भाव-सुन्दरता को विविध आयामों में अभिव्यक्ति प्रदान करता है। महत्त्व उसकी दृष्टि का है, पारखी नज़रों का है। तभी तो कहा गया है, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ जाए कवि। अतः विविध भाव-सौन्दर्य का अनूठा संगम है - ‘काव्यगंधा’ ।
भाषा के प्रति उनकी दृष्टि देखें -

भाषा में हो मधुरता, जगत करेगा प्यार।
मीठे शब्दों ने किया, सब पर ही अधिकार।।
सब पर ही अधिकार, कोकिला किसे न भाती।
सब हो जाते मुग्ध, मधुर सुर में जब गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, जगाती मन में आशा।
सहज बनाये काम, मंत्र है मीठी भाषा।।

-पृष्ठ 35

निःस्संदेह भाषा के प्रति उनकी यही दृष्टि और उसकी सटीक प्रस्तुति ‘काव्यगंधा’ की सफलता का सच्चा रहस्य है। ‘काव्यगंधा’ की कोई भी कुण्डलिया ले लीजिए, भाषागत सरलता और सहजता के कारण ‘काव्यगंधा’ का सौन्दर्य सहज परवान चढ़ गया है।

हिन्दी के प्रति कवि ठकुरेला के हृदय में असीम प्यार और सम्मान का भाव है-

हिन्दी को मिलता रहे, प्रभु ऐसा परिवेश।
हिन्दीमय हो एक दिन, अपना प्यारा देश।।
अपना प्यारा देश, जगत की हो यह भाषा।
मिले मान सम्मान, हर तरफ अच्छा खासा।
‘ठकुरेला’ कविराय, यही भाता है जी को।
करे असीमित प्यार, समूचा जग हिन्दी को।।

-पृष्ठ 89

कितना अथाह सम्मान का भाव है ठकुरेला जी में हिन्दी के प्रति। आज जो लोग अंग्रेजी के मोह में फंसकर राष्ट्र और राष्ट्रीयता का अपमान कर रहे हैं, उन्हें ‘काव्यगंधा’ का हिन्दी अनुक्रम दर्पण दिखाता है। ‘हिन्दी’ शीर्षक से प्रस्तुत उनकी कुण्डलिया छंद उनकी अनन्य राष्ट्र भावना के द्योतक हैं।

‘गंगा’ के अन्तर्गत भारतीय संस्कृति के विविध रूप प्रस्तुत हुए हैं। गंगा ही तो भारतीयता की पहचान है, भारत की शान है। गंगा जीवनदायिनी है, मोक्ष कारिणी है, गंगा हमारी अस्मिता है, सच्ची भारतीयता है। गंगा के प्रति कवि की अथाह श्रद्धा, आस्था, विश्वास ‘गंगा’ अनुक्रम के छंदों में अभिव्यक्त हुआ है यथा -

केवल नदिया ही नहीं, और न जल की धार।
गंगा मां है, देवि है, है जीवन आधार।।
है जीवन आधार, सभी को सुख से भरती।
जो भी आता पास, विविध विधि मंगल करती।
‘ठकुरेला’ कविराय, तारता है गंगाजल।
गंगा अमृत राशि, नहीं यह नदिया केवल।।

-पृष्ठ 92

सारतः ‘काव्यगंधा’ अनेकानेक अनुभूतियों का पावन संगम है। इसी प्रकार होली, राखी, सावन आदि शीर्षकों के अन्तर्गत कवि ने जहाँ सीधे व सच्ची प्रस्तुतियां की हैं, वहीं जीवनगत यथार्थ को भी प्रस्तुत करते हुए निरन्तर नयी प्रेरणा, नयी स्फूर्ति और नया मूल्य संस्कार देने का प्रयास कविवर ठकुरेला ने अपनी कलाकृति ‘काव्यगंधा’ में किया है।

वस्तुतः ‘काव्यगंधा’ के इन 180 कुण्डलिया छंदों में असंख्य मनोभावों, विसंगतियों, विशषताओं को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि श्री ठकुरेला ने अपनी भाषागत दक्षता एवं कुण्डलिया छंद की शिल्पगत प्रवीणता के कारण ‘काव्यगंधा’ की प्रस्तुति में चार चाँद लगा दिये हैं। निःस्संदेह वे कुण्डलिया छंद के कुशल एवं सफल शिल्पी हैं। ‘काव्यगंधा’ कुण्डलिया छंद के भाव सौन्दर्य एवं शिल्प सौन्दर्य का अनूठा उपवन है।

-डॉ. महेश ‘दिवाकर’
डी. लिट. (हिन्दी)

वही है बुद्ध
जीत लिया जिसने
जीवन युद्ध ।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला



