विनय तथा भक्ति सूर सुखसागर : भक्त सूरदास जी

Vinay Tatha Bhakti Sur Sukhsagar : Bhakt Surdas Ji

राग बिलावल
मंगलाचरण

चरन-कमल बंदौं हरि-राइ ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अँधे को सब कछु दरसाइ ।
बहिरौ सुनै, गूँग पुनि बोलै ,रंक चलै सिर छत्र धराइ ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तिहिं पाइ ॥1॥

राग कान्‍हरो
सगुणोपासना

अबिगत-गति कछु कहत न आवै ।
ज्यौं गूँगै मीठे फल कौ रस अंतरगत हीं भावै ।
परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै ।
मन-बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।
रूप-रेख-गुन-जाति जुगति-बिनु निरालंब कित धावै ।
सब विधि अगम बिचारहिं तातैं सूर सगुन-पद गावै ॥2॥

राग मारु
भक्त-वत्सलता

बासुदेव की बड़ी बड़ाई ।
जगत-पिता, जगदीस, जगत-गुरु, निज भक्तनि-की सहत ढिठाई ।
भृगु कौ चरन राखि उर ऊपर, बोले बचन सकल-सुखदाई ।
सिव-बिरंचि मारन कौं धाए, यह गति काहू देव न पाई ।
बिनु-बदलैं उपकार करत हैं, स्वारथ बिना करत मित्राई ।
रावन अरि कौ अनुज विभीषन, ताकौं मिले भरत की नाई ।
बकी कपट करि मारन आई, सौ हरि जू बैकुंठ पठाई ।
बिनु दीन्हैं ही देत सूर-प्रभु, ऐसे हैं जदुनाथ गुसाईं ॥3॥

राग धनाश्री
प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ ।
अति-गंभीर-उदार-उदधि हरि, जान-सिरोमनि राइ ।
तिनका सौं अपने जनकौ गुन मानत मेरु-समान ।
सकुचि गनत अपराध-समुद्रहिं बूँद-तुल्य भगवान ।
बदन-प्रसन्न कमल सनमुख ह्वै देखत हौं हरि जैसें ।
बिमुख भए अकृपा न निमिषहूँ, फिरि चितयौं तौ तैसें ।
भक्त-बिरह-कातर करुनामय, डोलत पाछैं लागे ।
सूरदास ऐसे स्वामौ कौं देहिं पीठि सो अभागे ॥4॥

राग मारु* ऐसी को करी अरु भक्त लीजै।* जैसी जगदीश जिय धरी लाजै।।* हिरनकस्‍यप बढ़यो उदय अरु अस्‍त लौं, हठी प्रहलाद चित चरन लायौ।* भीर के परे तैं धी सबहिनि तजी, खंभ तैं प्रगट ह्रै जन छुड़ायौ।* ग्रस्‍यौ गज ग्राह लै चल्‍यौ पाताल कौं, काल कैं त्रास मुख नाम आयौ।* छांडि सुख धाम अरु गरुड़ तजि सांवरौ, पवन के गवन तैं अधिक धायौ।* कोपि कौरव गहे केस सभा मैं, पांडु की वधु जस नैंकु गायौ।* लाज के साज मैं हुती ज्‍यौं द्रौपदी, बढ़यौ तन-चीर नहिं अंत पायौ।* रोर कै जोर तैं सोर धरनी कियौ, चल्‍यौ द्विज द्वारिका-द्वार ठाढौ।* जोरि अंजलि मिले, छोरि तंदुल लए, इंद्र के विभव तैं अधिक बाढ़ौ।* सक्र कौ दान-बलि मान ग्‍वारनि लियौ, गह्रौ गिरिपानि, जस जगत छायौ।* यहै जिय जानि कैं अंध भव त्रास तै, सूर कामी कुटिल सरन आयौ ।।5।।** रामभक्तवत्सल निज बानौं ।
जाति, गोत कुल नाम, गनत नहिं, रंक होइ कै रानौं ।
सिव-ब्रह्मादिक कौन जाति प्रभु, हौं अजान नहिं जानौं ।
हमता जहाँ तहाँ प्रभु नाहीं, सो हमता क्यौं मानौं ?
प्रगट खंभ तैं दए दिखाई, जद्यपि कुल कौ दानौ ।
रघुकुल राघव कृष्न सदा ही, गोकुल कीन्हौं थानौ ।
बरनि न जाइ भक्त की महिमा, बारंबार बखानौं ।
ध्रुव रजपूत, बिदुर दासी-सुत कौन कौन अरगानौ ।
जुग जुग बिरद यहै चलि आयौ, भक्तनि हाथ बिकानौ ।
राजसूय मैं चरन पखारे स्याम लिए कर पानौ ।
रसना एक, अनेक स्याम-गुन, कहँ लगि करौं बखानौ !
सूरदास-प्रभु की महिमा अति, साखी बेद पुरानी ॥3॥

