अपने खेत में : नागार्जुन

Apne Khet Mein : Nagarjun

अपने खेत में

जनवरी का प्रथम सप्ताह
खुशग़वार दुपहरी धूप में...
इत्मीनान से बैठा हूँ.....

अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो
अंकुर कैसे निकलेंगे !

जाहिर है
बाजारू बीजों की
निर्मम छटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और
सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही
चौकसी बरतनी है
मकबूल फ़िदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी !
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो ! बिलकुल !!
सामने, मकान मालिक की
बीवी और उसकी छोरियाँ
इशारे से इजा़ज़त माँग रही हैं
हमारे इस छत पर आना चाहती हैं
ना, बाबा ना !

अभी हम हल चला रहे हैं
आज ढाई बजे तक हमें
बुआई करनी है....

(2.1.96)

शनीचर भगवान

आज शनीचर है
महीने की दूसरी तारीख
पुल के उस पार
कश्मीरी गेट के इर्द-गिर्द
फैली हुई गलियों में
सुबह से आठ बजे शाम तक
किस्म-किस्म की चीज-वस्तु
आपको मिलेगी....

और, पुल के इस पार
आते ही आप
शनीचर भगवान का दर्शन पाते हो....
लोहे की काली परात में
तेल भरा है
उसमें ढेर सारे सिक्के
चमक रहे हैं
दस पैसे, पाँच पैसे, पच्चीस पैसे
पचास पैसे.....

निकट ही पतली लकड़ी में
टँगा एक दफ्ती वाला जुमला....
-‘सावधान, साहब !
आप जियादा चढ़ावा
हर्गिज ना चढ़ाना...
शनी महाराज सराप देंगे...’
शनीचर भगवान के
पुजारी की ऐसी वार्निंग !

आप मिनट भर के लिए रुकते हो
कोट की पाकिट टटोलते हो
सिक्का तो नहीं है !
लेकिन, पास ही पान-बीड़ी वाला
आपकी मदद करता है,
....दस-पैसे, पच्चीस पैसे, पचास पैसे का
सिक्का आपके हवाले करता है...
आप सिगरेट का पैकेट लेकर
शनीचर भगवान को प्रणाम करते हो
पचास पैसे तेल भरे
परात में छोड़ते हो !

अगले शनीचर को
आप सौ अठन्नी
शनीचर महाराज को
चढ़ा आते हो !
पचास रुपये !!

आपकी सास
पिछले वर्ष वैश्नो देवी गयी थी
वो फेमिली के
सारे मेम्बरों के लिए
पाँच-पाँच रुपये वाली टिकटें
खरीद के रक्खे हुए है
‘नियम-निष्ठा’ वाली
साठ साला महिला हैं
सो, इस बार आपके
नाम वाली टिकट का
निकल आया नम्बर
25000 मिलेंगे...

आप एक वामपन्थी पार्टी के
मेम्बर रह चुके हो तरुणाई में
और अब हमदर्द-भर हो !
और आप सौ अठन्नी
खुशी-खुशी चढ़ा आते हो !
शनीचर तुम्हारे सर पर नहीं
दिल में आ विराजे हैं
वो शनीचर का पुजारी
आप जैसे ‘भगत’ को
ढूँढ़कर निकालेगा !!

(25.12.95)

प्रीतिभोज

आगरा मेडिकल कालेज की प्राचार्या
परेशान हैं बन्दरों के मारे...
उन्हें रात में नींद नहीं आती
बन्दर किस छात्र या छात्रा को
काट खायेगा, कहा नहीं जा सकता

एक नहीं, दो नहीं
बन्दरों की पूरी बटालियन
इर्द-गिर्द पेड़ों पर हमेशा
जमी रहती है...
लोग हैं कि
हनुमान के वंशजों को
अक्सर ‘प्रीतिभोज’ देते रहते हैं
लड्डुओं से भरा परात
मेडिकल कालेज के अन्दर वाले ‘द्रुमकुंजों’ के बीच
उँड़ेल जाते हैं

महीने के पहले हफ्ते वाले दो-तीन दिनों में
या प्रथम सप्ताह के पहले मंगलवार को
लगता है समूचे उत्तर प्रदेश का
मर्कट-मण्डल लड्डू भोज के लिए
आ जुटता है यहाँ....

उस रोज कोई भी
मेडिकल कालेज के अन्दर वाले परिसर में
दिखाई नहीं पड़ेगा
चार गेट-कीपर हैं
वे भी गेट के बाहर ही
दम साधे बैठे रहते हैं स्टूलों पर
अन्दर कपि समाज का
चलता रहता है प्रीतिभोज
कालेज का सभी काम-काज
बन्द रहता है उस दिन !

(23.12.95)

तेरे दरबार में क्या चलता है ?

तेरे दरबार में
क्या चलता है ?
मराठी-हिन्दी
गुजराती-कन्नड़ ?
ताता गोदरेजवाली
पारसी सेठों की बोली ?
उर्दू—गोआनीज़ ?
अरबी-फारसी....
यहूदियों वाली वो क्या तो
कहलाती है, सो, तू वो भी
भली भाँति समझ लेती
तेरे दरबार में क्या नहीं
समझा जाता है !

मोरी मइया, नादान मैं तो
क्या जानूँ हूँ !
सेठों के लहजे में कहूँ तो—‘‘भूल-चूक लेणी-देणी.....’’

तेरे खास पुजारी
गलत-सलत ही सही
संस्कृत भाषा वाली
विशुद्ध ‘देववाणी’
चलाते होंगे....
मगर मैया तू तो
अंग्रेजी-फ्रेंच-पुर्तगीज
चाइनीज और जापानी
सब कुछ समझ लेती ही है
नेल्सन मंडेला के यहाँ से
लोग-बाग आते ही रहते हैं....

अरे वाह ! देखो मनहर,
अम्बा ने सिर हिला दिया !
जै हो अम्बे !
नौ बरस की लम्बी
सजा दे दी....
चलो, ये भी ठीक रहा !!
देख मनहर भइया
मुस्करा रही है ना !
चल मनहर मइया ने
सिर हिला दिया, देख रे !
अब तो बार-बार
भागा आऊँगा मनहर !

(14.1.95)

चलते-फिरते पहाड़

तुम्हारी आँखें छोटी हैं
दाँत बड़े-बड़े हैं—
बाहर निकले हुए, झक सफेद
डील-डौल भारी है
तुम काले हो
शाकाहारी जीव
लम्बी सूँड़ ही तुम्हारी नाक है
अपनी सूँड़ से
आप कई काम लेते हो
धीर प्रकृति के
ओ चलते-फिरते पहाड़ !
अजी, तुम्हें छोटी-छोटी बातों पर
गुस्सा नहीं आता
कभी आ भी जाए तो
अपने क्रोध पर
तुम्हारा नियन्त्रण जग जाहिर है
तुम्हारा सेवक (महावत) ही
सच्चा सखा होता है तुम्हारा
तुम भुलक्कड़ कतई नहीं हो !

केरल के ‘गुरूवायूर’ देवस्थान के परिसर में
चालीस है तुम्हारी तादाद
सुना है, वहाँ तुम्हारे महानायक की
अर्धांगिनी का प्राणान्त हुआ
तब आपने कई दिनों तक
अन्न-जल त्याग दिया था
तुम्हारा ‘महाशोक’ तब कैसे कम हुआ ?
बतलाओ भी तो जरा !
ओर धीर प्रकृति के चलते-फिरते पहाड़ ?

(18.1.96)

घिन तो नहीं आती है ?

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे, अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढता है?
घिन तो नहीं आती है?

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : नागार्जुन
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)