शाश्वत

अपनी अपनी अहमियत, सूई या तलवार। उपयोगी हैं भूख में, केवल रोटी चार।। केवल रोटी चार, नहीं खा सकते सोना । सूई का कुछ काम, न तलवारों से होना । ‘ठकुरेला’ कविराय, सभी की माला जपनी । बड़ा हो कि लघुरूप, अहमियत सबकी अपनी ।। *** सोना तपता आग में, और निखरता रूप। कभी न रुकते साहसी, छाया हो या धूप।। छाया हो या धूप, बहुत सी बाधा आयें। कभी न बनें अधीर, नहीं मन में घबरायें। ‘ठकुरेला’ कविराय, दुखों से कभी न रोना। निखरे सहकर कष्ट, आदमी हो या सोना।। *** चलते चलते एक दिन, तट पर लगती नाव। मिल जाता है सब उसे, हो जिसके मन चाव।। हो जिसके मन चाव, कोशिशें सफल करातीं। लगे रहो अविराम, सभी निधि दौड़ी आतीं। ‘ठकुरेला’ कविराय, आलसी निज कर मलते। पा लेते गंतव्य, सुधीजन चलते चलते।। *** मानव की कीमत तभी, जब हो ठीक चरित्र। दो कौड़ी का भी नहीं, बिना महक का इत्र।। बिना महक का इत्र, पूछ सद्गुण की होती। किस मतलब का यार, चमक जो खोये मोती। ‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों की ही महिमा सब। गुण, अवगुण अनुसार, असुर, सुर, मुनि-गण, मानव।। *** असली नकली की करे, सदा कसौटी जाँच । मालुम होता सहज ही, हीरा है या काँच ।। हीरा है या काँच, देर तक कभी न छलता । कौन मीत, रिपु कौन, समय पर मालुम चलता । ‘ठकुरेला’ कविराय, कमर जिसने भी कस ली । हुआ बहुत आसान, जानना नकली असली।। *** नहीं समझता मंदमति, समझाओ सौ बार। मूरख से पाला पडे़, चुप रहने में सार।। चुप रहने मे सार, कठिन इनको समझाना। जब भी ले ज़िद ठान, हारता सकल जमाना। ‘ठकुरेला’ कविराय, समय का डंडा बजता । करो कोशिशें लाख, मंदमति नहीं समझता।। *** जो मीठी बातें करें, बनते उनके काम। मीठे मीठे बोल सुन, बनें सहायक वाम।। बनें सहायक वाम, सहज जीवन हो जाता। जायें देश विदेश, सहज में बनता नाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, सुखद दिन, भीनी रातें। पायें सबसे प्यार, करें जो मीठी बातें।। *** जैसा चाहो और से, दो औरों को यार। आवक जावक के जुडे़, आपस मे सब तार।। आपस मे सब तार, गणित इतना ही होता। वैसी पैदावार, बीज जो जैसे बोता। ‘ठकुरेला’ कविराय, नियम इस जग का ऐसा। पाओगे हर बार, यार बाँटोगे जैसा।। *** धन की महिमा अमित है, सभी समेटें अंक। पाकर बौरायें सभी, राजा हो या रंक।। राजा हो या रंक, सभी इस धन पर मरते। धन की खातिर लोग, न जाने क्या क्या करते। ‘ठकुरेला’ कविराय, कामना यह हर जन की। जीवन भर बरसात, रहे उसके घर धन की।। *** मोती बन जीवन जियो, या बन जाओ सीप। जीवन उसका ही भला, जो जीता बन दीप।। जो जीता बन दीप, जगत को जगमग करता। मोती सी मुस्कान, सभी के मन मे भरता। ‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों की पूजा होती।। बनो गुणों की खान, फूल, दीपक या मोती। *** मिलते हैं हर एक को, अवसर सौ सौ बार। चाहे उन्हें भुनाइये, या कर दो बेकार।। या कर दो बेकार, समय को देखो जाते। पर ऐसा कर लोग, फिरें फिर फिर पछताते। ‘ठकुरेला’ कविराय, फूल मेहनत के खिलते। जीवन में बहु बार, सभी को अवसर मिलते।। *** मोती मिलते हैं उसे, जिसकी गहरी पैठ। उसको कुछ मिलना नहीं, रहा किनारे बैठ।। रहा किनारे बैठ, डरा, सहमा, सकुचाया। जिसने किया प्रयास, सदा मनचाहा पाया। ‘ठकुरेला’ कविराय, महत्ता श्रम की होती। की जिसने भी खोज, मिले उसको ही मोती।। *** दुविधा में जीवन कटे, पास न हों यदि दाम। रुपया पैसे से जुटें, घर की चीज तमाम।। घर की चीज तमाम, दाम ही सब कुछ भैया। मेला लगे उदास, न हों यदि पास रुपैया। ‘ठकुरेला’ कविराय, दाम से मिलती सुविधा। बिना दाम के, मीत, जगत में सौ सौ दुविधा।। *** रोना कभी न हो सका, बाधा का उपचार। जो साहस से काम ले, वही उतरता पार।। वही उतरता पार, करो मजबूत इरादा। लगे रहो अविराम, जतन यह सीधा सादा। ‘ठकुरेला’ कविराय, न कुछ भी यूँ ही होना। लगो काम में यार, छोड़कर पल पल रोना।। *** काँटे को कहता रहे, यह जग ऊलजुलूल। पर उसकी उपयोगिता, खूब समझते फूल।। खूब समझते फूल, बाड़ हो काँटे वाली।। तभी खिले उद्यान, फूल की हो रखवाली।। ‘ठकुरेला’ कविराय, यहाँ जो कुदरत बाँटे।। उपयोगी हर चीज, फूल हों या फिर काँटे।। *** मजबूरी में आदमी, करे न क्या क्या काम। वह औरों की चाकरी, करता सुबहो-शाम।। करता सुबहो-शाम, मान, गरिमा निज तजता।। सहे बोल चुपचाप, जमाना खूब गरजता।। ‘ठकुरेला’ कविराय, बनाते अपने दूरी।। जाने बस भगवान, कराये क्या मजबूरी।। *** रूखी सूखी ठीक है, यदि मिलता हो मान। अगर मिले अपमान से, ठीक नहीं पकवान।। ठीक नही पकवान, घूँट विष का है पीना। जब तक जीना, यार, सदा इज्जत से जीना। ‘ठकुरेला’ कविराय, मान की दुनिया भूखी। भली मान के साथ, रोटियाँ रूखी सूखी।। *** पीड़ा के दिन ठीक हैं, यदि दिन हों दो चार। कौन मीत, मालुम पडे़, कौन मतलबी यार।। कौन मतलबी यार, समय पहचान कराता। रहे हितैषी साथ, मतलबी पास न आता। ‘ठकुरेला’ कविराय, उठाकर सच का बीड़ा। हो सब की पहचान, अगर हो कुछ दिन पीड़ा।। *** हँसना सेहत के लिये, अति हितकारी, मीत। कभी न करें मुकाबला, मधु, मेवा, नवनीत।। मधु, मेवा, नवनीत, दूध, दधि, कुछ भी खायें। अवसर हो उपयुक्त, साथियो, हँसें, हँसायें। ‘ठकुरेला’ कविराय, पास हँसमुख के बसना। रखो समय का ध्यान, कभी असमय मत हँसना।। *** मैली चादर ओढ़कर, किसने पाया मान। उजले निखरे रूप का, दुनिया में गुणगान ।। दुनिया मे गुणगान, दाग किसको भाते हैं। दाग-हीन छवि देख, सभी दौडे़ आते हैं। ‘ठकुरेला’ कविराय, यही जीवन की शैली। जीयें दाग-विहीन, फेंक कर चादर मैली।। *** सुखिया वह जो कर सके, निज मन पर अधिकार। सुख दुःख मन के खेल हैं, इतना ही है सार।। इतना ही है सार, खेल मन के हैं सारे। मन जीता तो जीत, हार है मन के हारे। ‘ठकुरेला’ कविराय, बनो निज मन के मुखिया। जो मन को ले जीत, वही बन जाता सुखिया।। *** कर्मों की गति गहन है, कौन पा सका पार। फल मिलते हर एक को, करनी के अनुसार।। करनी के अनुसार, सीख गीता की इतनी। आती सब के हाथ, कमाई जिसकी जितनी। ‘ठकुरेला’ कविराय, सीख यह सब धर्मों की। सदा करो शुभ कर्म, गहन गति है कर्मों की।। *** रोटी रोटी की जगह, अपनी जगह खदान। सोने को मिलता नही, रोटी वाला मान।। रोटी वाला मान, भले मँहगा हो सोना। रोटी का जो काम, न वह सोने से होना। ‘ठकुरेला’ कविराय, बैठती कभी न गोटी। हो सोना बहुमूल्य, किन्तु पहले हो रोटी।। *** उपयोगी हैं साथियो, जग की चीज तमाम। पर यह दीगर बात है, कब किससे हो काम।। कब किससे हो काम, जरूरत जब पड़ जाये। किसका क्या उपयोग, समझ में तब ही आये। ‘ठकुरेला’ कविराय, जानते ज्ञानी, योगी। कुछ भी नहीं असार, जगत में सब उपयोगी।। *** पल पल जीवन जा रहा, कुछ तो कर शुभ काम। जाना हाथ पसार कर, साथ न चले छदाम।। साथ न चले छदाम, दे रहे खुद को धोखा। चित्रगुप्त के पास, कर्म का लेखा जोखा। ‘ठकुरेला’ कविराय, छोड़िये सभी कपट छल। काम करो जी नेक, जा रहा जीवन पल पल।। *** असफलता को देखकर, रोक न देना काम। मंजिल उनको ही मिली, जो चलते अविराम।। जो चलते अविराम, न बाधाओं से डरते। असफलता को देख, जोश दूना मन भरते। ‘ठकुरेला’ कविराय, समय टेड़ा भी टलता। मत बैठो मन मार, अगर आये असफलता।। *** गतिविधियाँ यदि ठीक हों, सब कुछ होगा ठीक।। आ जायेंगे सहज ही, सारे सुख नजदीक।। सारे सुख नजदीक, आचरण की सब माया। रहे आचरण ठीक, निखरते यश, धन, काया। ‘ठकुरेला’ कविराय, सहज मिलती सब निधियाँ। हो सुख की बरसात, ठीक हों यदि गतिविधियाँ।। *** माया को ठगिनी कहे, सारा ही संसार। लेकिन भौतिक जगत में, माया ही है सार।। माया ही है सार, काम सारे बन जाते। माया के अनुसार, बिगड़ते बनते नाते। ‘ठकुरेला’ कविराय, सुखी हो जाती काया। बनें सहायक लाख, अगर घर आये माया।। *** आखें कह देतीं सखे, मन का सारा हाल। चाहे तू स्वीकार कर, या फिर हँसकर टाल।। या फिर हँस कर टाल, देख कर माथा ठनके। आँखों में प्रतिबिम्ब, उतरते रहते मन के। ‘ठकुरेला’ कविराय, सन्तजन ऐसा भाखैं। मन के सारे भाव, बताती रहती आँखें।। *** मानवता ही है सखे, सबसे बढ कर धर्म। जिसमें परहित निहित हो, करना ऐसे कर्म।। करना ऐसे कर्म, सभी सुख मानें मन में। सुख की बहे बयार, सहज सब के जीवन में। ‘ठकुरेला’ कविराय, सभी में आये समता। धरती पर हो स्वर्ग, फले फूले मानवता।। *** वाणी में ही जहर है, वाणी जीवनदान। वाणी के गुण दोष का, सहज नहीं अनुमान।। सहज नहीं अनुमान, कौन सी विपदा लाये। जग में यश, धन, मान, मीत, सुख, राज दिलाये। ‘ठकुरेला’ कविराय, विविध विधि हो कल्याणी। हो विवेक से युक्त, सरल, रसभीनी वाणी।। *** शठता कब पहचानती, विनय-मान-मनुहार। उसको सुख देती रही, परपीड़ा हर बार।। परपीड़ा हर बार, मोद उसके मन भरती। परेशान बहु भाँति, साधुता