काहू के कुल तन न विचारत ।
अबिगत की गति कहि न परति है, व्याध अजामिल तारत ।
कौन जाति अरु पाँति बिदुर की, ताही कैं पग धारत ।
भोजन करत माँगि घर उनकैं, राज मान-मद टारत ।
ऐसे जनम-करम के ओछनि हूँ ब्यौहारत ।
यहै सुभाव सूर के प्रभु कौ, भक्त-बछल-पन पारत ॥4॥

सरन गए को को न उबार्यौ ।
जब जब भीर परी संतनि कौं, चक्र सुदरसन तहाँ सँभार्यौ ।
भयौ प्रसाद जु अंबरीष कौं, दुरबासा को क्रोध निवार्यौ ।
ग्वालिन हेत धर्यौ गोबर्धन, प्रगट इंद्र कौ गर्ब प्रहार्यौ ।
कृपा करी प्रहलाद भक्त पर, खंभ फारि हिरनाकुस मार्यौ ।
नरहरि रूप धर्यौ करुनाकर, छिनक माहिं उर नखनि बिदार्यौ ।
ग्राह ग्रसत गज कौं जल बूड़त, नाम लेत वाकौ दुख टार्यौ ।
सूर स्याम बिनु और करै को, रंग भूमि मैं कंस पछार्यौ ॥5॥

स्याम गरीबनि हूँ के गाहक ।
दीनानाथ हमारे ठाकुर , साँचे प्रीति-निवाहक ।
कहा बिदुर की जाति-पाँति, कुल, प्रेमी-प्रीति के लाहक ।
कह पांडव कैं घर ठकुराई ? अरजुन के रथ-बाहक ।
कहा सुदामा कैं धन हौ ? तौ सत्य-प्रीति के चाहक ।
सूरदास सठ, तातैं हरि भजि आरत के दुख-दाहक ॥6॥

जैसें तुम गज कौ पाउँ छुड़ायौ ।
अपने जन कौं दुखित जानि कै पाउँ पियादे धायौ ।
जहँ जहँ गाढ़ परी भक्तनि कौं, तहँ तहँ आपु जनायौ ।
भक्ति हेतु प्रहलाद उबार्यौ, द्रौपदि-चीर बढ़ायौ ।
प्रीति जानि हरि गए बिदुर कैं, नामदेव-घर छायौ ।
सूरदास द्विज दीन सुदामा, तिहिं दारिद्र नसायौ ॥7॥

जापर दीनानाथ ढरै ।
सोइ कुलीन, बड़ौ सुंदर सोइ, जिहिं पर कृपा करै ।
कौन विभीषन रंक-निसाचर हरि हँसि छत्र धरै ।
राजा कौन बड़ौ रावन तैं, गर्बहिं-गर्ब गरै ।
रंकव कौन सुदामाहूँ तैं आप समान करे ।
अधम कौन है अजामील तें जम तहँ जात डरै ।
कौन विरक्त अधिक नारद तैं, निसि-दिन भ्रमत फिरै ।
जोगी कौन बड़ौ संकर तैं, ताकौं काम छरै ।
अधिक कुरूप कौन कुबिजा तैं, हरि पति पाइ तरै ।
अधिक सुरूप कौन सीता तैं, जनम बियोग भरै ।
यह गति-मति जानै नहिं कोऊ, किहिं रस रसिक ढरै ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु फिरि फिरि जठर जरै ॥8॥