को वह करती। ‘ठकुरेला’ कविराय, जगत सदियों से रटता। शठ जैसा व्यवहार, सुधारे शठ की शठता।। *** कामी भजे शरीर को, लोभी भजता दाम। पर उसका कल्याण है, जो भज लेता राम।। जो भज लेता राम, दोष निज मन के हरता। सुबह शाम अविराम, काम परहित के करता। ‘ठकुरेला’ कविराय, बनें सच के अनुगामी। सच का बेड़ा पार, तरे अति लोभी, कामी।। *** भूखा हो यदि आदमी, कर लेता है पाप। आग लगे यदि पेट में, कौन करेगा जाप।। कौन करेगा जाप, रहेगा वह मन मारे। वृथा लगे हर बात, न भायें चन्दा तारे। ‘ठकुरेला’ कविराय, भले हो रूखा-सूखा। भरे सभी का पेट, न कोई सोये भूखा।। *** पाया उसने ही सदा, जिसने किया प्रयास। कभी हिरण जाता नहीं, सोते सिंह के पास।। सोते सिंह के पास, राह तकते युग बीते। बैठे ठाले लोग, रहेंगे हरदम रीते। ‘ठकुरेला’ कविराय, समय ने यह समझाया। जिसने किया प्रयास, मधुर फल उसने पाया।। *** आता कभी न समझ में, जीवन गणित विचित्र। जोड़, गुणा, बाकी सभी, अति रहस्यमय, मित्र।। अति रहस्यमय, मित्र, अचम्भित दुनिया सारी। कोशिश हुईं हजार, थके योगी, तपधारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, जानता सिर्फ विधाता। जीवन एक रहस्य, समझ में कभी न आता।। *** जल मे रहकर मगर से, जो भी ठाने बैर। उस अबोध की साथियो, रहे किस तरह खैर।। रहे किस तरह खैर, बिछाये पथ में काँटे। रहे समस्या-ग्रस्त, और दुख खुद को बाँटे। ‘ठकुरेला’ कविराय, बने बिगड़े सब पल में। रखो मगर से प्रीति, अगर रहना है जल में।। *** आ जाते हैं जब कभी, मन में बुरे विचार। उन्हें ज्ञान के खड़्ग से, ज्ञानी लेता मार।। ज्ञानी लेता मार, और अज्ञानी फँसते। बिगड़ें उनके काम, लोग सब उन पर हँसते। ‘ठकुरेला’ कविराय, असर अपना दिखलाते। दुःख की जड़ कुविचार, अगर मन मे आ जाते।। *** होता है मुश्किल वही, जिसे कठिन लें मान। करें अगर अभ्यास तो, सब कुछ है आसान।। सब कुछ है आसान, बहे पत्थर से पानी। कोशिश करता मूढ़, और बन जाता ज्ञानी। ‘ठकुरेला’ कविराय, सहज पढ़ जाता तोता। कुछ भी नही अगम्य, पहँुच में सब कुछ होता।। *** दुनिया मरती रूप पर, गुण देखें दो चार। सुन्दरता करती रही, लोगों पर अधिकार।। लोगों पर अधिकार, फिसल जाता सबका मन। और लुटाते लोग, रूप पर अपना जीवन। ‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों को देखे गुनिया। मन मोहे रंग, रूप, रूप पर मरती दुनिया।। *** भाषा में हो मधुरता, जगत करेगा प्यार। मीठे शब्दों ने किया, सब पर ही अधिकार। सब पर ही अधिकार, कोकिला किसे न भाती। सब हो जाते मुग्ध, मधुर सुर में जब गाती। ‘ठकुरेला’ कविराय, जगाती मन में आशा। सहज बनाये काम, मंत्र है मीठी भाषा।। *** मतलब के इस जगत में, किसे पूछता कौन। सीधे से इस प्रश्न पर, सारा जग है मौन।। सारा जग है मौन, सभी मतलब के साथी। दिखलाने के दाँत, और रखता है हाथी। ‘ठकुरेला’ कविराय, गणित हैं अपने सबके। कौन यहाँ निष्काम, मीत हैं सब मतलब के।। *** सोता जल्दी रात को, जल्दी जागे रोज। उसका मन सुख से भरे, मुख पर छाये ओज। मुख पर छाये ओज, निरोगी बनती काया। भला करे भगवान्, और घर आये माया। ‘ठकुरेला’ कविराय, बहुत से अवगुण खोता। शीघ्र जगे जो नित्य, रात को जल्दी सोता।। *** फीकी लगती जिन्दगी, रंगहीन से चित्र। जब तक मिले न आपको, कोई प्यारा मित्र।। कोई प्यारा मित्र, जिसे हमराज बनायें। हों रसदायक बात, व्यथा सब सुनें, सुनायें। ‘ठकुरेला’ कविराय, व्याधि हर लेता जी की। जब तक मिले न मित्र, जिन्दगी लगती फीकी।। *** भटकाओगे मन अगर, इधर उधर हर ओर। पकड़ न पाओगे सखे, तुम कोई भी छोर।। तुम कोई भी छोर, बीच मँझधार फँसोगे। अपयश मिले अपार, और बेचैनी लोगे। ‘ठकुरेला’ कविराय, हाथ खाली पाओगे। पछताओगे यार, अगर मन भटकाओगे।। *** जब तक ईश्वर की कृपा, तब तक सभी सहाय। होती रहती सहज ही, श्रम से ज्यादा आय।। श्रम से ज्यादा आय, फाड़कर छप्पर मिलता। बाधा रहे न एक, कुसुम सा तन मन खिलता। ‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं रहता कोई डर। सुविधा मिलें तमाम, साथ हो जब तक ईश्वर।। *** सब कुछ पाकर भी जिन्हें, नहीं हुआ संतोष। जीवन के हर कदम पर, दें औरों को दोष।। दें औरों को दोष, लालसा हावी रहती। और और की मांग, विचारों में है बहती। ‘ठकुरेला’ कविराय, लोभ अरि ही है सचमुच। मन में रहे विषाद, भले ही पा लें सब कुछ।। *** पूछे कौन गरीब को, धनिकों की जयकार। धन के माथे पर मुकुट, और गले में हार।। और गले में हार, लुटाती दुनिया मोती। आव भगत हर बार, अगर धन हो तब होती। ‘ठकुरेला’ कविराय, बिना धन नाते छूछे। धन की ही मनुहार, बिना धन जग कब पूछे।। *** सोना चांदी सम्पदा, सबसे बढ़कर प्यार। ढाई आखर प्रेम के, इस जीवन का सार।। इस जीवन का सार, प्रेम से सब मिल जाता। मिलें सभी सुख भोग, मान, यश, मित्र, विधाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, प्रेम जैसा क्या होना। बडा कीमती प्रेम, प्रेम ही सच्चा सोना।। *** जनता उसकी ही हुई, जिसके सिर पर ताज। या फिर उसकी हो सकी, जो हल करता काज।। जो हल करता काज, समय असमय सुधि लेता। सुनता मन की बात, जरूरत पर कुछ देता। ‘ठकुरेला’ कविराय, वही मनमोहन बनता। जिसने बांटा प्यार, हुई उसकी ही जनता।। *** धीरे धीरे समय ही, भर देता है घाव। मंजिल पर जा पहुंचती, डगमग होती नाव।। डगमग होती नाव, अन्ततः मिले किनारा। मन की मिटती पीर, टूटती तम की कारा। ‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के बजें मंजीरे। धीरज रखिये मीत, मिले सब धीरे धीरे।। *** तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़। अगर मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़।। ताकत बनती भीड़, नये इतिहास रचाती। जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती। ‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका। रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका।। *** पछताना रह जायेगा, अगर न पाये चेत। रोना धोना व्यर्थ है, जब खग चुग लें खेत।। जब खग चुग लें खेत, फसल को चैपट कर दें। जीवन में अवसाद, निराशा के स्वर भर दें। ‘ठकुरेला’ कविराय, समय का मोल न जाना। रहते रीते हाथ, उम्र भर का पछताना।। *** कहते आये विद्वजन, यदि मन में हो चाह। पा लेता है आदमी, अँधियारे में राह।। अँधियारे में राह, न रहती कोई बाधा। मिला उसे गंतव्य, लक्ष्य जिसने भी साधा। ‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के झरने बहते। चाह दिखाती राह, गहन अनुभव यह कहते।। *** मानव मानव एक से, उन्हें न समझें भिन्न। ये आपस के भेद ही, मन को करते खिन्न।। मन को करते खिन्न, आपसी प्रेम मिटाते। उग आते विष बीज, दिलों में दूरी लाते। ‘ठकुरेला’ कविराय, बैठता मन में दानव। आते हैं कुविचार, विभाजित हो यदि मानव।। *** आजादी का अर्थ है, सब ही रहें स्वतंत्र। किन्तु बंधे हों सूत्र में, जपें प्रेम का मंत्र।। जपें प्रेम का मंत्र, और का दुख पहचानें। दें औरों को मान, न केवल अपनी तानें। ‘ठकुरेला’ कविराय, बात है सीधी सादी। दे सबको सुख-चैन, वही सच्ची आजादी।। *** बढ़ता जाता जगत में, हर दिन उसका मान। सदा कसौटी पर खरा, रहता जो इन्सान।। रहता जो इन्सान, मोद सबके मन भरता। रखे न मन में लोभ, न अनुचित बातें करता। ‘ठकुरेला’ कविराय, कीर्ति- किरणों पर चढ़ता। बनकर जो निष्काम, पराये हित में बढ़ता।। *** बोता खुद ही आदमी, सुख या दुख के बीज। मान और अपमान का, लटकाता ताबीज।। लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में। स्वर्ग नर्क निर्माण, स्वयं कर लेता घर में। ‘ठकुरेला’ कविराय, न सब कुछ यूं ही होता। बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता।। *** जिनके भी मन में रही, कुछ पाने की चाह। उन्हें चाहिए ध्यान दें, देखें नदी प्रवाह।। देखें नदी प्रवाह, किस तरह अनथक बहती। सागर का सानिध्य, अन्ततः पाकर रहती। ‘ठकुरेला’ कविराय, सहारा बनते तिनके। मिला उन्ही को लक्ष्य, चाह थी मन में जिनके।। *** जैसे सागर में लहर, उठती अपने आप। मानव जीवन में सहज, आते सुख, संताप।। आते सुख, संताप, किन्तु कैसा घबराना। जो आता है आज, नियत कल उसका जाना। ‘ठकुरेला’ कविराय, म्लान मुख ठीक न ऐसे। रखकर मन में धीर, रहो तुम वीरों जैसे।। *** चन्दन चन्दन ही रहा, रहे सुगन्धित अंग। बदल न सके स्वभाव को, मिलकर कई भुजंग।। मिलकर कई भुजंग, प्रभावित कभी न करते। जिनका संत स्वभाव, खुशी औरों में भरते। ‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों का ही अभिनंदन। देकर मधुर सुगन्ध, पूज्य बन जाता चन्दन।। *** कभी न रहते एक से, जीवन के हालात। गिर जाते हैं सूखकर, कोमल चिकने पात।। कोमल चिकने पात, हाय, मिट्टी में मिलते। कलियां बनती फूल, फूल भी सदा न खिलते। ‘ठकुरेला’ कविराय, समय धारा में बहते। पल पल बदलें रूप, एकरस कभी न रहते।। *** ताकत ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात। हाथी को मिलती रही, चींटी से भी मात।। चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते। कभी कभी कुछ तुच्छ, बड़ों के कान काटते। ‘ठकुरेला’ कविराय, हुआ इतना ही अवगत। समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताकत।। *** काशी जाने से कभी, गधा न बनता गाय। ठीक न हो यदि आचरण, हैं सब व्यर्थ उपाय।। हैं सब व्यर्थ उपाय, पात्र जब ठीक न होता। समझो मंद किसान, बीज बंजर में बोता। ‘ठकुरेला’ कविराय, आत्मा जब तक दासी। लौटे खाली हाथ, पहुँचकर मथुरा, काशी।। *** काँटे लाया साथ में, जब भी उगा बबूल। सदा मूर्खों ने दिया, वृथा बात को तूल।। वृथा बात को तूल, सार को कभी न गहते। औरों से दिन रात, अकारण उलझे रहते। ‘ठकुरेला’ कविराय, मूर्ख ने दुख ही बाँटे। बांटी गहरी पीर, चुभे जब जब भी काँटे।। *** आती है तितली तभी, जब खिलते हों फूल। सब चाहें मौसम रहे, उनके ही अनुकूल।। उनके ही अनुकूल, करें मतलब से प्रीती। देव, दनुज, नर, नाग, स्वार्थमय सबकी रीती। ‘ठकुरेला’ कविराय, भलाई अपनी भाती। करती मतलब सिद्ध, पास दुनिया जब आती।। *** अन्यायी राजा मरे, जिये न भोगी संत। ब्याह करे घर त्याग दे, निंदनीय वह कंत।। निंदनीय वह कंत, झूठ यदि मंत्री बोले। कैसा घर परिवार, भेद यदि घर का खोले। ‘ठकुरेला’ कविराय, समझिये आफत आयी। सच न कहें गुरु, वैद्य, बने राजा अन्यायी।। *** अपनों का अपमान कर, पाओगे बस खेद। पता नहीं कब खोल दें, वे ही घर का भेद।। वे ही घर का भेद, जन्म लें सौ आशंका। हुआ विभीषण रुष्ट, जली सोने की लंका। ‘ठकुरेला’ कविराय, महल बिखरे सपनों का। नहीं करें अपमान, भूलकर भी अपनों का।। *** अन्तर्मन को बेधती, शब्दों की तलवार। सहज नहीं है जोड़ना, टूटे मन के तार।। टूटे मन के तार, हृदय आहत हो जाये। होता नहीं निदान, वैद्य धन्वंतरि आये। ‘ठकुरेला’ कविराय, सरसता दो जीवन को। बोलो ऐसे शब्द, रुचें जो अंतर्मन को।। *** खटिया छोड़ें भोर में, पीवें ठण्डा नीर। मनुआ खुशियों से भरे, रहे निरोग शरीर।। रहे निरोग शरीर, वैद्य घर कभी न आये। यदि कर लें व्यायाम, बज्र सा तन बन जाये। ‘ठकुरेला’ कविराय, भली है सुख की टटिया। जल्दी सोयें नित्य, शीघ्र ही छोड़ें खटिया।। *** भाषा कागज़ पर लिखी, सब लेते हैं जान। किन्तु हृदय के पृष्ठ पर, क्या किसको पहचान।। क्या किसको पहचान, छिपा हो क्या क्या मन में। भीतर से कुछ और, और ही कुछ जीवन में। ‘ठकुरेला’ कविराय, किसी मन की अभिलाषा। रहती एक रहस्य, न बनती जब तक भाषा।। *** दासी वाला संत हो, खाँसी वाला चोर। समझो दोनों जा रहे, बर्बादी की ओर।। बर्बादी की ओर, समझिये किस्मत खोटी। हँसी बिगाड़े प्यार, स्वास्थ्य को बासी रोटी। ‘ठकुरेला’ कविराय, हरे उत्साह उदासी। होता बड़ा अनर्थ, अगर मुँहफट हो दासी।। *** काँटा बुरा करील का, बादल वाली धूप। सचिव बुरा यदि मंदमति, बिन पानी का कूप।। बिन पानी का कूप, पुत्र जो कहा न माने। नौकर हो यदि चोर, मित्र मतलब पहचाने। ‘ठकुरेला’ कविराय, समय का असमय चाँटा। रहे कोई भी सँग, चुभे जीवन भर काँटा।। *** घातक खल की मित्रता, जहर पराई नारि। विष से बुझी कटार हो, सिर से ऊपर वारि।। सिर से ऊपर वारि, गाँव से वैर ठना हो। कर लेकर तलवार, सामने शत्रु तना हो। ‘ठकुरेला’ कविराय, अभागा है वह जातक। स्वजन ठान लें वैर, और बन जायें घातक।। *** घोड़ा हो यदि कटखना, कपट भरा हो मित्र। पुत्र चोर, कर्कश त्रिया, हालत बने विचित्र।। हालत बने विचित्र, रहे यदि घर में साला। बाँटे अगर उधार, और हँस माँगे लाला। ‘ठकुरेला’ कविराय, बैल-भैंसा का जोड़ा। देता कष्ट सदैव, अगर अड़ियल हो घोड़ा।। *** अपना अपना सब कहें, जब तक रहता माल। हँसी ठहाकों से भरे, मित्रों की चैपाल।। मित्रों की चैपाल, सभी सुधि लेने आते। बनें ईद का चाँद, सकल धन माया जाते। ‘ठकुरेला’ कविराय, जगत बन जाता सपना। धन के मित्र हजार, बिना धन एक न अपना।। *** पंडित का मन डोलता, जब देखे धन माल। जो धन के ही दास हैं, उनका कैसा हाल।। उनका कैसा हाल, रात-दिन धन पर मरते। हो सम्पदा अपार, पेट तब भी कब भरते। ‘ठकुरेला’ कविराय, भरोसा होता खंडित। धन के लिये सदैव, झगड़ते लड़ते पंडित।। *** नारी की गाथा वही, यह युग हो कि अतीत। सदा दर्द सहती रही, सदा रही भयभीत।। सदा रही भयभीत, द्रोपदी हो या सीता। मिले विविध संत्रास, दुखों में जीवन बीता। ‘ठकुरेला’ कविराय, कहानी कितनी सारी। सहती आयी हाय, सदा से ही दुख नारी।। *** किसने पूछा है उसे, जिसको रहा अभाव। कब जाती उस पार तक, यदि जर्जर हो नाव।। यदि जर्जर हो नाव, बहुत ही दूर किनारा। जब कुछ होता पास, मान देता जग सारा। ‘ठकुरेला’ कविराय, पा लिया वैभव जिसने। सदा उसी की पूछ, उसे ठुकराया किसने।। *** लोभी से कर याचना, किसे मिला कुछ हाय। बड़ा अभागा आदमी, दुहे निठल्ली गाय।। दुहे निठल्ली गाय, शीश पत्थर से मारे। नहीं समझता मूर्ख, जगत समझा कर हारे। ‘ठकुरेला’ कविराय, यत्न करते हों जो भी। सह लेता सौ कष्ट, न कुछ भी देता लोभी।। *** आता हो यदि आपको, बात बात पर ताव। समझो खुद पर छिड़कते, तुम खुद ही तेजाब।। तुम खुद ही तेजाब, जिन्दगी का रस जलता। क्रोध-कढ़ाई मध्य, आदमी खुद को तलता। ‘ठकुरेला’ कविराय, चाँद सुख का छिप जाता। बहुविधि करे अनर्थ, क्रोध जब जब भी आता।। *** करता रहता है समय, सबको ही संकेत। कुछ उसको पहचानते, पर कुछ रहें अचेत।। पर कुछ रहें अचेत, बन्द कर बुद्धि झरोखा। खाते रहते प्रायः, वही पग पग पर धोखा। ‘ठकुरेला’ कविराय, मंदमति हर क्षण डरता। जिसे समय का ज्ञान, वही निज मंगल करता।। *** रीता घट भरता नहीं, यदि उसमें हो छेद। जड़मति रहता जड़ सदा, नित्य पढ़ाओ वेद।। नित्य पढ़ाओ वेद, बुद्धि रहती है कोरी। उबटन करके भैंस, नहीं हो सकती गोरी। ‘ठकुरेला’ कविराय, व्यर्थ ही जीवन बीता। जिसमें नहीं विवेक, रहा वह हर क्षण रीता।। *** थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध। कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध।। करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते। करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते। ‘ठकुरेला’ कविराय, सिखाती सारी पोथी। ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी।। *** रहता जब जब साथ में, काले करता हाथ। अंग जलाता कोयला, पा पावक का साथ।। पा पावक का साथ, हुआ छूने पर घाटा। कभी न रहता ठीक, श्वान का काटा, चाटा। ‘ठकुरेला’ कविराय, जगत युग युग से कहता। अधम मनुज का प्रेम, कभी भी सुखद न रहता।। *** सिखलाता आया हमें, आदिकाल से धर्म। मूल्यवान है आदमी, यदि अच्छे हों कर्म।। यदि अच्छे हों कर्म, न केवल बात बनाये। रखे और का ध्यान, न पशुवत खुद ही खाये। ‘ठकुरेला’ कविराय, मनुजता से हो नाता। है परहित ही धर्म, शास्त्र सबको सिखलाता।। *** जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल। किन्तु प्रबुद्धों ने सदा, कुछ हल लिये निकाल।। कुछ हल लिये निकाल, असर कुछ कम हो जाता। नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, ताप कम होते मन के। खुल जाते हैं द्वार, जगत में नवजीवन के।। *** आ जाते हैं और के, जो गुण हमको रास। वे गुण अपने हो सकें, ऐसा करें प्रयास।। ऐसा करें प्रयास, और गुणवान कहायें। बदलें निज व्यवहार, प्रशंसा सबसे पायें। ‘ठकुरेला’ कविराय, गुणी ही सबको भाते। जग बन जाता मित्र, सहज ही सुख आ जाते।। *** बहता जल के साथ में, सारा ही जग मीत। केवल जीवन बह सका, धारा के विपरीत।। धारा के विपरीत, नाव मंजिल तक जाती। करती है संघर्ष, जिन्दगी हँसती गाती। ‘ठकुरेला’ कविराय, सभी का अनुभव कहता। धारा के विपरीत, सिर्फ जीवन ही बहता।। *** आगे बढ़ता साहसी, हार मिले या हार। नयी ऊर्जा से भरे, बार-बार हर बार।। बार- बार हर बार, विघ्न से कभी न डरता। खाई हो कि पहाड़, न पथ में चिंता करता। ‘ठकुरेला’ कविराय, विजय रथ पर जब चढ़ता। हों बाधायें लाख, साहसी आगे बढ़ता।। *** ताली बजती है तभी, जब मिलते दो हाथ। एक एक ग्यारह बनें, अगर खड़े हों साथ।। अगर खड़े हों साथ, अधिक ही ताकत होती। बनता सुन्दर हार, मिलें जब धागा, मोती। ‘ठकुरेला’ कविराय, सुखी हो जाता माली। खिलते फूल अनेक, खुशी में बजती ताली।। *** बैठा रहता जब कोई, मन में आलस मान। कभी समय की रेत पर, बनते नहीं निशान।। बनते नहीं निशान, व्यक्ति खुद को ही छलता। उसे मिला गंतव्य, लक्ष्य साधे जो चलता। ‘ठकुरेला’ कविराय, युगों का अनुभव कहता। खो देता सर्वस्व, सदा जो बैठा रहता।। *** बीते दिन का क्रय करे, इतना