अविद्या-माया

बिनती सुनौ दीन की चित्त दै, कैसें तुव गुन गावै ?
माय नटी लकुटी कर लीन्हें कोटिक नाच नचावै ।
दर-दर लोभ लागि लिये डोलति, नाना स्वाँग बनावै ।
तुम सौं कपट करावति प्रभु जू, मेरी बुधि भरमावै ।
मन अभिलाश-तरंगनि करि करि, मिथ्या विसा जगावै ।
सोवत सपने मैं ज्यौं संपति, त्यौ दिखाइ बौरावै ।
महा मोहनी मोहि आतमा, अपमारगहिं लगावै ।
ज्यौं दूती पर-बधू भोरि कै, लै पर-पुरुष दिखावै ।
मेरे तो तुम पति , तुमहिं गति, तुम समान को पावै ?
सूरदास प्रभु तुम्हरी कृपा बिनु, को मो दुख बिसरावै ॥1॥

हरि, तेरो भजन कियौ न जाइ ।
कह करौं, तेरी प्रबल माया देति मन भरमाइ ।
जबै आवौं साधु-संगति, कछुक मन ठहराइ ।
ज्यौं गयंद अन्हाइ सरिता, बहुरि वहै सुभाइ ।
बेष धरि धरि हर्यौ पर-धन, साधु-साधु कहाइ ।
जैसे नटवा लोभ -कारन करत स्वाँग बनाइ ।
करौं जतन, न भजौं तुमकों, कछुक मन उपजाई ।
सूर प्रभु की सबल माया. देति मोहि भुलाइ ॥2॥

गुरुमहिमा

गुरु बिनु ऐसी कौन करै ?
माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै ।
भवसागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै ।
सूर स्याम गुरु ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरै ॥1॥

नाम महिमा

हमारे निर्धन के धन राम
चोर न लेत, घटत नहिं कबहूँ, आवत गाढ़ैं काम ।
जल नहिं बूड़त अगिनि न दाहत, है ऐसौ हरि नाम ।
बैकुँठनाथ सकल सुख-दाता, सूरदास-सुख-धाम ॥1॥

बड़ी है राम नाम की ओट ।
सरन गऐं प्रभु काढ़ि देत नहिं, करत कृपा कैं कोट ।
बैठत सबै सभा हरि जू की, कौन बड़ौ को छोट ?
सूरदास पारस के परसैं मिटति लोह की खोट ॥2॥

जो सुख होत गुपालहिं गाऐँ ।
सो सुख होत न जप-तप कीन्हैं, कोटिक तीरथ न्हाऐँ ।
दिएँ लेत नहिं चारि पदारथ, चरन-कमल चित लाऐँ ।
तीनि लोक तृन-सम करि लेखत, नंद-नँदन उर आऐं ।
बंसीबट, बृंदावन, जमुना, तजि बैकुँठ न जावै ।
सूरदास हरि कौ सुमिरन करि, बहुरि न भव-जल-आवै ॥3॥

बंदों चरन-सरोज तिहारे ।
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन, ललित त्रिभंगी प्रान पियारे ।
जे पद-पदुम सदा सिव के धन, सिंधु-सुता उर तैं नहिं टारे ।
जे पद-पदुम तात-रिस-त्रासत, मनबच-क्रम प्रहलाद सँभारे ।
जे पद-पदुम-परस-जल-पावन सुरसरि-दरस कटत अब भारे ।
जे पद-पदम-परस रिषि-पतिनी बलि, नृग, व्याध, पतित बहु तारे ।
जे पद-पदुम रमत बृंदावन अहि-सिर धरि, अगनित रिपु मारे ।
जे पद-पदुम परसि ब्रज-भामिनि सरबस दै, सुत-सदन बिसारे ।
जे पद-पदुम रमत पांडव-दल दूत भए, सब काज सँवारे ।
सूरदास तेई पद-पंकज त्रिबिध-ताप-दुख-हरन हमारे ॥4॥

अब कैं राखि लेहु भगवान ।
हौं अनाथ बैठ्यौ द्रुम-डरिया, पारधि साधे बान ।
ताकैं डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान ।
दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान ?
सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान ।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिं, जय जय कृपानिधान ॥5॥

आछौ गात अकारथ गार्यौ ।
करीन प्रीति कमल-लोचन सौं, जनम जुवा ज्यौं हार्यौ ।
निसि दिन विषय-बिलासिन बिलसत, फूट गईं तब चार्यौ ।
अब लाग्यौ पछितान पाइ दुख, दीन दई कौ मार्यौ ।
कामी, कृपन;कुचील, कुडरसन, को न कृपा करि तार्यौ ।
तातैं कहत दयाल देव-मनि, काहैं सूर बिसार्यौ ॥6॥