कौन अमीर। कभी न वापस हो सके, धनु से निकले तीर।। धनु से निकले तीर, न खुद तरकश में आते। मुँह से निकले शब्द, नया इतिहास रचाते। ‘ठकुरेला’ कविराय, भले कोई जग जीते। थाम सका है कौन, समय जो पल पल बीते।। *** आती रहती आपदा, जीवन में सौ बार। किन्तु कभी टूटें नहीं, उम्मीदों के तार।। उम्मीदों के तार, नया विश्वास जगायें। करके सतत प्रयास, विजय का ध्वज फहरायें। ‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी तन मन पर छाती। जब बाधायें जीत, सफलता द्वारे आती।। *** यदि हम चाहें सीखना, शिक्षा देती भूल। अर्थवान होती रहीं, कुछ बातें प्रतिकूल।। कुछ बातें प्रतिकूल, रंग जीवन में भरतीं। धारायें विपरीत, बहुत उद्वेलित करतीं। ‘ठकुरेला’ कविराय, सुखद संबन्ध निबाहें। सबसे मिलती सीख, सीखना यदि हम चाहें।। *** चुप रहना ही ठीक है, कभी न भला प्रलाप। काम आपका बोलता, जग में अपने आप।। जग में अपने आप, दूर तक खुशबू जाती। तम हर लेती ज्योति, कभी गुण स्वयं न गाती। ‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं के गुण क्या कहना। करके अच्छे काम, भुला देना, चुप रहना।। *** रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान। बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान।। सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता। जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता। ‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर। हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर।। *** यह जीवन है बांसुरी, खाली खाली मीत। श्रम से इसे संवारिये, बजे मधुर संगीत।। बजे मधुर संगीत, खुशी से सबको भर दे। थिरकें सबके पांव, हृदय को झंकृत कर दे। ‘ठकुरेला’ कविराय, महकने लगता तन मन। श्रम के खिलें प्रसून, मुस्कुराता यह जीवन।। *** तन का आकर्षण रहा, बस यौवन पर्यन्त। मन की सुंदरता भली, कभी न होता अंत।। कभी न होता अंत, सुशोभित जीवन करती। इसकी मोहक गंध, सभी में खुशियाँ भरती। ‘ठकुरेला’ कविराय, मूल्य है सुन्दर मन का। रहता है दिन चार, मित्र आकर्षण तन का।। *** दोष पराये भूलता, वह उत्तम इंसान। याद रखे निज गलतियां, होता वही महान।। होता वही महान, सीख ले जो भूलों से। चुने विजय के फूल, न घबराये शूलों से। ‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं को मुकुर दिखाये। खुद की रखे संभाल, देखकर दोष पराये।। *** चन्दन की मोहक महक, मिटा न सके भुजंग। साधु न छोड़े साधुता, खल बसते हों संग।। खल बसतें हों संग, नहीं अवगुण अपनाता। सुन्दर शील स्वभाव, सदा आदर्श सिखाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों का ही अभिनन्दन। गुण के कारण पूज्य, साधु हो या फिर चन्दन।। *** कस्तूरी की चाह में, वन वन हिरन उदास। मानव सुख को ढूंढता, सुख उसके ही पास।। सुख उसके ही पास, फिरे वह मारा मारा। लौटे खाली हाथ, हार कर मन बन्जारा। ‘ठकुरेला’ कविराय, मिटे जब मन की दूरी। हो जाती उपलब्ध, सहज सुख की कस्तूरी।। *** भातीं सब बातें तभी, जब हो स्वस्थ शरीर। लगे बसन्त सुहावना, सुख से भरे समीर।। सुख से भरे समीर, मेघ मन को हर लेते। कोयल, चातक, मोर, सभी अगणित सुख देते। ‘ठकुरेला’ कविराय, बहारें दौड़ी आतीं। तन मन रहे अस्वस्थ, कौन सी बातें भातीं।। *** मन ललचाता ही रहे, भरे हुए हों कोष। आता है सुख चैन तब, जब आता संतोष।। जब आता संतोष, लालसा ज़रा न रहती। रात दिवस अविराम, सुखों की नदिया बहती। ‘ठकुरेला’ कविराय, तृप्ति संतोषी पाता। कभी न बुझती प्यास, व्यक्ति जब मन ललचाता।। *** जिसने झेली दासता, उसको ही पहचान। कितनी पीड़ा झेलकर, कटते हैं दिनमान।। कटते हैं दिनमान, मान मर्यादा खोकर। कब होते खग मुग्ध, स्वर्ण पिंजरे में सोकर। ‘ठकुरेला’ कविराय, गुलामी चाही किसने। जीवन लगा कलंक, दासता झेली जिसने।। *** लगते ढोल सुहावने, जब बजते हों दूर। चंचल चितवन कामिनी, दूर भली मशहूर।। दूर भली मशहूर, सदा विष भरी कटारी। कभी न रहती ठीक, छली, कपटी की यारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, सन्निकट संकट जगते। विषधर, वननृप, आग, दूर से अच्छे लगते।। *** जीना है अपने लिये, पशु को भी यह भान। परहित में मरता रहा, युग युग से इंसान।। युग युग से इंसान, स्वार्थ को किया तिरोहित। द्रवित करे पर-पीर, पराये सुख पर मोहित। ‘ठकुरेला’ कविराय, गरल परहित में पीना। यह जीवन दिन चार, जगत हित में ही जीना।। *** रहता है संसार में सदा न कुछ अनुकूल। खिलकर कुछ दिन बाग़ में, गिर जाते हैं फूल।। गिर जाते हैं फूल, एक दिन पतझड़ आता। रंग, रूप, रस, गंध, एकरस क्या रह पाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, समय का दरिया बहता। जग परिवर्तनशील, न कुछ स्थाई रहता।। *** चलता राही स्वयं ही, लोग बताते राह। कब होता संसार में, कर्म बिना निर्वाह।। कर्म बिना निर्वाह, न कुछ हो सका अकारण। यह सारा संसार, कर्म का ही निर्धारण। ‘ठकुरेला’ कविराय, कर्म से हर दुख टलता। कर्महीनता मृत्यु, कर्म से जीवन चलता।। *** रिश्ते-नाते, मित्रता, समय, स्वास्थ्य, सम्मान। खोने पर ही हो सका, सही मूल्य का भान।। सही मूल्य का भान, पास रहते कब होता। पिंजरा शोभाहीन, अगर उड़ जाये तोता। ‘ठकुरेला’ कविराय, अल्पमति समझ न पाते। रखते बडा महत्व, मित्रता, रिश्ते-नाते।। *** लोहा होता गर्म जब, तब की जाती चोट। सर्दी में अच्छा लगे, मोटा ऊनी कोट।। मोटा ऊनी कोट, ग्रीष्म में किसको भाया। किया समय से चूक, काम वह काम न आया। ‘ठकुरेला’ कविराय, उचित शब्दों का दोहा। भरता शक्ति असीम, व्यक्ति को करता लोहा।। *** छाया कितनी कीमती, बस उसको ही ज्ञान। जिसने देखें हो कभी, धूप भरे दिनमान।। धूप भरे दिनमान, फिरा हो धूल छानता। दुख सहकर ही व्यक्ति, सुखों का मूल्य जानता। ‘ठकुरेला’ कविराय, बटोही ने समझाया। देती बड़ा सुकून, थके हारे को छाया।। *** मकड़ी से कारीगरी, बगुले से तरकीब। चींटी से श्रम सीखते, इस वसुधा के जीव।। इस वसुधा के जीव, शेर से साहस पाते। कोयल के मृदु बोल, प्रेरणा नयी जगाते। ‘ठकुरेला’ कविराय, भलाई सबने पकड़ी। सबसे मिलती सीख, श्वान, घोड़ा या मकड़ी।। *** निर्मल सौम्य स्वभाव से, बने सहज सम्बन्ध। बरबस खींचे भ्रमर को, पुष्पों की मृदुगंध।। पुष्पों की मृदुगंध, तितलियां उड़कर आतीं। स्वार्थहीन हों बात, उम्र लम्बी तब पातीं। ‘ठकुरेला’ कविराय, मोह लेती नद कल कल। रखतीं अमिट प्रभाव, वृत्तियां जब हों निर्मल।। *** मालिक है सच में वही, जो भोगे, दे दान। धन जोड़े, रक्षा करे, उसको प्रहरी मान।। उसको प्रहरी मान, खर्च कर सके न पाई। हर क्षण धन का लोभ, रात दिन नींद न आई। ‘ठकुरेला’ कविराय, लालसा है चिर-कालिक। मेहनत की दिन रात, बने चिंता के मालिक।। *** मरना है जब एक दिन, फिर भय है किस हेतु। जन्म मरण के बीच में, सांसों का यह सेतु।। सांसों का यह सेतु, टूट जिस दिन भी जाता। निराकर यह जीव, दूसरा ही पथ पाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, मृत्यु से कैसा डरना। देता जीवन दिव्य, परम हितकारी मरना।। *** बलशाली के हाथ में, बल पाते हैं अस्त्र। कायर के संग साथ में, अर्थहीन सब शस्त्र।। अर्थहीन सब शस्त्र, तीर, तलवार, कटारी। बरछी, भाला, तोप, गदा, बन्दूक, दुधारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, बाग का बल ज्यों माली। हथियारों का मान, बढ़ाता है बलशाली।। *** माटी अपने देश की, पुलकित करती गात। मन में खिलते सहज ही, खुशियों के जलजात।। खुशियों के जलजात, सदा ही लगती प्यारी। हों निहारकर धन्य, करें सब कुछ बलिहारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, चली आई परिपाटी। लगी स्वर्ग से श्रेष्ठ, देश की सौंधी माटी।। *** आया कभी न लौटकर, समय गया जो बीत। फिर से दूध न बन सका, मटकी का नवनीत।। मटकी का नवनीत, जतन कर कोई हारे। फिर से चढ़े न शीर्ष, कभी नदिया के धारे। ‘ठकुरेला’ कविराय, सभी ने यह समझाया। समय बड़ा अनमोल, लौटकर कभी न आया।। *** अब तक हुआ न वहम का, कोई भी उपचार। कितने पंडित, मौलवी, ज्ञानी बैठे हार।। ज्ञानी बैठे हार, यत्न कुछ काम न आये। करता बड़ा अनर्थ, वहम जिसको हो जाये। ‘ठकुरेला’ कविराय, जियोगे भ्रम में कब तक। हुए बहुत उत्पात, वहम के कारण अब तक।। *** विषधर चंगुल से गया, पीटी खूब लकीर। किस मतलब का है सखे, चूक गया जो तीर।। चूक गया जो तीर, लक्ष्य को भेद न पाया। सूख गये जब खेत, गरजता सावन आया। ‘ठकुरेला’ कविराय, सभी शुभ लगे समय पर। आता ऐसा काल, पूज्य हो जाता विषधर।। *** जाने पर माने नहीं, माने करे न कर्म। ले जाये गंतव्य तक, उसे कौन सा धर्म।। उसे कौन सा धर्म, सफलता-पथ दिखलाये। जिसको कर्म-महत्त्व, समझ में कभी न