तुम बिनु भूलोइ भूलौ डोलत ।
लालच लागिकोटि देवन के, फिरत कपाटनि खोलत ।
जब लगि सरबस दीजै उनकौं, तबहिं लगि यह प्रीति ।
फलमाँगत फिरि जात मुकर ह्वै यह देवन की रीति ।
एकनि कौं जिय-बलि दै पूजै, पूजत नैंकु न तूठे ।
तब पहिचानि सबनि कौं छाँड़े नख-सिख लौं सब झूठे ।
कंचन मनि तजि काँचहिं सैंतत, या माया के लीन्हे !
तुम कृतज्ञ, करुनामय, केसव, अखिल लोक के नायक ।
सूरदास हम दृढ़ करि पकरे, अब ये चरन सहायक ॥7॥

आजु हौं एक-एक करि टरिहौं ।
कै तुमहीं, कै हमहीं माधौ, अपने भरोसैं लरिहौं ।
हौं पतित सात पीढ़नि कौ, पतितै ह्वै निस्तरिहौं ।
अब हौं उघरि नच्यौ चाहत हौं, तुम्हैं बिरद बिन करिहौं ।
कत अपनी परतीति नसावत , मैं पायौ हरि हीरा ।
सूर पतित तबहीं उठहै, प्रभु जब हँसि दैहौ बीरा ॥8॥

प्रभु हौं सब पतितन कौ टीकौ ।
और पतित सब दिवस चारि के, हौं तौ जनमत ही कौ ।
बधिक अजामिल गनिका तारी और पूतना ही कौ ।
मोहिं छाँड़ि तुम और उधारे, मिटै सूल क्यौं जी कौ ।
कोऊ न समरथ अघ करिबे कौं, खैंचि कहत हौं लीको ।
मरियत लाज सूर पतितन में, मोहुँ तैं को नीकौ ! ॥9॥

अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल ।
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल ॥
महामोह के नुपूर बाजत, निंदा-सब्द-रसाल ।
भ्रम-भोयौ मन भयौ पखावज, चलत असंगत चाल ।
तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना बिधि दै ताल ।
माया को कटि फेटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल ।
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल ।
सूरदास की सबै अविद्या दूरि करौ नँदलाल ॥10॥

हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ ।
समदरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ ।
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ ।
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ ।
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ।
जब मिलि गए तब एक बरन ह्वै. गंगा नाम परौ ।
तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ ॥
कै इनकौ निरधार कीजियै, कै प्रन जात टरौ ॥11॥

भगवदाश्रम

मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै ।
जैसें उड़ि जहाज को पच्छी; फिरि जहाज पर आवै ।
कलम-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्वावै ॥
परम गंग कौं छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै ।
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यौं करील-फल भावै ।
सूरदास-प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ॥1॥

हमैं नँदनंदन मोल लिये ।
जम के फंद काटि मुकराए, अभय अजाद किये ।
भाल तिलक, स्रबननि तुलसीदल, मेटे अंक बिये ।
मूँड्यौ मूँड़, कंठ बनमाला, मुद्रा चक्र दिये ।
सब कोउ कहत गुलाम स्याम कौ, सुनत सिरात हिये ।
सूरदास कों और बड़ौ सुख, जूठनि खाइ जिये ॥2॥

राखौ पति गिरिवर गिरि-धारी !
अब तौ नाथ, रह्यौ कछु नाहिन, उघरत माथ अनाथ पुकारी ।
बैठी सभा सकल भूपनि की, भीषम-द्रोन-करन व्रतधारी ।
कहि न सकत कोउ बात बदन पर, इन पतितनि मो अपति बिचारी ।
पाँडु-कुमार पवन से डोलत, भीम गदा कर तैं महि डारी ।
रही न पैज प्रबल पारथ की, जब तैं धरम-सुत धरनी हारी ।
अब तौ नाथ न मेरौ कोई, बिनु श्रीनाथ-मुकुंद-मुरारी ।
सूरदास अवसर के चूकैं फिरि पछितैहौ देखि उघारी ॥3॥