आये। ‘ठकुरेला’ कविराय, मंदमति अपनी ताने। फल बनते बस कर्म, कोई कितना भी जाने।। *** सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ा, लिया शिखर को चूम। शून्य रहीं उपलब्धियाँ, उसी बिन्दु पर घूम।। उसी बिन्दु पर घूम, हाथ कुछ लगा न अब तक। बहकाओगे मित्र, स्वयं के मन को कब तक। ‘ठकुरेला’ कविराय, याद रखती हैं पीढ़ी। या तो छू लें शीर्ष, या कि बन जायें सीढ़ी।। *** जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान। विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान।। लगती है आसान, नहीं दुख से घबराता। ढूंढ़े मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं होता विचलित मन। सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन।। *** गीता, वेद, पुराण सब सिखलाते यह बात। जनक सभी का एक है, मिलकर रहिये, तात।। मिलकर रहिये, तात, नेह की झड़ी लगाओ। सारे झगड़े छोड़, गले मिल मिल सुख पाओ। ‘ठकुरेला’ कविराय, प्रेम ने किसे न जीता। सभी सिखाते मेल, वेद, रामायण, गीता।। *** तेरे मन की उपज है, भेदभाव का रोग। सांई के दरबार में, हैं समान सब लोग।। हैं समान सब लोग, न कोई ऊँचा-नीचा। सबका मालिक एक, सभी को उसने सींचा। ‘ठकुरेला’ कविराय, समझ यह आई मेरे। ये आपस के भेद, उपज हैं मन की तेरे।। *** सीता हो राधिका, या फिर कोई और। कभी न रहता एक सा, सदा समय का दौर।। सदा समय का दौर, राम वन मांहि सिधारे। आये आपदकाल, फिरें सब मारे मारे। ‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं होता मनचीता। समय बहुत बलवान, राम हों या फिर सीता।। *** होनी के ही खेल हैं, सुख आये या पीर। यश, अपयश, यौवन-जरा, रूप, कुरूप शरीर।। रूप, कुरूप शरीर, मीत, पितु, माता, भाई। होनी के अनुसार, सकल धन दौलत पाई। ‘ठकुरेला’ कविराय, किसलिए सूरत रोनी। जीवन के सब खेल, कराती रहती होनी।। *** नारी की पूजा जहाँ, वहीं देव का वास। जीवन दायी शक्ति है, नारी के ही पास।। नारी के ही पास, प्रेरणा, प्रेम, करुण-रस। क्षमा, शील, हित, धर्म, विनय, ममता, सुख ये दस। ‘ठकुरेला’ कविराय, सहज निधि आयें सारी। मंगल हो हर भाँति, जहाँ हो पूजित नारी।। *** नींद न आये रात भर, जो भी सहे वियोग। बहुत बुरा इस जगत में, यार, प्रेम का रोग।। यार, प्रेम का रोग, जिस किसी को लग जाता। मिटे भूख और प्यास, न मन को कुछ भी भाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, रोग यह जिसे सताये। रहे खूब बेचैन, रात दिन नींद न आये।। *** अनुशासन पतवार है, जीवन तेज बहाव। मंजिल तक ले जायेगी, तुम्हें समय की नाव।। तुम्हें समय की नाव, नियम से नाता जोड़ो। हों बाधायें खूब, न तुम अनुशासन तोड़ो। ‘ठकुरेला’ कविराय, सँवरता सजता जीवन। उसे सफलता मिली, जिसे भाया अनुशासन।। *** फिर से लौटेगा नहीं, गया समय श्रीमान। जिसे गंवाया आपने, मामूली सा जान।। मामूली सा जान, नहीं कीमत पहचानी। यही ज़रा सी चूक, याद दिलवाये नानी। ‘ठकुरेला’ कविराय, निकलिये महातिमिर से। गया हाथ से वक़्त, नहीं आता है फिर से।। *** मानो या मत मानिये, पर इतना है साँच। नहीं आ सकी जगत में, कभी साँच पर आँच।। कभी साँच पर आँच, जानता सकल जमाना। चलो सत्य की राह, भले हों दुविधा नाना। ‘ठकुरेला’ कविराय, साथियो, इतना जानो। सदा जीतता सत्य, मानिये या मत मानो।। *** रोता रहता आदमी, बनकर धन का दास। यही चाहता हर समय, और अधिक हो पास।। और अधिक हो पास, भले भंडार भरे हों। मोती, माणिक हार, विपुल धन धान्य धरे हों। ‘ठकुरेला’ कविराय, कभी संतुष्ट न होता। कितना भी धन मिले, आदमी फिर भी रोता।। *** मीठी बोली बोलकर, कोयल पाये मान । काँव काँव कागा करे, कोसे सकल जहान ।। कोसे सकल जहान, कटु बचन किसको भाते । मृदुभाषी के पास, सभी सुख दौडे़ आते । ‘ठकुरेला’ कविराय, सहज बनते हमजोली । बन जाते सब काम, बहुत शुभ मीठी बोली ।। *** रोता हो रणभूमि में, निंदनीय वह वीर । नहीं स्वास्थ्य हित में भला, यदि ठहरा हो नीर ।। यदि ठहरा हो नीर, रूपसी बाहर सोये । सूखें हों जब खेत, कृषक बीजों को बोये । ‘ठकुरेला’ कविराय, संत कुनबे को ढोता । ले समर्थ से बैर, अज्ञ जीवन भर रोता ।। *** दानी होना ठीक है, पर इतना लो जान। देना सदा सुपात्र को, यदि देना हो दान।। यदि देना हो दान, रहे याचक अविकारी। पाकर दान न बनें, निठल्ले और भिखारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, मिले प्यासे को पानी। कर ले सोच विचार, दान दे जब भी दानी।। *** समझाता हर विज्ञ ही, मानवता का मर्म । एक सूत्र में बांधता, दुनिया का हर धर्म ।। दुनिया का हर धर्म, मिटाता कौमी दंगा । सब के लिये समान, बहाता सुख की गंगा । ‘ठकुरेला’ कविराय, भेद कुछ समझ न आता । सबका मालिक एक, धर्म इतना समझाता ।। *** मन में खिलें प्रसून जब, आ जाता मधुमास । सुख की मोहक तितलियाँ, उड़ने लगती पास ।। उड़ने लगती पास, महक जीवन में छाती । घिर आते सुख-मेघ, देह कुंदन बन जाती । ‘ठकुरेला’ कविराय, रंग भरते जीवन में । आती नई बहार, हर्ष जब छाये मन में ।। *** घड़ियाली आँसू नहीं, रखते कभी महत्व । अर्थवान है, बस वही, जिसमें हो कुछ तत्व ।। जिसमें हो कुछ तत्व, अर्थ हो, भाव भरे हों । हो निश्छल संवाद, स्वार्थ की बात परे हों । ‘ठकुरेला’ कविराय, व्यर्थ हैं बातें खाली । बुनते हैं भ्रम-जाल, मित्र, आँसू घड़ियाली ।। *** ममता की मंदाकिनी, बहती माँ के पास । होता माँ के साथ में, सुख का ही अहसास । सुख का ही अहसास, विघ्न छू-मंतर होते । माँ के मीठे बोल, बीज सुख के ही बोते । ‘ठकुरेला’ कविराय, किसी से हुई न समता । जग में रही अमूल्य, सदा ही माँ की ममता ।। *** सोना कीचड़ में पड़ा, नहीं छोड़ता बुद्ध। गुण ग्राहक करता नहीं, अपना पथ अवरुद्ध।। अपना पथ अवरुद्ध, जहाँ कुछ उत्तम पाता। विद्या, कला, विचार, सहज संग में ले आता। ‘ठकुरेला’ कविराय, मूल्य कम कभी न होना। भले बुरे हों ठौर, किन्तु सोना है सोना।। *** नारी का सौन्दर्य है, उसका सबल चरित्र । आभूषण का अर्थ क्या, अर्थहीन है इ़त्र । अर्थहीन है इत्र, चन्द्रमा भी शरमाता । मुखमण्डल पर तेज, सूर्य सा शोभा पाता । ‘ठकुरेला’ कविराय, पूछती दुनिया सारी । पाती मान सदैव, गुणों से पूरित नारी ।। *** दुनिया में हर व्यक्ति का, अपना अपना ढंग । कोई खुशियाँ बाँटता, कोई करता तंग ।। कोई करता तंग, साथ जब जब भी चलता । बुनता रहता जाल, देखकर मौका छलता । ‘ठकुरेला’ कविराय, सँभलकर चलता गुनिया । सबको रूप अनेक, दिखाती रहती दुनिया ।। *** अपना लगता है जगत, यदि हो हमें लगाव। प्रति उत्तर में जग हमें, देने लगता भाव। देने लगता भाव, और मिट जाती दुविधा। स्वागत को तैयार, मिले पग पग पर सुविधा। ‘ठकुरेला’ कविराय, फलित हो सुख का सपना। सभी करेंगे प्यार, बनाकर देखो अपना।। *** जीवन भर परहित करे, दिन हो या हो रात। उसके जीवन में रहे, सुख की ही बरसात। सुख की ही बरसात, कमी कुछ उसे न होती। करते सब आतिथ्य, प्यार के मिलते मोती। ‘ठकुरेला’ कविराय, प्रफुल्लित रहता है मन। मिट जाते सब द्वन्द, सफल हो जाता जीवन।। *** जीवन है बोझिल वहाँ, जहाँ न सच्चा प्यार। ज़्यादा दिन टिकता नहीं, बनावटी व्यवहार। बनावटी व्यवहार, सहज मालुम हो जाता। छल प्रपंच से व्यक्ति, दीर्ध सम्बन्ध न पाता। ‘ठकुरेला’ कविराय, रिक्त ही रहा कुटिल मन। जहाँ दिलों में प्यार, महकता गाता जीवन।। *** अपनाये जब आदमी, जीवन में छल छंद। हो जाते हैं एक दिन, सब दरवाजे बंद।। सब दरवाजे बंद, घुटन से जीवन भरता। रहता नित्य सशंक, और पग पग पर डरता। ‘ठकुरेला’ कविराय, व्यर्थ ही जीवन जाये। खो देता सुख चैन, व्यक्ति जो छल अपनाये।। *** तिनका तिनका कीमती , चिड़िया को पहचान। नीड़ बने तिनका अगर, बढ़ जाता है मान।। बढ़ जाता है मान, और शोभा बढ़ जाती। होता नव उत्कर्ष, जिंदगी हँसती गाती। ‘ठकुरेला’ कविराय, सार्थक है श्रम जिनका। पा उनका सानिध्य, कीमती बनता तिनका।। *** परछाई सी कर्म-गति, हर पल रहती साथ। जीव बैल की नाक सा, कर्म नाक की नाथ।। कर्म नाक की नाथ, नियंत्रण अपना रखता। जैसा करता कर्म, व्यक्ति वैसा फल चखता। ‘ठकुरेला’ कविराय, शास्त्र बतलाते, भाई। बन जाती प्रारब्ध, कर्म की यह परछाई।। *** अनुभव समझाता यही, जीवन है संघर्ष। दस्तक देता दुख कभी, कभी छलकता हर्ष।। कभी छलकता हर्ष, कभी चुभ जाता काँटा। करता रहता तंग, समय का असमय चाँटा। ‘ठकुरेला’ कविराय, गणित इस जग का बेढब। होते रहते नित्य, ज़िन्दगी को नव अनुभव।। *** मिलती है मन को खुशी, जब हों दूर विकार। नहीं रखा हो शीश पर, चिन्ताओं का भार।। चिन्ताओं का भार, द्वेष का भाव नहीं हो। जगत लगे परिवार, आदमी भले कहीं हो। ‘ठकुरेला’ कविराय, सुखों की बगिया खिलती। खुशी बाँटकर, मित्र, खुशी बदले में मिलती।।

हिन्दी

हिन्दी भाषा अति सरल, फिर भी अधिक समर्थ। मन मोहे शब्दावली, भाव, भंगिमा, अर्थ।। भाव, भंगिमा, अर्थ, सरल है लिखना, पढ़ना। अलंकार, रस, छंद, और शब्दों का गढ़ना। ‘ठकुरेला’ कविराय, सुशोभित जैसे बिंदी। हर प्रकार सम्पन्न, हमारी भाषा हिन्दी।। *** हिन्दी को मिलता रहे, प्रभु ऐसा परिवेश। हिन्दीमय को एक दिन, अपना प्यारा देश।। अपना प्यारा देश, जगत की हो यह भाषा। मिले मान-सम्मान, हर तरफ अच्छा-खासा। ‘ठकुरेला’ कविराय, यही भाता है जी को। करे असीमित प्यार, समूचा जग हिन्दी को।। *** अभिलाषा मन में यही, हिन्दी हो सिरमौर। पहले सब हिन्दी पढ़ें, फिर भाषाएँ और।। फिर भाषाएँ और, बजे हिन्दी का डंका। रूस, चीन, जापान, कनाडा हो या लंका। ‘ठकुरेला’ कविराय, लिखें नित नव परिभाषा। हिन्दी हो सिरमौर, यही अपनी अभिलाषा।। *** अपनी भाषा हो, सखे, भारत की पहचान। अपनी भाषा से सदा, बढ़ता अपना मान।। बढ़ता अपना मान, सहज संवाद कराती। मिटते कई विभेद, एकता का गुण लाती। ‘ठकुरेला’ कविराय, यही जन जन की आशा। फूले फले सदैव, हमारी हिन्दी भाषा।।