भावी

करी गोपाल की सब होइ ।
जो अपनौ पुरुषारथ मानत, अति झूठौ है सोइ ।
साधन, मंत्र, जंत्र, उद्यम, बल, ये सब डारौ धोइ ।
जो कछु लिखि राखी नँदनंदन, मेटि सकै नहिं कोइ ।
दुख-सुख, लाभ-अलाभ समुझि तुम, कतहिं मरत हौ रोइ ।
सूरदास स्वामी करुनामय, स्याम-चरन मन पोइ ॥1॥

होत सो जो रघुनाथ ठटै ।
पचि-पचि रहैं सिद्ध, साधक, मुनि , तऊ न बढ़ै-घटै ।
जोगी जोग धरत मन अपनैं अपनैं सिर पर राखि जटै ।
ध्यान धरत महादेवऽरु ब्रह्मा, तिनहूँ पै न छटै ।
जती, सती, तापस आराधैं, चारौं बेद रटै ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, करम-फाँस न कटै ॥2॥

भावी काहू सौं न टरे ।
कहँ वह राहु, कहाँ वै रवि ससि, आनि सँयोग परै ।
मुनि बसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै ।
तात-मरन, सिय हरन, राम बन-बपुधरि बिपति भरै ।
रावन जीति कोटि तैंतीसौ, त्रिभुवन राज करै ।
मृत्युहिं बाँधि कूप मैं राखै, भावी-बस सो मरै ।
अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै ।
द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै ।
हरीचंद सो को जगदाता, सो घर नीच भरै ।
जौ गृह छाँड़ि देस बहु धावै, तउ सग फिरै ।
भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै ।
सूरदास प्रभु रची सु ह्वै है, को करि सोच मरै ॥3॥

तातैं सेइयै श्री जदुराइ ।
संपति बिपति, बिपतितैं संपति, देह कौ यहै सुभाइ ।
तरुवर फूलै, फरै, पतझरै, अपने कालहिं पाइ ।
सरवर नीर भरै भरि, उमड़ै सूखै खेह उड़ाइ ।
दुतिया चंद बढ़त ही बाढ़े , घटत-घटत घटि जाइ ।
सूरदास संपदा-आपदा, जिनि कोऊ पतिआइ ॥4॥

वैराग्य

किते दिन हरि-सुमिरन बिनु खोए ।
परनिंदा रसना के रस करि, केतिक जनम बिगोए ।
तेल लगाइ कियौ रुचि मर्दन, बस्तर मलि-मलि धोए ।
तिलक बनाई चले स्वामी ह्वै, विषयिनि के मुख जोए ।
काल बली तैं सब जग काँप्यौ, ब्रह्मादिक हूँ रोए ।
सूर अधम की कहौ कौन गति, उदर भरे, परि सोए ॥1॥

नर तैं जनम पाइ कह कीनो ?
उदर भरयौ कूकर सूकर लौं, प्रभु कौ नाम न लीनौ ।
श्री भागवत सुनी नहिं श्रवननि, गुरु गोबिंद नहिं चीनौ ।
भाव-भक्ति कछु हृदय न उपजी, मन विषया मैं दीनौ ।
झूठौ सुभ अपनौ करि जान्यौ, परस प्रिया कैं भीनी ।
अघ कौ मेरु बढ़ाइ अधम तू, अंत भयौ बलहीनौ ।
लख चौरासी जोनि भरमि कै फिरि वाहीं मन दीनौ ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु ज्यौ अंजलि-जल छीनौ ॥2॥

इत-उत देखत जनम गयौ ।
या झूठी माया कैं कारन, दुहुँ दृग अंध भयौ ।
जनम-कष्ट तैं मातु दुखित भई, अति दुख प्रान सह्यो ।
वै त्रिभुवनपति बिसरि गए तोहिं, सुमिरत क्यों न रह्यो ।
श्रीभागवत सुन्यौ नहिं कबहूँ, बीचहिं भटकि मर्यौ ।
सूरदास कहै, सब जग बूड़्यौ, जुग-जुग भक्त तर्यौ ॥3॥

सबै दिन गए विषय के हेत ।
तीनौं पन ऐसौं हीं खोए, केस भए सिर सेत ।
आँखिनि अंध, स्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन समेत ।
गंगा-जल तजि पियत कूप-जल, हरि पूजत प्रेत ।
मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारि पदारथ देत ।
ऐसी प्रभू छाँड़ि क्यों भटकै, अजहूँ चेति अचेत ।
रामनाम बिनु क्यों छूटौगै, कंद गहैं ज्यौं केत ।
सूरदास कछु खरच न लागत , राम नाम मुख लेत ॥4॥

द्वै मैं एकौ तौ न भई ।
ना हरि भज्यौ, न गृह सुख पायौ, बृथा बिहाइ गई ।
ठानी हुती और कछु मन मैं, औरे आनि ठई ।
अबिगत-गति कछु समुझि परत नहिं जो कछु करत दई ।
सुत सनेहि-तिय सकल कुटुँब मिलि, निसि-दिन होत खई ।
पद-नख-चंद चकोर बिमुख मन, खात अँगार मई ।
विषय-विकार-दावानल उपजी, मोह-बयारि लई ।
भ्रमत-भ्रमत बहुतै दुख पायौ, अजहुँ न टेंव गई ।
होत कहा अबके पछिताएँ, बहुत बेर बितई ।
सूरदास सेये न कृपानिधि, जो सुख सकल मई ॥5॥

अब मैं जानी देह बुढ़ानी ।
सीस, पाउँ, कर कह्यौ न मानत, तन की दसा सिरानी ।
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन-नाक बहै पानी ।
मिटि गई चमक-दमक अँग-अँग की, मति अरु दृष्टि हिरानी ।
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जु बात बिरानी ।
सूरदास अब होत बिगूचनि, भजि लै सारँगपानी ॥6॥

मन प्रबोध

सब तजि भजिऐ नंद कुमार ।
और भजै तैं काम सरै नहिं, मिटै न भव जंजार ।
जिहिं जिहिं जोनि जन्म धार्यौ, बहु जोर्यौ अघ कौ भार ।
जिहिं काटन कौं समरथ हरि कौ तीछन नाम-कुठार ।
बेद, पुरान, भागवत, गीता, सब कौ यह मत सार ।
भव समुद्र हरि-पद-नौका बिनु कोउ न उतारै पार ।
यह जिय जानि, इहीं छिन भजि, दिन बीते जात असार ।
सूर पाइ यह समौ लाहु लहि, दुर्लभ फिरि संसार ॥1॥

जा दिन मन पंछी उड़ि जैहै ।
ता दिन तेरे तन-तरुवर के सबै पात झरि जैहैं ।
या देही कौ गरब न करियै, स्यार-काग-गिध खैहैं ।
तीननि में तन कृमि, कै विष्टा, कह्वै खाक उड़ैहै ।
कहँ वह नीर, कहाँ वह सोभा कहँ रँग-रूप दिखैहै ।
जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं ।
घर के कहत सबारे काढ़ौ, भूत होइ धर खैहैं ।
जिन पुत्रनिहिं बहुत प्रतिपाल्यौ, देवी-देव मनैहैं ।
तेई लै खोपरी बाँस दै, सीस फोरि बिखरैहैं !
अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगति, संतनि मैं कछु पैहै ।
नर-बपु धारि नाहिं जन हरि कौं, जम की मार सो खैहै ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु बृथा सु जनम गँवैहै ॥2॥

तिहारौ कृष्न कहत कह जात ?
बिछुरैं मिलन बहुरि कब ह्वै है, ज्यों तरवर के पात ।
सीत-बात-कफ कंठ बिरौधै, रसना टूटै बात ।
प्रान लए जम जात, मूढ़-मति देखत जननी-तात ।
छन इक माहिं कोटि जुग बीतत, नर की केतिक बात ।
यह जग-प्रीति सुवा-सेमर ज्यों, चाखत ही उड़ि जात ।
जमकैं फंद पर्यौ नहिं जब लगि, चरननि किन लपटात ?
कहत सूर बिरथा यह देही, एतौ कत इतरात ॥3॥

मन, तोसों किती कही समुझाइ ।
नंदनँदन के, चरन कमल भजि तजि पाखँड-चतुराइ ।
सुख-संपति, दारा-सुत, हय-गय, छूट सबै समुदाइ ।
छनभंगुर यह सबै स्याम बिनु, अंत नाहिं सँग जाइ ।
जनम-मरत बहुत जुग बीते, अजहुँ लाज न आइ ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु जैहै जनम गँवाइ ॥4॥