गंगा

गंगा-जल है औषधी, हरता मन की पीर। गंगा में स्नान कर, बने निरोग शरीर। बने निरोग शरीर, पाप सारे मिट जाते। जिनको भी विश्वास, मुरादें मन की पाते। ‘ठकुरेला’ कविराय, करे सबका मन चंगा। दैविक, दैहिक, ताप, सहज हरती माँ गंगा।। *** गंगा जीवनदायिनी, गंगा सुख का मूल। गंगाजल से फसल हैं, हरियाली, फल, फूल।। हरियाली, फल, फूल, उछलता गाता जीवन। खेतों में धन धान्य, और भी अनजाने धन। ‘ठकुरेला’ कविराय, मनुज कितना बेढंगा। करे प्रदूषित नीर, अचंभित देखे गंगा।। *** केवल नदिया ही नहीं, और न जल की धार। गंगा माँ है, देवि है, है जीवन आधार।। है जीवन आधार, सभी को सुख से भरती। जो भी आता पास, विविध विधि मंगल करती। ‘ठकुरेला’ कविराय, तारता है गंगा-जल। गंगा-अमृत-राशि, नहीं यह नदिया केवल।। *** भागीरथ सी लगन हो, हो अनवरत प्रयास। स्वर्ग छोड़कर सहज ही, आती गंगा पास।। आती गंगा पास, मनोरथ पूरे होते। उगते सुख के वृक्ष, बीज जब मन से बोते। ‘ठकुरेला’ कविराय, सुगम हो जाता है पथ। मिली सफलता, कीर्ति, बना जो भी भागीरथ।।

होली

होली है सुखदायिनी, रस बरसे हर ओर। ढोल नगाड़े बज रहे, गली गली में शोर।। गली गली में शोर, छा रही नई जवानी। भूले लोक- लिहाज, कर रहे सब मनमानी। ‘ठकुरेला’ कविराय, मधुरता ऐसी घोली। मन में बजे मृदंग, थिरकती आई होली।। *** होली आई छा गई, मन में नई उमंग। भीतर सुख-बारिश हुई, बाहर बरसे रंग।। बाहर बरसे रंग, झूमते सब नर नारी। हँसी ठिठोली मग्न, मजे लें बारी-बारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, हर तरफ दीखें टोली। मिटे आपसी भेद, एकता लाई होली।। *** गोरी बौरायी फिरे, आया छलिया फाग। मन में हलचल भर गई, यह होली की आग।। यह होली की आग, आपसी बैर भुलाये। भाये रंग, गुलाल, दूसरी चीज न भाये। ‘ठकुरेला’ कविराय, कर रही जोरा जोरी। भूली सारे काम, मगन होली में गोरी।। *** होली आने पर रहा, किसे उम्र का भान। बाल, वृद्ध एवं युवा, सब ही हुए समान।। सब ही हुए समान, उगे आखों में तारे। तोड़े सब तटबन्ध, और बौराये सारे। ‘ठकुरेला’ कविराय, प्यार की बोलें बोली। जो भी आया पास, उसी से हो ली होली।। *** होली है मनमोहिनी, छलकाये मधुजाम। सब के तन, मन में बसा, आकर मन्मथ काम।। आकर मन्मथ काम, खुशी में दुनिया सारी। उड़ने लगे गुलाल, चली बरबस पिचकारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, भांग की खायी गोली। बौराये सब लोग, मोहिनी डाले होली।। *** होली आई, हर तरफ, बिखर गये नवरंग। रोम रोम रसमय हुआ, बजी अनोखी चंग।। बजी अनोखी चंग, हुआ मौसम अलबेला। युवा हुई फिर प्रीति, लगा यादों का मेला। ‘ठकुरेला’ कविराय, हुई गुड़ जैसी बोली। उमड़ पड़ा अपनत्व, प्यार बरसाये होली।।

राखी

राखी के त्यौहार पर, बहे प्यार के रंग। भाई से बहना मिली, मन में लिये उमंग।। मन में लिये उमंग, सकल जगती हरषाई। राखी बांधी हाथ, खुश हुए बहना भाई। ‘ठकुरेला’ कविराय, रही सदियों से साखी। प्यार, मान-सम्मान, बढ़ाती आई राखी।। *** कच्चे धागों में छिपी, ताकत अमित, अपार। अपनापन सुदृढ़ करें, राखी के ये तार।। राखी के ये तार, प्रेम का भाव जगाते। पा राखी का प्यार, लोग बलिहारी जाते। ‘ठकुरेला’ कविराय, बहुत से किस्से सच्चे। जीवन में आदर्श, जगाते धागे कच्चे।। *** रेशम डोरी ही नहीं, यह अमूल्य उपहार। धागे-धागे में भरा, प्यार और अधिकार।। प्यार और अधिकार, हमारी परम्पराएँ। प्राणों का बलिदान, प्रेम की अमर कथाएँ। ‘ठकुरेला’ कविराय, न इसकी महिमा थोरी। प्रस्तुत हो आदर्श, बंधे जब रेशम डोरी।। *** रक्षाबंधन आ गया, दूर देश है वीर। राखी के इस पर्व पर, बहना हुई अधीर।। बहना हुई अधीर, अचानक नयना बरसे। उठी हृदय में हूक, चले यादों के फरसे। ‘ठकुरेला’ कविराय, बुझ गया खिला खिला मन। भाई बसा विदेश, देश में रक्षाबंधन।।

सावन

सावन बरसा जोर से, प्रमुदित हुआ किसान। लगा रोपने खेत में, आशाओं के धान।। आशाओं के धान, मधुर स्वर कोयल बोले। लिये प्रेम-संदेश, मेघ सावन के डोले। ‘ठकुरेला’ कविराय, लगा सबको मनभावन। मन में भरे उमंग, झूमता गाता सावन।। *** सावन का रुख देखकर, दादुर ने ली तान। धरती दुल्हन सी सजी, पहन हरित परिधान।। पहन हरित परिधान, मोर ने नृत्य दिखाया। गूँजे सुमधुर गीत, खुशी का मौसम आया। ‘ठकुरेला’ कविराय, मास है यह अति पावन। कितने व्रत, त्यौहार, साथ में लाया सावन।। *** जल की बूँदों ने दिया, सुखदायक संगीत। विरही चातक गा उठा, विरह भरे कुछ गीत।। विरह भरे कुछ गीत, नायिका को सुधि आई। चला गया परदेश, हाय, प्रियतम हरजाई। ‘ठकुरेला’ कविराय, आस है मन में कल की। सिहर उठे जलजात, पड़ीं जब बूँदें जल की।। *** छाई सावन की घटा, रिमझिम पड़े फुहार। गाँव गाँव झूला पड़े, गूँजे मंगल चार।। गूँजे मंगलचार, खुशी तन मन में छाई। गरजें खुश हो मेघ, बही मादक पुरवाई। ‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी की वर्षा आई। हरित खेत, वन, बाग, हर तरफ सुषमा छाई।।

विविध

करता है श्रम रात दिन, कृषक उगाता अन्न। रूखा-सूखा जो मिले, रहता सदा प्रसन्न।। रहता सदा प्रसन्न, धूप, वर्षा भी सहकर। सींचे फसल किसान, ठंड, पानी में रहकर। ‘ठकुरेला’ कविराय, उदर इस जग का भरता। कृषक देव जीवन्त, सभी का पालन करता।। *** देता जीवन राम का, सबको यह संदेश। मूल्यवान है स्वर्ग से, अपना प्यारा देश।। अपना प्यारा देश, देश के वासी प्यारे। रखें न कोई भेद, एक हैं मानव सारे। ‘ठकुरेला’ कविराय, न कुछ बदले में लेता। होता देश महान, बहुत कुछ सबको देता।। *** चाबुक लेकर हाथ में, हुई तुरंग सवार। कैसे झेले आदमी, मँहगाई की मार।। मँहगाई की मार, हर तरफ आग लगाये। स्वप्न हुए सब खाक, किधर दुखियारा जाये। ‘ठकुरेला’ कविराय, त्रास देती है रुक रुक। मँहगाई उद्दंड, लगाये सब में चाबुक।। *** मँहगाई ने कर दिया, मँहगा सब सामान। तेल, चना, गुड़, बाजरा, गेहूँ, मकई, धान।। गेहूँ, मकई, धान, दाल, आटा, तरकारी। कपड़ा और मकान, सभी की कीमत भारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, डर रहे लोग लुगाई। खड़ी हुई मुँह फाड़, बनी सुरसा मँहगाई।। *** लाठी हो यदि हाथ में, तो यह समझें आप। दूर रहेंगे आप से, कितने ही संताप।। कितने ही संताप आपदा जायें घर से। औरों की क्या बात, भूत भी भागें डर से। ‘ठकुरेला’ कविराय, गजब इसकी कद काठी। झुक जाये बलवान, सामने हो जब लाठी।। *** आता है उस काव्य में, मुझे अमित आनन्द। जिसमें हो लय, गेयता, अर्थ, सरसता, छंद।। अर्थ, सरसता, छंद, अलंकृत शब्द ढले हों। कर दे मन को मुग्ध, काव्य में भाव भले हों। ‘ठकुरेला’ कविराय, सहज मन पर छा जाता। पढ़कर सद्साहित्य, ओज जीवन में आता।।

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