धोखैं ही धोखै डहकायौ समुझि न परी,
विषय-रस गीध्यौ; हरि-हीरा घर माँझ गँवायौ ।
ज्यों कुरंग जल देखि अवनि कौ, प्यास न गई चहूँ दिसि धायौ ।
जनम-जनम बह करम किए हैं, तिनमैं आपुन आपु बँधायो ।
ज्यौं सुक सेमर सेव आस लगि, निसि-बासर हठि चित्त लगायौ ।
रीतौ पर्यौ जबै फल चाख्यौ,उड़ि गयौ तूल, ताँवरौ आयौ ।
ज्यौं कपि डोर बाँधि बाजीगर, कन-कन कौं चौहटैं नचायौ ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, काल-व्याल पै आपु डसायौ ॥5॥

भक्ति कबन करिहौ, जनम सिरानौ ।
बालापन खेलतहीं खोयो, तरुनाई गरबानौ ।
बहुत प्रपंच किए माया के, तऊ न अधम अघानौ ।
जतन जतन करि माया जोरी, लै गयौ रंक न रानौ ।
सुत-वित-बनिता-प्रीति लगाई, झूठे भरम भुलानौ ।
लोभ-मोह तें चेत्यौ नाहीं, सुपने ज्यौं डहकानौ ।
बिरध भऐं कफ कंठ बिरौध्यौ, सिर धुनि-धुनि पछितानौ ।
सूरदास भगवंत-भजन-बिनु, जम कैं हाथ बिकानौ ॥6॥

तजौ मन हरि, बिमुखनि कौ संग ।
जिनकैं संग कुमति उपजति है, परत भजन में भंग ।
कहा होत पय पान कराऐँ, विष नहिं तजत भुजंग ।
कागहिं कहा कपूर चुगाऐं, स्वान न्हावाऐं गंग ।
खर कौं कहा अरगजा-लेपन, मरकट भूषन-अंग ।
गज कौं कहा सरित अन्हवाऐं, बहुरि धरै वह ढंग ।
पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतौ करत निषंग ।
सूरदास कारी कामरि पै, चढ़त न दूजी रंग ॥7॥

रे मन मूरख जनम गँवायौ ।
करि अभिमान वुषय-रस गीध्यौ, स्याम-सरन नहिं आयौ ।
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उड़ि हाथ कहिं आयौ ।
कहा होत अब के पछिताऐँ पहिलैं पाप कमायौ ।
कहत सूर भगवंत-भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ ॥8॥

चित्-बुद्धि-संवाद

चकई री, चलि चरन-सरोवर, जहाँ न प्रेम वियोग ।
जहँ भ्रम-निसा होति नहिं कबहूँ, सोइ सायर सुख जोग ।
जहाँ सनक-सिव हंस, मीन मुनि, नख रवि-प्रभा प्रकास ।
प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि-डर, गुंजत निगम सुवास ।
जिहिं सर सभग-मुक्ति-मुक्ताफल, सुकृत-अमृत-रस पीजै ।
सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम,इहाँ कहाँ रहि कीजे ॥
लक्षमी सहित होति नित क्रीड़ा, सोभित सूरजदास ।
अब न सुहात विषय-रस-छीलर,वा समुद्र की आस ॥1॥

सुवा, चलि ता बन कौ रस पीजै ।
जा बन राम-नाम अम्रति-रस, स्रवन पात्र भरि लीजै ।
को तेरौ पुत्र, पिता तू काकौ, धरनी, घर को तेरौ ?
काग सृगाल-स्वान कौ भोजन, तू कहै मेरौ मेरौ !
बन बारानिसि मुक्ति-क्षेत्र है, चलि तोकौ, दिखराऊँ ।
सूरदास साधुनि की संगति, बड़े भाग्य जो पाऊँ ॥2॥

हरिविमुख-निन्दा

अचंभो इन लोगनि कौ आवै ।
छाँड़े स्याम-नाम-अम्रित फल, माया-विष-फल भावै ।
निंदत मूढ़ मलय चंदन कौं राख अंग लपटावै ।
मानसरोवर छाँड़ि हंस तट काग-सरोवर न्हावै ।
पगतर जरत न जानै मूरख, घर तजि घूर बुझावै ।
चौरासी लख स्वाँग धरि, भ्रमि-भ्रमि जमहि हँसावै ।
मृगतृष्ना आचार-जगत जल, ता सँग मन ललचावै ।
कहत जु सूरदास संतनि मिलि हरि जस काहे न गावै ॥1॥

भजन बिनु कूकर-सूकर जैसौ ।
जैसै घर बिलाव के मूसा, रहत विषय-बस वैसौ ।
बग-बगुली अरु गीध-गीधिनी, आइ जनम लियौ तैसी ।
उनहूँ कैं गृह, सुत, दारा हैं, उन्हैं भेद कहु कैसौ ।
जीव मारि कै उदर भरत हैं; तिनकौ लेखी ऐसी ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, मनो ऊँट-वृष-भैसौं ॥2॥

सत्संग-महिमा

जा दिन संत पाहुने आवत ।
तीरथ कोटि सनान करैं फल जैसी दरसन पावत ।
नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै चरन-कमल चित-लावत ।
मन बच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत और सुमिरावत ।
मिथ्या बाद उपाधि-रहित ह्वैं, बिमल-बिमल जस गावत ।
बंधन कर्म जे पहिले, सोऊ काटि बहावत ।
सँगति रहैं साधु की अनुदिन, भव-दुख दूरि नसावत ।
सूरदास संगति करि तिनकी, जे हरि-सुरति कहावत ॥1॥

स्थितप्रज्ञ

हरि-रस तौंऽब जाई कहुँ लहियै ।
गऐं सोच आऐँ नहिं आनँद, ऐसौ मारग गहियै ।
कोमल बचन, दीनता सब सौं, सदा आनँदित रहियै ।
बाद बिवाद हर्ष-आतुरता, इतौ द्वँद जिय सहियै ।
ऐसी जो आवै या मन मैं, तौ सुख कहँ लौं कहियै ।
अष्ट सिद्दि;नवनिधि, सूरज प्रभु, पहुँचै जो कछु चहियै ॥1॥

जौ लौं मन-कामना न छूटै ।
तौ कहा जोग-जज्ञ-व्रत कीन्हैं, बिनु कन तुस कौं कूटै ।
कहा सनान कियैं तीरथ के, अंग भस्म जट जूटै ?
कहा पुरान जु पढ़ैं अठारह, ऊर्ध्व धूम के घूँटे ।
जग सोभा की सकल बड़ाई इनतैं कछू न खूटै ॥2॥

आत्मज्ञान

अपुनपौ आपुन ही बिसर्यौ ।
जैसे स्वान काँच-मंदिर मैं, भ्रमि-भ्रमि भूकि पर्यौ ।
ज्यौं सौरभ मृग-नाभि बसत है, द्रुम तृन सूँधि फिर्यौ ।
ज्यौं सपने मै रंक भूप भयौ, तसकर अरि पकर्यौ ।
ज्यौं केहरि प्रतिबिंब देखि कै, आपन कूप पर्यौ ।
जैसें गज लखि फटिकसिला मैं, दसननि जाइ अर्यौ ।
मर्कट मूठि छाँड़ि नहीं दीनी, घर-घर-द्वार फिर्यौ ।
सूरदास नलिनी कौ सुवटा, कहि कौनैं पकर्यौ ॥1॥

अपुनपौ आपुन ही मैं पायौ ।
सब्दहि सब्द भयौ उजियारो, सतगुरु भेद बतायौ ।
ज्यौं कुरंग-नाभी कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायौ ।
फिरि चितयौ जब चेतन ह्वै करि, अपनैं ही तन छायौ ।
राज-कुमारि कंठ-मनि-भूषन भ्रम भयौ कहूँ गँवायौ ।
दियौ बताइ और सखियनि तब, तनु कौ ताप नसायौ ।
सपने माहिं नारि कौं भ्रम भयौ, बालक कहूँ हिरायौ ।
जागि लख्यौ, ज्यौं कौ त्यौं ही है, ना कहूँ गयौ न आयौ ।
सूरदास समुझे को यह गति, मनहीं मन मुसुकायौ ।
कहि न जाइ या सुख की महिमा, ज्यौं गूँगैं गुर खायौ ॥2॥

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